रमन्ते तत्र देवता / अज्ञेय
अक्टूबर सन् 1946 का कलकत्ता। तब हम लोग दंगे के आदी हो गए थे, अखबार में इक्के-दुक्के खून और लूटपाट की घटनाएं पढ़कर तन नहीं सिहरता था, इतने से यह भी नहीं लगता था कि शहर की शांति भंग हो गई। शहर बहुत से छोटे-छोटे हिन्दुस्तान-पाकिस्तानों में बंट गया था, जिनकी सीमाओं की रक्षा पहरेदार नहीं करते थे, लेकिन जो फिर भी परस्पर अनुल्लंध्य हो गए थे। लोग इसी बंटी हुई जीवन-प्रणाली को लेकर भी अपने दिन काट रहे थे, मान बैठे थे कि जैसे जुकाम होने पर एक नासिका बंद हो जाती है तो दूसरी से श्वांस लिया जाता है- तनिक कष्ट होता है तो क्या हुआ, कोई मर थोड़े ही जाता है? वैसे ही श्वांस की तरह नागरिक जीवन भी बंट गया तो क्या हुआ, एक नासिका ही नहीं, एक फेफड़ा भी बंद हो जा सकता है और उसकी सड़न का विष सारे शरीर में फैलता है और दूसरे फेफड़े को भी आक्रान्त कर लेता है, इतनी दूर तक रूपक को घसीट ले जाने की क्या जरूरत है।
बी च-बीच में इस या उस मुहल्ले में विस्फोट हो जाता था। तब थोड़ी देर के लिए उसके आसपास के मुहल्ले में जीवन स्थगित हो जाता था, व्यवस्था पटकी खा जाती थी और आतंक उसकी छाती पर चढ़ बैठता था। कभी दो-एक दिन के लिए भी गड़बड़ रहती थी, तब बात कानोंकान फैल जाती थी कि 'ओ पाड़ा भालो ना' और दूसरे मुहल्लों में लोग दो-चार दिन के लिए उधर आना-जाना छोड़ देते थे। उसके बाद ढर्रा फिर उभर आता था और गाड़ी चल पड़ती थी।
हठात् एक दिन कई मुहल्लों पर आतंक छा गया। ये वैसे मुहल्ले थे जिनमें हिन्दुस्तान-पाकिस्तानी की सीमाएं नहीं बांधी जा सकती थी क्योंकि प्याज की परतों की तरह एक के अंदर एक जमा हुआ था। इनमें वह होता था कि जब कहीं आसपास कोई गड़बड़ हो, या गड़बड़ की अफवाह हो, तो उसका उद्भव या कारण चाहे हिन्दू सुना जाय चाहे मुसलमान, सब लोग अपने-अपने किवाड़ बंद करके जहां के तहां रह जाते, बाहर गए हुए शाम को घर ना लौटकर बाहर ही कहीं रात काट देते, और दूसरे-तीसरे दिन तक घर के लोग यह न जान पाते कि गया हुआ व्यक्ति इच्छापूर्वक कहीं रह गया है या कहीं रास्ते में मारा गया है। मैं तब बालीगंज की तरफ रहता था। यहां शांति थी और शायद ही कभी भंग होती थी। सो खबरें सब यहां मिल जाती थीं, और कभी-कभी आगामी 'प्रोगामों' का कुछ पूर्वाभास भी। मंत्रणाएं यहां होती थीं, शरणार्थी यहां आते थे, सहानुभूति के इच्छुक आकर अपनी गाथाएं सुनाकर चले जाते थे।
आतंक का दूसरा दिन था। तीसरे पहर घर के सामने बरामदे में आराम कुर्सी पर पड़े-पड़े मैं आने-जाने वालों को देख रहा था। आने-जाने वाले यों भी अध्ययन की श्रेष्ठ सामग्री होते हैं, ऐसे आतंक के समय में तो और भी अधिक। तभी देखा मेरा पड़ोसी ही एक सिख सरदार साहब, अपने साथ तीन-चार और सिखों को लिए हुए घर की तरफ जा रहे है। ये अन्य सिख मैंने पहले इधर नहीं देखे थे- कौतूहल स्वाभाविक था और फिर आज अपने पड़ोसी को लंबी किरपान लगाए देखकर तो और भी अंचम्भा हुआ। सरदार बिशन सिंह सिख तो थे, पर बड़े संकोची, शांतिप्रिय और उदार विचारों के प्रतीक रूप से किरपान रखते रहे हो तो रहे हों, मैंने देखी नहीं थी और ऐसी उद्धत ढंग से कोट के ऊपर कमरबंद के साथ लटकाई हुई तो कभी नहीं।
