राजकपूर की पुण्यतिथि पर आदरांजलि / जयप्रकाश चौकसे

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राजकपूर की पुण्यतिथि पर आदरांजलि
प्रकाशन तिथि : 01 जून 2014


पुणे से कोल्हापुर मार्ग पर बीस किलोमीटर दूर लोनी में राजकपूर का लगभग सौ एकड़ का फार्म था, जो उन्होंने 1964 में 'संगम' की सफलता के बाद खरीदा था और तब तक मुंबई में वे किराए के मकान में ही रहते थे और सारी कमाई आरके स्टूडियो में ही लगती थी। अत: स्टूडियो के परे यह एकमात्र अचल संपति थी जिसमें भी उन्होंने आउटडोर शूटिंग की सुविधा का ही विकास किया और जोकर, बॉबी के अंश तथा पूरी 'सत्यम शिवम सुंदरम' तथा प्रेमरोग के अंश शूट हुए। यश चोपड़ा ने अपनी 'काला पत्थर' की पूरी शूटिंग वहां की और अन्य फिल्में भी शूट हुईं गोयाकि यह जमीन भी आरके का आउटडोर भाग ही माना जाना चाहिए। रहने का निवास स्थान श्रीमती कृष्णा कपूर की जिद के कारण 1982-83 में बनाया गया। उन्होंने अपने पुत्रों से कहा था कि कभी लोनी का राजबाग बेचना हो तो बाजार दाम से कम भी मिले तो किसी शैक्षणिक संस्था को देना और कुछ वर्ष पूर्व ही विश्वनाथ कराड़ द्वारा स्थापित शिक्षा ट्रस्ट को यह जमीन अत्यंत कम दामों में बेची गई और वहां मइर्स एमआईटी कॉलेज स्थापित हुआ। खरीद बिक्री करार के अनुरूप कराड़ साहब ने फार्म हाउस में उनके रहवासी बंगले के निकट उनकी स्मृति में एक संग्रहालय बनाया, जिसके उद्घाटन के समय उनके ज्येष्ठ पुत्र रणधीर कपूर जो विगत दो दशकों से पुणे में रहते है भी मौजूद थे। उस अवसर पर ऋषिकेश पवार के दल ने नृत्य गीत प्रस्तुत किए और संजय उपाध्याय द्वारा राजकपूर पर बनाया गया वृत चित्र भी दिखाया गया।

मुंबई फिल्म उद्योग के अनेक लोगों के मन में उस फार्म हाउस की यादें हैं। राजकपूर ने वहां एक छोटा सिनेमाघर इस प्रयोजन से बनाया था कि रश प्रिंट देखा जा सके और फिल्म को अंश दर अंश बार-बार देखकर पाश्र्व संगीत का सृजन किया जा सके। इसी जगह शंकर-जयकिशन ने 'मेरा नाम जोकर' के पाश्र्व संगीत को रचा था और संगीत लिपि लिखी गई थी जिसके आधार पर मात्र पांच दिनों में चार घंटे की फिल्म 'मेरा नाम जोकर' का पाश्र्व संगीत रिकॉर्ड किया गया परंतु यह इसलिए संभव हुई कि राजकपूर और शंकर-जयकिशन ने दो माह तक फार्म हाउस में सारा सृजन कर लिया था। ज्ञातव्य है कि एचएमव्ही संगीत कंपनी ने पाश्र्व संगीत का रिकॉर्ड भी बाजार में बेचा था। यह पहली भारतीय फिल्म है जिसका पाश्र्व संगीत का रिकॉर्ड बनाया गया। पूरा पाश्र्व संगीत एक महाकाव्यात्मक फिल्म की महान सिम्फनी की तरह ध्वनित होता था और उसके अंश चुराकर बाद में कई फिल्मों के अंशों में उपयोग किए गए। कुछ वर्ष पूर्व में रिकॉर्ड कंपनी के दफ्तर में गया था उस लांग प्ले रिकॉर्ड के लिए क्योंकि प्रदर्शन के समय खरीदा मेरा रिकॉर्ड खराब हो चुका था। आश्चर्य यह कि दफ्तर में किसी के पास यह जानकारी भी नहीं कि इस तरह रचना उन्होंने कभी बेची थी। हमारे सिनेमा उद्योग की अनगिनत पुरानी फिल्में नष्ट हो चुकी हैं। अपनी विरासत के प्रति हम हर क्षेत्र में लापरवाह रहे हैं। दरअसल आजकल इस तरह कि चिंता जताना भी मूर्खता माना जाता है। यह विद्वानों की दुनिया है। राजकपूर पुणे फिल्म संस्थान के छात्रों को प्राय: अपने फार्म हाउस में निमंत्रित करते थे, उन्हें खाना खिलाते और लंबी चर्चाएं करते थे। इन्हीं में से एक छात्र रवींद्र पीपर था जिसे उन्होंने अपना सहायक बनाया और पटकथा लिखने का काम भी दिया। रवींद्र पीटर ने ही राज बब्बर और स्मिता पाटिल के लिए महान फिल्म 'वारिस' रची थी। रवींद्र जैन ने भी 'राम तेरी गंगा मैली' और 'हिना' के कुछ गीत इसी फार्म हाउस में रचे थे। यश चोपड़ा की 'काला पत्थर' बहुसितारा फिल्म थी और सारे सितारों के मन में भी यादें होंगी। सत्यम शिवम के गांव की पूरी बस्ती का सेट लगाया गया था जिसमें विशाल मंदिर भी था। इसी फार्म हाउस से मुल्ला मुथ्था नदी भी गुजरती है और राजकपूर ने नौका विहार के लिए वोट भी रखी थी। 'सत्यम' की शूटिंग के समय इतनी बाढ़ आई कि सारा सेट लगभग डूब गया और मंदिर का एक तिहाई भाग भी डूबा।

