राजकपूर के सिनेमा की प्रासंगिकता / जयप्रकाश चौकसे

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राजकपूर के सिनेमा की प्रासंगिकता
प्रकाशन तिथि : 14 दिसम्बर 2013


आज राजकपूर जिंदा होते तो नवासी (89) वर्ष के होते गोयाकि सिनेमा के जन्म के ग्यारह वर्ष पश्चात जन्मा उसका अनन्य प्रेमी! उनकी मृत्यु को भी पच्चीस वर्ष हो चुके हैं और इन पच्चीस वर्षों में सिनेमा और उसका अर्थशास्त्र बहुत बदल चुका है। राजकपूर ने अपनी पहली फिल्म का निर्माण और निर्देशन महज बाइस वर्ष की उम्र में किया था और पच्चीस की आयु में वे सबसे कम उम्र के स्टूडियो मालिक बने थे तथा आवारा जैसी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सफल फिल्म की रचना कर चुके थे। अपनी पहली फिल्म 'आग' उन्होंने दो लाख रुपये में बनाई थी और पच्चीस हजार के मुनाफा हुआ था। आज उनके पोते रनवीर कपूर को एक फिल्म में अभिनय के लिए चालीस करोड़ का मेहनताना दिया जा रहा है। 'आग' के प्रदर्शन के समय एक डॉलर एक रुपए में आता था, आज पैंसठ रुपए चुकाने पड़ते हैं।

राजकपूर ने अपनी पहली कार को बरसों तक सहेज कर रखा था और जब उनके अनजाने उस अटाले को बेच दिया गया तब उनके क्रोध को शांत करना कठिन हो गया था। उन्हें कहा गया कि उस कार का उपयोग वर्षों पहले बंद किया जा चुका है और अब उसके स्पेअर पार्टस भी उपलब्ध नहीं हैं। वह कार बेकार में जगह घेर रही थी। राजकपूर फुंफकारे कि एक दिन मैं भी बूढ़ा और अनउपयोगी हो जाऊंगा तो अटाले वाले के हाथ बेच दिया जाऊंगा।

ज्ञातव्य है कि राजकूपर फिल्मों में अभिनय करके उस मेहनताने से अपनी पहली फिल्म बना रहे थे। उस जमाने में कार आज की तरह सहज उपलब्ध नहीं थी और राजकपूर के ससुर रीवा स्टेट के आला अफसर थे। उस फोर्ड कार को राजकपूर ने नौ हजार में रीवा से खरीदा था और रजिस्ट्रेशन था रीवा 347।

बहरहाल राजकपूर का बेकार होकर अटाले में फेंके जाने का अंदेशा निराधार सिद्ध हुआ। उनका सिनेमा आज भी प्रासंगिक है और अनेक युवा निर्देशक उनकी फिल्मों का अध्ययन करते हैं और दर्शक आज भी टेलीविजन पर पुन: प्रसारण में उन्हें देखते हैं और सच तो यह है कि उनकी फिल्मों के सैटेलाइट अधिकार आज भी अपने समकलीन फिल्मकारों की फिल्मों से अधिक दाम में हर पांच वर्ष के लिए बिकते हैं। राजकपूर के जीवन काल में उनकी फिल्मों ने जो कमाई की उससे कहीं अधिक उनकी मृत्यु के बाद कर रही हैं। बात सिर्फ कमाई की नहीं है, आज वे पहले से अधिक प्रशंसित हैं।

राजकपूर राष्ट्रीय स्मृति में दर्ज हैं क्योंकि सिनेमा महज मनोरंजन नहीं होकर देश के आवाम की भावनाओं, सपनों और डर का रूपक बन चुका है। यह सदियों से कथावाचकों और श्रोताओं का देश है, इसलिए सिनेमा को यह दर्जा हासिल है जो किसी और देश को नहीं है। देश का सामूहिक अवचेतन सिनेमा से झंकृत होता है, वह अनुगूंज की तरह ध्वनित होता है और राजकपूर अवाम के अवचेतन में मुखड़े की तरह दोहराये जाते हैं। कालखंड बदलने से इस स्थायी में कोई परिवर्तन नहीं होता जैसे अंतरे अलग होने पर भी मुखड़ा दोहराया जाता है।

राजकपूर भारत की आजादी की अलसभोर के फिल्मकार हैं। आजाद भारत में आवाम के सपनों और डर को राजकपूर ने सिनेमाई मुहावरा दिया। आम आदमी को नायक बनाकर उन्होंने गणतंत्रीय व्यवस्था की नब्ज पकड़ ली। वे आम आदमी की आशा, निराशा के सामाजिक और राजनैतिक अर्थ को समझते थे और आज के घटनाक्रम में भी राजकपूर की चिंताओं और महत्वाकांक्षा को महसूस कर सकते हैं। आवारा का नायक जब गाता है, 'मुझको यह नरक ना चाहिए, मुझको चाहिए बहार'- आज भी वह 'बहार' का इंतजार कर रहा है और राजकपूर का सिनेमा उसे इसकी याद दिलाता रहता है। राजकपूर का सिनेमाई मैनिफेस्टो उसी 'बहार' का दस्तावेज है जिसका वादा आजादी की अलसभोर में किया गया था।

अगर राजकपूर 'आवारा' के क्लाइमैक्स में झोपड़पट्टी के पास बहते नाले में अपराध के कीटाणु की बात करते हैं तो आज भी नाले बह रहे हैं, इस तरह राजकपूर का सिनेमा एक काल खंड से दूसरे में छलांग लगाता है। 'श्री 420' में प्रस्तुत मकान का सपना आज भी कायम है और 'जागते रहो' का प्यासा नायक मंजिल दर मंजिल भ्रष्टाचार देख रहा है, वह सांस्कृतिक प्यास आज भी कायम है। 'संगम' का नायक कहता है कि फिर वही ऊंची टेकड़ी पर खड़े रहकर गरब को दान देने का अहंकार तो आज भी सरकारी सहूलियतों के उस दान की तरह हैं जिससे हालात नहीं बदलते। 'प्रेमरोग' और 'गंगा' की नायिकाओं पर आज भी जुल्म हो रहा है। 'श्री 420' में सेठ सोनाचंद धर्मानंद चुनावी भाषण दे रहे हैं तो नायक मजूबत देश, मजबूत दांत और रोटी तथा भूख की बात करते हुए मंजन बेच रहा है।

सोनाचंद का आदमी नायक से पूछता है कि मंजन में हड्डियों का चूरा तो नहीं और धर्म के कोड़े से रोटी और भूख की बात करने वाले की पिटाई हो जाती है। यह आज भी हो रहा है। जब तक भारत में आम आदमी भूख से जूझता रहेगा तब तक राजकपूर का सिनेमा प्रासंगिक रहेगा, जब तक आम आदमी के नाम पर तमाशे होते रहेंगे तब तक राजकपूर का जोकर अवाम के हृद्य में आंसू और मुस्कान की तरह कायम रहेगा। राजकपूर का सिनेमा उनकी पहली कार रीवा 347 की तरह कभी अटेले में नहीं जाएगा।