रहिमन धागा प्रेम का / मालती जोशी

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अचानक फोन पर योगिता की आवाज सुनकर वह चौंक गई, ‘‘कहाँ से बोल रही है मोटी !’’

‘‘यहीं से और कहाँ से !’’

‘‘कब आई ?’’

‘‘आज ही आई हूँ और कल चली जाऊँगी। बाकी जो पूछना हो, यहीं आकर पूछना। प्लीज़, जल्दी से आ जा। साथ ही खाना खाएँगे। बहुत सी बातें करनी हैं।’’

अंजू मन ही मन हँस दी। बातें तो करनी ही होंगी। मुझसे अच्छा श्रोता कहाँ मिलेगा ? वहाँ ससुराल में तो सिर नीचा करके और होंठ सीकर ही रहना पड़ा होगा। ‘हनीमून’ के सारे किस्से मन में खदबदा रहे होंगे या फिर पतिदेव के उसी दोस्त की सिफारिश करनी होगी, जिससे शादी में मिलवाया था।

अंजू को दोनों ही बातों में रुचि नहीं थी। दूसरों के ‘हनीमून’ के किस्से चटखारे लेकर सुनने वालों में से वह नहीं है, न ही उसे उन मित्र महोदय में ही कोई रुचि थी। अपनी शादी के बारे में तो उसने सोचना ही छोड़ दिया है। पापा को अकेले छोड़ जाने की कल्पना भी वह नहीं कर सकती। इसीलिए तो उसने पी.एच.डी. की है। कम से कम थीसिस पूरी होने तक तो शादी की बात टाली ही जा सकती है।

फिर भी योगिता से मिलने की उत्सुकता तो थी ही। एक बार बंगलौर चली जाएगी तो फिर पता नहीं कब मिलना होगा। कह तो रही थी-अब अपनी मर्ज़ी से आना जाना थोड़े ही हो सकता है। एक दिन की ब्रेक जर्नी करनी थी, उसके लिए भी हाईकमान से परमिशन लेनी पड़ी। बेचारी योगिता !

तैयार होकर बाहर निकली तो पापा हमेशा की तरह बरामदे में बैठे पेपर पढ़ रहे थे।

‘‘पापा ! मैं कॉलेज से सीधे योगिता के घर निकल जाऊँगी। आप लंच पर वेट न कीजिएगा।’’

‘‘ठीक है।’’ पापा ने कहा। वह सीढ़ियाँ उतरी ही थी कि उन्होंने आवाज़ दी, ‘‘तुमने अभी क्या कहा ? योगिता के घर जाओगी ? लेकिन वह तो ससुराल में है न !’’

‘‘ससुराल में थी। अब पति के साथ बंगलौर जा रही है। एक रात के लिए ब्रेक जर्नी की है।’’

‘‘ओ.के.।’’ पापा ने कहा और फिर अखबार में डूब गए। बेचारे पापा ! दुनिया जहान की खबरें पढ़ते रहते हैं, पर अपना घर कब खबर बन गया, उन्हें पता ही नहीं चला।


योगिता दरवाज़े पर ही प्रतीक्षा करती मिली। अंजू को देखते ही गले लग गई। अंजू ने महसूस किया कि इन तीन चार हफ्तों में उसका वज़न कम से कम तीन किलो बढ़ गया है। शादी के लिए बड़ी मुश्किल से दुबली हुई थी, अब जैसे सारी बाधाएँ हट गई थीं।

‘‘मोटी ! तू फिर अपनी पुरानी लाइन पर जा रही है-बी केयरफुल !’’

‘‘चुप कर ! मम्मी तो ऐसा कह रही थीं कि आधी रह गई हूँ।’’

‘‘मम्मी तो ऐसा कहेंगी ही। मां को तो अपना बच्चा हमेशा दुबला-पतला ही नज़र आता है। पर तुम्हारे यहाँ आईना भी तो होगा ?’’