मैंने कुछ पंजाबी लहजा बनाकर कहां, "सरदार जी, आ किद्धर फौजा चुन्नियां ने"
बिशनसिंह ने व्यस्त आंखों से मेरी ओर देखा। मानो कह रहे हो 'मैं जानता हूं कि तुम्हारे लहजे पर मुस्कुराकर तुम्हारा विनोद स्वीकार करना चाहिए पर देखते तो हो मैं फंसा हूं, स्वयं उन्होंने कहा, फिर हाजिर हो गया।' टोली आगे बढ़ गई।
जो लोग आरामकुर्सियों पर बैठकर आने-जानेवालों को देखा करते है, उन्हें एक तो देखने को बहुत कुछ नहीं मिलता है, दूसरे जो कुछ वे देखते है, उसके साथ उनका लगाव तो जरा भी होता नहीं कि वह मन में जम जाए। मैं भी सरदार बिशनसिंह को भूल-सा गया था जब रात को वे मेरे यहां आए। लेकिन अचंम्भे को दबाकर मैंने कुर्सी दी और कहा, आओ बैठो, बड़ी किरपा कीत्ती।
वे बैठ गए। थोड़ी देर चुप रहे। फिर बोले, अज जी बड़ा दुखी हो गया ए"
"मैंने पंजाबी छोड़कर गंभीर होकर कहा, क्या बात है सरदार जी खैर तो है। हूं दंगा और खून खराबा न हो तो कैसे न हो, जबकि हम रोज नई जगह उसकी जड़ें रोप आते है, फिर उन्हें सींचते है... मुझे तो अचंभा होता है, हमारी कौम बची कैसे रही अब तक।"
उनकी वाणी में दर्द था। मैंने समझा कि वे भूमिका में उसे बहा न लेंगे तो बात न कर पाएंगे, इसलिए चुप सुनता रहा। वे कहते गए, सारे मुसलमान अरब और फ्रांस और तातार से नहीं आए थे। सौ मैं एक होगा जिसको हम आज अरब या फ्रांस के तातार की नस्ल कह सके। और मेरा तो ख्याल है - ख्याल नहीं तजरूबा है कि अरब और ईरानी बड़ा नेक, मिलनसार और अमनपसंद होता है। तातारियों से साबिका नहीं पड़ा। बाकी सारे मुसलमान कौन है? हमारे भाई, हमारे मजलूम जिनका मुंह हम हजारों बरसों से मिट्टी में रंगड़ते आए है। वहीं, आज वही मुंह उठाकर हम पर थूकते है तो हमें बुरा लगता है। पर वे मुसलमान हैं, इसलिए हम खिसियाकर अपने और भाईयों को पकड़कर उनका मुंह मिट्टी में रगड़ते है। और भाईयों को ही क्यों, बहिनों को पैरों के नीचे रौंदते है, और चूं नहीं करने देते क्योंकि चूं करने से धरम नहीं रहता।"
आवेश में सरदार की जुबान लड़खड़ाने लगी थी। वे क्षण-भर चुप हो गए। फिर बोले, "बाबू साहब, आप साोचते होंगे यह सिख होकर मुसलमानों का पच्छ करता है। ठीक है, उनसे किसी का बैर हो सकता है तो हमारा हो। पर आप सोचिए तो, मुसलमान है कौन? मजलूम हिन्दू ही तो मुसलमान हैं। हमने जिससे हिकारते की, वह हमसे नफरत करे तो क्या बुरा करता है- हमारा कर्ज ही तो अदा करता है ना। मैं तो यह भी कहता हूं कि यह ठीक न भी हो, तो भी हम नुक्स निकालने वाले कौन होते है? इंसान को पहले अपना एैब देखना चाहिए, तभी वह दूसरे को कुछ कहने लायक बनता है। आप नहीं मानते।"
मैंने कहा, "ठीक कहते है आप। लेकिन इंसान आखिर इंसान है, देवता नहीं।"
उन्होंने उत्तेजित स्वर में कहा- "देवता। आप कहते है देवता? काश कि वह इंसान भी हो सकता। बल्कि वह खरा हैवान भी होता तो भी कुछ बात थी- हैवान भी अपने नियम-कायदे से चलता है। लेकिन बहस करने नहीं आया, आप आज की बात ही सुन लीजिए।"
मैंने कहा, आप कहिए। मैं सुन रहा हूं?"
