रसूल मिसतिरी / फणीश्वरनाथ रेणु
बहुत कम अरसे में ही इस छोटे-से गँवारू शहर में काफ़ी परिवर्तन हो गए हैं। आशा से अधिक और शायद आवश्यकता से भी अधिक।
स्कूल और होस्टल की भव्य इमारत को देखकर कोई कल्पना भी नहीं कर सकता है कि आज से महज आठ साल पहले अधिकांश क्लास पीपल के नीचे लगते थे, बरसात की रात में होस्टल के छात्र — ’टूट टाट घर टपकत-खटियो टूट'-की पुनरावृत्ति करते थे।
शहर-भर का कूड़ा जिस स्थान पर फेंका जाता था, वहीं आज विशाल टाउन हाल है, क्लब है और पुस्तकालय है।
गफ़ूर मियाँ का चमड़े का गोदाम “'तस्वीर-महल” हो गया है।
कभी उस गली से गुज़रते समय भगिया मेहतरानी भी होंठ सिकोड़कर नाक पर आँचल डाल लेती थी और आज तो स्वच्छता और पवित्रता की पुतली मिस छाया भी उस गली में मन-ही-मन गुनगुनाने की चेष्टा करती है — “हमको हैं प्यारी हमारी गलियाँ।'
ख़लीफ़ा फ़रीद की फटफटानेवाली फटीचर सिंगर-मशीन और उनकी कैंची की काट-छाँट के दिन लद गए हैं। “माडर्न कट-फिट” के “लत्तू मास्टर” का ज़माना है।
रेस्ट्रॉ" और “टी-स्टालों” की संख्या तो 'शाक-भाजी” की दुकानों से भी बढ़ गई है। युद्ध और महँगी के बावजूद नई-नई 'स्कीमें” बन रही हैं-बिगड़ रही हैं। शहर का पूरा कायापलट हो गया है।
लेकिन सदर रोड में — उस पुराने बरगद के बगल में रसूल मिस्त्री की मरम्मत की दुकान को तो जैसे ज़माने की हवा लगी ही नहीं। कोई परिवर्तन नहीं। कुछ नवीनता नहीं ।
फटी हुई दरी पर बैठकर मरम्मत के काम में मग्न रसूल और उसका बेटा रहीम; दोनों के बैठने की जगह भी बदली नहीं। आसपास में मरम्मत के लिए आई हुई चीज़ें, साइकिल के पुराने चक्के, ट्यूब, सीट, पैडिल, चेन, हैण्डल, ब्रेक, पेट्रोमेक्स, स्टोव, हारमोनियम, ग्रामोफ़ोन वगैरह, इर्द-गिर्द बिख़रे हुए औज़ार, छोटे-बड़े पेंच; एक काठ के पुराने बकस में प्रायः सभी चीज़ों के पुराने पुर्जे, रेंच, रेती, छेनी, हथौड़ी, पेचकश, टूटे स्प्रींग आदि। पास में ही एक छोटी-सी पुरानी आलमारी में पुराने और नए डिजाइनों के छोटे-बड़े बिगड़े हुए टाइमपीस, डनलप-ट्यूब के दो-तीन ख़ाली डब्बे, छोटी-बड़ी कितनी ही चीज़ें — पर सब पुरानी और बिगड़ी हुई।
आलमारी के ऊपर पुराने ग्रामोफ़ोन का एक चोंगा औंधाया हुआ, दीवाल पर डनलप और गुड-इयर तथा वाच कम्पनियों के 34, 36 और 58 के पुराने कैलेण्डर, मिस कज्जन की एक फटी हुई रंगीन तस्वीर, दो दीवाल घड़ियाँ — एक बिना डायल की, दूसरी बिना पेण्डुलम की । बिना पेण्डुलमवाली घड़ी पता नहीं कितने दिनों से तीन बजा रही है; दूसरी अपने आन्तरिक यन्त्रों का प्रदर्शन कर रही है, उसकी स्प्रींग के पास ही मकड़ी ने अपनी जाली लगा दी है।
