रवींद्र जैन : घुंघरू की तरह बजता ही रहा / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :13 अक्तूबर 2015
रवींद्र जैन की मृत्यु से फिल्म संगीत में माधुर्य का एक अध्याय समाप्त हो गया। यह उस समय हुआ है जब सामाजिक जीवन में ही माधुर्य और कविता समाप्त की जा रही है। यह रवींद्र जैन की ही जिजीविषा थी कि बचपन से ही नेत्रों की ज्योति लगभग समाप्त होने के बाद भी उन्होंने शास्त्रीय संगीत का गहन अध्ययन किया और सूरदास की भांति उन्होंने कविताएं रचीं। दरअसल वे आशु कवि थे। हर अवसर के लिए उनके पास मिनटों में गीत रचने की क्षमता थी। ईश्वर ने उनके नयनों की ज्योति छीनकर उन्हें गीत-संगीत रचने की अद्भुत क्षमता दी थी। वे इतने सहृदय व संवेदनशील व्यक्ति थे कि एक बार इंदौर से मुंबई हवाई यात्रा के दरमियान उन्होंने देखा कि मुझे सांस लेने में कठिनाई हो रही है और मुंबई एयरपोर्ट पर जिद्द करके मुझे अस्पताल ले गए और पूरी जांच से संतुष्ट होने पर ही वहां से गए। वे बार-बार लांजाइनस के संदिग्ध सिद्धांत की पुष्टि करते थे कि अच्छा व्यक्ति ही कवि हो सकता है परंतु भारत महान में यह सिद्ध करना कठिन है कि कवि को ही राजा होना चाहिए।
रवींद्र जैन साधनहीन निर्माता के मोजार्ट थे। वे कम पैसों में सीमित वादकों के साथ मधुर गीत रिकॉर्ड कर देते थे! केवल विपुल साधनों से श्रेष्ठ रचना नहीं होती! सृजनशील व्यक्ति अपनी असाधारण प्रतिभा से भी महान रचना कर लेते हैं। साधनों की विपुलता कई बार अश्लील लगती है और साहिर याद आ जाते हैं कि एक शहंशाह ने दौलत का सहारा लेकर हम गरीबों की मोहब्बत का मजाक बनाया है। संदर्भ ताजमहल का था। रवींद्र जैन को लंबे समय तक बजट के कारण श्रेष्ठ गायक नहीं मिले और न ही साजिंदे अधिक वे ले पाए परंतु अनेक कम बजट की फिल्मों ने बॉक्स ऑफिस की वैतरणी उनके संगीत के सहारे पार की।
मसलन, 'गीत गाता चल,' 'चितचोर, 'ख्वाब,' 'विवाह', 'तपस्या' इत्यादि। राजश्री बैनर की अल्प बजट वाली अनेक फिल्मों में उन्होंने मधुर गीत रचे। बाद में उन्हें कुछ मध्यम बजट की फिल्में मिलीं। उनके 'चोर मचाए शोर' का गीत ले जाएंगे दिलवाले दुल्हनिया' को आदित्य चोपड़ा ने अपने सफलतम फिल्म का टाइटल बनाया। यद्यपि टाइटल के सुझाव का श्रेय किरण खेर को दिया गया। दौलत वाले ही दुल्हनिया ले जाते हैं। आयकर विभाग के कमिश्नर झुनझुनवाला ने राज कपूर से सिफारिश की कि वे एक बार रवींद्र जैन को सुनें। यह तय हुआ कि राज कपूर के ज्येष्ठ पुत्र रणधीर कपूर की जन्म दिन की दावत में राज कपूर रवींद्र जैन को सुनेंगे। उस महफिल में रवींद्र जैन ने जैसे ही यह गीत सुनाया, 'एक थी राधा, एक थी मीरा दोनों ने कृष्ण को चाहा, अंतर क्या दोनों की प्रीत में बोलो, एक थी प्रेम दीवानी, दूसरी दरस दीवानी,' राज कपूर ने उन्हें 'राम तेरी गंगा मैली' के लिए अनुबंधित किया और रवींद्र जैन को पहली बार श्रेष्ठ गायक व मनचाहे साजिंदे लेने का अवसर मिला। इस फिल्म के गीतों के लिए की गई अनेक बैठकों में मैं मौजूद था।
राज कपूर द्वारा गीत की स्थिति सुनाने के चंद मिनटों बाद रवींद्र जैन न केवल धुन बनाते वरन् गीत भी लिख देते थे। इस फिल्म में एक गीत दिल्ली के अमीर कज़लबाश का लिखा है और एक गीत राज कपूर के पुराने साथी हसरत जयपुरी का तथा शेष सारे गीत रवींद्र जैन ने ही लिखे हैं। रवींद्र जैन ने रामानंद सागर के सीरियल 'रामायण का गीत-संगीत दिया। टेलीविजन माध्यम का अर्थशास्त्र कुछ ऐसा है कि मात्र एक हफ्ते में चार एपिसोड शूट करने होते हैं। रवींद्र जैन का ही दम था कि उन्होंने कम समय में गीत लिखे, धुन बनाई और उनके कारण कभी सीरियल की शूटिंग में बाधा नहीं आई। उन्हें अपने जैन धर्म के होने के बाद भी 'रामायण' का ज्ञान होना इतना आश्चर्यजनक नहीं है, जितना कि राज कपूर की 'हीना' के लिए उनका इस्लाम की एक धार्मिक रचना लिखना। यही तो भारत है, जहां एक जैन को हिंदू धर्म और इस्लाम की भी जानकारी है। अगर दादू को अंग्रेजी फिल्म मिलती तो वे क्रिश्चियन प्रार्थना गीत भी बना देते। उन्हें निकट से जानने वाले लोग दादू ही कहते थे।
किसी भी निर्माता ने आंख की ज्योति कम होने के कारण उनसे पार्श्व संगीत नहीं रचवाया परंतु दादू ने राज कपूर से आग्रह किया कि 'राम ेरी गंगा मैली' का पार्श्व संगीत वे ही देना चाहते हैं। पार्श्व संगीत के लिए फिल्म के दृश्य देखकर उनकी अवधि नोट करनी होती है। दादू ने संवाद सुनकर ही दृश्य की कल्पना की और कभी-कभी वे परदे से छह इंच की दूरी पर खड़े होकर देखते थे। उनका 'राम तेरी' का पार्श्व संगीत प्रभावोत्पादक बना। सारांश यह कि प्रतिभा हो, दृढ़ इच्छाशक्ति हो तो मनुष्य के लिए कुछ भी असंभव नहीं। अंधा देख सकता है, बेहरा सुन सकता है, लंगड़ा दौड़ सकता है। इस विचत्र कालखंड में कुछ चतुर सैल्समैन नुमा नेता अंधों को चश्मा और गंजों को कंघा बेचने में सफल हो रहे हैं।