राग चिरंतन भोर वितान / अशोक गुप्ता
शाम तीन बज कर बीस मिनट हो ही रहे है की गली में खड़ंजे वाले रास्ते पर साइकिल की आहट होती है और जानकी समझ जाती है की पिताजी आ पहुँचे हैं। तभी साइकिल की घंटी बजती है। यह संकेत है कि बेटा भानुप्रकाश अगर घर में होगा तो पुरुषोत्तम अग्निहोत्री के फाटक तक पहुँचने के पहले ही बाहर आ कर खड़ा हो जाएगा कि वह पिता से साइकिल ले कर उसे भीतर ले आए। अगर वह बाहर नहीं दिखा तो पुरुषोत्तम खुद फाटक खोल कर साइकिल बरामदे तक लाएँगे और पूछे बिना भानुप्रकाश की माँ बताएगी कि भानु कहाँ गया है।
पुरुषोत्तम अग्निहोत्री के विस्फोटक रौद्र के आगे यह संभव नहीं है कि भानु घर में हो और बाहर न आए या भानु अकारण उस समय घर के बाहर हो, या भानु के न होने स्थिति में भानु की माँ खुद इस बात की कोई ठोस वजह न बताएँ कि भानु कहाँ गया है और उसे किसने भेजा है। पुरुषोत्तम अग्निहोत्री का यह विस्फोटक रौद्र उनका सहज अनुशासन है, जो यदा कदा ही घटित होता है, अन्यथा शेष समय वह केवल वातावरण में तना रहता है, परिवेश के हिस्से की तरह।
पुरुषोत्तम अग्निहोत्री की अन्यथा अखंड शिलावत शांत मुद्रा उनके साथ रौद्र के मुट्ठी में दबे होने का आभास देती रहती है।, जिसके आगे चाहे भानुप्रकाश की माँ हो, भानुप्रकाश हो या उनकी खुद की मुँह लगी बेटी जानकी, किसी का भी 'किन्तु परन्तु' नहीं चलता... दरअसल, कोई चलाने का प्रयास भी नहीं करता। कभी अनायास किसी से हो भी जाय, तो प्रलय... या उस से भी ज्यादा मारक अबोला। अपने पिता की ही तरह कितने ही दिन बिना भोजन अल्पाहार के रहना साधा है पुरुषोत्तम अग्निहोत्री ने, और क्या मजाल कि उस दौरान किसी ने उन्हें बाहर भी कुछ खाते पीते देखा हो। लेकिन इस की नौबत बहुत ही कम आती है सब के सामने। बस, सब कुछ सुचारु चलता रहता है, जैसे उनके पिता के समय उनके पिता का चलता था।
घर में पत्नी को हमेशा अपने देर से आने की या कहीं बाहर जाने की अग्रिम सूचना दी। बस सूचना। कारण या स्पष्टीकरण नहीं। कोई इष्ट मित्र नहीं बनाया, जिसके साथ घर बैठ कर भी, या बाहर गपशप का सिलसिला हो। पान, तमाखू, बीडी सिगरेट, ताश पत्ता, लूडो-चौपड़, सनीमा और नौटंकी से अपने पिता की तरह हमेशा परहेज किया। कभी पत्नी तो क्या, उनके शैशव तक में बच्चों के साथ नहीं दुलराए हुलसाये। उनकी जरूरतें अपने भरसक हमेशा पूरी कीं, और जो नहीं होनी थीं, उनके लिए सपाट मना कर दिया। कोई कारण, कोई स्पष्टीकरण न कभी उपजा, न किसी ने माँगा।
