राखी / सुषमा मुनीन्द्र
पत्रवाहक पत्र थमा गया था — भाई राखी पर उसके घर आ रहा है। चकित विव्हल संखी उस दो पंक्ति के पत्र को ऐसे सहलाने लगी जैसे भाई का राखी बंधा हाथ हो। भाई लोकसभा का चुनाव लड़ रहा है। उसे तो चुनाव प्रचार में व्यस्त होना चाहिये था और वह राखी बंधवाने आ रहा है। कहाँ से निकाला इतना अवकाश? क्या वह जानती नहीं कि चुनाव के समय आदमी को खाने तक की फुर्सत नहीं मिलती है। उसके कस्बे में भी तो चुनाव प्रचार में कैसी तेजी आ गई है। रात दिन झंडा लगी गाड़ियां दौड़ रही हैं‚ प्रचारक लाऊड स्पीकरों में चीख रहे हैं और ऐसे समय में भाई ने राखी बंधवाने आने का समय निकाल लिया?
पत्र दो दिन पहले ही मिला है वरना अपनी सभी बहनों को यहीं बुला लेती। कब से तो नहीं बांधी भाई को राखी। अम्मा ने सैंकड़ों पत्थर पूजे‚ तब जाकर यह भाई हुआ था। अब तक वे पांचों बहनें बाबूजी को राखी बांधती आई थीं। बाबूजी सबको पांच पांच रूपए देते। अम्मा ने अपनी कारीगरी दिखा मोतियों के पांच छोटे छोटे बटुए बनाए थे। बाबूजी से छोटी छोटी स्लिप लिखाई थी। उसके बटुए में लिखा था “संखी की रकम”। सभी बहनों के बटुए में उनके नाम की रकम डाल दी जाती। भाई हुआ तो बाबूजी उसकी तरफ से पांच रूपए देने लगे थे।
भाई के जन्म के दो माह बाद ही राखी पड़ी थी। बहनों का उत्साह देखते ही बनता था। बड़े मनोयोग से टीके की थाली सजाई थी। मनपसंद राखी और मिठाई खरीदी थी। अन्नप्राशन न होने से भाई को मिठाई तो नहीं खिला पाई थी‚ पर राखी बड़े उत्साह से बांधी थी। भाई के नन्हे हाथ पांव राखियों में डूब गये थे। राखियां उसे चुभने लगी थीं और वह रोने लगा था। वह हाथ पैर चला चला कर राखी निकाल न ले‚ इस भय से संखी ने राखी तनिक कस कर बांध दी थी। अपने लल्ला का रुदन सुन कर अम्मां रसोई से दौड़ी दौड़ी आई थीं और राखियां उतार कर फेंक दी थीं।
“दो माह के बच्चे पर इतना बोझ लाद दिया तुम लोगों ने? राखियां गड़ रही हैं बेचारे को और ये…ये राखी इतनी कस कर किसने बांधी?"
