राग दरबारी के रंगनाथ : कथाकार श्रीलाल शुक्ल / विनोद दास

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शहर के भीतर होते हुए भी शहर से बाहर लखनऊ का यह नया इलाका था, जहाँ इन्दिरानगर की सड़कों पर सफ़ेद कुरते-पैजामे में हवा को चीरते हुए तेज़ क़दमों से भिनसार में सैर करते हुए वे अक्सर दिख जाते थे। सूरज सोना बरसाता रहता था। बिजली के तारों पर चिड़ियाँ दिखने लगती थीं। साइकिल की मडगार्ड के दोनों तरफ़ बँधे दूध के पीपे लेकर या कैरियर में अख़बारों के गठ्ठर बाँधे हुए साइकिलें सड़क पर दौड़ रही होती थीं। पसीने से भीगे कुरते में पीठ पर चिपकी हुई उनकी बनियाइन पीछे से झलकती रहती थी। उनकी कनपटियों से पसीने की पतली-पतली नालियाँ बहती रहती थी। ऐसे में श्रीलाल जी रुककर सांस लेते और रूमाल से पसीना पोंछकर तेज़ी से फिर चल देते जैसे उन्हें कोई ज़रूरी काम पूरा करना हो। वह चलते हुए दाएँ-बाएँ देखते रहते, गोया वह टहलने नहीं, आसपास अपनी ख़ुर्दबीनी आँख से सर्वेक्षण करने निकले हों।

आज़ादी के बाद हिन्दी के सर्वाधिक लोकप्रिय उपन्यास ’राग दरबारी’ के लेखक श्रीलाल शुक्ल के लिए उन दिनों सैर एक ज़रूरी काम जैसा ही होता था।

वे सरकारी सेवा से निवृत्त होकर इन्दिरा नगर के ”बी” ब्लाक में अपने नवनिर्मित मकान में रहते थे। सैर के बाद अपने आख़िरी पड़ाव — अर्थात् अपने घर पहुँचने के पहले अक्सर वे किसी एक स्टेशन पर रुकते थे। यह स्टेशन किसी का भी घर हो सकता था। जी हाँ ! उनके पाँव किसी तरफ मुड़ सकते थे — चाहे वह हिन्दी कवि लीलाधर जगूड़ी का घर हो, रंगकर्मी राकेश का घर हो, आलोचक वीरेन्द्र यादव या कथाकार अखिलेश या इस नाचीज़ का ग़रीबख़ाना हो. इन्दिरानगर के साहित्यकारों के अलावा वे अपने प्रशासनिक संगी-साथियों के घर को भी अपना स्टेशन बनाते थे। साहित्यकार मुद्राराक्षस इस दायरे से बाहर थे। दरअसल मुद्राराक्षस देर रात तक काम करते थे और सुबह देर से उठते थे।

श्रीलाल जी मानते थे कि अच्छी चीज़ें पसीना बहाकर ही आती हैं। सुबह की सैर को वह जहाँ ह्रदय के लिए ज़रूरी मानते थे, उसी तरह दिमाग के लिए पुस्तकों का नियमित अध्ययन। वह अपनी शारीरिक स्थूलता के प्रति हमेशा सतर्क रहते थे। एक बार उन्होंने बताया था कि जिन दिनों वह सूचना विभाग में निदेशक थे, कुर्सी पर लगातार बैठकर काम करने से उनकी कमर का घेरा बढ़ने लगा था। उन्होंने तब अपने कार्यालय कक्ष के लिए एक राइटिंग स्टैण्ड बनवाया था। वह पूरे दिन खड़े होकर फ़ाइलों का निपटान करते थे।

श्रीलाल जी जिस बेला में हमारे यहाँ पधारते थे, वह हलचल की घड़ी होती थी। सवेरे बेटी रूनझुन का स्कूल होता था। सबसे बड़ी चुनौती उसे नींद से जगाने की होती थी। नींद मुझे मनुष्य की सबसे पवित्र अवस्था लगती है। किसी को भी नींद से जगाना मुझे अपराध लगता है — खासकर बच्चों को।

रुनझुन को नहला-धुलाकर स्कूल की यूनिफार्म पहनाना, नाश्ता कराना और स्कूल के लिए लंच-बॉक्स पैक करने का काम विनीता करती थीं, लेकिन मैं भी साथ में लगा रहता था। रुनझुन के स्कूल रिक्शे की टिन्न-टिन्न बजती घण्टी हमारे दिल की धुक-धुकी बढ़ा देती थी। उधर छोटे मियाँ चटपट भी चिल्ल-पों मचा देते थे। समय की छीना-झपटी के इन अटपटे क्षणों में श्रीलाल जी को गेट पर देखकर अक्सर मैं अकबका जाता था। एक तरफ़ उनके आने की अपार ख़ुशी होती थी, दूसरी तरफ़ रुनझुन के स्कूल छूटने का डर सताने लगता था। हालाँकि विनीता के कुशल समय और कार्य प्रबन्धन के चलते न तो कभी रुनझुन का स्कूल छूटा और न ही कभी श्रीलाल जी को चाय नाश्ते के लिए ज़्यादा देर इन्ततज़ार करना पड़ा।

