रवींद्रनाथ टैगोर पर विरल नाटक / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 08 अक्तूबर 2013
अभिषेक कपूर की फिल्म 'काई पो छे' में एक महत्वपूर्ण पात्र के दुष्ट मामा की भूमिका मानव कौल ने की थी। विगत कई महीनों के परिश्रम से उन्होंने 'कलर ब्लाइंड' नामक डेढ़ घंटे का नाटक तैयार किया है, जिसका पहला प्रदर्शन 24 सितंबर को हो चुका है और मुंबई में शीघ्र होने वाला है। इस नाटक में महान रवींद्रनाथ टैगोर के जीवन के अंतिम सत्रह वर्षों की झलकियां हैं और मूल विषय अर्जेंटीना की कवयित्री विक्टोरिया ओकेम्पो से उनके भावनात्मक लगाव का है। दो प्रतिभाशाली लोगों के इस रिश्ते को महज पुरुष और नारी के सामान्य रिश्ते की तरह नहीं देखा जाना चाहिए। इस रिश्ते को नाम देने का प्रयास नहीं किया जाना चाहिए। यह भी एक इत्तफाक की बात है कि इन्ही दिनों में सुधीर कक्कर की 'यंग टैगोर : द मेकिंग ऑफ ए जीनियस' भी पढ़ रहा हूं, जिसमें टैगोर के बालपन से लेकर युवावस्था के जीवन और उस पर पड़े प्रभावों का विवरण है, जिसमें उनकी भाभी कादम्बरी और उनके भावनात्मक तादात्म्य का विवरण भी है। उनके इस रिश्ते को भी नाम नहीं दिया जा सकता और स्वयं टैगोर ने इस पर 'चारूलता' नामक कहानी लिखी है, जिससे प्रेरित होकर सत्यजीत रॉय ने फिल्म बनाई थी, जिसे अनेक लोग उनकी श्रेष्ठ फिल्म मानते हैं।
अब कादम्बरी और विक्टोरिया ओकेम्पो के बीच क्या समानता है कि ये दोनों विलक्षण महिलाएं टैगोर के जीवन के पहले और आखिरी चरण में उनकी अंतरंग मित्र रही हैं? क्या गुरुदेव टैगोर विक्टोरिया में कादम्बरी की झलक देख रहे थे या कादम्बरी में उन्होंने भविष्य की विक्टोरिया देख ली थी?
कादम्बरी के सान्निध्य के विषय में परोक्ष रूप से रवीन्द्रनाथ टैगोर लिखते हैं कि 'मनुष्य का हृदय तरल होता है, जिस कारण विविध बर्तनों में वह बर्तन के आकार का हो जाता है, परंतु ऐसा होना विरल है कि उसे मनचाहा बर्तन मिले, जिसमें समाकर वह स्वयं को शून्य हो जाने के आभास से मुक्त भी माने अर्थात अपने होने की सार्थकता का अनुभव हो, गोया कि बर्तन के बंधन में होते हुए भी बंधनमुक्त अनुभव करे'। विलीन होकर भी निजता की सुरक्षा बनी रहे। यह प्रेम में ही संभव है कि एक-दूसरे में विलीन होकर भी स्वतंत्र अस्तित्व बना रहता है। यह जीवनकाल का वह अनुभव है, जिसे मृत्यु के बाद विराट आत्मा में संपूर्ण विलय कहा जाता है, गोया कि मृत्यु के पूर्व जीवन में उस विलक्षण क्षण का रिहर्सल कह सकते हैं।
रवींद्रनाथ टैगोर कमसिन उम्र से ही मौत के विषय में विचार करने लगे थे। उन्होंने मात्र चौदह वर्ष की वय में अपनी मां की मृत्यु पर एक लंबी कविता लिखी थी। अपने हर स्नेही की मृत्यु पर जीवित व्यक्ति के हृदय का एक अंश मर जाता है और उसके द्वारा छोड़ा गया शून्य कभी भरता नहीं। संवेदनशील सृजनधर्मी इस शून्य से ही अपनी रचनाधर्मिता को सशक्त करता है। इस नाटक में मृत्यु भी एक पात्र है, जिसे गीतकार स्वानंद किरकिरे अभिनीत करने जा रहे हैं और कल्की विक्टोरिया की भूमिका करने जा रही हैं तथा इसके लेखन में उनका योगदान रहा है। इस नाटक में टैगोर की कहानियों के कुछ पात्र भी प्रस्तुत होंगे, क्योंकि उनकी सृजन प्रक्रिया को समझने का प्रयास किया गया है। इसमें 'गीतांजलि' के गीत का फ्रेंच अनुवाद भी कल्की सस्वर प्रस्तुत करेंगी। भारतीय रंगमंच पर यह विरल प्रयोग है।
दरअसल, किसी कलाकार की सृजन प्रक्रिया समझना अत्यंत कठिन है। कोई फ्रायड द्वारा प्रतिपादित सिद्धांत के नजरिये से समझने की कोशिश करता है, तो कोई तर्क के तराजू पर परखता है। हम सबके अपने भीतरी संसार हैं, विविध अनुभव हैं और इसी से जन्मे दृष्टिकोण से हम अन्य के सृजन-संसार को समझना चाहते हैं। यह कमोबेश पांच अंधों द्वारा हाथी का विवरण होता है। किसी भी सृजनधर्मी पर पड़े प्रभावों के छिलकों को एक के बाद एक उतारिये, जैसे आप प्याज के छिलके उतार रहे हैं तो अंतिम परत हटाने के बाद वहां कुछ नहीं बचता, परंतु अंगुलियों में प्याज की गंध रह जाती है और यही उसका सार भी है। सारी परतों को उतारने पर आप पाएंगे कि सृजनशील व्यक्ति की निजी प्रतिभा जो उसके देश और संस्कृति की परंपरा का हिस्सा है, सारा सृजन कराता ै। यह व्यक्तिगत प्रतिभा अपनी परंपरा से प्रेरणा लेती है और अपने मौलिक योगदान से उसी परंपरा को सशक्त करती है। गुजश्ता अनेक सदियों में अमीर खुसरो, कबीर, गालिब और टैगोर विलक्षण प्रतिभाएं हुई हैं और कोई अदृश्य डोर से ये सब बंधे हुए भी हैं।