अपने पिता के गाँव में वह पढ़ ही रहे थे जब पिता का देहांत हुआ। उनके पिता एक स्कूल में मास्टर थे, एक आदर्श, कर्मठ और कड़क मास्टर। इसी वजह से उन्होंने पुरुषोत्तम को अपने स्कूल में नहीं डाला। घर पर भी उसे कभी खुद नहीं पढ़ाया। बस, वह अपने स्कूल की लाइब्रेरी से किताबें ला कर देते रहे। अलबत्ता पुरुषोत्तम के पिता के सहयोगी मास्टर लोग उसकी पढ़ाई लिखाई की खबर लेते रहे और पुरुषोत्तम के पिता को बताते रहे। पिता के देहांत के बाद पुरुषोत्तम को उनके पिता के स्कूल में ही लाइब्रेरी में नौकरी मिल गई। वह साथ साथ प्राइवेट पढ़ाई भी करते रहे। अब पुरुषोत्तम विषय से संबंधित किताबें खुद लाइब्रेरी से ले कर पढ़ते। हेडमास्टर पुरुषोत्तम पर नजर रखते और हमेशा पाते कि पुरोशोत्तम ने कभी, विषय से हट कर आलतू फालतू किताब को हाथ भी नहीं लगाया। इसी अनुशासन के चलते हेडमास्टर भी उन्हें बाहर से किताबें ला कर देते। इस तरह पुरुषोत्तम बीए पास हो गए।
बीए का नतीजा आने के हफ्ते भर के अन्दर ही मधुसुदन डाक्टर ने पुरुषोत्तम के मामा के जरिये एस प्रस्ताव पुरुषोत्तम तक पहुँचाया। पास के कस्बे में एक सरकारी डिस्पेंसरी है जिसका डाक्टर शहर में प्रेक्टिस करता है। डाक्टर का साला उसके साथ कंपाउंडर है। दोनों शहरी के बाबू है, सो गाँव में कौन जा कर बसे? वह डाक्टर चाहता है कि वह डिस्पेंसरी पुरुषोत्तम सँभाल ले। कस्बे में दबाव बनता जा रहा है कि डिस्पेंसरी रोज खुले। डाक्टर और कंपाउंडर दोनों की तनख्वाह का एक चौथाई हिस्सा पुरुषोत्तम को मिलेगा।
पुरुषोत्तम भौचक...? डाक्टरी...?
'अरे वह कंपाउंडर रहेगा दस पन्द्रह दिन साथ और सब सिखा देगा। उसके बाद पुरुषोत्तम को सब सरल लगने लगेगा।'
शुरू हुआ। पुरुषोत्तम से सध गया। पुरुषोत्तम माँ के साथ जल्दी ही इस कस्बे में घर लेकर, अपने पिता की तरह रहने लगा। इस डिस्पेंसरी में बरक्कत थी। ढेरों दवाएँ आती थीं लेकिन बस गिनी चुनी बीमारियों की गिनी चुनी दवाएँ खपती थीं। बाकी सब का रास्ता डाक्टर और उसका साला बना लेते थे। उसका हिस्सा पुरुषोत्तम के हाथ भी आता था।
मधुसुदन डाक्टर का सिखाया एक मन्त्र था...।
'बेटा पुरुषोत्तम, कमाना खाना ढंग से लेकिन व्यवहार का अनुशासन मत खोना। किसी को मुँह न लगाना, चाहे यार-दोस्त, कोई औरत या लत...।'
यह मन्त्र पुरुषोत्तम ने साध लिया था।
पुरुषोत्तम ने उस कस्बे में अपना मकान बनाया। मामा के लाये रिश्ते से जुड़ कर अपना घर बसाया। माँ के जाने पर उसका कारज विधिवत किया। दो बार पिता बना। बेटी ब्याही। पुरुषोत्तम का बेटा भी अपनी बहू लेकर घर में आया। ...लेकिन मधुसूदन डाक्टर की अनुशासन की डोर निरंतर तनी रही। इतनी कि घर परिवार, पत्नी तक की लत पुरुषोत्तम को नहीं लगी। डिस्पेंसरी नौ बजे खुलनी होती तो पाँच मिनट पहले पुरुषोत्तम अग्निहोत्री वहाँ होते और तीन बजे बंद होने के समय तक वहीँ बने रहते।
यह पुरुषोत्तम के जीवन का एक दौर रहा जो लम्बा चला। पुरुषोत्तम की यही छवि उनकी आदिपहचान बन गई। पत्नी, संतान और उनके सीमित परिवेश ने इसे ही अंतिम मान लिया, बिना किसी परिवाद या असंतोष के... लेकिन भाई, परिवर्तन की संभावना तो मृत्यु की तरह अकाट्य है। इस धरती पर परिवर्तनशीलता ही एक मात्र अपरिवर्तनीय सच है बंधु।