“संखी ने अम्मां।”बड़ी बहन ने बताया।
तड़ाक से एक चांटा संखी की कनपटी पर पड़ा था‚
“भाड़ में गया तेरा त्यौहार‚ लल्ला के हाथ में निशान पड़ गया।"
अम्मां ने संखी की राखी तोड़ मरोड़ कर एक तरफ फेंक दी थी। बहुत सोच विचार कर चयन की गई अपनी सर्वोत्कृष्ट राखी की दुर्दशा पर उसे जोर की रुलाई आ गई थी। बाबूजी ने वह राखी उठाई।
“ले मुझे बांध दे। कहा था न‚ भाई अभी छोटा है। उसके लिये इतनी बड़ी राखी न ले‚ पर तू माने तब न। रेशम के धागे की पाट वाली राखी ले लेती तो अच्छा होता।"
वह बाबूजी के हाथ में राखी बांध उनके मलमल के कुर्ते में मुंह छुपा बड़ी देर तक सिसकती रही।
भाई थोड़ा बड़ा हुआ तो थाली में सजे मोदक पहले मुंह में भर लेता‚ राखी बाद में बंधवाता। अम्मां उसके इस क्रियाकलाप पर वारी न्यारी हो जाती। मंहगाई बढ़ी‚ भाई शिशु से किशोर हुआ‚ पर उन बहनों का पांच रुपया नहीं बढ़ा। भाई अकड़ता।
“पांच रूपये में राखी बांधनी हो तो बांधो वरना फूटो यहां से। मैं राखी बंधवाने के लिये मरता नहीं। पांच राखियां हाथ में लटका कर निकलो तो यार दोस्त हंसते हैं कि पांच सहोदराओं के ब्याह करते करते तो तेरा भट्ठा बैठ जाएगा।”अम्मां अपने लल्ला की अदाओं पर मुक्त कण्ठ से हंसतीं।
“देखा‚ अभी से इसे चिन्ता है तुम लोगों के ब्याह की। अभी तो लल्ला कमाता धमाता नहीं है‚ पांच रूपये ले लो। जब कमाएगा तब राखी पर बहुत देगा "
“ठेंगा दूंगा। ये लोग राखी स्नेह के लिये बांधती हैं या रूपए ऐंठने के लिये? “अम्मा के स्नेह की छत्र छाया में पलता बढ़ता लल्ला ऐसा ही असिष्ट हो गया था।
भाई का व्यवहार बहनों से कभी अच्छा नहीं रहा‚ फिर भी राखी के पर्व में न जाने कौनसा आकर्षण था कि इस त्यौहार में मन पुलक से भर जाता। दोनों विवाहित बहनें एक माह पहले से लिख भेजतीं “अम्मां‚ राखी पर बुलाना न भूलना।”दोनों जीजियां राखी‚ मिठाई‚ नारियल‚ भाई के शीश पर रखने के लिये सुन्दर सा रूमाल और जाने क्या क्या लातीं। मध्यरात्रि तक पांचों बहनें हाथों में मेंहदी के बूटे रचातीं। दोनों जीजियों को अम्मां अब साड़ी देने लगी थीं। कहतीं —
“बेटियों‚ लो‚ बहुत कीमती तो नहीं हैं पर लेलो। जब तुम्हारा भाई बड़ा आदमी बनेगा‚ तब राखी पर बहुत बढ़िया साड़ी देगा।"
संखी हंसती‚ “भाई जब देगा‚ तब देगा। अम्मां‚ अभी तो तुम हमें हमारी रकम लौटा दो। हम लोग अब बटुए अपने पास रखेंगे।"
“हाँ‚ अम्मां‚ कहां गई हमारी इतने सालों की रकम और वो रंगबिरंगे बटुए? “जीजियां हंसती।
अम्मां का चेहरा विवर्ण हो जाता। उनके लल्ला ने एक एक करके सारे बटुए खाली कर दिये थे और अम्मां देख कर भी अनजान बनी रहीं थीं। संभवत इस प्रतीक्षा में कि एक दिन भाई बड़ा आदमी बनेगा और सूद समेत सबकी रकम लौटा देगा।