श्रीलाल जी बतरसिया थे। उनके पास हमेशा क़िस्सों की अक्षय पोटली होती थी। कई बार लगता था कि वह अपनी इस पोटली को कुछ हल्का करने के लिए हम सबके पास आते थे, जैसे पेड़ अपना बोझ कम करने के लिए पत्तियाँ गिराते रहते हैं। वह किसी भी विषय पर बात कर सकते थे। साहित्य, संगीत, कला, राजनीति, देश-विदेश की घटनाएँ, अपनी उपलब्धियाँ,अपनी क्षुद्रताएँ। कभी वह नौकरी के इण्टरव्यू पैनल एक्सपर्ट का अनुभव बाँटते तो कभी किसी पाँच सितारा होटल में किसी लेखिका के डिनर का क़िस्सा रस लेकर सुनाते। उनके भीतर कोई बात पचती नहीं थी। सबसे अधिक आनन्द उन्हें अपने गाँव-ज्वार के भदेस क़िस्से बयान करने में आता था। लुत्फ़ लेते हुए खाँटी अवधी में वह पेशेवर क़िस्सागो की तरह किसी घटना या व्यक्ति का ऐसा जीवन्त ख़ाका खींचते, गोया चौपाल में अलाव के पास बैठे हों और पूरी सजी महफ़िल को कथा सुना रहे हो।

वह दरअसल लखनऊ के पास मोहनलाल गंज के मूल निवासी थे। मुझे अक्सर लगता कि ’राग दरबारी’ उपन्यास का सृजन उनके इसी व्यक्त्तित्व का विस्तार ही है। मोहनलाल गंज से शहर जाकर और पढ़-लिखकर एक नवजवान लौटकर अपने गाँव के रहन- सहन और व्यवस्था को शहरी नज़र से देखता है और ’राग दरबारी’ जैसी कृति रचता है। इस उपन्यास की भाषा अवधी है लेकिन अन्दाज़े-बयाँ शहरी है। एक ऐसा पढ़ा-लिखा शहरी, जो गाँव-गुरबे की ज़िन्दगी के हर लम्हे को प्रहसन में बदल देता है। लगभग इसी दृष्टि और युक्ति का इस्तेमाल वह ’राग दरबारी’ में करते हैं। वह हर चीज़ को उपहास की वस्तु बना देते हैं — फिर चाहे वह कोई अपंग हो या बूढ़ा आदमी। मनोरंजन ही उनका मुख्य ध्येय होता। यह अकारण नहीं है कि शिक्षित और आभिजात्य वर्ग को यह उपन्यास बहुत भाता है, जो उपन्यास को सिर्फ मनोरंजन समझते हैं। बहरहाल मुझे बतकही करते श्रीलाल जी अक्सर ’राग दरबारी’ के रंगनाथ सरीखे दिखते थे।

श्रीलाल जी के सत्संग में मनहूसियत के लिए कोई जगह नहीं थी। वह ख़ुशमिज़ाज़ थे और अपनी उपस्थिति से अपने आसपास के माहौल को भी ख़ुशगवार बनाए रखते थे। ऐसा भी नहीं था कि वह बौद्धिक नहीं थे। जब उन्हें लगता था कि सामने बैठा श्रोता उन्हें कुछ कमतर आँक रहा है, तो विदेशी साहित्य या संस्कृत साहित्य के मैदान में उतरते श्रीलाल जी को देर नहीं लगती थी। अपनी अध्ययनशीलता के जरिये उन्हें इन इलाकों में महारत हासिल थी। उनके इस कौशल का मुज़ाहिरा कई अवसरों पर मैं कर चुका था। कोई जब उन्हें बहस में घसीटता था, तो करारी चोट करने में भी वे पीछे नहीं रहते थे।

