रमा शर्मा के हाइकु में जीवन -वैविध्य / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
जापान से चले नन्हे हाइकु ने अपने वामन रूप में रहते हुए भी पूरे विश्व का भ्रमण कर लिया। विश्व की अधिकतम भाषाओं में काव्य की इस शैली ने धूम मचाई है। हिन्दी की वर्णिक व्यवस्था जापानी की ओंज के निकट होने के कारण हिन्दी में प्रचुर गुणात्मक सृजन हुआ है। अँग्रेज़ी आदि भाषाओं में जहाँ वर्णिक व्यवस्था नहीं है, वहाँ आक्षरिक (सिलेबिक ) व्यवस्था अपनाई गई। कालान्तर में बहुत से कवियों ने 5-7-5 की वर्णिक और आक्षरिक व्यवस्था को किनारे कर दिया। मेरा मानना है कि शिल्प और भाव की दृष्टि से किसी रचना को तभी हाइकु कहा जाएगा, जब वह अनुभूति और अभिव्यक्ति के स्तर पर हाइकु की व्यवस्था के अनुरूप हो। अच्छे रचनाकर्म का ही प्रभाव है कि केरल राज्य के शिक्षा विभाग ने हिन्दी- हाइकु को भी कक्षा 10 के पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाया है।
सूर्योदय के देश जापान से रमा शर्मा ने हाइकु में अपनी लेखनी आजमाई है। जापान में रहते हुए भी भारतीय जीवन को पूरी तन्मयता से अपने हाइकु में चित्रित करने का प्रयास किया है। इनके हाइकु में भारतीय पर्व-त्योहार, पारिवारिक जीवन, आज का आत्म -संघर्ष, धन की पिपासा के लिए भागदौड़, पारिवारिक सम्बन्धों का क्षरण जिस तीव्रता से चित्रित हुआ है, वहीं उसकी आत्मीय चेतना के सौन्दर्य को भी उसी गहनता के साथ चित्रित किया है।
मनुष्य हो या कोई भी प्राणी हो, माता की ममता सर्वोपरि है। पुत्री की अवस्था कितनी भी क्यों न हो जाए, उसके मन में माँ का चित्र हृदय को उद्वेलित करता रहता है-
दूर दुखों से/ शांत गहरी नींद/ माँ की गोद में
जीवन के रंगों का इतना वैविध्य है कि सामान्य जन उसके चक्रव्यूह में फँसकर अपना चैन खो बैठता है। जीवन के शतरंज की बिसात बहुत चुनौतीपूर्ण है-
बिसात बिछी/ जम गई गोटियाँ/ खेल है शुरू
विवशता के कारण दुर्बल व्यक्ति प्रतिरोध नहीं कर पाता। वह मौन रहकर बस घुटता रहता है-
लब हैं सिले/ मन में है घुटन/कैसी बेबसी
जब विवशता की बात आती है, तो नारी का उत्पीड़न सब क्षेत्रों में होता है। किसी भी युद्ध की विभीषिका के तथ्य जुटा लीजिए, नारी का उत्पीड़न सर्वाधिक होता है। आज भी फ़िल्मी-जगत से लेकर राजनैतिक , धार्मिक, सामाजिक, प्रशाससिक आदि किसी भी क्षेत्र का कोना झाँक आइए, नारी का शोषण जारी है। वह चाहे घर के पिंजरे में बन्द हो या बाहर के उन्मुक्त वातावरण में विचरण करती हो, भूखे भेड़ियों में उसकी मर्यादा कहीं भी सुरक्षित नहीं है। इस विडम्बना को कवयित्री ने मार्मिकता से प्रस्तुत किया है। तन की भूख आपसी सम्बन्धों को निगलती जा रही है-
भेड़िये घूमे/ हर जगह स्वतंत्र / स्त्री पिंजरे में
तन की भूख/ निगल रही रिश्ते /कड़ुवा सच
वासना की जीभ लपलपाते भेड़ियों के लिए कुछ भी त्याज्य नहीं है।
रोज़मर्रा के दुष्कर्म के समाचार हमारी गुमराह पीढ़ी का कच्चा चिट्ठा प्रस्तुत करते हैं-
घना जंगल/ हर ओर भेड़िये/फँसा खरगोश
घना जंगल, भेड़िये और उसमें फँसे खरगोश के प्रतीक बहुत सार्थक हैं। नादान बेटियाँ भी आज के दौर में सुरक्षित नहीं हैं। फूलों से खेलने वाली, तितलियों के पीछे भागदौड़ करने वाली मासूम -सी बेटी मन को पावन करन वाली है, ममता जगाने वाली है; लेकिन इस वात्सल्य को समझने के लिए निष्पाप हृदय चाहिए।
प्यारी बिटिया/ नादान बहुत है/ज़माना बुरा
फूलों से खेले/ तितलियाँ पकड़े/ मासूम परी
स्वार्थपरता के कारण दाम्पत्य जीवन भी कभी खण्डित हो जाए, कुछ नहीं कहा जा सकता। सात जन्मों का साथ केवल कहने भर की बात है। प्रिय का साथ छूट जाने पर बस साँसें ही बची रहती हैं-
साथ जन्मों का। टूट जाए क्षण में/ आज का सच