राजकपूर ने अपने कैमरामैन राधू करमरकर को हैंडहेल्ड कैमरा लेने को कहा और पूरे यूनिट ने कमर इतने पानी में खड़े रहकर बांध में डूबे गांव की शूटिंग की और फिल्म के क्लाइमैक्स में यह शॉट्स शामिल है परंतु कुछ अतिरिक्त शॉट्स विल्सन डैम के निकट बाद में लिए गए। मंदिर में उतरते पानी में मूर्ति की छाया का शॉट्स भी लिया गया था। राजकपूर के लिए फिल्म बनाना व्यापार के परे कुछ और भी था। गौरतलब यह है कि उन्होंने अपने परिवार के सामने यह इच्छा क्यों रखी कि जमीन शिक्षा संस्था को दी जाए। वे स्वयं मैटरिक फैल थे और जीवन तथा सिनेमा की पाठशाला में ही उन्होंने बहुत कुछ सीखा था परंतु शिक्षा के प्रति उनके मन में गहरा आदर था। पारम्परिक शिक्षा की अपनी कमी का उन्हें शिद्दत से अहसास था और आने वाली पीढिय़ों को शिक्षा मय्यसर हो इसका अहसास भी था। इसी कमी के कारण सारा जीवन उन्होंने अपने सहयोगी वे ही लोग पसंद किए जो शिक्षित थे।

ख्वाजा अहमद अब्बास, अर्जुन देव रश्क, इंद्रराज आनंद, रामानंद सागर, जैनेंद्र जैन, पाकिस्तान की हसीना मोइन, शैलेंद्र उनके निकटतम लोग थे। उन्होंने विजय तेंदुलकर को भी अपनी 'रिश्वत' लिखने के लिए बुलाया था। मनोहर श्याम जोशी से 'घूंघट के पट खोल' लिखवाना चाहते थे। यद्यपि राजेंद्र सिंह बेदी ने उनके लिए फिल्म नहीं लिखी परंतु 'बूट पॉलिस' के क्लाइमैक्स का विचार उनका ही था। महान कम्पोजर जूबिन मेहता उनका मित्र था। लंदन में 'फिडलर ऑन द रूफ' नाटक के टिकिट के लिए उनके प्रयत्नों के बाद सृजक टोपाज को मालूम पड़ी तो उन्होंने उन्हें सपत्नीक आमंत्रित किया और शो के बाद उन्हें स्टेज पर आमंत्रित किया और अभूतपूर्व आदर दिया। ब्रिटिश दर्शकों ने देर तक टोपाज और राजकपूर के लिए तालियां बजाईं। राजकपूर महान और प्रसिद्ध लोगों को ही मित्र नहीं बनाते थे, लोनी ग्राम के किसानों के घर भी जाते थे और उनके साथ झुनका-बॉखर खाते थे। हीरामन गाड़ीवान इतनी विश्वसनीयता से यूं ही अभिनीत नहीं होता। जाने कहां गए वो दिन।