भाई सचमुच बड़ा आदमी बन गया था। पढ़ने लिखने में उसका मन कभी नहीं लगा। बाबूजी कुछ कहते तो अम्मां ढाल बन कर खड़ी हो जातीं। भाई बुरी संगत में पड़ता गया। कालेज में पहुंच कर उसकी छुटभैय्यै नेताओं से मित्रता हो गयी। संक्षिप्त में कहें तो वह स्वयं भी छुटभैय्या नेता बन चुका था। नेताओं के लिये भीड़ जुटाता‚ व्यवस्था देखता‚ जेल भरो आन्दोलन में भाग ले जेल भी चला जाता। अपनी इन्हीं विशेषताओं के चलते विधानसभा का टिकट पा गया और भारी मतों से विजयी हुआ।
अब तो बाबूजी भी विधायक पुत्र के अवगुणों को चित्त नहीं धरते थे। भाई का भाग्य ऐसा प्रबल कि अब लोकसभा का चुनाव लड़ रहा है‚ जिसमें संखी का कस्बा है।
भाई को विधायकी मिलने के बाद आई राखी पर सभी बहनें बड़ी ललक से गई थीं राखी बांधने। बड़े आदमी के स्तर के अनुरूप ही राखी ले गईं थीं‚ बड़ा आदमी अपने आवास पर नहीं मिला था। विधानसभा का सत्र चल रहा था‚ अत वह भोपाल में था। बहनों के साथ संखी भी हताश लौट गई थी। पता नहीं‚ भाई की कलाई पर राखी न बांध पाने से या बड़े आदमी की भेंट से वंचित रह जाने से।
अगली राखी तक भाई का ब्याह हो चुका था। भाभी बहुत बड़े घर से आई थी। किसी कैबिनेट मंत्री की पुत्री। सभी बहनें इस बार दो राखियां ले गईं‚ भाई के साथ भाभी को भी तो राखी बांधनी होगी। भाई के आयातित कैमरे से फोटो उतरवाएंगी राखी बांधते हुए। पर भाभी राखी मनाने अपने पितृगृह चली गई थी‚ पीछे पीछे सुबह की फ्लाईट से भाई भी। उसके मंत्री ससुर ने आवश्यक चर्चा के लिये बुला लिया था। राखी के सजे थाल मुंह चिढ़ाते रह गये थे।
अनायास बचपन की राखी बहुत याद आने लगी थी। भाई साल भर धमकाता था‚ “तुम लोगों से राखी नहीं बंधवाऊंगा‚ पैसा तो एक न दूंगा।"
बहनें लड़तीं‚ “कैसे नहीं देगा? बाबूजी देंगे। अभी तेरी कमाई नहीं खाते हैं जो धौंस जमा रहा है।”पांच रूपए के लिये ऐसा युद्ध होता था‚ जैसे शाही खजाना हो।
अगली राखी पर भाई भाभी दोनों मिले थे। भाई ने रात्रिभोज पर पत्रकारों को बुला रखा था। वह पत्रकारों से सदा मधुर सम्बन्ध बना कर चलता था। इस बार बाकि बहनें तो नहीं आई थीं‚ पर वह नजदीक होने की वजह से चली गई थी। भाई को दिनभर स्त्रियां और क्षेत्र के ब्राह्मण लोग राखी बांधने आ पहुंची। वह दो क्षण अवकाश निकाल कर भीतर आया ही था कि ब्रह्म कुमारियां साथ में फोटोग्राफर लाईं थीं बड़ी देर तक फोटो उतरते रहे। फिर पत्रकार आने लगे थे। बियर का दौर आरम्भ हो गया था।
भीतर भाभी की भृकुटि तनी थी‚ “इनके पत्रकारों के मारे इस बार राखी पर मायके नहीं जा पाई। मेरा इकलौता भाई प्रतीक्षा कर रहा होगा। उसकी कलाई आज सूनी पड़ी होगी। उसकी तो मैं एक ही बहन हूँ और यहां इनके भोज की व्यवस्था में लगी हूँ। पहले बताया होता तो किसी से राखी ही भेज देती।”
