राजनीति की राजनीति / गोपाल चौधरी
देहांत या मृत्यु की भी राजनीति होती है! जैसे मृत्यु या इसके डर पर पूरा एक व्यवसाय होता है! और इस देहांत की राजनीति की शुरुआत होती है इसके होते ही और काफी लंबी खिचती है। लोग भी कुछ अजीब ही हैं! अपनों के मरने के गम से कही अधिक-अधिक खुशी होती है धन, जायदाद, हिस्सा मिलने की और लोग पूछते भी हैं अक्सर: पापा गुजरे या मम्मी, चलो धन और हिस्सा तो मिलेगा कम से कम। बाकी आना जाना तो लगा ही रहता है। ऐसा बोला भी जाता है कि लोग अपने माँ-बाप के मरने गम तो भूल जाते हैं, पर धन-संपाती की हानि को कभी नहीं भूलते।
माँ के गुजर जाने का गम तो था ही। पर जो बात मुझे सबसे अधिक दुख दे रही होती वह थी देहांत की राजनीति। जो हमारे परिवार और भाइयों में मची थी। खैर सच्चाई से मुँह तो नहीं मोड़ा जा सकता। पर जीवन को जीने के लिए या कहें जिंदा रहने के लिए कोई लक्ष्य तो चाहिए था उस वक्त। यह मेरे लिए आवशयकता बनती जा रही होती। जिंदा रहने के लिए इसका होना जरूरी लगने लगा। अन्यथा जीवन जीने की इच्छा धीरे-धीरे कमजोर पड़ती-सी जा होती। इतना दुखी हुआ था माँ के गुजर जाने के बाद।
मुझे कोई लक्ष्य चाहिए था। कोई बड़ा काम, देश-समाज और जन कल्याण का। शुरुआती तौर पर स्थानीय समस्या और नागरिक मुद्दों पर काम करने लगा। कुछ अपने तरह के लोगों को भी जोड़ने लगा। पर समस्या कही गहरी लगती होती।
वृहत स्तर से स्थानीय तक, वही औपनिवेशिक मानसिकता। वही सामंती दृष्टिकोण और जातिवाद की उंच और नीच वाला वही पैमाना! समाज के हरेक स्तर और गतिविधियों की विशेषता लगती होती। यह शोषण और लूट की अवधारणा पर आधारित होती! हालाकि ये सब बाते सैद्धांतिक तौर पर जे एन यू के दिनो से ही मालूम था। पर इनका व्यवहार में सामना अब हो रहा था जब हम जमीनी स्तर पर काम करने लगे।
एक बात महसूस हुई। जन साधारण से जुड़ी संस्थाओं की बात तो क्या, सारी संस्थाओं और उनके प्रतिनिधियों पर कोई प्रभावी नियंत्रण नहीं रहता। एक बार चुन लिए जाने पर उन्हे पूछने वाला कोई नहीं रहता। न कोई ठोस जवाबदेही और न कोई प्रभावी जिम्मेवारी। क्योंकि ये सब औपनिवेशवाद और नव-औपनिवेशवाद मूल्यों पर आधारित होते। अंगर्जों ने इन्हे लूट और शोषण के लिए बनाए थे और जिसे देशी अंग्रेजों ने हूबहू हम लोगों पर थोप दी थी। ये संस्थान और उनके प्रतिनधि सेवा के लिए कम लगते, और शासन के लिए अधिक!
जे एन यू के दिनों में भी हमने जन समस्या व सामान्य शिकायतों को लेकर आंदोलन चलाया था। समस्या और शिकायत विशेष तो दूर हो जाते कुछ समय के लिए। पर वे फिर ज्यों के त्यों फिर आ खड़े हो जाते। फिर दूसरा, तीसरा... फिर आंदोलन करो। फिर वही दुश्चक्र! ऐसा केवल जमीनी स्तर पर ही नहीं होता, वरन उच्च और मध्य स्तर पर भी होता रहता।
आज़ादी के बाद के जन आंदोलोनों का कार्यतामक विश्लेषण से इस बात की पुष्टि होती है। समस्या और शिकायत फिर आ खड़े होते हैं। फिर आंदोलन करो, फिर वही सिलसिला जारी। इन सबके के पीछे मात्र यही कारण लगता: किसी ऐसी संस्थागत व्यवस्था का अभाव जो इनपर प्रभावी ढंग से नियंत्रण रख सके। उनके उत्तरदायित्व और जिम्मेवारी को निभाने के लिए एक नियंत्रक संस्था का काम करता।
इसी दौरान हमलोग अपने क्षेत्र के जन प्रतिनिधी से मिले। पानी की समस्या को दूर करने के लिए। हम से एक ने कहा: नेता जी! इस बार आपको वोट नहीं जाएगा अगर पानी की किल्लत दूर नहीं हुई तो! इस पर उन जनाब ने बड़ी शिष्टपूर्वक बेरुखी से कहा: आप लोगों के वोट से नहीं जीतता। आप न भी दोगे तो भी मैं जीत कर ही आऊँगा। इसलिए कोई फर्क नहीं पड़ता वोट न देने की धमकी का ...