"आप जानते हैं कि मेरे घर के पास गुरूद्वारा है। जहां जब तब कुछ लोगों ने पनाह पाई है, और जब-तब मैंने भी वहां पहरा दिया है। यह कोई तारीफ की बात नहीं, गुरूद्वारे की सेवा का भी एक ढर्रा है, पनाह देने की भी रीत चली आई है, इसलिए यह हो गया है। हम लोगों ने इनसानियत की कोई नई ईजाद नहीं की। खैर, कल मैं शाम बाजार से वापस आ रहा था तो देखा, रास्ते में अचानक मिनटों में सन्नाटा छाता जा रहा है। दो-एक ने मुझे भी पुकारकर कहा, घर जाओ, दंगा हो गया है। पर यह न बता पाए कि कहां। ट्राम तो बंद थी ही।"
"धरमतल्ले के पास मैंने देखा, एक औरत अकेली घबराई हुई आगे दौड़ती चली जा रही है, एक हाथ में एक छोटा बंडल है, दूसरे में जोर से एक छोटा मनीबेग दाबे है। रो रही है। देखने से भद्दरलोक की थी। मैंने सोचा, भटक गई है और डरी हुई है, यों भी ऐसे वक्त में अकेली जाना-और फिर बंगालिन का-ठीक नहीं, पूछकर पहुंचा दूं। मैंने पूछा- मां, तुम कहां जाओगी? पहले तो वह और सहमी, फिर देखकर कि मुसलमान नहीं सिख हूं, जरा संभली। मालूम हुआ कि उत्तरी कलकत्ता से उसका खाबिन्द और वह दोनों घरमतल्ले आए थे, तय हुआ था कि, दोनों अलग-अलग सामान खरीदकर के.सी. दास की दुकान पर नियत समय पर मिल जाएंगे और फिर घर जाएंगे। इसी बीच गड़बड़ हो गई, वह सन्नाटे से डरकर घर भागी जा रही है-दास की दुकान पर नहीं गई, रास्ते में चांदनी है जो उसने सदा सुना है कि मुसलमानों का गढ़ है।"
"मैंने उससे कहा कि डरे नहीं, मेरे साथ घरमतल्ले पार कर ले अगर के.सी. दास की दुकान पर उसका आदमी मिल गया तो ठीक, नहीं तो वहां से बालीगंज की ट्राम तो चलती होगी, उसमें जाकर गुरूद्वारे में रात रह जाएगी और सबेरे मैं उसे घर पहुंचा आऊंगा। दिन छिप चला था, बिजली सड़कों पर वैसे ही नहीं है, ऐसे में पांच-छह मील पैदल दंगे का इलाका पार करना ठीक नहीं है। इतना कहकर सरदार बिशनसिंह क्षण-भर रूके, और मेरी ओर देखकर बोले, बताइए, मैंने ठीक कहा है कि गलत? और मैं क्या कर सकता था।"
"ठीक ही तो कहा, और रास्ता ही क्या था?"
