राजकुमार संतोषी इतने असंतोषी क्यों हैं? / जयप्रकाश चौकसे

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राजकुमार संतोषी इतने असंतोषी क्यों हैं?
प्रकाशन तिथि :03 अगस्त 2016


खबर है कि राजकुमार संतोषी की पटकथा पर उनके द्वारा निर्देशित सलमान खान द्वारा अभिनीत व निर्मित फिल्म की योजना खटाई में पड़ गई है और लगभग निरस्त ही हो गई है। ज्ञातव्य है कि राजकुमार संतोषी ने अपनी यात्रा प्रारंभ की थी सनी देओल की ' घायल' व 'घातक' नामक सफल फिल्मों से। उनकी तीसरी फिल्म 'दामिनी' अत्यंत साहसी व सफल फिल्म थी, जिसमें एक धनाढ्य व रसूखदार परिवार का युवा पुत्र अपनी नौकरानी से दुष्कर्म करता है और परिवार की बहू ही उसके खिलाफ मुकदमा कायम करती है। अपने ही परिवार के प्रभावशाली लोगों द्वारा खड़े किए गए संकट से जूझते हुए वह नौकरानी को न्याय दिलाती है। अपनी फिल्मों की नायिका मीनाक्षी शेषाद्री से उन्होंने विवाह का निवेदन किया था परंतु उन्होंने इनकार कर दिया। राजकुमार संतोषी ने ही अपनी सफलता के शिखर दिनों में आमिर खान और सलमान खान के साथ 'अंदाज अपना अपना' नामक हास्य फिल्म बनाई थी। हास्य फिल्मों की श्रेणी में 'चलती का नाम गाड़ी' गुलजार की संजीव कुमार अभिनीत 'अंगूर' व मेहमूद की 'पड़ोसन' श्रेष्ठ फिल्में हैं और संतोषी की 'अंदाज अपना अपना' भी इसी श्रेणी की हकदार है। इस तरह संतोषी की प्रतिमा विविध किस्म की फिल्में बनाने की रही है। संतोषी ने 'शोले' की कथा का एक हास्य संस्करण भी बनाया था, जो असफल रहा। जापान के अकिरा कुरोसावा की 'सेवन समुराई' शोले जैसी दर्जनों फिल्मों की गंगोत्री है और अफसोस है कि इन प्रेरित फिल्मों में एक भी फिल्म ने अकिरा कुरोसावा का आधारभूत मन्तव्य नहीं पकड़ा है कि 'सभ्य' लोग 'असभ्य' लोगों के आक्रमण से जूझने के लिए कानून की सरहद पर खड़े बहादुर लोगों की सेवा लेते हैं परंतु संकट दूर होते ही अपने पैदाइशी टुच्चेपन पर लौट आते हैं।

बहरहाल, राजकुमार संतोषी ने अपना कॅरिअर गोविंद निहलानी के सहायक के तौर पर शशि कपूर निर्मित 'विजेता' से प्रारंभ किया था। कुछ दिनों बाद ही शशि कपूर ने बताया था कि संतोषी अत्यंत प्रतिभाशाली व्यक्ति हैं परंतु उनमें एक अजीब-सी आदत है कि वे ऐसा अपव्यय करते हंै, जिसमें उसका व्यक्तिगत लाभ नहीं है। क्या इस तरह का कार्य किसी व्यक्ति को संतोष दे सकता है? अपने लाभ के लिए किसी को हानि पहुंचाना अलग बात है परंतु अकारण ही अपव्यय करना समझ से परे हैं। यह उन दिनों की बात है जब आज की तरह समाज की केंद्रीय शक्ति के रूप में बाजार ग्राहक को अपव्यय नहीं सिखा रहा था। कभी किफायत भारतीय समाज की सहज जीवनशैली का अविभाज्य अंग था। पूंजीवादी विचार से शासित समाज धन की होली खेलने को अपनी दीवाली मानता रहा है। राजकुमार संतोषी जैसी प्रतिभा का अपव्यय तो दूर उपयोग ही नहीं हो रहा है। यह हमारे सिनेमा के लिए अशुभ है। वे स्वयं ही इसके लिए उत्तरदायी भी हैं। उन्हें आत्म अवलोकन करना चाहिए। आज अपना काम जानने वाले निर्देशकों का अभाव है और संतोषी जाने क्यों असंतोषी हुए जा रहे हैं। अगर गरीब व्यक्ति धन के लिए कुछ गलत करे तो कुछ हद तक हम उसकी मजबूरी को दोष दे सकते हैं परंतु राजकुमार संतोषी गरीब नहीं है। उनके पास उन पटकथाओं का ढेर लगा है, जिस पर वे फिल्में नहीं बना पा रहे हैं। प्रतिभा के अकाल के समय इस व्यक्ति का यह रवैया खेदजनक है।

ज्ञातव्य है कि राजकुमार संतोषी के पिता पीएल संतोषी अत्यंत प्रतिभाशाली फिल्मकार थे परंतु वे भी अपनी प्रतिभा से न्याय नहीं कर पाए। उन्होंने राज कपूर के साथ 'सरगम' बनाते समय राज कपूर को समय पर स्टूडियो नहीं आने के बाबत कानूनी नोटिस भेजा था। इसके बाद राज कपूर समय पूर्व ही आने लगे परंतु वे अपना काम मशीनवत कर रहे थे और भावनाएं अभिव्यक्त नहीं हो रही थीं। अत: पीएल संतोषी ने कानूनी नोटिस सखेद वापस लिया और सफल, सुरीली 'सरगम' बनी। कला क्षेत्र व्यापार के नियम से शासित नहीं है। प्रतिभा अपने मिजाज व नाज-नखरे से ही अभिव्यक्त होती है।

यह दुखद है कि राजकुमार संतोषी ने स्वयं की प्रतिभा रूपी धन को अपने लालच की जमीन में गाड़ दिया है। कोई उन्हें याद दिलाए कि जमीन में गड़ा धन कालांतर में अपनी जगह से सरक जाता है अौर उसी स्थान को खोदने पर मिलता भी हीं है। शायद यह पृथ्वी के निरंतर घूमने के कारण होता है। जमीन में गाड़े हुए धन पर उस तरह ब्याज भी नहीं मिलता जैसे फिक्स्ड डिपॉजिट करने पर मिलता है। इस उर्वर देश में जाने कितनी प्रतिभाएं गड़े हुए धन की तरह कहीं और चली गई हैं।