राग दरबारी / श्रीलाल शुक्ल / पृष्ठ 11

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अध्याय:11
वह एक प्रेम पत्र था

11. वह एक प्रेम पत्र था तहसील का मुख्यालय होने के बावजूद शिवपालगंज इतना बड़ा गाँव न था कि उसे टाउन एरिया होने का हक मिलता। शिवपालगंज में एक गाँव सभा थी और गाँववाले उसे गाँव-सभा ही बनाये रखना चाहते थे ताकि उन्हें टाउन-एरियावाली दर से ज़्यादा टेक्स न देना पड़े। इस गाँव सभा के प्रधान रामाधीन भीखमखेड़वी के भाई थे जिनकी सबसे बड़ी सुन्दरता यह थी कि वे इतने साल प्रधान रह चुकने के बावजूद न तो पागलख़ाने गये थे, न जेलख़ाने। गँजहों में वे अपनी मूर्खता के लिए प्रसिद्ध थे और उसी कारण, प्रधान बनने के पहले तक, वें सर्वप्रिय थे। बाहर से अफ़सरों के आने पर गाँववाले उनकों एक प्रकार से तश्तरी रखकर उनके सामने पेश करते थे। और कभी-कभी कह भी देते थे कि साहेब, शहर में जो लोग चुनकर जाते हैं उन्हें तो तुमने हज़ार बार देखा होगा, अब एक बार यहाँ का भी माल देखते जाओ।


गाँव-सभा के चुनाव जनवरी के महिने में होने थे और नवम्बर लग चुका था। सवाल यह था कि इस बार किसको प्रधान बनाया जाये? पिछले चुनावों में वैद्यजी ने कोई दिलचस्पी नहीं ली क्योंकि गाँव-सभा के काम को वे निहायत ज़लील काम मानते थे। और वह एक तरह से ज़लील था भी, क्योंकि गाँव-सभाओं के अफ़सर बड़े टुटपुँजिया क़िस्म के अफ़सर थे। न उनके पास पुलिस का डण्डा था, न तहसीलदार का रूतबा, और उनसे रोज़-रोज़ अपने काम का मुआयना करने में आदमी की इज्जत गिर जाती थी। प्रधान को गाँव-सभा की ज़मीन-जायदाद के लिए मुक़दमें करने पड़ते थे और शहर के इजलास में वकीलों और हाकिमों का उनके साथ वैसा भी सलूक न था जो एक चोर का दूसरे चोर के साथ होता है। मुक़दमेबाज़ी में दुनिया-भर की दुश्मनी लेनी पड़ती थी और मुसीबत के वक़्त पुलिसवाले सिर्फ़ मुस्करा देते थे और कभी-कभी उन्हें मोटे अक्षरों में ‘परधानजी’ कहकर थाने के बाहर का भूगोल समझाने लगते थे।


पर इधर कुछ दिनों से वैद्यजी की रूचि गाँव-सभा में भी दिखने लगी थी, क्योंकि उन्होंने प्रधानमंत्री का एक भाषण किसी अख़बार में पढ़ लिया था। उस भाषण में बताया गया था कि गाँवों का उद्धार स्कूल, सहकारी समिति और गाँव-पंचायत के आधार पर ही हो सकता है और अचानक वैद्यजी को लगा कि वे अभी तक गाँव का उद्धार सिर्फ़ कोऑपरेटिव यूनियन और कॉलिज के सहारे करते आ रहे थे और उनके हाथ में गाँव-पंचायत तो है ही नहीं। ‘आह!’ उन्होंने सोचा होगा, ‘तभी शिवपालगंज का ठीक से उद्धार नहीं हो रहा है। यही तो मैं कहूँ कि क्या बात है?’


रूचि लेते ही कई बातें सामने आयीं। यह कि रामाधीन के भाई ने गाँव-सभा को चौपट कर दिया है। गाँव की बंजर ज़मीन पर लोगों ने मनमाने क़ब्ज़े कर लिये हैं और निश्चय ही प्रधान ने रिश्वत ली है। गाँवा-पंचायत के पास रुपया नहीं है और निश्चय ही प्रधान ने ग़बन किया है। गाँव के भीतर बहुत गन्दगी जमा होअ गई है और प्रधान निश्चय ही सुअर का बच्चा है। थानेवालों ने प्रधान की शिकायत पर कईं लोगों का चालान किया है जिससे सिर्फ़ यही नतीजा निकलता है कि वह अब पुलिस का दलाल हो गया है। प्रधान को बन्दूक का लाइसेंस मिल गया है जो निश्चय ही डकैतियों के लिए उधार जाती है और पिछले साल गाँव में बजरंगी का क़त्ल हुआ था, तो बूझो कि क्यों हुआ था?