संखी बोल पड़ी थी‚ “सुखदा तुम्हारा भाई दूर है‚ तुम इसलिये राखी नहीं बांध पा रही और मेरा भाई तो निकट होते हुए भी मेरी पहुंच से दूर हो गया है। बड़ा आदमी बन गया है। इतना बड़ा कि मुझसे राकी तक बंधवाने का अवकाश नहीं है उसे। “
सुखदा ने नयन तरेरे‚ “जीजी‚ तुमको बस अपनी पड़ी है। दिन भर तो सांस नहीं ले पाये बेचारे। अब क्षेत्रीय लोगों‚ समर्थकों‚ पत्रकारों को नाराज़ करते भी तो नहीं बनता न। तुम तो अपनी हो‚ फिर भी भाई की विवशता नहीं समझती। देखना‚ रात बारह से पहले फुर्सत पा जायें तो।”कहकर सुखदा ने आलमारी में रखी गड्डी में से सौ का नोट निकाला।
“मैं शगुन के पैसे दिये देती हूँ‚ पता नहीं वे कब फुर्सत पाएंगे।”इसीलिये डटी थी न अब तक‚ तो लो और दफा हो जाओ।
सुखदा के नेत्रों की भाषा पढ़ने में नहीं चूकी थी संखी।राखी वहीं छोड़ पति के साथ पीछे के द्वार से लौट गई थी। सदर द्वार से तो पत्रकारों की आवाजाही लगी थी। वहां से निकल वह अपने निम्न आर्थिक स्तर का ढिंढोरा पीट विधायक भाई की प्रतिष्ठा कम नहीं होने देना चाहती थी। राखी का सम्बन्ध तो भाई बहन के सम्बन्ध को दृढ़ करता है और वह उस सम्बन्ध को विषाक्त बनाएगी? नहीं…कदापि नहीं। यत्न से रोका गया बांध घर पहुंचते ही फूट गया था। पशु चिकित्सालय में कम्पाउण्डर के पद पर पदस्थ पति तीरथ ने घुड़का था‚
“बांध आई राखी? किसी ने रुकने तक को नहीं कहा। अरे‚ तुमसे तो तुम्हारी बहनें अक्लमन्द हैं। मान अपमान समझती हैं। तुम वही गंवार की गंवार। वह बड़ा आदमी बन गया है‚ उसे हम जैसे निर्धन से सम्बन्ध रखते लज्जा आती है‚ कब समझोगी तुम? “
संखी का शीश ग्लानि से कमर तक झुक गया था। तब से वह भी अन्य बहनों की तरह राखी पोस्ट करने लगी है। एक दो बार एक सौ एक रूपए का मनीऑर्डर आया‚ फिर वह भी बन्द हो गया। फिर भी संखी राखी भेजना न भूलती। कल्पना करती भाई ने उसकी राखी कलाई पर अवश्य बांध ली होगी। नन्हें हाथों में पांच राखियां बांधे प्रलोभी जीभ में दो मोदक ठूंसे‚ माथे पर फैल गये हास्यास्पद आकृति बनाते अक्षत रोली वाले भाई का शिशु रूप याद आता‚ दुखी होती। बड़े आदमी पता नहीं कैसे भूल जाते हैं स्नेह के इन कच्चे सूतों को और अब वही बड़ा आदमी बहन से राखी बंधवाने आ रहा हैॐ वह भी चुनाव जैसे व्यस्त माहौल में ॐ भाई की कलाई पर वर्षोंं बाद राखी बांधने के रोमांच में वह डूब उतरा रही थी‚ तभी तीरथ पशु चिकित्सालय से लौटा। वह बड़े उत्साह से बताने लगी‚
“भाई आ रहा है‚ राखी बंधवाने। मैं न कहती थी कि कितना भी बड़ा आदमी बन जाये हम बहनों को नहीं भूल सकता। मंत्रियों के पास समय नहीं होता है तो बेचारा क्या करे?”