दूसरी ओर रहीम बैठा चुपचाप काम कर रहा है। टीन की करर्सी पर बैठकर ग्राहक अपनी बिगड़ी हुई चीज़ को बनते देख रहा है।
सामने के बरगद के तने पर, जहाँ रोज़ नई दुकानों के विज्ञापन, दवाइयों के पर्चे, नेशनल बार-फाण्ट के नारे, सिनेमा के इश्तहार चिपकाए रहते हैं, एक पुरानी टीन की तख़्ती न जाने कितने वर्षों से लटक रही है, जिस पर टेढ़े-मेढ़े अक्षरों में लिखा हुआ है — “रसूल मिसतिरी — यहाँ मरम्मत होता है।'
इस साइनबोर्ड पर बहुत दिनों से पढ़े-लिखे लोगों की मण्डली ने टीका-टिप्पणी की है, व्यंग्य कसे हैं और रसूल के सामने संशोधन के प्रस्ताव रखे गए हैं, पर आज भी वह तख़्ती उसी तरह लटक रही है। हाँ, किसी शैतान लड़के ने खल्ली से उस पर लिख दिया था — 'यहाँ आदमी की भी मरम्मत होती है? — सो उसे भी मिटाने की कोई आवश्यकता शायद नहीं समझी गई।
रसूल मिस्त्री !
मझोला कद, कारीगरों की-सी काया और नुकीले चेहरे पर मुट्ठी-भर “गंगा-जमनी' दाढ़ी । साठ वर्ष की लम्बी उम्र का कोई भी विशेष लक्षण शरीर पर प्रकट नहीं हुआ। फुर्ती-चुस्ती जवानों से भी बढ़कर, सादगी का पुतला — मोटिया कपड़े की एक लुंगी और कमीज़, पान, चाय और बीड़ी का भक्त । कभी हाथ पर हाथ धरकर चुपचाप बैठना, वह जानता ही नहीं। “गप्पी” भी नम्बर एक का, पर अपनी ज़िम्मेदारी को कभी न भूलनेवाला । काम के साथ ही साथ वह बातचीत का सिलसिला भी जारी रख सकता है।
ढक-ठुक-दुक, ठुक-ठुक-ठुकू' “तो समझे न जी, दोजख़-बहिश्त, सरग-नरक सब यहीं है, यहीं । अच्छे और बुरे का नतीजा तो यहीं मिल जाता है। रामचन्दर बाबू को देखो न !...अरे रहीम ! जरा पेचकश फेंकना तो...रामचन्दर बाबू...अरे भई छोटावाला ! छोटावाला ! रह गए पूरे भोंक्” तुम, इससे भला...हाँ यही ।”
रहीम !
रसूल मिस्त्री का एकमात्र पुत्र। साँवला-सा हट्टा-कट्टा जवान, परम पितृ-भक्त और आवश्यकता से अधिक नग्न । बाप की मौजूदगी में कभी उसे मुँह खोलकर बोलते नहीं देखा गया।
जहाँ दो-चार आदमी काम लेकर आए कि उसकी सहिष्णुता की परीक्षा आरम्भ हो जाती है। छोटी-सी ग़लती पर भी रसूल मियाँ पिनक उठते हैं दिन-भर काम में जुटे रहने पर भी आलसी, कामचोर, लापरवाह और कभी-कभी आवारा की उपाधि भी उसे मिल जाती ।
रसूल मियाँ बकते रहते और वह शान्त होकर चीज़वाले को समझाता रहता — इसका स्प्रींग टूट गया है और होरल्डीनट...”
