राजकपूर सृजन प्रक्रिया / जयप्रकाश चौकसे / समीक्षा
निर्मला भुराड़िया
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फिल्मकार राजकपूर की सृजन-प्रक्रिया पर लेखक व फिल्मकार जयप्रकाश चौकसे की एक पुस्तक हाल ही में प्रकाशित हुई है। यूँ तो राजकपूर जिस कद के फिल्मकार रहे हैं उसे देखते हुए विश्लेषकों ने सदा ही उन पर कलम चलाई है, मगर इस पुस्तक में खास बात यह है कि राजकपूर के कार्य के बारे में उम्दा विश्लेषण के साथ ही इस महान फिल्मकार के साथ बिताए व्यक्तिगत क्षणों का आँखों देखा हाल भी है।
लेखक ने राजकपूर की कार्यपद्धति को स्वयं देखा है और उनके बारे में कई अनछुए पहलुओं को शब्दबद्ध किया है। किताब की भूमिका में लेखक लिखते हैं, 1977 से 1988 तक मुझे श्री राजकपूर के अत्यंत निकट आने का अवसर मिला। उन्होंने मुझे आरके स्टूडियो के दफ्तर में जगह दी थी क्योंकि बतौर कार्यकारी निर्माता मेरी चारों फिल्मों की शूटिंग वहाँ होती थी। राजकपूर के पुत्र श्री रणधीर कपूर ने पुस्तक की प्रस्तावना में लिखा है, 'मुझे खुशी है कि मेरे मित्र जयप्रकाश चौकसे ने मेरे पिता राजकपूर पर किताब लिखी है। उन्होंने मेरे पिता के साथ बहुत वक्त गुजारा है उसी अंतरंग अनुभव के आधार पर यह किताब लिखी है।'
इस पुस्तक को कई अनुक्रमों में विभाजित किया गया है। जिसमें राजकपूर की फिल्मों के प्रतीक, धर्म-आस्था और विश्वास राजकपूर, समाज और राजनीति आदि विषयों की पड़ताल की गई है। इसके अलावा विवाद के घेरे में प्रेमदृश्य, राजकपूर के विषयों में आत्मकथा की झलक जैसे विषयों को भी छुआ गया है। कुछ ऐसी जानकारियाँ भी इसमें है जो मजेदार हैं जैसे 'राजकपूर ने जवानी की दहलीज पर कदम रखने के पहले ही एक सजातीय कन्या का दिल जीत लिया पर यह विवाह नहीं हो पाया, क्योंकि कन्या के पिता घर-जँवाई चाहते थे। उन्हें राजकपूर के अभिनेता बनने की महत्वाकांक्षा नहीं जँची।'
राजकपूर अपनी फिल्मों में सामाजिक विडंबनाओं को दर्शाते थे मगर फेंटेसी की चाशनी में लपेटकर ताकि दर्शक हँसकर उदरस्थ कर सकें। राजकपूर की इस रचना प्रक्रिया का उदाहरण देते हुए लेखक ने रहस्योद्घाटन किया है कि 'आवारा' का स्वप्न दृश्य 'मुझको यह नरक न चाहिए, मुझे चाहिए बहार,' फिल्म पूरी करने के बाद सबसे अंत में फिल्माया गया। मूल पटकथा में स्वप्न दृश्य का जिक्र भी नहीं है। संपादन के समय राजकपूर ने महसूस किया नायक का अंतर्द्वद्व समझने के लिए और कथा में मनोरंजन के लिए ऐसा करना ठीक रहेगा।
राजकपूर की फिल्मों के सभी गीत जबरदस्त हिट होते थे। इसकी वजह थी राजकपूर को स्वयं को भी संगीत की गहरी समझ थी यह पुस्तक बताती है, 'राजकपूर संगीत की ओर बचपन से ही आकृष्ट हुए थे क्योंकि उनकी माँ रमासरनी देवी को गीत गाने का बहुत शौक था।' लेखक यह भी लिखते हैं कि राजकपूर चेहरा भूल सकते थे, परंतु वे कभी कोई धुन नहीं भूलते थे। इस बात की ताकीद करते हुए कई उदाहरण पुस्तक में मौजूद हैं। कुल मिलाकर यह राजकपूर की संपूर्ण सृजन प्रक्रिया का भी विश्लेषण है।