रस का त्याग / गीताधर्म और मार्क्सीवाद / सहजानन्द सरस्वती

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मगर यह तो एक पहलू हुआ। मन या बुद्धि का पदार्थों के साथ संबंध होने पर भी उनके बाहरी या भौतिक आकार एवं रूप की छाप उन पर लगने न पाए और ये इन पदार्थों के इन दृश्य आकारों एवं रूपों से अछूते रह जाएँ, यह तो समदर्शन या गीता के साम्यवाद का केवल एक पहलू हुआ। उसका दूसरा पहलू तो अभी बाकी ही है और गीता ने उस पर काफी जोर दिया है। वही तो आखिरी और असली चीज है। इस पहले पहलू का वही तो नतीजा है और यदि वही न हो तो अंततोगत्वा यह एक प्रकार से या तो बेकार हो जाता है या परिश्रम के द्वारा उस दूसरे को संपादन करने में प्रेरक एवं सहायक होता है। यही कारण है कि गीता में पहले की अपेक्षा उसी पर अधिक ध्यान दिया गया है।

बात यों होती है कि मन का भौतिक पदार्थों से संसर्ग होते ही उनकी मुहर उस पर लग जाती है, ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार फोटोग्राफी में फोटोवाली पटरी या शीशे पर सामने वाले पदार्थों की। सहसा देखने से यह पता नहीं चलता कि सचमुच उस शीशे पर सामने की वस्तु की छाप लगी है; हालाँकि वह होती है जरूर। इसीलिए तो उसे स्पष्ट करने के लिए पीछे यत्न करना पड़ता है। मन या बुद्धि पर भी लगी हुई पदार्थों की छाप प्रतीत नहीं होती। क्योंकि वे तो अदृश्य हैं - अत्यंत सूक्ष्म हैं। मन या बुद्धि को देख तो सकते नहीं। उनका काम है पदार्थों की छाप या प्रतिबिंब लेके बाहर का अपना काम खत्म कर देना और भीतर लौट आना।

मगर भीतर आने पर ही तो गड़बड़ पैदा होती है। मन ने बाहर जाके पदार्थों को प्रकट कर दिया - जो चीजें अज्ञान के अंधकार में पड़ी थीं उन्हें ज्ञान के प्रकाश में ला दिया। अब उन चीजों की बारी आई। उनकी छाप के साथ जब मनीराम (मन) भीतर घुसे तो उन पदार्थों ने अब अपना तमाशा और करिश्मा दिखाना शुरू किया। जहाँ पहले भीतर शांति-सी विराज रही थी, तहाँ अब ऊधम और बेचैनी - उथल-पुथल - शुरू हो गई! मालूम होता है, जैसे बिरनी के छत्ते में किसी ने कोई चीज घुसेड़ दी और पहले जो वे भीतर चुपचाप पड़ी थीं भनभना के बाहर निकल आईं। किसी छूतवाली या संक्रामक बीमारी को लेके जब कोई किसी घर या समाज में घुसता है तो एक प्रकार का आतंक छा जाता है, चारों ओर परेशानी छा जाती है और वह छूत की बीमारी जानें कितनों को तबाह करती है। मन पर अपनी मुहर लगा के जब भौतिक पदार्थ उसी रूप में मन के साथ भीतर - शरीर में - घुसते हैं तो ठीक संक्रामक रोग की-सी बात हो जाती है और भीतर की शांति भंग हो जाती है। वह मन अंग-प्रत्यंग में अपनी उस छाप का असर डालता है। या यों कहिए कि मन के द्वारा बाहरी भौतिक पदार्थ ही ऐसा करते हैं। फलत: हृदय या दिल पूर्ण रूप से प्रभावित हो जाता है। दिल का काम तो खोद-विनोद करना या जानना है नहीं। वह तो ऊँट की पकड़ पकड़ता है। जब उस पर भौतिक पदार्थों का प्रभाव इस प्रकार हुआ तो वह उन्हें जैसे का तैसा पकड़ लेता और परेशान होता है। यदि उसमें विवेक शक्ति होती तो उनसे भाग जाता। मगर सो तो है नहीं, और जिस मन और बुद्धि में यह शक्ति है उनने तो खुद ही यह काम किया है - बाहरी पदार्थों के भीतर पहुँचाया है, या कम से कम उनके कीटाणुओं को ही। फिर हो क्या?