"मगर ठीक नहीं कहा। बाद में पता लगा कि मुझे उसे अकेली भटकने देना चाहिए था।"
"क्यों?" मैंने अचकचाकर पूछा।
"सुनिए।" सरदार ने एक लंबी सांस ली, "के०सी० दास की दुकान बंद थी। पतिदेवता का कोई निशाना नहीं था। मैं उस औरत को ट्राम में बिठाकर यहां ले आया। रात वह गुरूद्वारे के ऊपर वाले कमरे में रही। मैं तो अकेला हूं, आप जानते हैं, मेरी बहिन ने उसे वहीं ले जाकर खाना खिलाया और बिस्तरा बगैरा दे आई। सबेरे में मैंने एक सिख ड्राइवर से बात करके टैक्सी की, और ढूंढता हुआ उसके घर ले गया। श्याममुकुर लेन में या- एकदम उत्तर में। दरवाजा बंद था, हमने खटखटाया तो एक सुस्त-से महाशय बाहर निकले-पतिदेवता।"
"आप लोगों को देखते ही उछल पड़े होंगे?"
सरदार क्षण-भर चुप रहे।
"हां, उछल तो पड़े। लेकिन बहू को देखकर तो नहीं, मुझे देखकर। उन्होंने फिर एक लंबी सांस ली। महाशय के.सी. दास घर पर नहीं ठहरे थे, दंगे की खबर हुई तो कहीं एक दोस्त के यहां चले गए थे। रात वहीं रहे थे, हमसे कुछ पहले ही लौटकर आए थे। आंखें भरी थी। दरवाजा खोलकर मुझे देखकर चौंके, फिर मेरे पीछे स्त्री को देखकर तनिक ठिठके और खड़े-खड़े बोले, आप कौन? मैंने कहा, पहले इन्हें भीतर ले जाएं, फिर मैं बतलाता हूं। स्त्री पहले ही सकुची झुकी खड़ी थी, इस बात पर उसने घूघंट जरा आगे सरकाकर अपने को और भी समेट- सा लिया।
बिशनसिंह फिर जरा चुप रहे, मैं भी चुप रहा।
"पति ने फिर पूछा, ये रात आपके यहां रही? मैंने कहा, हां, हमारे गुरूद्वारे में रही। शाम को यहां आना मुमकिन नहीं था। उन्होंने फिर कहा आपके बीबी-बच्चे है। मैंने कहा, नहीं। मेरी विधवा बहिन साथ रहती है। पर इससे आप को क्या?"
"उन्होंने मुझे जवाब नहीं दिया। वहीं से स्त्री की ओर उन्मुख होकर बंगाली में पूछा, तुम रात को क्या जाने कहा रही हो, सबेरे तुम्हें यहां आते शरम न आई। सरदार बिशनसिंह ने रूककर मेरी ओर देखा।"
"मैंने कहा-नीच।"
बिशनसिंह के चेहरे पर दर्द-भरी मुस्कान झझककर खो गई बोलें, क्यों न जाने क्या करता उस आदमी को-और सोचता हूं कि स्त्री भी न जाने क्या जवाब देती। लेकिन औरत ाात का जवाब न देना भी कितना बड़ा जवाब होता है, इसको आजकल का कीड़ा इनसान क्या समझता है? मैंने पीछे धमाका सुनकर मुड़कर देखा, वह औरत गिर गई थी-बेहोश होकर। मैं ंफौरन उठाने को झुका, पर उस आदमी ने ऐसा तमाचा मारा था कि मेरे हाथ ठिठक गए। मैंने उसी से कहा, उठाओ, पानी का छींटा दो... पर वह सरका नहीं, फिर उसकी ढबर-ढबर आंखें छोटी होकर लकीरें-सी बन गई, और एकाएक उसने दरवाजा बन्द कर लिया।