बस, रसूल मियाँ इसमें भी अपनी टाँग अड़ा देते — “देखें, कहाँ क्या हुआ है...हुँ, वाह रे लड़के ! सिरिफ इसपिरिंग टूटा है। अच्छा ले हम नया इसपिरिंग फिट कर देते हैं, होल्डिंग-नट भी बदल देते हैं, मशीन चलाकर रिकाट (रेकॉर्ड) बजा दे तो समझें कि हो गया पक्का मिसतिरी। अरे उलुवा ! बैलेंस कैसे ठीक होगा, बैलेंस?” रहीम अपने होंठों पर एक सलज्ज मुस्कान लाकर निगाहें नीची कर लेता।
शहर से दो मील पूरब एक छोटी-सी बस्ती में मिस्त्री का घर है। मिस्त्री के पूर्वज कभी ख़ुशहाल किसान थे, पर आज तो जायदाद के नाम पर तीन झोंपड़ियाँ और मवेशियों में कुछ बकरियाँ और मुर्गे-मुर्गियाँ रह गई हैं। आमद का यह हाल है कि जिस दिन दुकान बन्द, उस दिन खाना बन्द और खर्च नबाबी। तीसों दिन कबाब और कलिया, हलवे और सेवइयाँ ही पकती हैं।
बेटा और पतोहू तो कुछ कहने से रहीं।
रह गई बुढ़िया, सो वह बेचारी अपनी जवानी के दिनों से ही काट-कपट, कम खर्च और संचय के सभी तरीकों को आजमाकर हार गई है ।
मियाँ रसूल की उमर ख़य्यामी फ़िलासफ़ी के आगे उसकी कोई भी दलील न कभी टिकी और न कभी उसकी कुछ सुनी ही गई।
पर वह है कि बोलने से अब भी बाज नहीं आती। ज्यों ही रहीम के हाथ में किसी चीज़ की पोटली देखती, पूछ ही तो बैठती — “पोटली में का हौ, रहीम?”
“कलेजी है” — रहीम भिनभिनाकर उत्तर देता।
“कित्ता है? सेर-भर ?...का भाव दिया? आ अल्ला ! दू रुपए सेर? आग लगे ऐसी जीभ में ! दू रुपए सेर कलेजी? हम पूछे हैं तोसे, रहीम, कि अल्ला तोरे कब अक्किल दि हैं? ओके (मियाँ) सिर पर तो खैभूत सवार है खैभूत? तोरे मुँह में अल्ला-ताला ने बोली न दिया है ।”— बुढ़िया बैठकर कलेजी के शौक को कोसती रहती, रहीम चुपचाप वहाँ से खिसक जाता। बुढ़िया की गोद में बैठा हुआ पोता कलेजी की पोटली की ओर बार-बार झपटता और बुढ़िया उसको बार-बार रोकती — “हाय-हाय ! हमरे त कुछ न सूझे है।” घण्टों वह बड़बड़ाती रहती — बाप-बेटे दोनों की बुद्धि मारी गई है, ज़माना देखकर नहीं चलते, खाने-पीने के पीछे लोगों की जो दुर्गति हुई है— आँखों देखी घटनाओं का उदाहरण दे-देकर यह साबित करती कि ऐसे चटोर मरने के समय कफ़न के लिए भी कुछ नहीं छोड़ जाते आदि। वह अपनी क़िस्मत को ठोंकती रहती कि ठीक इसी मौके पर मियाँ रसूल आ पहुँचते।
सबसे पहले जवाब तलब करते कि कलेजी अब तक इस तरह क्यों पड़ी हुई है।
बुढ़िया मुँह लटकाए चुप रहती।
रसूल मियाँ अन्दर जाकर मिर्जई खोल आते, ओसारे पर जमकर बैठ जाते। पतोहू गुड़गुड़ी दे जाती, दो वर्ष का नटखट पोता करीम दादी की गोदी को छोड़कर दादा की गोद में आकर बैठ जाता और दादी की ओर उँगली दिखलाकर तोतली बोली में दादी की शिकायत करने लग जाता--' 'खित् खित् बुहिया (खिट-खिट बुढ़िया)।” इनाम में लेमनचूस और बिसकुट पाकर, ज़ोर-ज़ोर से पुकार-पुकारकर दादी को चिढ़ाने लगता है — “है खित् खित् बुहिया, है खित् खित् बुहिया।”
रसूल मियाँ गुड़गुड़ी में कश लगाते हुए गम्भीर हो जाते; फिर पूछते — हम तोरे पूछे हैं, रहीम की अम्माँ, कि आखि' तेरी यह रोज-रोज की खिट-खिट की आदत कब छूटेगी ! जब देखो तब वही हाल, जब सुनो, तब वही बात। आखिर हम पूछे हैं कि तोरे लाज-शर...”