कस्बे में एक गैर सरकारी संगठन ने किसी अंतरराष्ट्रीय योजना के तहत एक संस्थान खड़ा किया। एक ग्रंथागार यानि लाइब्रेरी, एक सांस्कृतिक परिवेश रचता संग्रहालय और प्रशिक्षण केंद्र, जो प्रौढ़ शिक्षा के लिए दल तैयार करे। दैवयोग से पुरुषोत्तम के पिता के स्कूल प्रबंधकों में से किसी का इस संगठन में ऊँचा आसन था जो पुरुषोत्तम अग्निहोत्री को पुस्तकालय का प्रभारी चुन लिया गया। बोली-बातचीत और साख के आधार पर वह चयन में खरे उतरे। स्नातक तो वह थे ही। डिस्पेंसरी के कागज पर नामजद डाक्टर से पुरुषोत्तम का पिंड मधुसूदन डाक्टर ने ही छुड़ाया। उस वयोवृद्ध सज्जन पुरुष की बात भला कहाँ टलती।
पुरुषोत्तम अग्निहोत्री की नई चर्या शुरू हुई। सुबह दस बजे से शाम पाँच बजे का काम। पाँच दिन का सप्ताह। साफ सुथरा ही नहीं चकमक रख रखाव... और मंद स्वर में बजती संगीत लहरी।
पुरुषोत्त ने अब तक लाइब्रेरी से केवल कोर्स की पुरानी जिल्द फटी किताबें देखी पढी थीं। यहाँ देश विदेश का साहित्य था और वह भी हिंदी समेत विविध भाषाओं में। किताबें ही नहीं, सीडी कैसेट भी रखे गए थे। ठौर ठौर पर कंप्यूटर लगे थे। पुरुषोत्तम अग्निहोत्री को दो अधीनस्थ सहायक भी मिले थे जो कंप्यूटर जानते थे। यहाँ पहली बार पुरुषोत्तम को गांधी जी की आवाज में उनके भाषण सुनने को मिले और टैगोर के कंठ से फूटता रवीन्द्र संगीत उन्होंने सुना।
प्रशिक्षण से उन्हें खुद भी गुजरना पड़ा और उसी दौरान उन्होंने जाना कि सिनेमा, नाटक और लोक कलाएँ दुनिया भर में बहुत सम्मान से देखे जाते हैं। प्रेमचंद की फिल्म 'सदगति' देख कर न जाने कितने बरस बाद वह रोये और चार्ली चैपलिन की फिल्म देख कर न जाने कितने बरस बाद वह ठठा कर हँसे। पुरुषोत्तम का यह हँसना रोना उनके जीवन की एक सूक्ष्म सी विरल घटना थी जो घट कर विलय हो गयी। कम से कम पुरुषोत्तम ने अपने तईं ऐसा ही माना... लेकिन सब कुछ पुरुषोत्तम के मानने से थोड़े ही चलता है।
नई नौकरी में पुरुषोत्तम को करीब सात महीने बीत गए। इन सात महीनों में भी कॉफी उनके अभ्यास में जगह नहीं बना पाई, लेकिन चाय वह ले लेने लगे। फिर भी उनका यह निर्वाह नहीं टूटा कि वह चाय को दफ्तर में गपबाजी का बहाना नहीं बनाने देंगे। उनका निर्देश यही रहा कि चाय उनके पास तभी लाई जाय जब वह अकेले हों।
एक दिन इस नियम में व्यवधान पड़ा।
पुरुषोत्तम जी चाय पी ही रहे थे कि संस्थान का एक सिक्योरिटी गार्ड एक व्यक्ति को लेकर उनके पास हाजिर हुआ। वह आगंतुक पुरुषोत्तम जी को ही पूछता हुआ आया था।
पुरुषोत्तम जी ने भौहें चढ़ा कर प्रश्न किया, और गार्ड को इशारा किया कि वह जाए।
'आप कौन... मैं पहचाना नहीं...?'
