राजकुमार की प्रतिज्ञा / यशपाल जैन / दो शब्द

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नई पीढ़ी को
जिस पर
देश का भविष्य निर्भर करता है।
-यशपाल जैन
दो शब्द

मैं नहीं जानता कि इस उपन्यास को लिखने की कल्पना मेरे मने में क्यों उपजी! अपनी इस बार की विदेश-यात्रा में तीसरा उपन्यास 'भोर की आहट' लिखकर लिखकर मैं कुछ दिन का विश्राम चाहता था, लेकिन स्वदेश लौटने पर काम का अम्बार सामने आ गया। उसे निपटना आवश्यक था।

उसी व्यस्तता में अचानक एक दिन जाने कैसे विचार आया कि मैंने बड़ों के लिए तो बहुत-कुछ लिख दिया, बच्चों के लिए भी कुछ लिखना चाहिए। साथ ही यह भी विचार आया कि मुझे अब कहानी नहीं, उपन्यास लिखना चाहिए।

मेरे लिए बड़े विस्मय की बात है कि इस कल्पना के आते ही कलम चल पड़ी और देखते-देखते यह उपन्यास पूरा हो गया। इसको लिखते समय मेरे सामने मुख्यत: बच्चे रहे हैं। मुझे पता है कि बच्चों को परियों की कहानी बहुत पसंद आती है। मैं जब छोटा था तो मेरी मां हम बच्चों को परियों की कहानियां सुनाया करती थी। उन कहानियों को सुनते-सुनते हमें पता भी नहीं चलता था कि अब आधी रात हो गई। हम चाहते थे कि कहानी चलती ही रहे। अगले दिन फिर हम मां को परियों की कहानी सुनाने के लिए मजबूर कर देते थे।

इस उपन्यास में मैं परियों को लाया हूं। फिर मुझे ध्यान आया कि बच्चों को जादू बहुत पसंद है। मैं जादू को ले आया। सिंहल द्वीप की पद्मिनी को लेकर बहुत-सी कहानियां लिखी गई हैं। मैंने भी इस उपन्यास की प्रमुख नायिका सिंहल द्वीप की पद्मिनी को बनाया और उसके इर्द-गिर्द उन घटनाओं का ताना-बाना बुना, जो रोचक हैं, मनोरंजक हैं, कौतूहल से भरी हैं।

बच्चों के लिए यथार्थ का विशेष मूल्य नहीं होता। वे यह नहीं देखते कि अमुक चीज संभव है या नहीं। वे तो बस पढ़ते समय यही चाहते है कि कहीं भी उनका मन रुके नहीं, पानी पर तैरता चले।

मैंने इन सब बातों का ध्यान तो रक्खा ही है, और भी अनेक चीजों का ध्यान रक्खा है। घटना-चक्र ऐसा चलता रहा कि कथा-सूत्र आगे बढ़ता गया और यह उपन्यास पूरा हो गया।

मेरा मानना है बच्चे तो इस उपन्यास को पढ़कर पुलकित होंगे ही, यदि बड़े भी इसे पढ़ेंगे तो बच्चों की तरह उनका भी मनोरंजन होगा। परियों की कहानी, जादू की नगरी और सागर पार करने की घटना आदि उनके मन को गुदगुदायेंगी और सिंहल द्वीप और उसकी राजकुमारी पद्मिनी की गाथा उन्हें उस रूपसी के मोहपाश में बांधे बिना नहीं रहेगी।

यह उपन्यास लिखकर मेरा मन भरा नहीं है। अभी और भी कई कथानक मन में उमड़-घुमड़ रहे हैं। यदि समय मिला तो बच्चों को और उनके द्वारा बड़ों को कुछ और उपन्यास देने का प्रयत्न करूंगा।

लोक-कथाओं और बोध-कथाओं में मेरी बहुत दिलचस्पी रही है। मैंने वैसी बहुत-सी कथाएं लिखी भी हैं।

मुझे संतोष है कि मेरा यह उपन्यास पाठकों को सुलभ हो रहा है। मेरी हार्दिक इच्छा है कि बच्चे, बड़े, सब इसे पढ़ें और खूब मन लगाकर पढ़ें। मेरा दावा है कि इसे पढ़ने में उन्हें बड़ा आनंद आवेगा।

-यशपाल जैन

७/८, दरियागंज, नई दिल्ली.

१ जनवरी, १९९९