राक्षस मर गया / सुधा भार्गव
एक राजा था। उसे शिकार खेलने का बड़ा शौक था। एक दिन जंगल में जाकर उसने हिरन का शिकार किया। उसके दो टुकड़े करके उन्हें डंडे के दोनों सिरों पर बांध दिया और बहँगी की तरह कंधे पर रखकर पेड़ के नीचे ले गया। थकान होने के कारण उसकी आराम करने की इच्छा हुई. पेड़ की छाया में लेटते ही बस नींद के झोंके आने लगे।
उस पेड़ पर एक राक्षस रहता था। नीचे झाँका तो बड़ा खुश हुआ–आह! आज तो दो–दो शिकार हाथ लगे। हिरन का गुदगुदा मांस और मनुष्य का मीठा मांस। जी भरकर खाऊँगा।
राजा की नींद खुली तो वह हिरन को लेकर जाने लगा। तभी राक्षस ने उसका हाथ पकड़ लिया और बोला—कहां जाता है? तुझे और तेरे हिरन को तो मैं आज और अभी कच्चा चबा जाऊंगा। -तू कौन है? -मैं पेड़ पर रहने वाला राक्षस हूँ जो इसके नीचे आता है उस पर मेरा अधिकार हो जाता है। अब मैं तुम दोनों का कुछ भी करूं, मुझे कोई रोक नहीं सकता।
राजा उसकी बात सुन घबराया नहीं और बड़े धैर्य से बोला–तू आज ही भोजन करना चाहता है या रोज–रोज तरह–तरह के स्वादिष्ट व्यंजन खाना चाहता है? -मैं तो रोज खाना चाहता हूँ। -तब आज इस हिरन को खा ले और मुझे छोड़ दे क्योंकि मैं तेरे लिए कल से रोज अपनी रसोई में बने भोजन की थाली एक आदमी के हाथ भेजूंगा। भोजन के साथ-साथ उस आदमी को भी खा लेना। -यदि तूने किसी दिन थाली नहीं भेजी तो तुझे खाने आ जाऊंगा। यह याद रखना। -मेरे पास सब कुछ है। मैं वायदा करके निभाना जानता हूँ। -ठीक है–तू जा और अपना वादा निभा।
राजा अपनी जान बचाकर भागा। उसकी जेल में बहुत से आदमी थे। वहाँ से प्रतिदिन एक आदमी भोजन की थाली लेकर राक्षस के पास आता और राक्षस दोनों को खाकर अपनी भूख मिटाता। थाली ले जाने वाला को यह नहीं बताया जाता था कि खाने वाला एक भयानक राक्षस है और वह भी उसका भोजन है।
एक दिन ऐसा आया कि जेल के सारे आदमी खतम हो गए. राजा मौत के डर से परेशान हो उठा और उसने मंत्री को राक्षस की सारी बातें बताईं।
मंत्री बहुत चतुर था। उसने सलाह दी–महाराज पूरे राज्य में घोषणा करवा दीजिये–जो राक्षस के पास भोजन की थाली लेकर जाएगा उसे हजार सोने के सिक्के मिलेंगे। धन के लालच में ज़रूर कोई आयेगा।
संतु नाम के एक गरीब लड़के ने राजा की घोषणा सुनी तो उसने सोचा–मैं ज़रूर उस दुष्ट राक्षस को मारकर आऊँगा और यदि उसमे मुझे मार दिया तो भी कोई बात नहीं मेरी माँ को इतना धन मिल जाएगा कि वह सुख से जीवन बिताएगी।
उसने माँ को अपने जाने के बारे में बताया तो वह तड़प उठी–बेटा! मुझे धन नहीं चाहिए, अपना बेटा चाहिए. तू राक्षस के पास एकदम नहीं जाएगा, वहाँ तेरे प्राणों को खतरा है।
जब माँ नहीं मानी वह चुपके से मंत्री के पास गया और बोला–मैं राक्षस के पास भोजन लेकर जाने को तैयार हूँ। मुझे सोने के हजार सिक्के दे दो।
उन सिक्को को उसने माँ को ले जा कर दे दिये और उससे बोला–माँ ज़रा भी दुखी न होना। मैं राक्षस को मारकर अभी आता हूँ। इससे राज्य के सब लोग सुखी होंगे और हम हँसते–हँसते रहेंगे।