“कुछ न करे‚ बस मेरे घर न आए। आज तक पूछा नहीं‚ अब क्या करने आ रहा है? “तीरथ की भृकुटी तन गई ।
“भूल जाओ सब। अब तो आ ही रहा है‚ मंत्री है‚ उसके साथ भीड़ भाड़ होगी। सबके सामने कुछ न कहने लग जाना वरना लोग कहेंगे‚ “बड़े आदमी से कैसा व्यवहार किया जाता है‚ हमें मालूम नहीं है। और फिर अपने दीना ने इसी वर्ष बी। ए। किया है‚ भाई से कहूंगी कहीं लगवा देगा।”
“मुझे उससे कोई अहसान नहीं लेना।”तीरथ का रोष जाता ही न था।
“गुस्सा थूको भी। बहुत काम है। किराना‚ साग भाजी‚ फल फूल लाना होगा। उसकी पसन्द का खाना बनाऊंगी। बेचारा रोज़ दौरे पर रहता है। पता नहीं क्या खाता होगा? सुखदा को तो समाज सेवा‚ किटी पार्टी‚ क्लब से फुर्सत नहीं है।”
“ठीक है‚ ठीक है। अधिक पक्ष न लो उसका। चुपचाप बताओ क्या लाना है?”कह कर कुप्पा बना तीरथ सौदा सुलुफ ले आया था।
मंत्री जी तीरथ के घर आ रहे हैं। यह समाचार स्पेशल बुलेटिन सा ही पूरे मोहल्ले में प्रचारित प्रसारित हो गया था। तीरथ के घर ऐसे भीड़ जुटने लगी‚ जैसे कोई तीर्थ हो। लोगों की अपनी अपनी समस्याएं थीं जो वे मंत्रीजी को बताना चाहते थे। अस्पताल के बड़े सर्जन उसके घर दोड़े आए‚
“भाई तीरथ तुम तो बड़े आदमी हो। मंत्री जी तुम्हारे साले बाबू हैं‚ हमें तो पता ही नहीं था। अतके काम करवाने की एक आड़ हो गई।”
वैटरनरी सर्जन के मुख से स्वयं को बड़ा आदमी सुन वह एकाएक स्वयं को विशिष्ट समझने लगा। फिर तो उसका रोष ऐसे धुल पुंछ गया‚ जैसे पत्ते को झटक कर कोई उस पर गहरी पानी की बूंदों को गिरा दे। पड़ौसियों‚ परिचितों का सहयोग देखते बनता था‚ उन्होंने आनन फानन तीरथ के घर का कायाकल्प कर डाला। अतिथि के अनुसार ही तो घर होना चाहिये।
बहुमूल्य क्रॉकरी‚ सोफे‚ लैम्प‚ बेडशीट‚ पर्दे। बड़े सर्जन ने अपना कारपेट भेजा‚ साथ में अपना चपरासी भी। संखी विमुग्ध थी‚ जैसे उसके सपनों का महल ही आकार ग्रहण कर रहा हो।
राखी का दिन। घर में गहमा गहमी। तीरथ‚ संखी‚ दीना और उसके दोनों छोटे भाई अपने अपने स्तर पर व्यस्त। संखी ने बड़े मनोयोग से रसोई बनाई — भरवां भिण्डी‚ मुनगे की कढ़ी‚ दही बड़े‚ खीर‚ आलू की टिक्की‚ मटर पुलाव‚ मिक्स्ड दाल‚ पूड़ी। मिष्ठान बड़े सर्जन ने ला पटका था।
मंत्री जी समय से एक घंटा विलम्ब से पहुंचे। विश्रामगृह में फ्रेश हुए। विशाल मैदान में जनसभा को सम्बोधित किया। विश्रामगृह लौटे। इधर संखी के घर में पूरा मोहल्ला घुसा चला आ रहा था। संखी बार बार दरवाजे पर झांक आती‚ लौटती‚ राखी के थाल का निरीक्षण परीक्षण करती‚ कुछ कमी तो नहीं है। कई अन्य स्त्रियां भी उसके भाई को राखी बांधने के जुगाड़ में थीं।