‘‘एक तो इतनी देर करके आई हो और आते ही भाषण शुरू ! यहाँ भूख के मारे बुरा हाल हो रहा है।’’

‘‘मेरा भी। तुम्हारा फोन आने के बाद तो मैंने नाश्ता भी नहीं किया। सोचा अपनी लाड़ली के लिए आंटी ने बढ़िया-बढ़िया पकबान बनाए होंगे, पेट में जगह रखनी चाहिए।’’

सचमुच योगिता की मम्मी ने खाने का लंबा-चौड़ा इंतजाम किया हुआ था। लगता था, उसकी सारी पसंदीदा चीजें बना डाली हैं। वे उसे ठूँस-ठूँसकर खिला रही थीं। आज अंजू की ओर उनका जरा भी ध्यान नहीं था। योगिता ही बीच-बीच में उसकी प्लेट में जबरदस्ती कुछ न कुछ डाल रही थी। खाने के साथ-साथ आंटी की कमेंट्री भी चल रही थी, ‘‘मम्मी से मनुहार करवाकर खाने की आदत है न, तभी तो वहाँ अधपेट उठ जाती होगी। वहाँ मनुहार करने के लिए कौन बैठा है ?’’

‘‘क्यों, मेरी सास नहीं है ? इतनी अफेक्शनेट है...’’

‘‘अरे, रहने दे। मैं क्या नहीं जानती, सास और वह भी यू.पी.की। अफेक्शनेट है तो इतना-सा मुँह क्यों निकल आया है ?’’

‘‘अब तुम्हारी बराबरी थोड़े ही कर सकती है।’’

अंजू को यह सब देख-सुनकर हँसी भी आ रही थी और ईर्ष्या भी हो रही थी। मन में टीस सी उठ रही थी-कल को अगर वह ससुराल से लौटेगी तो उसका इतना लाड़-दुलार कौन करेगा ? पापा तो शायद ठीक से कुशलक्षेम भी न पूछ पाएँ। वे अपने को ठीक से व्यक्त ही नहीं कर पाते। उनसे ज़्यादा मुखर तो बिहारी काका हैं। शायद वे ही उसे योगिता की मम्मी की तरह मनुहार करके खिलाएँगे, बेटी के दुबला होने को लेकर सास को कोसेंगे।

‘‘एक तो इतनी देर लगाकर आई है और अब मुँह में दही जमाकर बैठ गई है !’’ योगिता ने कहा तो अंजू चौंकी। सच तो यह है कहाँ तो उनकी बातें थमने का नाम ही नहीं लेती थीं और कहाँ अब उसे शब्द ढूँढने पड़ रहे हैं। खाना खाते समय भी वह गुमसुम बनी रही और अब कमरे में आकर भी चुप्पी साधे है। योगिता के कुरेदने पर चौंककर बोली, ‘‘इस कमरे की सज्जा थोड़ी बदल गई है न ?’’

‘‘थोड़ी क्या, एकदम कायापलट हो गई है। आजकल मनीष ने इसे हथिया लिया है। कहता है, कब तक बड़े के साथ लटका रहूँगा। कल को उनकी शादी हो जाएगी तो मुझे देश निकाला मिलना ही है।’’

‘‘चलो, अच्छा हुआ जो तुम्हारी शादी हो गई, नहीं तो बेचारे को बरामदे में गुजारा करना पड़ता। बाई द वे, तुम्हारे श्रीमान् जी कहाँ हैं ?’ नजर नहीं आ रहे हैं !’’

‘‘वाह ! बड़ी जल्दी याद आई तुम्हें !’’

‘‘अरे, याद तो तुम्हें देखते ही आ गई थी, पर मैंने सोचा कि मेरे डर से तुमने उन्हें कहीं छिपा दिया है। फिर सोचा कि मैं न सही, वे तो अपनी इकलौती साली से मिलने के लिए बेताब होंगे, अभी आ जाएँगे। पर जब नहीं आए तो पूछना ही पड़ा। तुम्हारे साथ आए तो हैं न ?’’

‘‘आए तो हैं, पर जरा बड़े भैया के साथ मंडीदीप गए हैं।’’

‘‘बाप रे, इतनी दूर भेज दिया। मुझसे इतना डरती हो ?’’ अंजू अब मूड में आ गई थी।

‘तुम्हारी वजह से नहीं, अपनी गरज से भेजा है। सोचा, अगर यहीं कोई अच्छा सा जॉब मिल जाए तो इतनी दूर न जाना पड़े।’’

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