उस आगंतुक ने बिना हिचक जवाब दिया, 'डा. मधुसूदन ने भेजा है मुझे।'
'क्यों?'
पुरुषोत्तम जी का सूखा सवाल सामने आया जो चाय की चुस्की से भी तर नहीं हो पाया।
'मेरे पास डा. महाजन का सन्देश है।'
पुरुषोत्तम जरा चौंके। डा. महाजन, वही डिस्पेंसरी वाले काइयाँ इंसान उन्हें याद आ गए, लेकिन उन्होंने इस स्मृति का कोई नोटिस नहीं लिया।
'अब तो मेरा उनसे कोई लेना देना नहीं है...।'
वह व्यक्ति पुरुषोत्तम अग्निहोत्री से बिना पूछे सामने पड़ी कुर्सी पर बैठ गया। पुरुषोत्तम ने प्रतिवाद तो नहीं किया लेकिन वह बिना किसी संकोच के अकेले ही चाय पीते रहे... उस व्यक्ति ने ढेर सारी बातें एकालाप की तरह पुरुषोत्तम जी से कीं, जिनमें प्रलोभन था और यह इसरार कि बस पंद्रह दिनों के लिए वह डिस्पेंसरी सँभाल लें वर्ना वह डा. महाजन के हाथ से निकल जाएगी। दवाओं का बड़ा स्टाक वहाँ के लिए आर्डर हो चुका है। जबरदस्त केक है।
यह वाक्य पुरुषोत्तम जी के लिए उनके धैर्य की पराकाष्ठ थी। वह कुर्सी से उठ खड़े हुए। तैश में तो थे लेकिन गुस्सा पी गए।
'आप अपना समय न बर्बाद करें। आप डा. महाजन से कहेंगे कि मैंने मना कर दिया तो वह फिर दुबारा जोर नहीं देंगे, वह मेरा स्वभाव जानते हैं। और आप भी अब फिर मुझसे मिलने की कोशिश न करें। कोई भी केक मलाई अग्निहोत्री को नहीं ललचाती... अब आप जाएँ।'
वह आदमी उठा और चुपचाप चला गया।
देखिये, घुस आया न परिवर्तन दबे पांव पुरुषोत्तम अग्निहोत्री के बरसों पुराने स्वभाव में... उनका रौद्र विस्फोटक व्यवहार बदल गया न विशुद्ध दृढ़ता में... उन्होंने अपना निर्णय तुरंत चुना और अडिग सामने रख दिया। सचमुच यह उनका लिया हुआ पहला स्वतंत्र निर्णय था, वर्ना वह स्कूल की लाइब्रेरी से अपने पिता की लाई हुई किताबें पढ़ते थे। पिता का स्वभाव, चरित्र और अनुशासन की परिभाषा को उन्होंने जस का तस अपने भीतर उतार लिया था। मन्त्र भी उन्होंने मधुसुदन डाक्टर का दिया हुआ कंठस्थ किया और उस से पुरुषोत्तम का केवल कंठ तो क्या पूरा आमूल हो नीला पड़ गया। लेकिन इस बार का उनका निर्णय उनका निजी था, उस परिवर्तनकारी परिवेश की उपज जो उस संस्थान की देन था। परिवर्तन की और भी पर्तें थीं जो अभी खुलना बाकी थीं लेकिन उनकी सुगबुगाहट शुरू हो गई थी।
उस व्यक्ति के जाते ही पुरुषोत्तम के भीतर मानो एक आनंद का संचार होने लगा। चेहरे पर मुदित भाव तिर आया, इतना की उंगलियाँ थिरक कर मेज पर तबला बजा गईं। एक संगीत लहरी तो उतर ही आई थी उनके भीतर, वैसी ही जैसी इस संस्थान के परिसर में मंद स्वर में निरंतर चलती रहती है।
मेज पर उँगलियों की थाप सुन कर पुरुषोत्तम का एक सहायक उनके पास आ कर खड़ा हो गया।
'आपने बुलाया सर...?'