’राग दरबारी’ उपन्यास उनकी लोकप्रियता का शिखर था और आधी शताब्दी बीतने के बाद आज भी है। इसकी पाठकीय सफलता का जहाँ वह ख़ूब आनन्द लेते थे, वहीं उससे जुड़े प्रसंगों को बहुत उत्साह से सुनाते भी थे. इसके लिखने की प्रक्रिया से लेकर छपने और आलोचकों द्वारा नकारने के प्रसंगों को बारहा सुनाने में उन्हें मज़ा आता था। उन्होंने कई बार रस लेकर मुझे बताया था कि किस तरह उन्होंनेे दोपहर में कार्लटन होटल के हरे लॉन पर अपने मित्र गोपाल चतुर्वेदी के साथ बैठकर रसरंजन करते हुए उसके अंश लिखे थे। किस तरह इस किताब को प्रकाशित करने के लिए सरकार से अनुमति माँगी थी। अनुमति में देरी होने पर उन्होंने अपनी सरकारी नौकरी से त्यागपत्र देने के लिए मन बना लिया था और दिनमान के तत्कालीन सम्पादक और हिन्दी साहित्य के दन्तपुरुष अज्ञेय से उनके यहाँ नौकरी देने के के लिए पत्र लिखा था। वह जहाँ श्रीपत राय और नेमिचन्द्र जैन जैसे साहित्यकारों की इस उपन्यास पर की गई आलोचकीय प्रतिक्रियाओं का मखौल उड़ाते थे। वहीं डॉ. श्यामा चरण दुबे सरीखे समाजशास्त्री की मूल्यवान राय का उल्लेख करना भी नहीं भूलते थे। ’राग दरबारी’ का गिरीश रस्तोगी द्वारा किया गया नाट्य रूपान्तरण हो या दूरदर्शन पर उसका धारावाहिक प्रसारण हो, उससे जुड़े तमाम वृत्तान्त साझा करने में कोई सँकोच नहीं करते थे। उन्होंने एक बार हँसते हुए यह भी बताया था कि साहित्य अकादमी पुरस्कार समिति में प्रख्यात उपन्यासकार भगवतीचरण वर्मा थे, जिनकी किताब पर उन्होंने उसी साल आकाशवाणी पर एक समीक्षा वार्ता पढ़ी थी। उनका तर्क था कि पुरस्कार को विवादास्पद बनानेवाले कह सकते हैं कि भगवतीचरण वर्मा को ख़ुश करने के लिए मैंने यह समीक्षा लिखी थी, जबकि सचाई यह है कि मैंने यह समीक्षा शुद्ध धन के लिए लिखी थी। वह अक्सर कहते थे, “विनोद ! किसी काम से धन मिलने की ख़बर से मेरे भीतर जमा आलस टूट जाता है और मेरी इन्द्रियाँ सक्रिय हो जाती हैं।” हालाँकि हक़ीक़त में वह इसके उलट दीखते थे। श्रीलाल जी को मैंने धन के प्रति मोह करते हुए कभी नहीं देखा। वह कृपण भी नहीं थे। अतिथियों का सत्कार खुले दिल से करते थे। घर में जो भी उपलब्ध होता था, उसे खिलाने-पिलाने के लिए तत्पर रहते थे. बीबीसी सम्वाददाता मार्क टुली की पत्नी गिलियन राइट ने जब ’राग दरबारी’ का अनुवाद किया तो अँग्रेज़ी अनुवाद को लेकर वह बहुत ख़ुश नहीं थे। वह जानते थे कि उनके उपन्यास का जादू उसकी भाषा में निहित है। उस भाषा की व्यंग्य-विनोद की छटा को अँग्रेज़ी में उतार पाना असंभव है। उन्होंने ’राग दरबारी’ के अपने इस अँग्रेज़ी अनुवाद की किताब मुझे भेंट में हस्ताक्षर करके दी थी।

प्रशासनिक हलकों की अन्तर्कथाओं को भी रोचक बनाकर सुनाना श्रीलाल जी को प्रिय था। मुझे याद है कि जब बातचीत में मैंने उन्हें बताया था कि मैं "नाबार्ड" में काम करता हूँ तो उन्होंने उत्तर प्रदेश सरकार से प्रतिनियुक्ति पर हमारे संस्थान में आए एक आईएएस अधिकारी के निजी प्रसंगों का दिलचस्प बयान ख़ूब मिर्च-मसाले के साथ किया था। वह महाशय हमारे यहाँ कार्यकारी निदेशक रह चुके थे। दरअसल श्रीलाल जी और उनके भाई, दोनों प्रदेश सरकार की प्रशासनिक सेवा में थे। ऐसे में राजतन्त्र के उन कलपुर्जों से परिचित थे, जिनसे राज्य का तन्त्र चलता है। शायद उस तन्त्र के भीतरी पहलुओं को साझा करने की दृष्टि से और कभी-कभी उसका मज़ाक उड़ाने के लिए वह ऐसा करते थे, जबकि उनके कई मित्रों का मानना था कि वह साहित्यिक मण्डली में अफ़सरी रंग में आ जाते थे और अफ़सरों की मण्डली में साहित्यकार का चोला पहन लेते थे।

