रहस्य / निर्देश निधि

Gadya Kosh से
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मध्यांतर पार का सितंबर माह, ऋतु की अगन धीरे - धीरे मद्धम पड़ती जा रही थी। मैं, डॉ साहब यानी अपने पति के साथ देर रात तक मित्र मंडली का सत्कार कर, थककर सोई हुई थी कि रात के लगभग दो बजकर चवालीस मिनट पर हमारे शयन- कक्ष और स्टडी रूम को जोड़ने वाले दरवाजे की साँकल हौले - हौले खटकने लगी । स्टडी रूम एक तरफ से हमारे शयन कक्ष और दूसरी तरफ डाइनिंग रूम में खुलता है और डाइनिंग रूम का एक दरवाजा सीधे आँगन में । आँगन की पहुँच तो होती ही है दूर नीहारिकाओं तक। चूँकि जीना भी आँगन से ही छत पर जाता है, अतः आँगन वाला हिस्सा मुझे हमेशा से असुरक्षित ही लगता रहा है। इतनी रात में साँकल का खटकना निःसन्देह मन में किसी चोर- उचक्के का संदेह पैदा कर रहा था। लग रहा था कि कोई धीरे - धीरे खटखटाकर चेक कर रहा था कि हम जाग रहे हैं या सोए हुए है । चूँकि डॉक्टर साहब कुछ दिनों पहले ही बीमारी से उठे थे; अतः उन्हें जगाना मैंने तब तक उचित नहीं समझा जब तक मैं सुनिश्चित न कर लूँ कि कोई है या नहीं। यों भी ऐसी बहादुरी दिखाने के अवसर यदा - कदा ही आते हैं। कहीं पंखे से न हिल रहा हो दरवाजा; इसलिए धीरे से उठकर पंखा भी बंद कर दिया; परंतु साँकल का बजना जारी रहा। देर तक जागने के बावजूद किसी के होने की आशंका की पुष्टि का और कोई संकेत नहीं मिला। समय देखा, तो तीन बजकर अड़तालीस मिनट हो गए थे। सोचा, अगर कोई होता, तो क्या अभी तक हमारी टोह भर ही लेता रहता । परंतु बात तर्कपूर्ण होने पर भी दरवाजा खोलने का दुस्साहस नहीं किया था मैंने। क्योंकि खुदा ना खास्ता, अगर कोई हुआ ही होता, तो उसके बाद तो फिर भूल सुधार का भी तो कोई चांस था नहीं। बहुत देर तक जागने के बाद, फिर से घड़ी में समय देखा, तो चार बजकर बारह मिनट हुए थे। अकस्मात् ही साँकल का खटकना बंद हो गया था; परंतु मैंने दरवाजा खोलकर तो तब भी नहीं देखा।

थोड़ी और देर जागने के बाद मेरा बाहर गेट के ताले खोलने का समय हो गया था। मुझे रोज सुबह रवीन्द्र नाथ टैगौर की वे पंक्तियाँ अवश्य याद आ जाती हैं, “सुबह का पक्षी सुबह होने से पूर्व के अँधेरे में इस विश्वास पर चहकना आरम्भ कर देता है कि सुबह होने वाली है।” निःसंदेह अब सुबह होने वाली थी। मेरे मन का पक्षी भी आश्वस्त हो चुका था। साथ ही उसे यह विश्वास भी हो गया था कि सुबह होने से पूर्व का यह थका- थका- सा अँधेरा अब चमचमाते प्रकाश में विलय होने को है। आँगन की ओर न जाकर मैंने बाहर सड़क की तरफ, लॉन वाला गेट खोल दिया। गेट खोलकर बाहर झाँका तो पड़ोसवाले घर में कुछ उदासी भरी हलचल दिखाई पड़ी। रात भर के जागरण की थकान ने अधिक कुछ सोचने नहीं दिया। अब कोई खतरा नहीं था, अतः बाहर से लौट कर रात भर साँकल खटकने वाला दरवाजा भी खोल दिया था। वहाँ किसी का होना तो दूर, किसी के होने के निशान भी तो नहीं थे। आँगन में खुलने वाला डाइनिंग रूम का दरवाजा भी पूर्ण आज्ञाकारिता के साथ वैसे ही बंद खड़ा था, जैसे मैंने उसे रात को बंद किया था। स्टडी रूम की साँकल को खटकाकर देखा, तो इतनी ढीली तो नहीं लगी कि बंद कमरे में चली आई हल्की हवा से हिलने लगती।