भंग पीनेवालों में भंग पीसना एक कला है, कविता है, कार्रवाई है, करतब है, रस्म है। वैसे टके की पत्ती को चबाकर ऊपर से पानी पी लिया जाये तो अच्छा-खासा नशा आ जायेगा, पर यहाँ नशेबाजी सस्ती है। आदर्श यह है कि पत्ती के साथ बादाम, पिस्ता, गुलकन्द, दूध-मलाई आदि का प्रयोग किया जाये। भंग को इतना पीसा जाये कि लोढ़ा और सिल चिपककर एक हो जायें, पीने के पहले शंकर भगवान की तारीफ़ में छन्द सुनाये जायें और पूरी कार्रवाई को व्यक्तिगत न बनाकर उसे सामूहिक रूप दिया जाये।


सनीचर का काम वैद्यजी की बैठक में भंग के इसी सामाजिक पहलू को उभारना था। इस समय भी वह रोज़ की तरह भंग पीस रहा था। उसे किसी ने पुकारा, “सनीचर!” सनीचर ने फुफकारकर फन-जैसा सिर ऊपर उठाया। वैद्यजी ने कहा, “भंग का काम किसी और को दे दो और यहाँ अन्दर आ जाओ।“


जैसे कोई उसे मिनिस्टरी से इस्तीफ़ा देने को कह रहा हो। वह भुनभुनाने लगा, “किसे दे दें? कोई है इस काम को करनेवाला? आजकल के लौण्डे क्या जानें इन बातों को। हल्दी-मिर्च-जैसा पीसकर रख देंगे।“ पर उसने किया यही कि सिल-लोढ़े का चार्ज एक नौजवान को दे दिया, हाथ धोकर अपने अण्डरवियर के पिछे पोंछ लिये और वैद्यजी के पास आकर खड़ा हो गया।


तख्त पर वैद्यजी, रंगनाथ, बद्री पहलवान और प्रिंसिपल साहब बैठे थे। प्रिंसिपल एक कोने में खिसककर बोले, “बैठ जाइए सनीचरजी!”


इस बात ने सनीचर को चौकन्ना कर दिया। परिणाम यहाँ हुआ कि उसने टूटे हुए दाँत बाहर निकालकर छाती के बाल खुजलाने शुरू कर दिये। वह बेवकूफ़-सा दिखने लगा, क्योंकि वह जानता था चालाकी के हमले का मुकाबला किस तरह किया जाता है। बोला, “अरे प्रिंसिपल साहेब, अब अपने बराबर बैठालकर मुझे नरक में न डालिए।“


बद्री पहलवान हँसे। बोले, “स्साले! गँजहापन झाड़ते हो! प्रिंसिपल साहब के साथ बैठने से नरक में चले जाओगे?” फिर आवाज़ बदलकर बोले, “बैठ जाओ उधर।“


वैद्यजी ने शाश्वत सत्य कहनेवाली शैली में कहा, “इस तरह से न बोलो बद्री। मंगलदासजी क्या होने जा रहे हैं, इसका तुम्हें कुछ पता भी है?”


सनीचर ने बरसों बाद अपना सही नाम सुना था। वह बैठ गया और बड़प्पन के साथ बोला, “अब पहलवान को ज़्यादा ज़लील न करो महाराज। अभी इनकी उमर ही क्या है? वक़्त पर सब समझ जायेंगे।“


वैद्यजी ने कहा, “तो प्रिंसिपल साहब, कह डालो जो कहना है।“


उन्होने अवधी में कहना शुरू किया, “कहै का कौनि बात है? आप लोग सब जनतै ही।“ फिर अपने को खड़ीबोली की सूली पर चढ़ाकर बोले, “गाँव-सभा का चुनाव हो रहा है, यहाँ का प्रधान बड़ा आदमी होता है। वह कॉलिज-कमेटी का मेम्बर भी होता है-एक तरह से मेरा भी अफ़सर।“


वैद्यजी ने अकस्मात कहा, “सुनो मंगलदास, इस बार हम लोग गाँव-सभा का प्रधान तुम्हें बनायेंगे।“