श्रीलाल शुक्ल जी से मेरी पहली मुलाक़ात उस समय हुई थी, जब वह प्रदेश के संस्कृति विभाग में कार्यरत थे। मैं लखनऊ विश्वविधालय में पढ़ रहा था। उन दिनों वह प्रख्यात नृत्यांगना कुमकुम धर के पिता — संस्कृति विभाग के सचिव आईएएस श्री टी एन धर के नेतृत्व में लखनऊ महोत्सव की योजना को साकार करने में उत्साह से लगे हुए थे। ’राग दरबारी के बाद उनका दूसरा उपन्यास ’मकान’ छपकर आया ही था। मुद्राराक्षस के सहयोग से हम लखनऊ में साहित्य-कला पर संगोष्ठियाँ करने का सिलसिला शुरू करना चाहते थे। यह तय हुआ कि उनके इस उपन्यास पर पहली समीक्षा संगोष्ठी आयोजित की जाए। हमारे सामने समस्या आयोजन स्थल की व्यवस्था की थी। हिन्दी संस्थान के अलावा हमें कोई और जगह मालूम नहीं थी।

अन्ततः हम एक आवेदन-पत्र लेकर वहाँ गए। उन दिनों हिन्दी संस्थान के उपाध्यक्ष प्रख्यात गीतकार ’वंशी और मादल’ जैसी लोकप्रिय पुस्तक के रचयिता ठाकुर प्रसाद सिंह थे। उन्होंने जब मेरा आवेदन-पत्र देखा तो उनके चेहरे पर पेड़ों पर पड़ने वाली सुबह की धूप जैसी चमक सरक आई। वह बेहद ख़ुश हुए कि हम विश्वविद्यालय के छात्र साहित्यिक आयोजन करना चाहते हैं। उन्होंने हमें चाय पिलाई और प्यार से कहा कि मैं सभा कक्ष की मंजूरी दे दूँगा, लेकिन आपको इसके लिए शुल्क देना होगा। फिर उन्होंने सहजता से पूछा कि आपकी संगोष्ठी में कितने लोगों के आने की संभावना है। ऐसे किसी काल्पनिक सवाल के लिए मैं तैयार नहीं था। हिचकिचाते हुए बरबस मेरे मुंह से निकला — 30-40 लोग। उनका तुरन्त जवाब था कि इतने लोग तो मेरे इसी कक्ष में बैठ सकते हैं। 15-20 कुर्सियाँ तो अभी हैं। 15-20 कुर्सियाँ उस दिन और लगवा दूँगा। यदि आप लोग यहाँ गोष्ठी करेंगे तो आपको कोई शुल्क भी देना नहीं पड़ेगा। चाय-पानी का इन्तज़ाम मैं अपनी तरफ़ से कर दूँगा। हमारे लिए यह एक वरदान से कम न था। इस संगोष्ठी में कुँवर नारायण, कृष्ण नारायण कक्कड़, ’स्वतन्त्र भारत’ के सम्पादक अशोक जी. चित्रकार मदन नागर, जयकृष्ण, रणधीर सिंह बिष्ट, अनुवादक प्रबोध मजूमदार, कथाकार बीर राजा, कथाकार गोपाल उपाध्याय, कवि राजेश शर्मा आदि के अलावा ठाकुर प्रसाद सिंह और श्रीलाल जी भी मौजूद थे। सभी ने इसे एकमत से ’राग दरबारी’ से अलग मिज़ाज का उपन्यास बताया। इसकी भाषा की सभी ने प्रशंसा की। मुद्राराक्षस और कृष्ण नारायण कक्कड़ में थोड़ी नोक-झोंक भी हुई। अन्त में श्रीलाल जी ने लेखकीय वक्तव्य भी दिया। अगले दिन ’स्वतन्त्र भारत’ अखबार में उसकी विस्तृत रिपोर्ट भी छपी। ख़ास बात यह थी कि ऐसी गोष्ठियों की ज़रूरत को सभी ने रेखाकिंत किया। इसके बाद की संगोष्ठियों में श्रीलाल जी शिरकत करते रहे। लेकिन उन दिनों मैं — एक मध्यवर्गीय छात्र — उनके कथाकार व्यक्तित्त्व में जिस मनुष्य को खोज रहा था, उसे उनके अफ़सरी तेवर के कोलाहल में पाना मुश्किल था. लिहाज़ा उस बीच उनसे सिर्फ़ औपचारिक सम्बन्ध ही रहा।