पुरुषोत्तम जरा चौंके। वर्त्तमान में लौटे जैसे, और तत्काल बुद्धि से अपनी अनुपस्थिति को ढाँप गए।
'यार, उस बांगड़ू से बात करने के चक्कर में चाय तो ठंढी हो गई।'
वह सहायक मुस्कराता हुआ पलट कर चाय लाने चला गया।
यह भी तो एक परिवर्तन ही था न बंधु,... दुबारा चाय... और 'यार' यह शब्द कब आ कर बैठ गया पंडित अग्निहोत्री की भाषा में... लेकिन आया तो जरूर।
चाय का दूसरा कप खत्म करते करते पुरुषोत्तम एक अजब सी आनंद तरंग से सराबोर हो गए थे। महसूस कर रहे थे कि एक नंबर की तनख्वाह और निजी प्रतिष्ठित पहचान देने वाली नौकरी का लावण्य ही रंग सौंपता है। तभी तो वह उस विपन्न किस्म के दाता, डा. महाजन के कारिंदे के आगे विपन्नतर याचक बनाने से खुद को बचा पाए, वह भी बिना क्रोध रौद्र की लाठी हाथ में उठाए।
चाय पी कर वह उठे। उन्हें संस्थान की कला बीथि में आये कुछ सामान की प्राप्ति पर दस्तखत कर के संस्थान में में लेना था ताकि उसे उनके ठौर तक पहुँचाया जा सके। यह काम उन्होंने तन्मयता पूर्वक किया। एक एक सामन गिन परख कर रखवाया, सूची के हिसाब से उनकी पैकिंग पर लिखवाया कि कौन सा सामान किस गैलरी में जाना है, साथ ही भीतर बाहर की संगीत लहरी में मगन भी होते रहे।
काम निपटा कर वह उठे और अनायास आकर मुख्य हॉल में खड़े हो गए, ठीक माइकेल एंजेलो की पेंटिंग के सामने, जिसमें सिर्फ दो हाथ एक दूसरे की ओर बढ़े हुए थे लेकिन उँगलियों की पोरों के बीच एक फासला था, एक दूरी। जिस दिन यह पेंटिंग इस हॉल में लग रही थी, उस दिन इस संस्थान के महानिदेशक डा। प्रभा सोपान मुख्यालय से आए थे। उन्होंने इस चित्र को मन्त्रमुग्ध देखते हुए बस एक वाक्य कहा था, '...यही दूरी, यह अंतराल, इस कालजयी कृति का मूल कथ्य है। दूरियां वेदना रचती हैं भट्टाचार्यजी... और वेदना के मूल को पकड़ कर सामने लाना ही कला है।'
संस्थान के सह निदेशक भट्टाचार्य जी ने अभिभूत हो कर सिर हिलाया था।
'अद्भुत है एंजेलो!'
उस दिन पुरुषोत्तम इस वाक्य, इस कलाकृति को बस अबूझ पाते हुए देखते रह गए थे। वह अक्सर इस हॉल में आते और उस अभूझ को भेद पाने की कोशिश करते और छूंछे लौट जाते। लेकिन आज का दिन कुछ भिन्न था। लम्बी दूरी तय करने में वक्त तो लगता है... वक्त लगा और वेदना के एक सूक्ष्म कण का ताप उन्होंने अपने भीतर महसूस किया।
ताप कभी नगण्य नहीं होता।
उस ताप की भूमिका अपने भीतर तय करते हुए पुरुषोत्तम अपने संस्थान से घर लौटे। घर पहुँच कर उन्होंने उतावली में अपनी पत्नी को आवाज देकर बुलाया।
'तैयार हो जाओ, कहीं चलना है।'
'कहाँ?' ऐसे प्रश्न का बीज इस घर की संस्कृति में कभी कहाँ था। उनकी पत्नी घूमी और तैयार होने चल दी। तैयार होने को था भी क्या... पंडित पुरुषोत्तम अग्निहोत्री ने अपनी पत्नी को तैयार होने की परिभाषा कभी दी ही कहाँ थी। क्या पहनना है, यह प्रश्न बेमानी था। कैसे पहनना है, यह जरूर तय था और वह घुट्टी की तरह पंडिताइन ने सहज भाव गले उतारा हुआ था और पंडित जी का इसमें कोई प्रतिवाद हस्तक्षेप नहीं था। पर उस दिन की तो बात ही अलग थी।
जब पत्नी आ कर खड़ी हुई तो पुरुषोत्तम जी ने उन्हें ऊपर से नीचे तक देखा, जैसे पहली बार देख रहे हों। फिर सहसा बोल पड़े, ' कुछ गले में तो पहन लेतीं। क्या सूना गला रखती हो?'