जीवन रूठा/ संग तेरा जो छूटा/ साँसें हैं बाकी
इसके बाद कभी खत्म न होने वाली प्रतीक्षा के अतिरिक्त कुछ भी शेष नहीं रहता।
राह तकतीं/ बिरहन अँखियाँ / किताब ख़त्म
विरह की पीर पर्वत बन जाती है। इस छोटे से हाइकु में पर्वत, ज्वालामुखी और दहकना क्रिया के प्रतीक से व्यथा को साकार कर दिया है-
दर्द पर्वत/ज्वालामुखी प्रणय/ दहका मन
सामाजिक रूप से जो गलबहियाँ करते नज़र आते हैं, उनमें अधिकतम छद्म जीवन जी रहे हैं; क्योंकि जो दिखाई दे रहा है, वह अर्ध सत्य है-
दिखते साथ/ कभी एक न होते/ धरा गगन
किसी को अपना दर्द भी नहीं बता सकते। लोग उपहास ही करेंगे। जिसको अपना समझकर अपनी पीड़ा बताएँगे, वह भी पराया हो जाएगा। समाज में जिनको हम फूल समझते हैं, उनकी ओट में बहुत सारे काँटे छुपे हैं, जो चुभन और दर्द ही देंगे। हमें किसी की मासूमियत पर आँख बन्द करके भरोसा नहीं करना है-
दिल में रखो/दिल के सब दर्द/ सब पराये
काँटे छिपे/ फूलों की आड़ लिये / लहूलुहान
पारिवारिक सम्बन्धों में पति-पत्नी और भाई बहन के सम्बन्ध अद्भुत हैं। कवयित्री ने इनका गरिमापूर्ण चित्रण किया है-
पति- पत्नी हैं/ दुख सुख के साथी/ शाश्वत सत्य
इसीलिए सातों जन्म के साथ की कामना की है
जिए सुहाग/ साथ हो तेरा सदा/ सातों जन्म में
भाई और बहन दूर जा बसे। रक्षाबन्धन के अवसर पर दोनों को एक -दूसरे की बहुत याद आती है। मार्मिक शब्दावली में दोनों के भावों की मर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति प्रस्तुत है-
भाई- बहन/राखी भी उदास है/दूरियाँ घनी
बहना रोए/ याद आए कलाई/ सूनी भाई की
पिता और वृद्धावस्था पर रचे हाइकु हृदयस्पर्शी हैं। पिता वह छतनार बरगद हैं, जो हर परिस्थिति में सन्तान को निश्चिन्त रखते हैं-
पिता का हाथ/ जैसे बरगद था/ घनेरी छाँव
पिता का न रहना , एक खालीपन छोड़ जाता है। रमा जी ने ‘छड़ी के टूटने’ से मार्मिकता प्रदान की है। जो अनुशासन स्थापित करने वाली छड़ी थी, जब वह टूट जाती है, तो परिवार में विभाजन शुरू हो जाता है। प्रायः ऐसे बहुत से घरों को हम टूटते हुए देखते हैं। छड़ी टूटने का लाक्षणिक अर्थ ‘हाइकु’ में सटीक और अर्थवत्तापूर्ण अभिव्यक्ति का श्रेष्ठ उदाहरण है।
छड़ी टूटते/ बिखरा घर द्वार/ पिताजी गए
वृद्धों की स्थिति हमारे समाज में दयनीय हो जाती है। बच्चे अपने कामों में व्यस्त हो जाने पर बूढ़े नितान्त अकेलापन महसूस करते हैं। बच्चों से किसी तरह की शिकायत भी नहीं कर सकते। मन ही मन रोते हैं; लेकिन किसी के सामने उफ़ तक नहीं करते। इस विषाद को गहनता और मार्मिकता से प्रस्तुत किया गया है-
उम्र ढली है/ बच्चे हुए हैं व्यस्त / यही जीवन
बढ़ी उम्र तो/सब गया बदल/टूटे सपने
रोती अँखियाँ/ सिले काँपते होंठ /बुढ़ापा बुरा
जीवन का जल से साम्य बताकर यथार्थ की प्रस्तुति की है-
नदी- सागर / मीठा भी, तो खारा भी/ जीवन- जल
प्राकृतिक सौन्दर्य के रूप में दूर तक फैले सागर को वन की संज्ञा दी है-
जल ही जल/दूर तक है फैला/ समुद्र वन
गर्मी की चिलचिलाती हुई धूप कष्टकारी होती है; लेकिन सर्दी की गुनगुनी धूप का अलग ही सौन्दर्य होता है-
मीठी- सी धूप/ पिघलाए तन को/ प्यारी सर्दी में
आकाश की नीलिमा मन मोह लेती है; लेकिन प्रदूषण के दैत्य ने सबको कलुषित कर दिया है-
नीला आकाश/ हो गया मटमैला/ प्रदूषण से
विषय वैविध्य की दृष्टि से सभी ओर कवयित्री की दृष्टि गई है। आशा करता हूँ इस संग्रह को पाठकों का प्यार मिलेगा। कामना करता हूँ कि रमा जी का आगामी हाइकु- संग्रह इस सृजन- यात्रा को और भी प्रभावशाली बनाएगा।
रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
ब्रम्पटन, कनाडा, 12 नवम्बर 2024
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