पहले भी कहा जा चुका है कि भौतिक पदार्थ खुद कुछ कर नहीं सकते - ये बुरा-भला कर नहीं सकते, सुख-दु:ख दे नहीं सकते। किंतु मन में जो उनका रूप बन जाता है वही सुख-दु:खादि का कारण होता है। इस बात का विशेष रूप से विवरण ऊपर की पंक्तियों से हो जाता है। जब मन पर भौतिक पदार्थों की छाप पड़ती है तो उसमें एक खास बात पाई जाती है। पहले भी कहा जा चुका है कि उदासीन या लापरवाह आदमी को ये पदार्थ बुरे-भले नहीं लगते। क्योंकि उसके मन पर इनकी मुहर लग पाती नहीं। उनका मन बेलाग जो होता है। जिनके मन में लाग होती है, जिसे लस बोलते हैं, उन्हीं की यह दशा होती है। इसी लाग को गीता ने रस कहा है 'रसवर्जं रसोऽप्यस्य' (2। 59) श्लोक में। राग-द्वेष या काम, क्रोध के नाम से भी इसी चीज को बार-बार याद किया है। यही लाग या रागद्वेष - रस - सब तूफानों का मूल है। यदि यह न हो तो सारी बला खत्म हो जाए। गीता ने इस रस को खत्म करने पर इसीलिए काफी जोर भी दिया है।

अब हालत यह होती है कि भौतिक पदार्थों के इस प्रकार भीतर पहुँचते ही मैं, मेरा, तू, तेरा, अपना-पराया, शत्रु-मित्र, हित-अहित, अहंता-ममता आदि का जमघट लग जाता है - भीतर इनका बाजार गर्म हो जाता है। जैसे मांस का टुकड़ा देखते ही, उसकी गंध पाते ही गीध, चील, कौवे आदि रक्तपिपासु पक्षियों की भीड़ लग जाती है और वे इर्द-गिर्द-मँडराने लगते हैं; ठीक वही बात यहाँ भी हो जाती है। मैं-तू, मेरा-तेरा, शत्रु-मित्र आदि जो जोड़े हैं - द्वन्द्व हैं - वे जम के एक प्रकार का आपसी युद्ध - एक तरह की कुश्ती - मचा देते हैं और कोई किसी की सुनता नहीं। ये द्वन्द्व होते हैं बड़े ही खतरनाक। ये तो फौरन ही आपस में हाथापाई शुरू कर देते हैं। पहलवानों की कुश्ती में जैसे अखाड़े की धूल उड़ जाती है इनकी कुश्ती में ठीक उसी प्रकार मनुष्य के दिल की दुर्दशा हो जाती है, एक भी फजीती बाकी नहीं रहती। फिर तो सारे तूफान शुरू होते हैं। इसी के बाद बाहरी लड़ाई-झगड़े जारी हो जाते हैं, हाय-हाय मच जाती है। बाहर के झगड़े-झमेले इसी भीतरी कुश्तम-कुश्ता के ही परिणाम हैं। नतीजा यह होता है कि मनुष्य का जीवन दु:खमय हो जाता है। क्योंकि इन भीतरी कशमकशों का न कभी अंत होता है और न बाहरी शांति मिलती है। भीतर शांति हो तब न बाहर होगी?

गीता के आध्यात्मिक साम्यवाद की आवश्यकता यहीं पर होती है। वह इसी भीतरी कशमकश और महाभारत को मिटा देता है, ताकि बाहर का भी महायुद्ध अपने आप मिट जाए। ज्योंही मन बाहरी पदार्थों की छूत भीतर लाए या लाने की कोशिश करे, त्योंही उसका दरवाजा बंद कर देना यही उस साम्यवाद का दूसरा पहलू है। इसके दोई उपाय हैं। या तो मन में भौतिक पदार्थों की छूत लगने पाए ही न, जैसा कि समदर्शन वाले पहलू के निरूपण के सिलसिले में कहा जा चुका है। तब तो सारी झंझट ही खत्म हो जाती है। और अगर लगने पाए भी, तो भीतर घुसते ही मन को ऐसी ऊँची सतह या भूमिका में पहुँचा दें कि वह अकेला पड़ जाए और कुछ करी न सके; जिस प्रकार छूतवाले को दूर के स्थान में अलग रखते हैं जब तक उसकी छूत मिट न जाए। मन को ध्यान, धारणा या चिंतन की ऐसी ऊँची एवं एकांत अट्टालिका में चढ़ा देते हैं कि वह और चीजें देख सकता ही नहीं। अगर उसे किसी चीज में फँसा दें तो दूसरी को देखेगा ही नहीं। उसका तो स्वभाव ही है एक समय एक ही में फँसना। कहते हैं कि ब्रज में गोपियों को जब ऊधव ने ज्ञान और निराकार भगवान के ध्यान का उपदेश दिया तो उनने चट उत्तर दे दिया कि मन तो एक ही है और वह चला गया है कृष्ण के साथ। फिर ध्यान किससे किया जाए? 'इक मन रह्यो सो गयो स्याम संग कौन भजै जगदीस?' यही बात यहाँ हो जाती है और सारी बला जाती रहती है।