“चुप रहअ, लाज शरम के बात मत ओलअ”— बुढ़िया तड़क उठती। “चुप करनेवाली की ऐसी तैसी”— रसूल मियाँ भी गर्म पड़ जाते — “हम तो सौ बार नहीं, हजार बार कहेंगे कि तोरे लाज-शरम जरा भी नहीं, सब धोकर पी गई है। तेरा बस चले तो सबको फाका कराके छोड़े। शौक से कभी कोई चीज लाओ कि बिना “खिट-खिट” किए चैन नहीं।”
“खित् खित् बुहिया” — करीम बिस्कुट खाते-पीते किलकारी भरकर बोल उठता । बेचारी बुढ़िया रो देती। अल्ला-ताला उसे उठा लें, अब कौन-सा दिन देखने के लिए वह जी रही है। वह इस घर की कौन है, वह क्यों बोले, नेकी की बात कहने से वह बेहया हुई, बेशरम हुई... । पतोहू कलेजी की पोटली लेकर काटने लग जाती। रहीम अपनी कोठरी से निकलकर बाहर चल देता, बुढ़िया बैठो सिसकती रहती।
“रसूल काका हैं घर में ?”— बाहर से कोई आवाज़ देता।
“कौन है? फकरुद्दीन! अन्दर आओ, क्या बात है?” — रसूल मियाँ गुड़गुड़ी की नली मुँह से हटाते हुए जवाब देते।
“काका, रशीद को दिन से ही पेट-मुँह दोनों चले हैं। दवा तो सुनवाइए नहीं करे है। देह भी ठण्डा... ?”
“तो दिन से कान में तेल डालकर सोया काहे था? ” — रसूल मियाँ बीच में ही बात काटकर उठ खड़े होते ! — “चलो देखें। कुछ नहीं होगा, खट्टा-मिठा' खाई है, ठीक हो जाएगी ।” कहकर वे अन्दर चले जाते।
“इस्मैला कैसा है रे, फखरू !' — बुढ़िया पूछती।
“तोरे दुआ से अब अच्छा है काकी। तू तो अब कभी आती भी नहीं। इस्मैला की माँ कहे कि काकी नाराज है।”
'दूर पागल। नाराज काहे होवे। करीम्माँ के मारे फुर्सत मिले तब तो।”
रसूल मियाँ जेब में छोटी-बड़ी शीशियाँ हूँसकर निकल पड़ते — “चल !” बुढ़िया हा ही अपने बोलती — “जरा ठिकाने से देखिह, जो दवा नहीं रहे शहर से मँगा ह।!
