रहस्य उजागर करने का काल खंड / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 04 अप्रैल 2014
सुना है कि हिमेश रेशमिया की फिल्म 'एक्सपोज' पांच सितारा होटल में एक कत्ल से प्रारंभ होती है और कातिल की तलाश में घटनाक्रम फिल्म उद्योग की अंतडिय़ों की गंदगी को उजागर करता है, गोयाकि जो फॉर्मूला अपराध जगत की अंतडिय़ों में प्रवेश करता था, वही फॉर्मुला इस बार फिल्म जगत की तथाकथित सड़ांध को उजागर करने का काम करेगा। आजकल सर्वत्र स्टिंग ऑपरेशन का दौर है। मारिया पुजो 'गॉडफादर' की शुरुआत ही इस वक्तव्य से करते है कि सारे सफल औद्योगिक साम्राज्य का आधार अपराध होता है और उनका संकेत यह भी है कि बेशुमार दौलत सीधे-सरल रास्तों से प्राप्त नहीं होती। इस तरह के साधारणीकरण कोई सिद्धांत नहीं बनते।
मणिरत्नम की 'गुरू' की पृष्ठभूमि एक औद्योगिक घराना है जिसका सिरमौर एक जांच आयोग के सामने गर्व से कहता है कि गांधीजी ने अंग्रेजों की व्यवस्था तोड़ी और वही कार्य उसने भी किया है तो वह अपराधी कैसे हुआ, गोयाकि नियम तोड़कर धन कमाना बतौर उस नायक अपराध नहीं माना जा सकता। इस तरह के सोच का यह परिणाम ही 'नाइन अवर्स टू रामा' में दिखाया गया है और नाथूराम गोडसे को नायक और गांधी को अपराधी की तरह भी उस फिल्म में दिखाया गया है। कुछ लोगों ने तो इस तरह की दलीलें भी दी हैं कि अपने मुकदमे में नाथूराम गोडसे ने अंग्रेजों से बेहतर अंग्रेजी अपने मुकदमें के दरमियान अदालत में बोली, तो इस भाषाई अधिकार के कारण वह निर्दोष है। तथ्य तो यह है कि नाथूराम गोडसे ने गांधीजी पर हमले का एक असफल प्रयास मुंबई-पूना के रास्ते पर भी किया था लेकिन गांधीजी ने पुलिस से उसे छोडऩे का आग्रह किया था।
बहरहाल फिल्म उद्योग में अन्य उद्योगों की तरह अनेक कमियां हैं और कई खूबियां भी हैं। कहा जाता है कि इस फिल्म में एक फिल्म बनने की कहानी भी है और उस फिल्म में एक दृश्य राजकपूर की 'सत्यम शिवम सुंदरम' की तरह लिया जाना है और नायिका की पोशाक भी मूल फिल्म की तरह है और फिल्म के भीतर फिल्म का नाम रखा गया है 'उज्जवल, निर्मल, शीतल' और ये तीन शब्द भी 'सत्यम शिवम सुंदरम' के मुकेश जी द्वारा गाए गीत का हिस्सा है। इन सब बातों से आभास होता है मानो यह मूल फिल्म की पैरोडी है लेकिन ऐसा है नहीं क्योंकि इस फिल्म का एक पात्र ऐसा पुलिस अफसर है जिसकी निगरानी में एक अपराधी की मृत्यु हो जाती है और उसे पुलिस से निकाल दिया जाता है और कालांतर में वह सुपर सितारा बन जाता है। यह घटना अभिनेता राजकुमार की ओर इशारा है। फिल्म में दो नायिकाओं की प्रतिद्वंद्विता का आधार जीनत अमान और परवीन बॉबी को बनाया गया है। स्पष्ट है कि अनेक काल खंड की अनेक घटनाओं को जोड़कर यह फिल्म बनाई गई है। इरफान खान ने इसमें भूमिका स्वीकार की है तो यह संभव है कि अब तक किए गए प्रचार से अलग यह फिल्म है। डायरेक्टर अनंत नारायण महादेवन का कहना है कि उनकी फिल्म एक गंभीर प्रयास है।
यह भी अजीब-सा तथ्य है कि फिल्म उद्योग की पृष्ठभूमि पर बनी फिल्में प्राय: असफल रही हैं, मसलन गुरुदत की संजीदा 'कागज के फूल' और राजकपूर की 'मेरा नाम जोकर' जिसकी पृष्ठभूमि सर्कस है लेकिन इसे भी मनोरंजन उद्योग ही मानेंगे। इनके अतिरिक्त कुछ और प्रयास भी हुए हैं, मसलन जोया अख्तर ने 'लक बाय चांस' एक हास्य फिल्म की तरह रची थी। मधुर भंडारकर की 'हीरोइन' भी नहीं चली। स्पष्ट है कि दर्शक की कोई रुचि यह जानने में नहीं है कि मनोरंजन उद्योग की भीतरी कार्य प्रणाली कैसी है, गोयाकि हम मिठाई खाने से मतलब रखते है और मिठाई कैसी बनती है- यह जानने की हमें जरूरत नहीं। इसी तरह हम टेक्नोलॉजी का भोग करते हैं और उसकी कार्य प्रणाली नहीं समझना चाहते।
इसी तर्ज पर हम चुनावों के उत्सव का मजा उठाते हैं लेकि गणतंत्र की कार्य प्रणाली नहीं समझना चाहते और ना ही हमें इसमें रूचि है कि आम आदमी की सेवा का दावा करने वाले नेता अरबों रुपए का प्रचार तंत्र किसके पैसे पर खड़ा करते है। विगत कुछ वर्षों में नेता और अफसरों ने रिश्वत के साथ उद्योग में भागीदारी भी मांगी तभी से उनके भीतरी तार टूटे और उद्योगपतियों ने नया नाटक और नया तंत्र खड़ा करने का निश्चय किया है। आज तो कुछ उजागर हो रहा है वह ऊपरी सतह मात्र है- असली खेल तक पहुंचना संभव नहीं।