पत्नी घूमी और भीतर चली गई। पास में बेटा भानुप्रकाश भौचक खड़ा था।
'क्या है भानु, कुछ कहना है?' पुरुषोत्तम जी ने बेटे का चेहरा पढ़ा था।
'रिक्शा आया है बाहर। कहता है कि आपने बुलाया है।'
'हाँ। उसे रोको। हम दोनो जरा बाहर जाएँगे।'
'हम दोनों।' यह भी पुरुषोत्तम अग्निहोत्री की भाषा का शब्द नहीं है... लेकिन बोले थे वह।
भानु बाहर चला गया, रिक्शे वाले को बताने के लिए और पुरुषोत्तम जी की पत्नी आकर खड़ी हो गई। पुरुषोत्तम जी ने फिर उन्हें ऊपर से नीचे तक देखा और हँसे, 'अब ठीक है। अच्छा किया जो चप्पल भी बदल ली। यह ज्यादा फब रही है।'
चप्पल के फबने ने फिर चकित किया सबको, लेकिन पुरुषोत्तम चकित नहीं थे, वह मगन थे।
दोनों लोग रिक्शे पर बैठे और चल पड़े।रिक्शेवाले को पता था कि कहाँ ले जाना है, और वह कस्बे के एकमात्र रौनक धाम, महावीर वाटिका आ गया। दोनों जन रिक्शे से उतरे और बगीची में एक खाली बेंच खोज कर बैठ गए।
'तुमसे बहुत कुछ कहना बताना है...' पुरुषोत्तम ने कहा और फिर बिना अंतराल उन्होंने बोलना शुरू कर दिया। डिस्पेंसरी का काला पीला जंजाल, ...वहाँ से मिलने वाला बे पहचान पैसा... फिर यह नई नौकरी। नए परिवेश का हैरत में डालने वाला उजास... संगीत लहरी... और अंततः, उस डा. महाजन के नामुराद कारिंदे का बेशर्म प्रस्ताव, जिसे पुरुषोत्तम जी ने आज शाम ठुकरा दिया। सब कुछ बताया पुरुषोत्तम अग्निहोत्री ने अपनी पत्नी को, और इसी रौ में यह भी बता गए अपने संस्थान में उन्होंने कालिदास की 'अभिज्ञान शाकुंतलम' पर बनी एक फिल्म देखी है। अद्भुत है 'अभिज्ञान शाकुंतलम', जानती हो...?
पुरुषोत्तम के इस प्रश्न में आरोप-आक्षेप नहीं, बल्कि एक रोचक कौतुक था।
'हाँ खूब जानती हूँ... बी.ए. में हिंदी मेरा विषय था, भूल गए क्या...? ऐसे ही मोहन राकेश का भी एक नाटक है, 'आषाढ़ का एक दिन'।
इतना लम्बा वाक्य पुरुषोत्तम जी की पत्नी ने उनके साथ शायद पहली बार बोला होगा, और पंडित जी की ओर से इसका कोई प्रतिवाद भी नहीं हुआ..।
'हैं... तुम्हें कैसे पता?'