दादा के चले जाने के बाद करीम मियाँ धीरे-धीरे दादी के पास आकर बैठ जाते और बेमतलब की हँसी हँसकर सन्धि का प्रस्ताव करने लग जाते। यदि दादी अर्धभुक्त बिस्कुट लेकर भी सन्धि कर ले तो कोई हर्ज नहीं।
“चल हट शैतान ! जा अपने दादा के पास। बड़ा आया है वहाँ से बिस्कुट देकर फुसलाने। हम तो खिट-खिट बुढ़िया हैं।” कहकर वह रूठी-सी रहती। पर मियाँ करीम अच्छी तरह जानते हैं कि इन मौकों पर क्या करना चाहिए। जबर्दस्ती गोदी में बैठकर अनुपस्थित दादा की शिकायत करने लग जाते — “दादा फकअ्...दादा चटो... (दादा फक्कड़, दादा चटोर)”। दादी के होंठों में छिपी मुस्कान को वह लक्ष्य कर लेता और अजीब भाषा में हँस-बोलकर दादी को रिझाने लग जाता, जिसका यह अर्थ हो सकता है कि दादा के साथ तो क्षणिक सन्धि सिर्फ बिस्कुट के लिए हुई थी। देखा ! कैसे दादा से ठगकर बिस्कुट ले लिया। इसी को कहते हैं राजनीतिक दाँव-पेंच।
कलेजी काटते-काटते अम्मी आँख दिखाकर कहती — ““अच्छा, आवे हैं तोरे दादा । सब ठगपनी तोरे आज बाहर कखरवावे हैं।
करीम मियाँ भला अम्मी की बात को कैसे बर्दाश्त करें? अम्मी तो घर-भर में सबसे कमजोर और हेय प्राणी है। करीम मियाँ ने उसकी ख़ुशामद न कभी की है और न करेगा। और उसकी यह हिमाकत कि धमकी दे? थोड़ी देर गम्भीर होकर चुप रहने के बाद मुस्कराती हुई अम्मी को आप डॉट देते — “चुप फूह (चुप फूहड़)।”
“आये दे दादा को” — अम्मी फिर धमकी देती। इस बार करीम मियाँ पाजामे से बाहर हो जाते। दादी की गोद से उठ खड़े होते और आस-पास प्रहार करने योग्य किसी वस्तु की तलाश करने लग जाते। मोटी लाठी को उठाने में असफल होकर, ख़ाली हाथ ही अम्मी पर धावा बोल देते। बाल पकड़कर घसीटने लग जाते। अम्मी चिल्ला उठती — “छोड़ शैतान, छोड़। नहीं कहूँगी दादा से, छोड़ ।”
दादी हँसती हुई जाकर उसे पकड़ लाती। करीम मियाँ अपनी भाषा में धमकी देते — “फक्कड़ दादा को, अब्बा को और तुमको मारकर घर से निकाल दूँगा।”
अगर अम्मी मुँह चिढ़ा देती तो फिर मैदाने-जंग में उतरने का उपक्रम करने लग जाते, पर दादी रोक देती। सिर्फ दाँत कटकटाकर, बलबलाकर बैठ जाते। दादी और अम्मी इस संकेत को समझती हैं। बुढ़िया कहती — “आज दूध पिये के बख़त तोरे हे रुलाके छोड़ेगा — याद रखियो।”
करीम ने इधर कुछ दिनों से एक नया तरीका निकाला है। दूध पीने के समय वह रह-रहकर इसका प्रयोग करता है। अम्मी चीख़ उठती है — “अम्मा रे !” और अपनी सफलता पर, अम्मी की चीख़ पर करीम खिलखिलाकर हँस पड़ता है।
रसोईघर में पतोहू कलेजी पकाती रहती, बुढ़िया पुकारकर कहती — “देखना, ज्यादे कड़ा मत कर देना, नहीं तो खाने के समय तूफान खड़ा कर देगा ।” दो-तीन बार बाहर से 'नमक-मिर्च-मसाले' के सम्बन्ध में चेतावनी देने के बाद वह खुद रसोई में पहुँच जाती। पतोहू की गोदी में करीम को देते हुए बोलती— “जा बाचा जा, मैं देखूँ सालन ” पतोहू मुस्कुराती हुई रसोई से बाहर हो जाती।
गाँव में चक्कर लगाकर रहीम अपनी कोठरी में वापस आ जाता। स्वामी-स्त्री और बेटा, तीनों जने मिलकर पुराने जापानी ग्रामोफ़ोन पर कमला झरिया का गीत सुनने में मशगूल हो जाते — “अदा से आया करो पनघट पर जब तक रहे जिगर में दम ”
रसूल मियाँ जब लौटते तो हाथ में “बसन्ती ताड़ी' की लबनी रहती। आँगन में दस्तरख़ान बिछ जाता। ऊँघते हुए करीम मियाँ भी उठ बैठ — रिकाबी, बधना और गिलास घसीट-घसीटकर दादा के पास ले जाते। तीनों जने मिलकर, तृप्तिपूर्वक रोटी-कलेजी खाते रहते, बीच-बीच में ताड़ी का दौर चलता रहता। बुढ़िया पास में बैठकर परोसती रहती ।...“वाह सालन तो खूब बना है ” — सुनते ही बुढ़िया निहाल हो जाती।
करीम मियाँ भी एकाध घूँट पीकर झूमने लगते। लबनी में बची हुई ताड़ी बुढ़िया को सुपुर्द करते हुए रसूल मियाँ फ़रमाते — “एक गिलास होई है, बहू को दे दे। आजकल तो एकदम चमगुदड़ी हो गई है। एक गिलास रोज पी ले तो देह लौट आए। ताड़ी है, ठट्ठा नहीं है। अरे हाँ, हाँ, तूने कभी पी ही नहीं तो जानेगी क्या?”