सनीचर का चेहरा टेढ़ा-मेढ़ा होने लगा। उसने हाथ जोड़ दिये – पुलक गात लोचन सलिल। किसी गुप्त रोग से पीड़ित, उपेक्षित कार्यकर्ता के पास किसी मेडिकल असोसिएशन का चेयरमैन बनने का परवाना आ जाये तो उसकी क्या हालत होगी? वही सनीचर की हुई। फिर अपने को क़बू में करके उसने कहा, “अरे नहीं महाराज, मुझ-जैसे नालायक़ को आपने इस लायक़ समझा, इतना बहुत है। पर मैं इस इज़्ज़त के क़ाबिल नहीं हूँ।“


सनीचर को अचम्भा हुआ कि अचानक वह कितनी बढ़िया उर्दू छाँट गया है। पर बद्री पहलवान ने कहा, “अबे, अभी से मत बहक। ऐसी बातें तो लोग प्रधान बनने के बाद कहते हैं। इन्हें तब तक के लिए बाँधे रख।“


इतनी देर बाद रंगनाथ बातचीत में बैठा। सनीचर का कन्धा थपथपाकर उसने कहा, “लायक़-नालायक़ की बात नहीं है सनीचर! हम मानते हैं कि तुम नालायक़ हो पर उससे क्या? प्रधान तुम खुद थोड़े ही बन रहे हो। वह तो तुम्हे जनता बना रही है। जनता जो चाहेगी, करेगी। तुम कौन हो बोलनेवाले?”


पहलवान ने कहा, “लौंडे तुम्हें दिन-रात बेवकूफ़ बनाते रहते हैं। तब तुम क्या करते हो? यही न कि चुपचाप बेवकूफ़ बन जाते हो?”


प्रिंसिपल साहब ने पढ़े-लिखे आदमी की तरह समझाते हुए कहा, “हाँ भाई, प्रजातन्त्र है। इसमें तो सब जगह इसी तरह होता है।“ सनीचर को जोश दिलाते हुए वे बोले, “शाबाश, सनीचर, हो जाओ तैयार!” यह कहकर उन्होनें ‘चढ़ जा बेटा सूली पर’ वाले अन्दाज़ से सनीचर की ओर देखा। उसका सिर हिलना बन्द हो गया था।


प्रिंसिपल ने आख़िरी धक्का दिया, “प्रधान कोई गबडू-घुसडू ही हो सकता है। भारी ओहदा है। पूरे गाँव की जायदाद का मालिक! चाहे तो सारे गाँव को 107 में चालान करके बन्द कर दे। बड़े-बड़े अफ़सर आकर उसके दरवाज़े बैठते हैं! जिसकी चुगली खा दे, उसका बैठना मुश्किल। काग़ज़ पर ज़रा-सी मोहर मार दी और जब चाहा, मनमाना तेल-शक्कर निकाल लिया। गाँव में उसके हुकुम के बिना कोई अपने घूरे पर कूड़ा तक नहीं डाल सकता। सब उससे सलाह लेकर चलते हैं। सबकी कुंजी उसके पास है। हर लावारिस का वही वारिस है। क्या समझे?”


रंगनाथ को ये बातें आदर्शवाद से कुछ गिरी हुई जान पड़ रही थीं। उसने कहा, “तुम तो मास्टर साहब, प्रधान को पूरा डाकू बनाये दे रहे हो।“


“हें-हें-हें” कहकर प्रिंसिपल ने ऐसा प्रकट किया जैसे वे जान-बूझकर ऐसी मूर्खतापूर्ण बातें कर रहे हों। यह उनका ढ़ंग था, जिसके द्वारा बेवकूफ़ी करते-करते वे अपने श्रोताओं को यह भी जता देते थे कि मैं अपनी बेवकूफ़ी से परिचित हूँ और इसलिए बेवकूफ़ नहीं हूँ।


“हें-हें-हें, रंगनाथ बाबू! आपने भी क्या सोच लिया? मैं तो मौजूदा प्रधान की बातें बता रहा था।“


