राजनीति: सिताराविहीन फिल्म / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 09 दिसम्बर 2013
इतवार की सुबह देश की अवाम चुनाव के नतीजों के प्रति उत्सुक रही है और तमाम न्यूज चैनल को आज मनोरंजन प्रसारित करने वाले चैनलों से अधिक टी.आर.पी. मिलेगी परंतु फिल्म उद्योग के सितारों के लिए यह सुबह कुछ अलग अर्थ नहीं रखती है। उनके जीवन में राजनीति का कोई दखल नहीं है। उनकी सारी सोच कुछ इस तरह की है कि 'कोउ नृप होए हमें क्या हानि' उन्हें किसी के भी राजा बनने से कोई फर्क नहीं पड़ता। यहां तक कि फिल्म के लेखकों को भी इसमें कोई रूचि नहीं है। फिल्म के सितारों को यह जानने में ज्यादा रूचि थी कि कल करण जौहर के कार्यक्रम में किस सितारे ने कौन सी गप्प उछाली और सनसनी पर आधारित कार्यक्रम में किस सितारे ने किसकी टांग खींचने का प्रयास किया। वे यह भी जानना चाहते थे कि राहुल रवैल के पुत्र की शादी में आदित्य चोपड़ा, जिसका सहायक है जूनियर राहुल, वह आया या नहीं और आया तो रानी मुखर्जी साथ थी या नहीं।
उनकी सारी चिंताओं का केंद्र बॉक्स ऑफिस के आंकड़े हैं या सितारों के व्यक्तिगत समीकरण हैं। यह बात अलग है कि अमेरिका के चुनाव में उनकी रुचि रहती है और क्यों नहीं रहे क्योंकि उनकी फिल्मों में प्रस्तुत विचारों की प्रेरणा से ही उन्हें अपनी फिल्में बनानी है। भारत से अधिक समय सितारे अमेरिका में गुजारते हैं। यह सचमुच आश्चर्य की बात है कि सितारों की सारी हैसियत आम आदमी की रुचियों पर निर्भर करती है और उसी आम आदमी के राजनैतिक रुझान के प्रति वे उदासीन हैं क्योंकि उन्हें मालूम है कि अवाम के राजनैतिक रुझान और मनोरंजन के प्रति दृष्टिकोण में बहुत गहरा अंतर है। कुछ फिल्म वालों को यह जानने में दिलचस्पी थी कि संजय दत्त को उपलब्ध जेल से महीने भर की छुट्टी कायम रहेगी या रद्द होगी क्योंकि जिस पत्नी की तथाकथित बीमारी इस 'अस्थायी रिहाई' का कारण बताई गई है, उसे दावतों में शरीक होते टेलीविजन पर देखा गया है। उन्हें यह जानने में रूचि थी कि करीना कपूर द्वारा करण जौहर के कार्यक्रम में अपनी भाभी के जिक्र का क्या प्रभाव कपूर परिवार पर पड़ा है।
कितने आश्चर्य की बात है कि राजनीति और सिनेमा दोनों का ही आधार अधिकतम की पसंद है और फिर भी चुनावी नतीजे सितारों के जीवन पर कोई असर नहीं डालते। उससे भी अधिक दु:ख की बात यह है कि राजनैतिक रुझान महंगाई को नहीं रोक पाते। आज सुबह भी अंडों और टमाटर के दाम वही थे जो पिछले सप्ताह रहे हैं। स्पष्ट है कि चुनाव भी कोई जादू नहीं है। महंगाई की जड़ हमारे तथाकथित विकास में गहरी पैठी हुई है। यह भी गौरतलब है कि भारतीय सिनेमा और राजनीति दोनों ही सितारा आधारित हैं और कमोबेश मसाला फिल्मों की तरह। सामाजिक सोद्देश्यता की अल्प बजट की फिल्मों को दर्शक नहीं मिलते।
इस समय भारतीय राजनीति एक सिताराविहीन फिल्म की तरह है और मीडिया द्वारा बनाए गए किसी भी तथाकथित सितारे का कोई राष्ट्रीय प्रभाव नहीं है। सारा खेल प्रादेशिक छत्रपों के हाथ है गोया कि भारतीय राजनीति क्षेत्रीय फिल्म की तरह हो गई है। मराठी भाषा में बनी 'दुनियादारी' ने लगभग 6 करोड़ का मुनाफा दिया है और लागत पर मुनाफे के प्रतिशत को देखें तो यह सबसे सफल फिल्म है। इसी तर्ज पर राजनीति भी अखिल भारतीयता का कोई दावा नहीं कर सकती। केजरीवाल की जीत दोनों राष्ट्रीय दलों के खोखलेपन को रेखांकित करती है।