कुछ देर के बाद ही झोंपड़ियों में नींद का साम्राज्य छा जाता। कभी-कभी रसूल मियाँ को रात में भी उठकर 'कॉल'” में जाना पड़ता था और सारी रात रोगी के पास बैठ बितानी पड़ती थी।
सुबह चुपचाप नाश्ते के बाद ही रसूल मियाँ शहर को चल पड़ते। दोपहर का खाना रहीम लेकर आएगा। घर से चलने को तो वे चल देते ठीक समय पर, लेकिन खाना लेकर रहीम उनसे अक्सर पहले ही पहुँचता। घर से निकलते ही गाँव-भर के शादी-विवाह, झगड़े-पंचायत, रोग-शोक, दवा-दारू आदि के सम्बन्ध में सलाह लेते-देते बारह बज जाते। गाँव से बाहर होकर, खेतों में काम करते हुए लोगों से “खेती-बारी' के सम्बन्ध में दो-दो बातें नहीं करें, यह भला कैसे हो सकता है।
अरे मँहगू, तेरा मेलावाला बाछा कहाँ है?”
“का कहें मामा ! आज दो दिन से न घास खाता है न पानी पीता है। भगवान जाने क्या हो गया है।”
बस, रसूल मियाँ लौट पड़ते। बाछा को देखकर रोग तजबीज कर — जड़ी-बूटी' बतला देते। सिर्फ इतना ही नहीं, किसके बग़ीचे में, किस पेड़ के आस-पास वह जड़ी मिलेगी, यह भी बतला देते या स्वयं जाकर ला देते।
दुकान पर पहुँचकर, अपनी जगह पर बैठते-बैठते अपने आप ही बोल उठते — “ओह ! बड़ी देर हो गई ।” फिर रहीम के काम को कुछ मिनट गौर से देखकर कहते — “ला, इधर दे, देखें। तब तक तुम भोला की घड़ी को देखो तो।”
टूटी कुर्सी पर बैठे हुए व्यक्ति ने कहीं पूछ दिया कि "कौन भोला', तो काम के साथ ही साथ भोला की जीवनी शुरू हो जाती — “अजी, वही भोला। कंगरेसी भोला। है मालूम? जेल में ही बी.ए. पास कर लिया। खूब लड़का है भोला भी...यह देखिए, आपकी घड़ी का हियर इसपिरिंग इतना कमजोर है कि क्या कहा जाए? इसीलिए कहते हैं कि सस्ता रोवे बार-बार ।...मगर भोला है अपनी धुन का पक्का। वैसे तो बहुत लड़कों को देखा है...”
सुननेवाला अपरिचित भोला की लम्बी-चौड़ी दास्तान की भूमिका ही सुनकर धीरज खो बैठता — “भई, किस भोला की इतनी तारीफ किए जा रहे हो। अरे वही लम्बा-लम्बा बालवाला...?”