रंगनाथ ने प्रिंसिपल को ग़ौर से देखा। यह आदमी अपनी बेवकूफ़ी को भी अपने दुश्मन के ऊपर ठोंककर उसे बदनाम कर रहा है। समझदारी के हथियार से तो अपने विरोधियों को सभी मारते हैं, पर यहाँ बेवकूफ़ी के हथियार से विरोधी को उखाड़ा जा रहा है। थोड़ी देर के लिए खन्ना मास्टर और उनके साथियों के बारे में वह निराश हो गया। उसने समझ लिया कि प्रिंसिपल का मुक़ाबला करने के लिए कुछ और मँजे हुए खिलाड़ी की ज़रूरत है। सनिचर कह रहा था, “पर बद्री भैया, इतने बड़े-बड़े हाकिम प्रधान के दरवाज़े पर आते हैं ... अपना तो कोई दरवाज़ा ही नहीं है; देख तो रहे हो वह टुटहा छप्पर!”


बद्री पहलवान हमेशा से सनीचर से अधिक बातें करने में अपनी तौहीन समझते थे। उन्हें सन्देह हुआ कि आज मौक़ा पाकर यहाँ मुँह लगा जा रहा है। इसलिए वे उठकर खड़े हो गये। कमर से गिरती हुई लुंगी को चारों ओर से लपेटते हुए बोले, “घबराओ नहीं। एक दियासलाई तुम्हारे टुटहे छप्पर में भी लगाये देता हूँ। यह चिंता अभी दूर हुई जाती है।“


कहकर वे घर के अन्दर चले गये। यह मज़ाक था, ऐसा समझकर पहले प्रिंसिपल साहब हँसे, फिर सनीचर भी हँसा। रंगनाथ की समझ में आते-आते बात दूसरी ओर चली गयी थी। वैद्यजी ने कहा, “क्यों? मेरा स्थान तो है ही। आनन्द से यहाँ बैठे रहना। सभी अधिकारियों का यहीं से स्वागत करना। कुछ दिन बाद पक्का पंचायतघर बन जायेगा तो उसी में जाकर रहना। वहीं से गाँव-सभा की सेवा करना।“


सनीचर ने फिर विनम्रतापूर्वक हाथ जोड़े। सिर्फ़ यही कहा, “मुझे क्या करना है? सारी दुनिया यही कहेगी कि आप लोगों के होते हुए शिवपालगंज में एक निठल्ले को ...”


प्रिंसिपल ने अपनी चिर-परिचित ‘हें-हें-हें’ और अवधी का प्रयोग करते हुए कहा, “फिर बहकने लगे आप सनीचरजी! हमारे इधर राजापर की गाँव-सभा में वहाँ के बाबू साहब ने अपने हलवाहे को प्रधान बनाया है। कोई बड़ा आदमी इस धकापेल में खुद कहाँ पड़ता है।“


प्रिंसिपल साहब बिना किसी कुण्ठा के कहते रहे, “और मैनेजर साहब, उसी हलवाहे ने सभापति बनकर रंग बाँध दिया। क़िस्सा मशहूर है कि एक बार तहसील में जलसा हुआ। डिप्टी साहब आये थे। सभी प्रधान बैठे थे। उन्हें फ़र्श पर दरी बिछाकर बैठाया गया था। डिप्टी साहब कुर्सी पर बैठे थे। तभी हलवाहेराम ने कहा कि यह कहाँ का न्याय है कि हमें बुलाकर फ़र्श पर बैठाया जाये और डिप्टी साहब कुर्सी पर बैठें। डिप्टी साहब भी नयें लौंडे थे। ऐंठ गये। फिर तो दोनों तरफ़ इज़्ज़त का मामला पड़ गया। प्रधान लोग हलवाहेराम के साथ हो गये। ‘इंक़लाब ज़िन्दाबाद’ के नारे लगने लगे। डिप्टी साहब वहीं कुर्सी दबाये ‘शांति-शांति’ चिल्लाते रहे। पर कहाँ की शांति और कहाँ की शकुंतला? प्रधानों ने सभा में बैठने से इनकार कर दिया और राजापुर का हलवाहा तहसीली क्षेत्र का नेता बन बैठा। दूसरे ही दिन तीन पार्टियों ने अर्जी भेजी कि हमारे मेम्बर बन जाओ पर बाबू साहब ने मना कर दिया कि ख़बरदार, अभी कुछ नहीं। हम जब जिस पार्टी को बतायें, उसी के मेम्बर बन जाना।“