सुबह - सुबह अपनी थकान उतारने को मैं स्नान करने जाने ही वाली थी कि पड़ोस की लड़की ने आवाज़ दी। बाहर गई, तो उसने टपकते आँसुओं के साथ बताया कि बीती रात चाचा का देहावसान हो गया। उन्हें थोड़ी देर पहले ही हॉस्पिटल से लाए हैं। मम्मी ने कहा है कि मैं आपको बता दूँ। मैंने डॉक्टर साहब को जगाया और कहा कि पहले मैं हो आती हूँ, फिर आप चले जाइएगा। दिवंगत लगभग युवा- सा लड़का, हमारा बड़ा सम्मान करता था। अब हमारी तरफ़ घरों की पूरी कतार में इस कदर सम्मान करने वाला कोई इंसान बचा ही नहीं था। यह सोच – सोच कर दुःख हुए जा रहा था। आदमी बड़ा स्वार्थी होता है। हर जगह स्वार्थ से ही प्रेरित होता रहता है। माहौल इतना गमगीन था कि अगर दिवंगत के नन्हे –नन्हे बच्चों और युवा पत्नी को सँभालना न होता, तो शायद मैं भी धार –धार रो रही होती। जल्दी ही उसके चिरप्रस्थान की तैयारी शुरू हो गई। कितनी जल्दी पड़ने लगती है साँस रहित शरीर को ठिकाने लगा देने की, सोचकर भी विचित्र वैरागी- सा होने लगता है मन। पत्नी बार - बार यही कहे जा रही थी- उन्हें खाना तो खिला देता कोई। उस बेचारे का घर अनाथ हो गया था हमेशा के लिए। नन्हें - नन्हें बच्चे बिलख रहे थे। सबसे लाड़ली बेटी तेज़ बुखार में तपने लग गई थी ।

खैर, घर की धुलाई कर एक बड़े से हाल में पतले गद्दे और धवल चाँदनी बिछा दी गई थीं । मैं अगले दिन भी जल्दी ही काम निपटाकर उसके घर चली गई। फर्श पर धवल चाँदनी पर उदासी जैसे निर्बाध बह रही थी। कल तक दीवारों के मुस्कराते रंग बदरौनके लग रहे थे। दिवंगत युवा गृहस्वामी की स्टाइलिश डर्बी हैट लगी मुसकुराती तस्वीर पर ताजे फूलों की माला डालकर सबके दर्शनार्थ रख दिया गया था। धूपबत्ती के धुएँ के साथ तैरती निराशाओं में भी बातों का सिलसिला निकल ही पड़ा । दिवंगत की भाभी, जो बड़ी ही सरल और धार्मिक विचारों वाली हैं, मेरे पास आकर बैठ गईं। बातों –बातों में मैं बताने लगी कि किस तरह कल पूरी रात मैं सो नहीं सकी, रात भर ऐसा लगता रहा कि जैसे कोई बार - बार स्टडी रूम की साँकल खटका रहा था। मैंने बस यही कहा था कि मेरे साथ उस रात घटी सारी घटना उन्होंने अपने शब्दों में बताई थी। अर्थात् हूबहू यही घटना, उस रात उनके घर में भी घटी थी। दिवंगत की मृत्यु का समय भी तो उन्होंने ठीक वही बताया था चार बजकर बारह मिनट । जिस समय से मेरे स्टडी रूम की साँकल खड़कना बंद हुई थी। इस रहस्यमयी घटना की याद जब भी आ जाती है शरीर में एक विचित्र सी सिहरन के साथ रोंगटे खड़े होने लगते हैं ।

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