“अरे साहब नहीं”— बात काटकर रसूल मियाँ कहते — “लम्बे बालोंवाला तो अबनीन्दर है अबनीन्दर वह भी भोला का ही साथी है। वह भी एक अजीब लड़का है। कविस्स है, है मालूम? कबित लिखने मेँ, उस्ताद है। गौ-जैसा सीधा लड़का है, देखने से मालूम होता है आवारा है मगर...
“ए हो रसूल काका ! चलूअ देखूअ ता”...युवती ग्वालिन सुबुकती हुई आकर खड़ी हो जाती — “देखूअ तृअ, भला, रसूल काका, दूध के बरतन फोड़ देलन, हाथ पकड़के लक्को-झक्को... ?”
अरे कौन? कौन?”
“उत्तीश बाबू के बेटा ।”
“सतीश बाबू से नहीं कहा?”
“छतीश बाबू उलटे हमरे मारे दौड़लन — भाग हरामजादी।”
रसूल मियाँ की त्योरियाँ चढ़ जातीं। काम छोड़कर बड़बड़ाने लगते — “जितना अमीर है, सब एक नम्बर का चोटू्टा है चोट्ट। जाओ तुम जरा सौदागर सिंध को बुला ला तो रे, सुदमियाँ ।” सुदमियाँ ग्वालिन आँसू पोंछती चली जाती, पर रसूल मियाँ की बलबलाहट जारी ही रहती — “बड़ा रुपया का गर्मी हो गया है, औरत की इज्जत पर हाथ उठावेगा? शैतान कहीं का"
“अरे मिसतरी, इन छोकड़ियों को कम मत समझो। एक ही खेली-खिलाई होती है। भला, ऐसी जवान लड़की को शहर में दूध बेचने के लिए आने की क्या जरूरत ?
“चुप रहिए साहब ! यह लड़की मेरी बेटी दाखिल है। गाँव की लड़कियाँ बड़ी सीधी होती हैं, समझे? आपके शहर के तरह नहीं...होतीं। मैं पूछता हूँ, दूध की आमदनी से ही जहाँ पेट चलता हो, घर में इस लड़की को छोड़कर सब बीमार हों तो डॉक्टर को बुलाने, दूधर बेचने जवान लड़की नहीं आवे तो कौन आएगा? बतलाइए ! और भले आदमी का यही धरम है कि दूसरे की बहू-बेटी को मुसीबत में देखकर उस पर जुल्म करे!”
सुदर्भियाँ आकर कहती — “'सौदागर काका घर पर नहीं हैं।” रसूल मियाँ सुदमियाँ के साथ अकेले ही चल पड़ते।
बेला कैलने के बाद कहीं वे वापस आते और बड़बड़ाते हुए दुकान में प्रवेश करते — “बच्चू चलें एक दिन देहात। सरे आम सड़क पर नहीं पिटवा दिया तो रसूल नाम नहीं ।” फिर दुकान के एक कोने में बैठी कुंजड़िनों से पूछते —"क्यों अब्दुल की माँ, आज बड़ा सबेरे हो गया?” बस कुंजड़िनों की टोली टूट पड़ती — “कब से बैठे हैं, जरा हिसाब कर द बुढ़क।”
“ठहरो-ठहरो । एक-एक करके। हाँ तोरे कित्ता करेला रहा हमीदन?...तेरह सेर। क्या भाव बेची ?
चार आने ?
हाँ, तो तेरह चौका बावन। बावन आना के सवा तीन रुपया। देखें पैसा?...हॉ ठीक है। अच्छा तुम्हारा परवल?...ऐ साहब ! उधर रहीम को दिखलाइए, हमको अभी फुर्सत नहीं है। देखते हैं नहीं?”