मैं स्तब्ध सुनता रहा। कुछ कहने को न मिला।
"लोग इकट्ठे होने लगे थे। मैं उस स्त्री की बात सोचकर यादा भीड़ करना भी नहीं चाहता था। ड्राइवर की मदद् से मैंने उसे टैक्सी में रखा और घर ले आया। बहिन को उसकी देखभाल करने को कहके बाबा बचित्तर सिंह के पास गया- वे हमारे बुजुर्ग हैं और गुरूद्वारे के ट्रस्टी वहीं हम लोगों ने मीटिंग करके सलाह की कि क्या किया जाए। कुछ का तो राय थी कि उस आदमी को कत्ल कर देना चाहिए। पर उससे उसकी विधवा का मसला तो हल न होता। फिर यही सोचा गया कि पांच सरदारों का जत्था गुरूद्वारे की तरंफ से उस औरत को उसके घर लेकर जाए और उसके आदमी से कहे कि या तो इसको अपनाकर घर में रखो या हम समझेंगे कि तुमने गुरूद्वारे की बेइाती की है और तुम्हें काट डालेंगे।"
"आप शायद कल तीसरे पहर वहीं से लौट रहे होंगे..."
"हां। नहीं तो आप जानते हैं मैं वैसे किरपान नहीं बांधता। एक ामाने में जिन वजूहात से गुरूओं ने किरपान बांधना धर्म बताया था, आज उनके लिए राइंफल से कम कोई क्या बांधेगा? निरी निशानी का मोह अपनी बुजदिलों को छिपाने का तरीका बन जाता है, और क्या ंखैर, हम लोग औरत को लेकर गए। हमें देखते ही पहले तो और भी कइ्र लोग जुट गए, पर जत्थे को देखकर शायद पति देवता को अकल आ गई, उन्होंने हमसे कहा, अच्छा ठीक है, आप लोगों की मेहरबानी, और औरत से कहा, चल भीतर चल बस । हमें आने या बैठने को नहीं कहा...हम बैठते तो क्या उस कमीने के घर में ..."
"औरत भीतर चली गई? कुछ बोली नहीं?"
"बोलती क्या? जब से होश आया तब से बोली नहीं थी। उसकी आंखे न जाने कैसी हो गई थी, उसमें झांककर भी कोई जैसे कुछ नहीं देखता था, सिर्फ एक दीवार। मुझसे तो उनके पास नहीं ठहरा जाता था। वह चुप-चाप खड़ी रही। जब हम लोगों ने कहा, आओ मां, घर में जाओ अब... तब जैसे मशीन-सी दो-तीन कदम आगे बढ़ी। पति के फैलते-सिकुड़ते नयनों की ओर उसने देखा, एक-एक पर जैसे और झुकती और छोटी होती जाती थी। देहरी तक ही तक ही गई, फिर वहीं लड़खड़ाकर बैठ गई। मैं तो समझा था फिर गिरी, पर बैठते-बैठते उसका सिर चौखट से टकराया तो चोट से वह संभल गई। बैठ गई। उसे वैसे ही छोड़कर हम चले आए।
हम दोनों देर तक चुप रहे।
थोड़ी देर बाद सरदार बिशनसिंह ने कहा, बोलिए कुछ, भाई साहब?
मैंने कहा चलिए, बात खत्म हो गई जैसे-तैसे। उन्होंने उसे घर में ले लिया...
बिशनसिंह ने तीखी दृष्टि से मेरी तरंफ देखा। आप सच-सच कह रहे हैं बाबू साहब?
मैंने चौंककर कहा, क्यों? झूठ क्या है?
"आप सचमुच मानते हैं कि बात खत्म हो गई ?