यह सुनकर हम अवाक रह गए। पर हमारे स्थानीय प्रतिनिधि सही फरमा रहे थे और एक नियंत्रक संस्था या कुछ इसी तरह के संस्थागत चेक बैलेन्स जैसी व्यवस्था की जरूरत का भी अहसास करा दिया। हमे भी कुछ इस तरह संस्थागत व्यवस्था का होना नितांत जरूरी लगने लगा। पहले भी कुछ इस तरह के विचार चल रहे थे। उनको अब ठोस धारातल मिल गया।
एक बार कोई भी जन प्रतिनिधी, चाहे वह राष्ट्रीय स्तर का हो या प्रादेशिक व स्थानिय, एक बार चुने जाने व पदस्थापित होने के उपरांत उसे कोई पुछने वाला नहीं होता! कोई जिम्मेवारी या ठोस उत्तरदायित्व का कोई प्रावधान नहीं है। सिवा अगले चुनाव के या सभा समिति में आलोचना के, जिसका कोई फर्क नहीं पड़ता। वैसे भी-भी वे आलोचना, निंदा प्रस्ताव या सेंसर मोशन को ज्यादा भाव नहीं देते क्योंकि लोगों की स्मृति रेखा बहुत कमजोर होती है। या बना दी गई है इस सूचना युग मे, सूचनाओं के रेलम पेल से। उनके अनवरत आक्रमण से, लोगों के दिमाग को भ्रमित कर, थका कर, ऊबा कर।
अधिकतर प्रजातांत्रिक देशों मे, कुछ अपवाद को छोड़ कर, '" फ़र्स्ट पास्ट द पोस्ट (पहले गोल पार करने वाला)' मतदान प्रणाली लागू है। इस प्रणाली के तहत जिसे भी सबसे अधिक मत मिलता है, जो अक्सर 30-35 प्रतिशत ही होता है, वही विजय घोषित होता है। बाकी 70-75 प्रतिशत मत योहि बर्बाद चला जाता है। 30-35 प्रतिशत मत प्राप्त होने पर ही चुन लिया जाता जबकि यह अ ल्पसंखयक मत होता। पर जिन उम्मीदवारों को शेष बहुमत मत मिला होता है, वह किसी काम का नहीं होता। यह बिलकुल ही अप्रजातांत्रिक है और यह प्रजातांत्रिक व्यवस्था की जड़ें खोखली करता आ रहा है। पूरी दुनिया में ही।
अब हमारे क्षेत्र के प्रतिनिधि को देखिये। इनको मालूम है 30-35 प्रतिशत लाने है। उन्ही के लिए काम करते हैं। बाकी जाएँ तेल लेने, उनकी बला से। यही हाल पूरी व्यवस्था का है और तकरीबन सब देशों का यही हाल है, जहाँ यह मत प्रणाली लागू है और यह प्रणाली दुनिया के चंद अपवादों को छोड़ कर सभी देशों में लागू है। ।
तभी तो प्रजातन्त्र के खतरे की बात चल रही है। इस पर मँडराते साए इसी कमजोरी के परिणाम लगते। इसका कुल प्रभाव अप्रजातांत्रिक ही होता है! अधिकतर या बहुसंख्यक आबादी को प्रतिनिधित्व नहीं मिल पाता! उनकी आशाएँ, उनके अरमान, उनके काम धरे के धरे रह जाते। उनकी समस्यायों का समाधान नहीं हो पाता। जन साधारण की देखभाल की बात तो दूर रही, उनकी उपेक्षा होती रहती है। वह विकास और प्रगति के हिस्सा नहीं बन पाते। वे वंचित के वंचित ही रह जाते। प्रजातंत्र पर गहराते संकट के पीछे यह भी एक कारण लगता है।
इस पर एक किताब लिखी। पेपर भी प्रकाशित हुआ इस पर और एक गैर-सरकारी संस्था (एन जी ओ) भी बनाया गया। इस राजनीतिक औडिटिंग का मॉडल, जो किताब में प्रतिपादित हुई थी, उसे और विकसित परिमार्जित किया गया। ताकि इसका कार्यान्वन हो सके और व्यवहारिक धरातल पर इसका प्रयोग किया जाय।
इन सबों में तीन चार साल निकल गए। जिंदगी को ऐसा लगा जैसे कोई मकसद मिल गया हो जीने का! सच ही कहा गया है: अगर कोई बड़ा या महान कार्य जन और लोक कल्याण के लिए किया जाता। या करने का संकल्प लिया जाता है, वह सफल तो होता ही है। कहते हैं उसकी आयु भी बढ़ जाती है। क्यों न ऐसा हो? वह खुश रहेगा, बेकार की चिंता फिक्र से दूर रहेगा। उसकी उम्र तो बढ़ेगी ही।
पर एन जी ओ बनाना अपने आप में एक चुनौती से कम नहीं था। हम उसमे लगे रहे। जैसे तैसे काम शुरू हुआ। लोग भी जुडते गए। कारवां बढ़ता गया। पर काम वैसे नहीं हो पा रहा होता, जैसा हमने सोचा रखा था। पर गाड़ी तो निकाल पड़ी थी!