मदिरा एक ऐसी गुप्तचर है, जो कई बार किसी के भीतर पहुँचते ही उसके मन के भीतर के रहस्यों को अनावृत्त कर देती है। श्रीलाल जी वैसे भी खुली किताब से थे. मुझे तो श्रीलाल जी हमेशा ताश के ऐसे खिलाड़ी लगते थे, जो अपने पत्ते अपने विरोधियों को चुपके से दिखा देते थे। हालाँकि एक प्रसंग से मुझे लगा कि उनके पास बहुत कुछ ऐसा है, जिसे वह सार्वजनिक करना नहीं चाहते थे। एक गोधूलि बेला में मैं उनके पास हरबर्ट रीड की अपनी पुस्तक ’मीनिंग ऑफ़ आर्ट’ वापस लेने गया था। श्रीलाल जी ने चाय के लिए बोलकर मुझे रोक लिया। बात करते हुए अचानक उनका चेहरा लाल हो गया। कनपटियों से पसीने की छोटी छोटी बुन्दियाँ चमकने लगीं। उन्होंने अपना हाथ मुझे थमाते हुए कहा कि देखो ! मेरा हाथ काँप रहा है। फिर बोले — मुझे लगता है कि मुझे दिल का दौरा पड़ा है। उन्होंने अपनी पत्नी गिरिजा को आवाज़ दी। वह भागती हुई आईं। श्रीलाल जी की डायरी में डॉक्टर का नम्बर था। उन्होंने जल्दी से डॉक्टर को बुलाने को कहा। मैंने फ़ोन लगाया। डॉक्टर दिलासा देकर बोले कि मैं आ रहा हूँ। श्रीलाल जी बिस्तर पर लेट गए। वह बेहद घबड़ा गए थे। वह बार-बार अपनी पत्नी से एक ही बात दुहरा रहे थे — गिरिजा ! तुम मेरी सब डायरियाँ जला देना। वह कह रही थीं — ठीक है, ठीक है, आपको कुछ नहीं होगा। उन्हें पानी पिलाया गया। डॉक्टर के आने के पहले ही श्रीलाल जी कुछ बेहतर हो गए थे। डॉक्टर ने चेकअप करके बताया कि रक्तचाप की समस्या है। दिल का दौरा नहीं पड़ा है। उनके घर से लौटते समय मैं सोचता रहा कि जीवन की ऐसी निर्णायक घड़ी में श्रीलाल जी किन डरों से घिरे थे, जो अपनी डायरियों को जलाने के लिए कह रहे थे। क्या उनके प्रकाश में आने से उन्हें अपने यश या अर्जित छवि के तार-तार होने का ख़तरा था? यह विचित्र है कि जीते जी मनुष्य जिन मूल्यों की परवाह नहीं करता, अपने न रहने के बाद वह राज़ खुल न जाए, इसकी चिन्ता करता है।

श्री लाल जी के मयनोशी के क़िस्से उनके सभी परिचितों के पास न हों, ऐसा हो नहीं सकता। रसरंजन से विमुख होने के कारण मैं उनकी शाम की महफ़िल में कभी संगत न कर पाया। उनके जन्मदिन पर हमारे सभी साथी उन्हें देर रात को बधाई देने जाते थे और दिलचस्प क़िस्सों की सौगात लेकर आते थे। मैं उन्हें अगली सुबह बधाई देने जाता था। मयनोशी के लिए कई बार वह समय और स्थान की परवाह भी नहीं करते थे। सार्वजनिक कार्यक्रमों में उनके इस स्वभाव के चलते कई बार आपत्तिजनक स्थिति भी पैदा हो जाती थी। लेकिन उनके कथाप्रेमी स्नेही मित्र अक्सर उसे एक अप्रिय प्रसंग की तरह भुला देते थे। उनकी मयप्रेम के एक प्रसंग को बताने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा हूँ।

एक शाम मैं कवि कुँवर नारायण के घर उनकी किताब लौटाने दफ़्तर से सीधे उनके घर गया। उस दिन मैं किसी कारण से स्कूटर नहीं ले गया था। कुँवर जी के घर में श्रीलाल जी मौजूद थे। मुझे याद है कि साहित्य के अलावा उन दिनों सरकार के उदारीकरण की नीति पर भी चर्चा हुई। कुँवर जी उदारीकरण के पक्ष में थे। श्रीलाल जी भी उनसे सहमत थे, लेकिन उनकी कुछ शंकाएँ भी थीं। मैं विरोध कर रहा था। कुँवर जी बारहा श्रीलाल जी से ड्रिंक लेने की गुज़ारिश कर रहे थे। मैं चकित था कि श्रीलाल जी उनके प्रस्ताव को सख़्ती से मना कर रहे थे। उनका कहना था कि इस नवरात्रि में मैंने गिरिजा को ड्रिंक न करने का वचन दिया है। मेरे साथ उन्होंने भी चाय पी। चाय पीने के बाद भी बातचीत का सिलसिला चलता रहा। कुँवर जी उनका ब्राण्ड पूछते रहे और सजी हुई बोतलों की ओर इशारा भी किया। लेकिन श्रीलाल जी बस यही कहते रहे कि वह आज कार लेकर नहीं आए हैं, इसलिए आप मुझे कार से घर पहुंँवा दीजिएगा। मैंने भी कुँवर जी से कहा कि मुझे भी श्री लाल जी के साथ जाना है, क्योंकि मैं स्कूटर नहीं लाया हूँ। कुँवर जी कहते — यह कोई बड़ी बात नहीं है. लेकिन श्रीलाल ! तुम संकोच मत करो। कुछ तो ले लो। श्रीलाल जी अपने वचन पर दृढ़ रहे।