हिसाब-किताब करते, खोटे-खरे पैसों की जाँच करते शाम हो जाती। रहीम काम बन्द कर चलने की तैयारी करता। “अरे इन लोगों को साथ लेते जा, रहीम, शाम हो गई न ! मैं जरा उधर से होता आऊँगा।” कुंजड़िनों की टोली के साथ रहीम चल पड़ता। धेनूंसाह की दुकान पर पहुँचकर कुंजड़िनें दो पैसे की जलेबी और सकरपाला लेने में ही घण्टों की देर लगा देतीं और रहीम सड़क पर खड़ा चुपचाप सबों की प्रतीक्षा करता रहता।
रसूल मिस्त्री के यहाँ मरम्मत की हुई चीज़ पक्की होती है। सब चाहते हैं कि रसूल मियाँ के यहाँ ही अपनी बिगड़ी ची्ज़ों को बनवाएँ। “पर वह दुकान पर जमकर बैठता है कहाँ, और जब बैठता भी है ती अधूरा काम बेटे के सिर पर पटक कहीं चल देता है।” यही लोगों की शिकायत है। वह ज़रा ख़रा आदमी है, साफ़-साफ़ बात करना जानता है। इसीलिए गाहक कम आते हैं। वह छोकरा रघ्यू पहले मियाँ के यहाँ ही नौकर था, आजकल मरम्मत की दुकान खोलकर मालामाल हो गया है। पर रसूल मियाँ की दुनिया जैसी थी, आज भी वैसी ही है।
आज से दस-ग्यारह वर्ष पहले की बात है। मैं 'स्टोव” मरम्मत कराने रसूल के यहाँ पहुँचा। स्टोव खोलकर वह देख ही रहा था कि एक अधेड़ देहाती ने आकर भर्राए स्वर में कहा — “गहना तो नहीं छोड़ता है, कहता है और सूद लाओ...”
सुनते ही रसूल मियाँ काम छोड़कर उठ खड़े हुए। मैंने टोका — “'फिर स्टोव!” “कल होगा।”
“तो मैं स्टोव ले जाता हूँ।” — मैंने ज़रा चिढ़कर कहा।
“ले जाओ जी !”— रसूल ने कड़ककर जवाब दिया — “यहाँ किसी की इज्जत पर पड़ी है और किसी को काम की सूझी है। बेचारे की बेटी का आज रात में गौना है। गहना बन्धक पड़ा है। महाजन छोड़ता नहीं...”
मैं अपना स्टोव लेकर, मन-ही-मन प्रतिज्ञा करके वापस हुआ कि कभी इसकी दुकान में न आऊँगा और न अपने दोस्तों को आने दूँगा।
पर आज रसूल मियाँ को अच्छी तरह पहचान चुका हूँ। बचपन की उस प्रतिज्ञा पर आज भी मुझे दुख है। सायकिल मरम्मत के लिए दी है। पन्द्रह दिनों से लौट रहा हूँ, रसूल मियाँ से भेंट ही नहीं होती। रहीम कहता है कि उन्हीं से ठीक होगा। किसी दिन संयोग से भेंट भी होती है तो देखता हूँ, उनके जिम्मे सायकिल मरम्मत से भी ज़बर्दस्त काम है। “फटेहाल औरतों को कपड़ा दिलाना है। सात दिन से लौट रही हैं। भीड़ में दम घुटवाकर, कत्तार में खड़ी होकर भी खाली हाथ लौट आती हैं।”
किसी दिन सुनता हूँ — गाँव में मलेरिया जोर से फैला हुआ है, कुनैन मिलता नहीं, इसलिए मिस्त्री कई जड़ी-बूटियों का काढ़ा बनाकर आज गाँव-भर में बाँट रहे हैं।
रोज़ चुपचाप लौट आता हूँ और रो्ज़ उस बरगद के तने पर लटकती तख़्ती को पढ़ लेता हूँ — “रसूल मिसतिरी — यहाँ मरम्मत होता है।” खल्ली से किसी शैतान लड़के ने जो लिख दिया है — “यहाँ आदमी की भी मरम्मत होती है ”— उसका मन-ही-मन समर्थन करके भी भूल जाता हूँ कि सायकिल के बिना मुझे बड़ी तकलीफ़ उठानी पड़ रही है