रहस्य, रोमांच और बूढ़ा आक्रोश / जयप्रकाश चौकसे

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रहस्य, रोमांच और बूढ़ा आक्रोश
प्रकाशन तिथि :10 जून 2016


'कहानी' के लिए प्रसिद्ध सुजॉय घोष ने अपने सहायक को निर्देशन का अवसर देकर अमिताभ बच्चन, नवाजुद्‌दीन सिद्‌दीकी एवं विद्या बालन अभिनीत 'तीन' का निर्माण किया है, जो आज प्रदर्शित हो रही है। तीन पात्रों के बीच घूमती रहस्य-रोमांच की फिल्म का नाम भी 'तीन' ही रखा गया है। सत्तर पार अमिताभ बच्चन के अब तक के श्रेष्ठतम अभिनय से संवारी गई यह फिल्म कथा में निहित अनेक परतों में छिपे रहस्य के साथ अभिनेता अमिताभ बच्चन की प्रतिभा की भी अभी तक छिपी हुई नई परत को उजागर करती है। पुरानी शराब और चावल की तरह अमिताभ बच्चन अधिक मूल्यवान होते जा रहे हैं। उनकी प्रतिभा लेखकों और फिल्मकारों को चुनौती देती है कि आप कितना अभिनव चरित्र उनके लिए रच सकते हैं। यह प्रतिभा बनाम प्रतिभा का अघोषित युद्ध है अौर इस युद्धभूमि पर वे निरंतर बुदबुदाते रहते हैं, 'यह अग्निपथ, अग्निपथ, क्या महान दृश्य है, चल रहा मनुष्य है, अश्रु स्वेद से लथपथ लथपथ अग्निपथ..' यह उनके पिता हरिवंश राय बच्चन की कविता का अंश है। उनके लिए लिखी अभिनव भूमिकाओं के विषय में विनम्र निवेदन है कि वे अपने पिता की लिखी आत्मकथा पर फिल्म बनाएं और स्वयं हरिवंश राय बच्चन की भूमिका निभाएं और साहस दिखाकर रेखा को तेजीजी की भूमिका के लिए निमंत्रित करें। गृहयुद्ध से बचने के लिए जया बच्चन को भी लिया जा सकता है, जिनमें प्रतिभा की कमी नहीं है परंतु सनसनीखेज कास्टिंग के लिए, जो खेल उन्होंने यश चोपड़ा के साथ मिलकर 'सिलसिला' के लिए खेला था, उसे दोहराया जा सकता है।

बहरहाल, 'तीन' की कथा एक दादा और उसके अपहरण किए गए पोते की कथा है। ज्ञातव्य है कि अमिताभ बच्चन की पहली पारी सलीम-जावेद की बदले की फिल्म 'जंजीर' से प्रारंभ हुई थी अौर यह ताजा फिल्म भी अपहरण और बदले की ही कथा है। इस फिल्म के रहस्य की गांठ यह है कि उम्रदराज नायक अपने पोते के अपहरण करने वालेे अपराधी के पोते का अपहरण करता है ताकि वह अपराधी भी उस यंत्रणा से गुजरे, जिससे वे स्वयं कभी गुजरे थे। फिल्म में इससे जुड़े नैतिक मुद्‌दे को प्रस्तुत नहीं किया गया है, क्योंकि वह एक अलग फिल्म के लिए कच्चा माल बन जाता है। वहां मुद्‌दा यह है कि क्या अपराधी को दंड देेने का मामला व्यवस्था का नहीं है और संकेत स्पष्ट है कि व्यवस्था पर विश्वास नहीं है, इसलिए दंड भी स्वयं दे रहे हैं। याद कीजिए कि अमिताभ बच्चन अभिनीत टीनू आनंद निर्देशित 'शहंशाह' में उनका एक संवाद है कि वे जहां खड़े होते हैं, वही अदालत है और वे स्वयं ही न्यायाधीश भी हैं। अपने शिखर दशक में अमिताभ बच्चन अभिनीत अधिकांश फिल्में व्यवस्था टूटने को रेखांकित करते हुए अनाम तानाशाह को भेजे गए निमंत्रण-पत्र की तरह दिखती है। शायद वह आ गया है। इसमें उनका कोई दोष या दृष्टिकोण नहीं है। वे पेशेवर अनुशासित कलाकार हैं। उनके लेखकों का भी कोई एजेंडा नहीं था। उनके उदय होने के पहले लिज़लिजी भावुकता से सरोबोर प्रेम त्रिकोण बनते थे। उनके लेखकों ने फिल्म में प्रचलित मारधाड़ को सामाजिक कोण देकर सार्थक हिंसा को प्रस्तुत किया। पहले की मारधाड़ की फिल्में बहुत मासूम-सी बच्चों की उठापटक लगती थीं। अमिताभ बच्चन अभिनीत फिल्मों का नायक वयस्क है और पहले की मारधाड़ से वह मासूमियत को खारिज करके क्रूरता को प्रवेश देता है। आजादी के बाद का दर्शक नेहरू के समाजवादी स्वप्न के आदर्श का कालखंड का था परंतु इंदिरा गांधी का कालखंड उसके स्वप्न भंग और क्रूरता का कालखंड है। नेहरू युग के प्रतिनिधि फिल्मकार राज कपूर, दिलीप व देवआनंद थे। इंदिरा युग की फिल्में आक्रोश व हिंसा की फिल्में है और अमिताभ बच्चन के शिखर दिनों में वे इसी आक्रोश के प्रतिनिधि कलाकार रहे।

इस तरह युवा आक्रोश से उम्रदराज लोगों की चिंता तक को बच्चन ने अभिव्यक्ति दी है। सुजॉय घोष निर्मित 'तीन' भी उम्रदराज व्यक्ति की टूटी हुई व्यवस्था में चिंता की फिल्म है। इसे अाप चाहें तो 'बूढ़ा आक्रोश' भी मान सकते हैं। आज परिवार के लिए चिंता का भाव सर्वत्र नज़र आता है। संकेत स्पष्ट है कि असुरक्षा व अनिश्चित की अदृश्य चाहत के नीचे हम सब कठिनाई से सांस ले पा रहे हैं। निदा फाज़ली की चिंता, 'तवाुल खौफ की बुनियाद पर कायम है दुनिया, खुली माचिस है पहरेदार सब बारूदखानों में।'