कुँवर जी कार तक हम दोनों को विदा करने आए। अभी कार इन्दिरा नगर की ओर कुछ दूर चली ही थी कि श्रीलाल जी ने ड्राईवर से कार उल्टी दिशा में निशातगंज की ओर मोड़ने के लिए कहा। मुझे लगा कि शायद वह कोई अपना सामान कुँवर जी के यहाँ भूल गए हैं। लेकिन उन्होंने कार एक वाइन शॉप के सामने रुकवाई। फिर ड्राईवर को नोट देते हुए किसी ब्राण्ड की बोतल लाने के लिए कहा। अख़बार में लिपटी हुई बोतल आ गई। मैं हैरान इस बात पर था कि जिस व्यक्ति ने अभी कुछ देर पहले नवरात्रि में दिए गए वचन के कारण इतने मनुहार के बाद भी ड्रिंक नहीं लिया था, वही उसे कार मोड़वाकर ख़रीद कर ले जा रहा है। रास्ते भर उन्होंने इस बारे में बात नहीं की। वह सिर्फ़ कुँवर जी के परिवार के बारे में बताते रहे कि वह कितने रईस खानदान से हैं। उनके यहाँ बोरों में सोने की गिन्नियाँ रखी जाती थीं। फ़ैजाबाद में उनका पूरा बाज़ार था। नरेन्द्र देव जैसे विचारक का उनके घर आना-जाना था। ऐसी जानकारियाँ जो मुझे भी पता थीं।

श्रीलाल जी को हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत से गहरा अनुराग था। वह रेडियो पर शास्त्रीय संगीत अक्सर सुना करते थे। इस सिलसिले में वह अपने इलाहाबाद के मित्र केशवचन्द्र वर्मा को अक्सर याद करते थे। केशवचन्द्र वर्मा की संगीत पर पुस्तकें भी थीं। उनकी अर्धांगिनी गिरिजा भी बड़े चाव से उनके साथ शास्त्रीय संगीत का आनन्द लेती थीं। एक शाम श्रीलाल जी ने गंगूबाई हंगल और भीमसेन जोशी के संगीत की तुलना करते हुए कहा कि दोनों किराना घराना के हैं और उस्ताद अब्दुल करीम खान के शिष्य रहे हैं, लेकिन जो प्रतिष्ठा भीमसेन जोशी को मिली है, वह गंगूबाई हंगल को नहीं मिली, जबकि मुझे उनका गायन उनसे बेहतर लगता है। फिर उन्होंने निकट बैठी अपनी पत्नी गिरिजा से पूछा — तुम्हें क्या लगता है गिरिजा? गिरिजा जी ने गुड़िया की तरह अपना सर हिला दिया। मैंने यह नोट किया था कि जब भी वह उनके पास होती थीं, श्रीलाल जी किसी न किसी विषय पर उनसे राय ज़रूर लेते थे और वह हमेशा उनकी सहमति में एक कठपुतली सी हुँकारी भर देती थीं। फिर श्रीलाल जी मेरी ओर मुड़े और मुझसे पूछा — विनोद ! क्या तुमको लगता है कि गंगूबाई को महत्व इसलिए कम मिला क्योंकि वह एक स्त्री थीं और दलित भी। .मैंने उनके इस सवाल का कोई उत्तर नहीं दिया। मुझे मालूम था कि वह मल्लाह थीं और उनका विवाह ब्राहमण परिवार में हुआ था। मेरी श्रीलाल जी के प्रति धारणा कुछ अलग थी। कहने में मुझे कुछ संकोच हो रहा है लेकिन श्री ल जी मुझे अपनी जाति और पद की श्रेष्ठता बोध से मुक्त नहीं लगते थे।

इस सम्बन्ध में एक प्रसंग का उल्लेख करने से आपको कुछ अनुमान लग सकता है। पटना से लखनऊ तबादले पर आने के बाद एक शाम मुद्राराक्षस से मिलने गया था। बातचीत में उन्होंने सलाह दी कि तुम आसपास घर लो। यहाँ इन्दिरा नगर में अनेक साहित्यिक मित्र रहते हैं। फिर मुद्रा जी हमें उसी शाम को श्रीलाल जी के घर ले गए कि वह यहाँ के आसपास के लोगों को जानते हैं जो मकान दिलाने में मदद कर सकते हैं। श्रीलाल जी ने एक-दो मित्रों को तुरन्त फ़ोन लगाया। एक से फ़ोन पर कहा — यह कोई फटीचर कवि नहीं हैं। घर ठीक-ठाक चाहिए। बैंक में अफ़सर हैं। उनके घर से लौटते समय मेरे दिमाग में दो शब्द काफ़ी देर गूँजते रहे — फटीचर कवि और बैंक अफ़सर।