लगभग तीन बजे भाई पधारा। कारों के काफिले को देख संखी की छााती तनी जा रही थी। भाई भीड़ का अभिवादन करता भीतर आया। भाई का प्रभुत्व‚ ठसक‚ दबदबा विलक्षण था। चरण छूते भाई की पीठ पर हाथ फेरते भाई की पीठ पर हाथ फेरते हुए संखी को जोर की रुलाई आ गई।
भाई बोला‚ “ये क्या जीजी? खुशी के अवसर पर कोई रोता है भला?”भाई के मुंह से मधु टपका पड़ता था।
संखी बोली‚ “कभी कभी खुशी से आंखे छलक पड़ती हैं भाई। आओ आराम से बैठो। पहले तुम्हें राखी बांध दूं। न जाने कितने वर्षोंं बाद तुम्हें अपने हाथों से राखी बांधूंगी।”
“इसीलिये तो आया हूं जीजी। तुम बहनों की राखी ही तो है‚ जिसने मुझे इस ऊंचाई पर पहुंचाया है।”
“राखी में इतनी शक्ति है‚ फिर तो तुम्हें आज ढेर सारी राखी बंधवानी होंगी। ये सब महिलाएं राखी बांधने के लिये सुबह से तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही हैं।”
“सबसे बंधवाऊंगा। ये सब मेरी बहनें हैं। इन सबका आर्शीवाद चाहिये मुझे।”्र्र्र्र्र्र
लोग मुक्त कण्ठ से मंत्री जी की विनम््राता की तारीफ करने लगे।
उनका पी ए बोला‚ “सर तो सीधे यहीं आते पर लोग छोड़ते ही न थे। सर कह रहे थे कि कितना अच्छा होता‚ जो राखी का पर्व पांच दिन तक मनाया जाता‚ मैं एक एक कर पांचों बहनों के घर हो आता।”
लोग मंत्री जी की भावना देख वाह वाह कर उठे। संखी ने भाई की आरती उतारी। मिठाइ खिलाने लगी‚ पर भाई ने रोक दिया‚
“जीजी‚ डायबिटीज़ की शुरुआत हो चुकी है।”
“हाय नारायण‚ इस उम्र में?”
“कहते हैं न‚ सकल पदारथ है जग माहिं‚ करमहीन जन पावत नाहीं। मैं भी ऐसा करमहीन…”
“नहीं…नहीं…भाई। ऐसा न कहो। नारायण तुम्हें खूब सुखी रखे।”
संखी के साथ ही उपस्थित स्त्रियां भावुक हो उठीं। कई स्त्रियों ने मंत्री जी को राखी बांधी। पांच बजे यह क्रम थमा। तीरथ व्यग््रा था दीना की नौकरी की बात के लिये‚ पर अब तक कहने का अवसर नहीं मिला था। इधर संखी भूखे भाई को खाना खिलाने के लिये अथीर थी। पता नहीं‚ साथ में कितने लोग खाएंगे। दस पन्द्रह लोगों की तो व्यवस्था उसने कर रखी थी। बोली‚
“भाई मैं खाना लगा रही हूँ। चलो खाओ‚ सब तुम्हारी पसन्द का बनाया है।”
“ओह … हाँ…।”
“सर‚ लंच तो आप डिस्ट्रिक्ट एथॉरिटीज़ के साथ विश्रामगृह में ले चुके हैं और डिनर का प्रबंध विधायक जी ने कर रखा है।”पी ए ने डायरी देख कर बताया।
“ओह…आपने बताया नहीं अब तक? “भाई ने मिथ्याचार का सहारा लिया।
“वक्त ही कहाँ मिला सर — सुबह से सब कुछ लेट ही होता रहा है। विश्रामगृह में पांच बजे पत्रकारों के साथ मीटिंग…”
“पांच बजे और आप अब बता रहे हैं मुझे? समय का कोई मूल्य है कि नहीं?“