'जानकी के कोर्स में था। उसकी किताब में पढ़ा मैंने।'
पुरुषोत्तम जी अतिरेक से भर उठे।
'मेरे संस्थान में मोहन राकेश के इस नाटक की सीडी है। वहाँ हर शुक्रवार को कुछ न कुछ दिखाया जाता रहता है। अबकी तुम्हें भी ले चलेंगे...' और पुरुषोत्तम जी ने अपनी पत्नी के हाथ पर अपना हाथ रख दिया।
एक रोमांच था इस स्पर्श में, गहरा रोमांच, जो विशुद्ध आनंद का संचार रचता गया था, उन्माद के हस्तक्षेप को विस्मृत करते हुए। इसके पहले पुरुषोत्तम जी ने अपनी पत्नी को अँधेरे बंद कमरे के बाहर छुआ ही कब था, लेकिन आषाढ़ का एक दिन तो अबूझ सैलाब लेकर आया।
पुरुषोत्तम अग्निहोत्री को दूरियों का वह आयाम समझ में आने लगा जो वेदना रचता है।
एक नया सा उजास लिए दोनों लोग घर लौटे। इधर, दोनों का साथ साथ जाना भानु और आरती के लिए असमंजस भरा प्रश्न था।
'क्या माँ की तवियत खराब है... कुछ ऐसी समस्या जो उन्होंने बच्चों के साथ नहीं कही बाँटी...? वर्ना, भानु की हाल में जन्मी बिटिया को छोड़ कर उसकी दादी कहीं चल दें, असंभव!'
'...और पिताजी अम्मा को तैयार करा कर ले गए, क्या किसी बड़े डाक्टर के पास, बड़े नर्सिंग होम में, जहाँ मरीज का हाल उसकी हैसियत परख पर पूछा जाता है...?'
कुल जमा, जब दोनों लोग लौटे तो घर में चिंता का माहौल था। लेकिन चिंता टिकी कितनी देर? जब दोनों लोग पहुँचे तो पुरुषोत्तम जी के हाथ में 'निरंकारी मिष्ठान' के पैकेट थे।
चिंता के विलय ने घर में अब जिज्ञासा और औत्सुक्य का माहौल रच दिया।
क्या बात है जो घर की हवा बदल रही है, बोझिलता घट रही है। हवा का विरल होना पारदर्शिता को भी बढाता है, यह भी घर में स्पष्ट हो रहा है... लेकिन उसका आदि घटक कहाँ है?
शनिवार की शाम को इसी परिवर्तन की खबर पा कर भानु की बहन जानकी भी पिता के घर आ पहुँची। दामाद प्रखर जी भी साथ थे। जानकी की हैरत यह जान कर दुगनी हो गई कि कल, यानि शुक्रवार को पिताजी माँ को लेकर अपने संस्थान गए थे और वहाँ उन्होंने मोहन राकेश का नाटक बड़े परदे पर देखा। हैरत यह भी थी कि इस प्रसंग पर पिता से ज्यादा जानकी की माँ बोलीं। जानकी को ही संबोधित कर के कहा उन्होंने।
'अरे, तुम्हारी किताब से ही तो पढ़ा था मैंने यह नाटक।'
जानकी को भौचक तो होना ही था, क्योंकि यह किताबें विताबें पढना तो माँ के लिये एक वर्जित अनावश्यक प्रसंग जैसा था, पिताजी से छिप कर किया गया कोई कुकृत्य...।
अचम्भे के इसी क्रम में एक नया प्रसंग भी आ जुड़ा। भानु की बेटी के नामकरण का कार्यक्रम पंडित की व्यवस्था और मुहूर्त की खोज में अटका हुआ था। जब पुरुषोत्तम ने जाना कि अगले महीने दामाद जी को लम्बे टूर पर निकलना है तो वह घोषणा कर बैठे।
'पंडित वंडित का चक्कर छोड़ो। अगले ही हफ्ते आयोजन रख लेते हैं और नामकरण तो मैं अभी किये देता हूँ।'
सब सन्न, लेकिन पुरुषोत्तम तो अपनी रौ में थे।
'नन्ही बिटिया की माँ का नाम आरती है, उसका 'आ', और पिता भानुप्रकाश का 'भा'... तो आभा नाम मैंने चुना है। माँ पहले क्योंकि वह जन्म देती है... बोलो आरती, ठीक है न।'
एकदम अवाक थी आरती। पंडित प्रसंग और नामकरण के रूप में सीता, द्रोपदी, मीरा, करुणा, जैसे नामों की आशंका उसे सता रही थी। यह भय भानु और उसकी पत्नी आरती के बीच काफी समय से चर्चा में था, लेकिन कहा भी जाता तो किस से...?