मैं कुछ दूसरी राह में भटक गया था। उनके संगीत प्रेम की चर्चा चल रही थी। यह उनका संगीत प्रेम ही था कि जब मैंने ’वागर्थ’ पत्रिका के सम्पादक बनने के बाद उनसे कोई रचना देने के लिए अनुरोध किया तो उन्होंने कवि और संगीत विशेषज्ञ यतीन्द्र मिश्र की पुस्तक “गिरिजा “ की समीक्षा भेजने का प्रस्ताव किया और साथ में मेरे सम्पादन को लेकर एक अद्भुत टिप्पणी भी लिखी। तुमने वागर्थ को मध्यकाल से आधुनिक काल में पहुँचा दिया — उनकी इस टिप्पणी का उपयोग मैंने पूर्व सम्पादक डॉ. प्रभाकर श्रोत्रिय के सम्मान में वागर्थ में नहीं प्रकाशित किया। गिरिजा की उनकी समीक्षा में व्यक्त दो तीन बातों की ओर ध्यान दिलाना चाहता हूँ, जिससे उनके विचारों को समझने के कुछ सूत्र मिल सकते हैं। वह उस समीक्षा में लिखते हैं — भाषा के स्तर पर कहीं -कहीं अमूर्त और रहस्यशील हो जाने पर भी यतीन्द्र इस चुनौती का पूरी क्षमता के साथ सामना करते हैं। इस वाक्य में अमूर्त और रहस्यशील शब्दों के प्रयोग से पता चलता है कि श्रीलाल जी अमूर्तता और रहस्यवादी रचनाशीलता के पक्षधर नहीं हैं, चाहे वह संगीत जैसी अनिर्वचनीय कला की समीक्षा ही क्यों न हो। इसी समीक्षा के अन्त में वह एक बुनियादी सवाल भी उठाते हैं कि ’हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत को धार्मिक चेतना का संवाहक बनाना कितना उचित है। संगीत के अपने सौन्दर्यशास्त्र का क्या हुआ? प्रत्येक कला की अगर कोई स्वायतता है, तो वह कहाँ रही। यह चिन्ता हम जैसे संशयात्माओं की ही है, जो संगीत की इस धार्मिक-आध्यात्मिक उपाधि और उसके सौन्दर्य-सिद्धान्तों में कोई अनिवार्य रिश्ता नहीं देख पा रहे हैं।

काफ़ी अरसे बाद उनका उपन्यास ’पहला पड़ाव’ आया था। उन्होंने मुझे उसकी प्रति बहुत उमंग से दी थी। उन्होंने यह भी बताया था कि किस तरह लखनऊ के बाहर होटल में रहकर यह उपन्यास पूरा किया था। इस उपन्यास में शहर में रोज़ी-रोटी के लिए छत्तीसगढ़ से आए दिहाड़ी मज़दूरों के जीवन को केन्द्र में रखा गया था। बड़े शहरों में किस तरह मज़दूरों के दलाल पेट में या गोद में बच्चों को लिए मज़दूरिनों का शोषण करते हैं, इसे वह रूपायित करने की कोशिश करते हैं, लेकिन इस उपन्यास में भी उनकी कथन शैली अधिकतर राग दरबारी की तर्ज पर व्यंग्य-विनोद की ही है। मैंने उनके इस उपन्यास पर लखनऊ में एक छोटी संगोष्ठी आयोजित की थी। इसमें कुँवर नारायण, मुद्राराक्षस, वीरेन्द्र यादव, राकेश, रवीन्द्र वर्मा, रमेश दीक्षित आदि के साथ श्रीलाल जी स्वयं मौजूद थे। कुँवर जी ने एक संक्षिप्त परचा पढ़ा था। मुद्रा जी और वीरेन्द्र यादव ने श्रीलाल शुक्ल की दृष्टि और सम्वेदना को लेकर कुछ बुनियादी सवाल उठाए थे। श्रीलाल जी ने अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में केवल आभार ही व्यक्त किया था। अगली मुलाक़ात में उन्होंने संगोष्ठी पर सन्तोष व्यक्त करते हुए यह तंज मारा कि लाल झण्डे वाले तो कभी किसी के लेखन से सन्तुष्ट नहीं होते, चाहे मज़दूरों पर लिखो या किसानों पर। दरअसल अपने साहित्यिक सफ़र के शुरुआती दौर में श्रीलाल जी का इलाहाबाद के परिमल समूह से जुड़ाव था, जिनका प्रगतिशीलों से वैचारिक संघर्ष चलता रहता था। उनके इस कथन में उसकी गूँज मौजूद थी।