मैंने कुछ रूकते-रूकते कहा, नहीं, वैसा तो नहीं मान पाता। यानी हमारे लिए भले ही खत्म हो गई हो, उनके लिए तो नहीं हुई।
"हमारे लिए भी क्या हुई? पर उसे अभी छोड़िए, बताइए कि उस औरत का क्या होगा ? मैंने अपने शब्द तौलते हुए कहा, बंगाल में आए दिन अखबारों में पढ़ने को मिलता है कि स्त्री ने सास या ननद या पति के अत्याचार से दुखी होकर आत्महत्या कर ली, ज़हर खा लिया या कुएं में कूद पड़ी। और ... कभी-कभी ऐसे एक्सीडेंट भी होते है कि स्त्री के कपड़ों में आग लग गई, चाहे वों हो, चाहे मिट्टी के तेल के साथ...
"हाँ, हो सकता है। आप माफ करना, मैं कड़वी बात कहनेवाला हूं। इसने अगर आपको कुछ तसल्ली हो तो कहूं कि अपने को हिन्दू मानकर ही यह कहा रहा हूं। आप हिन्दू हैं न, इसलिए यही सोचते हैं। वह मर जाएगी, छुटकारा हो जाएगा। हिन्दू धर्म उदार है न, मारता नहीं, मरने का सब तरह से सुभीता कर देता है। इसमें दी फ्रायदे हैं- एक तो कभी चूक नहीं होती, दूसरे यह तरीका दया का भी है। लेकिन यह बताइए, अगर आदमी पशु हैं तो औरत क्यों देवता हो ? देवता मैं जान-बूझकर कहता हूं, क्योंकि इनसान का इन्साफ तो देवताओं से भी ऊंचा उठ सकता है। देवता सूद न ले, धेले-पाई की वसूली पूरी करते हैं। ... करते हैं कि नहीं?
मैंने कहा, "सरदार साहब, आपको सदमा पहुंचा है इसलिए आप इतनी कड़वी बात कर रहे हैं। मैं उस आदमी को अच्छा नहीं कहता, पर एक आदमी की बात को आप हिन्दू जाति पर क्यों धोपते हैं?
"क्या वह सचमुच एक आदमी की बात है? सुनिए, मैं जब सोचता हूं कि क्या हो तो उस आदमी के साथ इन्सांफ हो, तब यही देखता हूं कि वह औरत घर से दुतकारी जाकर मुसलमान हो, मुसलमान जने, ऐसे मुसलमान जो एक-एक सौ-सौ हिन्दुओं को मारने की कसम खाए। और आप तो साइकोलाजी पढ़े हैं न, आप समझगे-हिन्दू औरतों के साथ सचमुच वहीं करे जिसकी झूठी तोहमत उसकी माँ पर लगाई गई। देवताओं का इन्साफ तो हमेशा से यही चला आया है- नंफरत के एक-एक बीज से हमेशा सौ-सौ जहरीले पौधे उगे हैं। नहीं तो यह जंगल यहां उगा कैसे, जिसमें आज हम-आप हो गए हैं और क्या जाने अभी निकलेंगे कि नहीं ? हम रोज दिन में कई बार नंफरत का नया बीज बोते हैं और जब पौधा फलता है तो चीखते हैं कि धरती ने हमारे साथ धोखा किया।
मैं कांफी देर तक चुप रहा। सरदार बिशनसिंह की बात चमड़ी के नीचे कंकड़-सी रगड़ने लगी। वातावरण बोझीला हो गया। मैंने उसे कुछ हल्का करने के लिए कहा, "सिख कौम की शिवेलरी मशहूर है। देखता हूँ, उस बिचारी का दख आपकी शिवेलरी को छू गया है।"
उन्होंने उठते हुए कहा, "मेरी शिवेलरी।" और थोड़ी देर बाद फिर ऐसे स्वर में, जिसमें एक अजीब गूँज थी, "मेरी शिवेलरी, भाई साहब।"
उन्होंने मुँह फेर लिया, लेकिन मैंने देखा, उनके होंठों की कोर काँप रही है-हल्की-सी लेकिन बड़ी बेवसी के साथ...।