उस शनिवार वह भय अकस्मात न जाने कैसे निरस्त हो गया। यह एक आनंद का प्रसंग था। इसी क्रम में नामकरण संस्कार की तारीख भी प्रखर से पूछ कर तय कर ली गयी।
आयोजन भव्य हुआ। उसमें सभी रिश्तेदारों के साथ साथ पुरुषोत्तम अग्निहोत्री के संस्थान के भी लोग आमंत्रित थे। सब आये और सबसे बाद में आया उनके संस्थान का कला प्रभारी अनुराग शंकर। उसके हाथों में एक बड़ा सा पैकेट था। अनुराग ने पहुँच कर वह पैकेट पुरुषोत्तम जी को थमा दिया।
' यह आपकी ओर से सब घर के लिए है सर...।'
सब उत्सुक हो कर अनुराग के चारों ओर घिर आये। पैकेट खोला गया। उसमें माइकेल एंजेलो की वही पेंटिंग थी जिसे फ्रेम करा कर अनुराग शंकर लाया था। दो, एक दूसरे की ओर बढ़ रहे हाथ, एक दूसरे को छूने के लिए थिरकती सी दोनो हाथों की उंगलियाँ... और उनके बीच ठहरी, दूरी रचती हुई वेदना, जो कला है।
'यही तो आप अक्सर आ कर हमारे हॉल में देखते थे, और मैं अपने केबिन से बैठे बैठे आपका चेहरा पढ़ता था।'
'...पर यह तो बहुत महँगी चीज लाये हो अनुराग...।'
अनुराग हँस पड़ा।
'नहीं सर... बिलकुल महँगी नहीं है, मैंने उसी पेंटिंग का अपने डिजिटल कैमरे से फोटो लिया और फ्रेम करा लिया... बस...।'
'क्या सचमुच...? '
'एकदम सचमुच... यह डिजिटल कैमरा तो गरीब नवाज चीज है, न फिल्म का खर्चा, न फोटो बनवाने का। बस फोटो लो और अपने कंप्यूटर पर डाल लो, फिर जब मर्जी चाहे देखो।'
'...लेकिन वह पेंटिंग तो हजारों की है...? मैंने उसका बिल साइन किया है।'
' वह ओरिजिनल पेंटिंग है सर। उसकी कीमत में तस्वीर के अलावा वह विचार भी शामिल है जो दूरियाँ मिटाने का सन्देश देता है और वही कला की आत्मा है। यह तो सिर्फ अनुकरण है, इसलिए सस्ती है... लेकिन कारगर है, क्योंकि अनुकृति भी उसी विचार का संचार करती है।
यकायक जोश में आ गए पुरुषोत्तम और अपने बेटे की ओर घूमे।
'अभी तक तुमने क्यों नहीं लिया ऐसा कैमरा। कंप्यूटर तो रखा है तुमने भी... खैर चलो, तुम्हारे इस जन्मदिन पर यह तुम्हें मेरी ओर से मिलेगा।'
अपने स्वभाव से एकदम उलट एक और व्यवहार दर्शाया पुरुषोत्तम अग्निहोत्री ने कि तुरत फुरत अनुराग शंकर से इस कैमरे की कीमत वगैरह पूछनी नहीं शुरू की। इस पर भी सब विस्मित थे...।
दूरियों और वेदना का मिटना विस्मित तो करता ही है न...!