पी ए को डपट बड़ी विवशता से भाई ने संखी की ओर देखा‚ “जीजी‚ इच्छा तो है‚ तुम्हारे हाथ का बना खाना छक कर खाऊं‚ पर हम नेताओं का एक क्षण भी अपना नहीं। जब से देश का भार पड़ा है‚ अपनों से दूर होता जा रहा हूँ। पर मुझे विश्वास है‚ तुम मेरी विवशता समझोगी। तुम बहनें ही तो हो‚ जो मेरा दुख दर्द बांटती रही हो। विधायक के यहां नहीं पहुंचूंगा तो दस प्रकार की बातें बनेंगी। क्या करें जीजी कई बार अपने और अपने प्रियजनों की इच्छा की बलि देनी पड़ जाती है… मुझे क्षमा करना जीजी‚ तुम्हारे घर का प्रसाद ग्रहण करना मेरे भाग्य में नहीं है… और फिर मेरे साथ कई लोग हैं …तुम परेशान हो जाओगी। तुम्हें देखना था देख लिया। चुनाव से फुर्सत मिल जाये‚ फिर आराम से आऊंगा तुम्हारे घर।”
फिर मंत्री जी तीरथ से सम्बोधित हुए‚ “जीजा जी‚ आपने तो मुझे भुला ही दिया। अरे में बुरा हूँ पर इतना नहीं कि आप दो चार दिन के आतिथ्य का सौभाग्य मुझे न दें। मैं गाड़ी भेज दूंगा…आपको समय निकाल कर आना ही होगा मेरी कुटिया में।”
तत्पश्चात मंत्री जी उपस्थित लोगों से सम्बोधित हुए।
“आप सब लोगों से मिल कर बड़ा अच्छा लगा। घरेलू वातावरण के दो चार दुर्लभ क्षण मिले। बहनों के स्नेह बंधन ने तो बांध ही लिया मुझे। आप लोगों का कोई भी काम हो तो निशंक आकर मिलें। राजधानी में या मेरे गृहजिले में… यदि मैं पुन चुनकर सत्ता में पहुंचा तो इस राखी का ऋण उतारने के लिये तत्पर रहूंगा। मुझ पर देश के हाथ मजबूत करने का भार डाला गया है। आप सबका सहयोग‚ प्यार‚ आर्शीवाद मिला तो मैं अपने दायित्व निर्वहन में अवश्य सफल होऊंगा।”
उपस्थित जनसमुदाय मंत्र मुग्ध सा मंत्री जी की अमृतवाणी सुन रहा था। इस व्यस्तता में भी बहन से राखी बंधवाना नहीं भूले मंत्री जी। इस बात का चमत्कारी प्रभाव लोगों पर स्पष्ट दिख रहा था। मंत्री जी भाव विव्हल होकर उपस्थित लोगों को नमन किया और संखी तथा तीरथ के पैर छुए। चलते समय ध्यान आया‚ राखी बंधाई का बहन को कुछ दिया नहीं। तत्क्षण पी ए से चेक बुक मांगी। पंच सौ एक रुपए की राशि भर संखी के नाम एकाउंट पेयी चेक काट दिया। बोले‚
“जीजी‚ अपने इस गरीब भाई का ध्यान रखना।”
संखी चेक उलटती पलटती ठगी सी खड़ी रह गई। भव्य बंग्ले में रहते‚ वातानुकूलित कार में घूमते‚ लाखों का वारा न्यारा करते भाई को इतना भी ध्यान नहीं रहा कि संखी के नाम का कोई अकाउंट है ही नहीं‚ फिर वह इस चैक को कहाँ कैश करवाएगी? संखी के हाथ में एकाउंट पेयी चेक था और उसकी दृष्टि उस वृहद् भोज पर जा टिकी थी‚ जो उसने राखी के उपलक्ष्य में बड़े श्रम से भाई के लिये बनाया था।
दूसरे दिन स्थानीय समाचारपत्र में मुख्यपृष्ठ पर स्त्रियों से राखी बंधवाते भाई की तसवीर छपी। उस तसवीर में संखी कहीं नहीं दिख रही थी। तस्वीर के नीचे लिखा था‚
“कच्चे सूत के बंधन ने मंत्री जी को बांध लिया।”