सनीचर के कानों में ‘इंक़लाब ज़िन्दाबाद’ के नारे लग रहे थे। उसकी कल्पना में एक नग-धड़ंग अण्डरवियरधारी आदमी के पीछे सौ-दो सौ आदमी बाँह उठा-उठाकर चीख़ रहे थे। वैद्यजी बोले, “यह अशिष्टता थी। मैं प्रधान होता तो उठकर चला आता। फिर दो मास बाद अपनी गाँव-सभा में उत्सव करता। डिप्टी साहब को भी आमंत्रित करता। उन्हें फ़र्श पर बैठाल देता। उसके बाद स्वयं कुर्सी पर बैठकर व्याख्य़ान देते हुए कहता कि ‘बन्धुओ! मुझे कुर्सी पर बैठने में स्वाभाविक कष्ट है, पर अतिथि-सत्कार का यह नियम डिप्टी साहब ने अमुक तिथि को हमें तहसील में बुलाकर सिखाया था। अत: उनकी शिक्षा के आधार पर मुझे इस असुविधा को स्वीकार करना पड़ा है।“ कहकर वैद्यजी आत्मतोष के साथ ठठाकर हँसे। रंगनाथ का समर्थन पाने के लिए बोले, “क्यों बेटा, यही उचित होता न?”


रंगनाथ ने कहा, “ठीक है। मुझे भी यह तरकीब लोमड़ी और सारस की कथा में समझायी गयी थी।“


वैद्यजी ने सनीचर से कहा, “तो ठीक है। जाओ देखो, कहीं सचमुच ही तो उस मूर्ख ने भंग को हल्दी-जैसा नहीं पीस दिया है। जाओ, तुम्हारा हाथ लगे बिना रंग नहीं आता।“


बद्री पहलवान मुस्कराकर दरवाज़े पर से बोला, “जाओ साले, फिर वही भंग घोंटो!”


कुछ देर सन्नाटा रहा। प्रिंसिपल ने धीरे-से कहा, “आज्ञा हो तो एक बात खन्ना मास्टर के बारे में कहूँ।“


वैद्यजी ने भौंहें मत्थे पर चढ़ा लीं। आज्ञा मिल गयी। प्रिंसिपल ने कहा, “एक घटना घटी है। परसों शाम के वक़्त गयादीन के आँगन में एक ढेला-जैसा गिरा। गयादीन उस समय दिशा-मैदान के लिए बाहर गया हुआ था। घर में उस ढेले को बेला की बुआ ने देखा और उठाया। वह एक मुड़ा हुआ लिफ़ाफ़ा था। बुआ ने बेला से उसे पढ़वाकर सुनना चाहा, पर बेला पढ़ नहीं पायी।..”


रंगनाथ बड़े ध्यान से सुन रहा था। उसने पूछा, “अंग्रेज़ी में लिखा हुआ था क्या?”


“अंग्रेज़ी में कोई क्या लिखेगा! था तो हिन्दी में ही, पर कुँवारी लड़की उसे पढ़ती कैसे? वह एक प्रेम-पत्र था।“


वैद्यजी चुपचाप सुन रहे थे। रंगनाथ की हिम्मत न पड़ी कि पूछे, पत्र किसने लिखा था।


प्रिंसिपल बोले, “पता नहीं, किसने लिखा था। मुझे तो लगता है कि खन्ना मास्टर के ही गुटवालों की हरकत है। गुण्डे हैं साले, गुण्डे। पर खन्ना मास्टर आपके खिलाफ़ प्रचार कर रहा है। कहता है कि वह पत्र रुप्पन बाबू ने भेजा है। अब उसकी यह हिम्मत कि आपके वंश को कलंकित करें।“


वैद्यजी पर इसका कोई असर नहीं दीख पड़ा, सिवाय इसके कि वे एक मिनट तक चुप बैठे रहे। फिर बोले, “वह मेरे वंश को क्या खाकर कलंकित करेगा! कलंकित तो वह गयादीन के वंश को कर रहा है – कन्या तो उन्हीं की है।“


प्रिंसिपल साहब थोड़ी देर वैद्यजी का मुँह देखते रहे। पर उनका चेहरा बिल्कुल रिटायर हो चुका था। घबराहट में प्रिंसिपल साहब लुढ़ककर अवधी के फ़र्श पर आ गिरे। दूसरी ओर देखते हुए बोले, “लाव भइया सनीचर, जल्दी से ठंडाई-फंडाई लै आव। कॉलिज माँ लेबर छूटै का समय हूवइ रहा है।“