रमेश भाई- एक ताकतवर साथी थे / रमेश भइया
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आलेख:रमेश भइया,संस्थापक, विनोवा सेवा आश्रम, शाहजहांपुर (वर्ष 2011 के जमनालाल बजाज पुरस्कार विजेता)
जीवन में स्वयं को आगे बढ़ाने का प्रयास हर मानव निरन्तर करता है। लेकिन अपने समूह के साथ प्रगति पथ पर बढ़ना विरलों का ही काम है। उन्ही विरले लोगों में रमेश भाई की गणना करना न्यायोचित होगा। यह गुण मनुष्य में एक दिन में नहीं आता बल्कि इसकी शुरूआत विद्यार्थी जीवन में ही होती है। वही गुण आगे चल कर जीवन का अंग बन जाता है। रमेश भाई के विद्यार्थी जीवन के अनेक मित्र आगे चल कर कठिन मार्ग के बावजूद समाज सेवा के क्षेत्र में आये। इस क्रम में चाहें थमरवा कि प्राथमिक पाठशाला के सहपाठी हो या फिर कानपुर विश्वविद्यालय के साथ में पढ़ने वाले साथी हों। यहाँ तक की गाँव की गलियों में साथ में खेलने बाले श्रीदामा भी समाज सेवी की पंक्ति में शामिल हो गये।
कोई भी सभा सम्मेलन होता था। वे नये-नये साथियों को साथ में ले जाते थे उन सभी का परिचय बडे-बडे़ लोगों से साथी के रूप में कराना वे नहीं भूलते थे। रमेश भाई कभी यह नहीं सोचते थे कि अमुक साथी किस जाति, किस धर्म या किस वर्ग का है वल्कि साथी है। तो साथी के पूर्ण सम्मान का हकदार वह होता था। यही हकदारी उस गाँव के गरीब साथी को भी समाज सेवी बना देती थी।
विनोबा जी ने कहा कि:-शिवो मत्वा शिवो यजेत,
अर्थात शिव की सेवा करने के लिए शिव ही बनना पड़ता है।
इसका आशय कि गरीबों की सेवा करने बाला भी उसी रूप में रहेगा तभी इनका साथी बनकर कार्य करेगा। रमेेश भाई ने गाँव के गरीबों के साथ फावड़ा कुदाल चलाकर काम किया। अपने साथियों के साथ स्लीपर क्लास में यात्रा कि कभी नहीं सोचा कि हम को वातानुकूलित में ही जाना चाहिए। यही उनके गुण हर साथी को समाज सेवी की अग्नि परीक्षा दिलाते थे। साथियों के साथ ज़मीन पर सो जाते थे। घर में बैठकर साधारण से साधारण परिवार में भोजन भी कर लेते थे।
मनुष्य बड़े पद पर पहुँच कर छोटे लोगों को विस्तृत कर देता है। अमूमन ऐसा कहा जाता है लेकिन रमेश भाई अखिल भारत स्तर के पदाधिकारी होने के वाबजूद भी ग्रामीण कार्यकर्ता को प्रतिक्षण याद रखते थे। उसके बारे में निरन्तर सोचते भी थे। अखिल भारत हरिजन सेवक संघ के सचिव के होने के नाते केन्द्रीय मंत्रियों से सर्म्पक रहता था3 लेकिन उस समय भी उन्हे सबसे छोटे साथी लक्ष्मन की याद बनी रहती थी। इसी के कारण वे अपनी टीम के प्रिय सदैव बने रहे।
अक्सर देखा जाता है कि जो क्रान्ति का पोषक होता है वह रचना में विश्वास कम कर पाता है। श्री रमेश भाई प्रारम्भ में यह मानने वाले व्याक्ति थे कि संस्थाएँ क्रान्ति की समर्थक नहीं है। लेकिन वे इन विचारों के बावजूद भी रचना कि ओर मुड़े ही नहीं बल्कि संस्था जगत के प्रवल समर्थक हो गये। जीवन के अन्त तक संस्था के अध्यक्ष भी रहें। कभी नहीं सुना गया कि रमेश भाई बीमारी के कारण इस सभा सम्मेलन में नहीं आ पायें।
लेकिन अचानक ऐसे बीमार हुए कि विज्ञानपरक अच्छे से अच्छा उपचार पाकर भी स्वस्थ न हो पाये। वे जीवन भर अनेक प्रकार की लड़ाईया लड़कर सदैव जीतते रहे लेकिन यह लड़ाई ऐसी थी जिसमें अन्ततः उन्हे हारना ही पड़ा। इस लड़ाई में वे ही परास्त नहीं हुए बल्कि उनके साथी भी क्योंकि सेनापति के बाद सैनिकों के उत्साह में कमी तो आती ही है। सम्पूर्ण राष्ट्र के साथियों ने ऐसा महसूस किया।
मैं अपने को सौभाग्यसाली मात्र इतना ही मानता हूँ कि उनसे हमें साथी होने का भी प्यार मिला और अनुभव होने के नाते स्नेह भी मिला। उनके होने पर जिस ताकत का अहसास हर क्षण होता था। वह अब नहीं है।
बाबा ने कहा था अच्छा साथी एक बहुत बड़ी ताकत के समान होता है। उस प्रकार रमेश भाई के न रहने से ताकत में कमी आई है। लेकिन उत्तर प्रदेश के साथियों को भारत के प्रश्नों का उत्तर देना है। यह याद आते ही फिर एक बार कुछ नया करने का मन बार-बार होता है। उस प्रत्येक क्षण में रमेश भाई की सदृदयता याद आती है।