उसने माँ के पैर छूकर आशीर्वाद लिया और राजदरबार में आकर खड़ा हो गया। -तू राक्षस को भोजन की थाली ले जाएगा? तैयार है। राजा ने पूछा। —हाँ महाराज, पर मुझे आपकी सोने की खड़ाऊं चाहिए. -क्यों? -पेड़ के नीचे जमीन पर खड़े लोगों को राक्षस खा जाता है पर मैं खड़ाऊँ पहनकर खड़ा होऊँगा। तब देखता हूँ वह मुझे कैसे खाएगा। इसके अलावा मुझे आपका छाता भी चाहिए. -छाता क्यों चाहिए? -पेड़ की छाया में खड़े व्यक्ति को राक्षस खा जाता है पर मैं आपकी छतरी की छाया में खड़ा होऊँगा तब वह मुझे नहीं खाएगा। मुझे आपकी तलवार भी चाहिए. —सावधान होकर जाना तो अच्छा है पर तलवार की क्या ज़रूरत है? वह तो तुम चलाना भी नहीं जानते। -जंगली, दुष्ट और बुरे काम करने वाले तलवार देखते ही डर जाते हैं। फिर तलवार चलाने की क्या ज़रूरत! -तुम तो बड़े बुद्धिमान लगते हो। अच्छा इसके अलावा और क्या चाहिए? -सोने की थाली में रखा आपका भोजन। मुझ जैसा बुद्धिमान मिट्टी के बर्तनों में खाना ले जाता अच्छा नहीं लगता। शान से जाऊंगा।
राजा उसकी बात पर मुस्कुरा उठा और मांगा हुआ सामान दे दिया। कुछ सेवक भी उसके साथ कर दिये।
जंगल में पहुँचकर उसने सेवकों को एक स्थान पर बैठा दिया। खुद ने सोने की खड़ाऊं पहनी, कमर में तलवार बांधी, एक हाथ से चांदी की छ्तरी पकड़ी और दूसरे हाथ में भोजन से भरी सोने की थाली। निडरता से अकेला ही वृक्ष की ओर बढ़ गया।
राक्षस ने दूर से संतु को आते देखा। वह उसे अन्य लोगों से भिन्न लगा। संतु छाया से बाहर खड़ा हो गया और तलवार की नोक से थाली पेड़ की छाया के अंदर कर दी। -तू भी छाया के अंदर आ जा। हम दोनों मिल–मिलकर भोजन करेंगे। राक्षस ने कहा। -मुझे मालूम है जैसे ही मैं छाया में आऊँगा तू मुझे खा जाएगा पर ज़रा से फायदे के लिए तू अपना बहुत बड़ा नुकसान कर लेगा। मेरे बाद फिर कोई डर के मारे इतना बढ़िया मसालेदार भोजन लाने की हिम्मत नहीं करेगा। -हे बालक, तू मुश्किल से 16-17 साल का होगा पर है बहुत समझदार। मेरे भले की बात करता है इसलिए मैं तुझसे बहुत खुश हूँ। तू अपनी माँ के पास लौट जा। तुझे ठीक–ठाक देखकर वह बहुत खुश होगी। साथ में अपना सामान भी ले जा। -मित्र, तुम ही यहाँ रहकर क्या करोगे, मेरे साथ चलो। पहले से ही तुमने न जाने कितनों को मारा है। अब यह हिंसा छोड़ो और शांति से रहो। संतु ने उसकी ओर दोस्ती का हाथ बढ़ाया। -तुमने मुझे अपना मित्र बनाया, अब मित्र की बात तो माननी ही पड़ेगी। राक्षस के चेहरे की कठोरता और हृदय की क्रूरता एक पल में छू-मंतर हो गई.
वह छत्र, खड़ाऊं और थाली उठाकर संतू के साथ नगर की ओर चल दिया। राक्षस को देखकर नगरवासी भयभीत हो अपने–अपने घरों में जा छिपे। राजा ने उन दोनों को आते देखा तो हक्का–बक्का रह गया। -संतू, तुम तो इस राक्षस को मारने गए थे लेकिन इसको अपने साथ ले आए! -मैं वाकई में राक्षस को मारकर आ रहा हूँ। यह पहले वाला राक्षस नहीं है। इसने बुरा काम करना और दूसरों का बुरा सोचना छोड़ दिया है। यह तो मेरा मित्र है। अब से मेरे साथ ही रहेगा।
संतू की बात सुनकर सब उसकी तारीफ करने लगे और एक बार फिर से उनका जीवन शांतिपूर्ण हो गया।