पाँच साल जयपुर में रहने के बाद मेरा तबादला कोलकाता हो गया था। इस दौरान श्रीलाल जी से मेरा सम्पर्क टूट गया था। मेरे कोलकाता प्रवास के दौरान साहित्य अकादेमी के किसी आयोजन में वह एक बार कोलकाता आए थे। भारतीय भाषा परिषद के सभागृह में जब मैंने उन्हें नमस्कार किया तो उन्होंने मेरा हाथ थाम लिया। दो दिन संगोष्ठी में उनका साथ रहा।

वहाँ एक अजीबोग़रीब घटना घटी। जनसत्ता के एक पत्रकार उनका एक छोटा इण्टरव्यू अपने अख़बार के लिए लेना चाहते थे। सभागृह में श्रीलाल जी के साथ मैं बैठा हुआ था। पत्रकार महोदय ने मुझसे सीट बदलकर उनके पास बैठने का अनुरोध किया। मैंने सीट बदल ली। कुछ क्षण बाद अचानक मैंने देखा कि श्रीलाल जी तमतमाकर अपनी सीट छोड़कर उठ गए। मुझे लगा कि कुछ ज़रूर बिगड़ गया है। लंच में श्रीलाल जी ने मुझसे कहा कि ’तुमने मुझे किस ज़ाहिल से मिला दिया। वह मेरी किताबों के नाम तक नहीं जानता और मेरा इण्टरव्यू लेना चाहता है। मुझसे वह पूछ रहा था कि मैंने कौन सी क़िताबें लिखी हैं।’

लंच के बाद भी पत्रकार उनसे इण्टरव्यू लेने के लिए आतुर थे। वह मेरे परिचित भी थे.उन्होंने मुझसे भी इस बारे में मदद माँगी। श्रीलाल जी टस से मस नहीं हो रहे थे। मैंने श्रीलाल जी से कहा कि पत्रकारों की अपनी सीमाएँ होती हैं। उन्हें साहित्य ही नहीं, खेल, विज्ञान, कला, रंगमंच आदि से जुड़े विविध क्षेत्रों के लोगों से इण्टरव्यू लेना होता है, ऐसे में उन्हें सभी के बारे में उतनी व्यापक जानकारी नहीं होती है। आप उन्हें इण्टरव्यू दे दीजिए। पता नहीं, मेरी बात का असर था या उनका मन बदल गया, आख़िरकार उन्होंने उन्हें इण्टरव्यू दे दिया।

श्रीलाल जी से मेरी आख़िरी मुलाक़ात हमारे बैंक के एक आयोजन में हुई थी। हमारे बैंक की गृह पत्रिका ’सृजना’ के सम्वाददाताओं की वार्षिक बैठक के उद्घाटन समारोह में उन्हें मुख्य अतिथि के रूप में आमन्त्रित किया गया था। वह उस दिन बेहद ख़ुश थे। वह ’सृजना’ पत्रिका के पिछले अंकों को पढ़कर पूरी तैयारी के साथ आए थे। उन्होंने पत्रिका की सराहना करते हुए उसे बेहतर बनाने के लिए कुछ सुझाव भी दिए। हमारे बैंक के स्टाफ़ कॉलेज के निदेशक श्री भदोरिया तो इतने गदगद थे कि पूरे स्टाफ़ के सामने उन्होंने आदर में श्रीलाल जी के चरण छू लिए। मैं अकबक भदोरिया जी को देख रहा था। दरअसल वह श्रीलाल जी का उपन्यास ’राग दरबारी’ पढ़ चुके थे और उनके गहरे प्रशंसक थे। उनका चरण स्पर्श करना शायद उनके लेखन का सम्मान था। जब मैं श्रीलाल जी को कार तक विदा करने जा रहा था तो उन्होंने कुछ अचरज से मुझसे कहा — विनोद ! कार्यक्रम की शुरुआत में काफ़ी देर आपके नाम को लेकर मुझे भ्रम बना रहा। इतना निकट होने के बावजूद मैं आपका यह सरकारी नाम नहीं जानता था। मैंने सलज मुसकान के साथ कहा — यह अच्छा ही रहा। कुछ चीज़ें छिपी ही रहनी रहनी चाहिए।

पहली बार और शायद आख़िरी बार श्रीलाल जी की आँखों में मेरे प्रति वह भाव था जिसे इसके पहले मैंने कभी नहीं देखा था।