राजनैतिक और सामाजिक हलको में इस पर गौर किया जाने लगा। यहाँ तक कि देश के सर्वोच्च न्यायालयने अपने ऐतिहाससिक निर्णय में औडिटिंग, विशेष कर नयालयिक विज्ञान (फोरेंसिक्स) औडिटिंग की महत्ता को रेखांकित करते हुए, इसे लागू करने का सुझाव भी दिया।
इसके अलावे, इस किताब और उसपर आधारित एन जी ओ के गठन से राजनीतिक हल्कों और सर्कल में एक तरह से हड़कम्प-सा ही मच गया! पहले तो इसका आभास नहीं हुआ। पर बाद में राजनीतिक दलों के लोग हमारे रास्ते में रोड़े अटकाने लगे। तब यह बात सामने आई: एक हलचल-सी मच गई थी। दबी दबी-सी ही सही। पर एक चिंता या भय की लहर तो दिखती होती।
इसका एहसास तब हुआ, जब प्रदेश के नए जमाने के एक मुख्य मंत्री ने कहा: ' ये भविष्य में ही संभव है। अभी नहीं। " सही बात है, उन्हे गद्दी जो संभालनी होती! और सालों तक हुकूमत जो करनी है! औपनिवेशिक संस्थाओं और मूल्यों की आड़ तथा प्रजातांत्रिक व्यवस्था की ओट मे! लूट और शोषण की विरासत को कायम जो रखना है! ये पॉलिटिकल औडिटिंग तो कबाब के मजे लेते समय हड्डी के समान ही लगती होती उन्हे तो!
शायद इसी कारण देश के प्रधानमंत्री ने भी इसे अभी अयोग्य घोषित कर दिया। उन्होने कहा: जनमत और समय इसके उपयुक्त नहीं है। दोनों का करीब एक जैसा ही जवाब! उन दोनों के पास एक उच्च अधिकारी के माध्यम से पॉलिटिकल औडिंग का प्रस्ताव भेजा गया था। हम सभी राजनीतिक दलों के आलाकमान से मिले भी। पर सभी इससे थोड़ा चिंतित और सहमे से लगे।
तभी तो किसी ने भी सहयोग नहीं किया। उल्टे हमे डराने की कोशिस करते रहे। एक सत्तारूढ़ राजनीतिक दल के नेता ने तो हमारे एन जी ओ को बनाने में एक साल की देरी करवा दी। बड़े ही चालाकी और धूर्तता से! ये अलग बात यही उन्हे ले डूबी! पर हमारा काम तो चल पड़ा। मकसद तो पुर हुआ-सा लगा।
पहले भी बड़े उतार-चड़ाव के बाद आखिर में पॉलिटिकल औडिटिंग की किताब छपी थी। इसमे में भी काफी मुश्किलें आई थी। कोई छापने को तैयार ही नहीं होता। यहाँ भी वही सामंती व औपनिवेशिक मानसिकता का सामना करना पड़ा।
पहले तो कोई नामी-गिरामी लेखक नहीं कि कोई छापता। फिर मेरे न तो पापा लेखक होते और न ही दादा। फिर कोई लेखक कैसे हो सकता है! लेखक का बेटा लेखक ही होगा जैसे पंडित का बेटा पंडित होता है, नेता का बेटा नेता। अभिनेता का बेटा अभिनेता। बड़े धक्के खाने के बाद आखिर किताब ने दिन का सूरज देखा।
इसके बाद मैंने पोपुलर इन्स्टीटूटीनल मोडेल पर पेपर लिखा। औडिटिंग के पोपुलर इन्स्टीटूटीनल मोडेल की अवधारणा विकसित करने में भी काफी समय और मेहनत लगा। एन जी ओ की स्थापना के काम के साथ इस पर भी काम चलता रहा।
आखिर जो प्रारूप तैयार हुआ वह कुछ इस तरह का: किसी भी चुनाव-लोक सभा हो या राज्यों का, पंचायती व स्थानीय-उसके लिए एक चुनाव क्षेत्र से न जीत पाने वाले उम्मीदवारों तथा उनको प्राप्त कुल वोट का योग निकाला जाएगा।
फिर उसमे से 2 या 3 उम्मीदवार, जो मतदान प्रणाली की खामी—सबसे ज्यादा मत मिलते वही जीतता है चाहे वह अल्पसंख्यक क्यों न हो, जो बहुधा होता है—जीत न सके। इनके कुल प्राप्त मत का योग निकाला जाएगा। यह योग जीते हुए उम्मीदवार के कुल प्राप्त मत से अधिक होना चाहिए।
फिर ऐसे उम्मीदवारों का पैनल बनाया जाएगा और वह जीते हुए उम्मीदवारों के कार्यों का औडिटिंग करेगा। इस मॉडल को हरेक क्षेत्र में अपनाया जा सकता है। चाहे निर्वाचित हो या मनोनीत। सरकारी नौकरियों, पब्लिक सैक्टर के उपक्रमों, मंत्रालयों और सरकारी दफ्तरों के संदर्भ में भी इसको प्रयोग में लाया जा सकता है।
जैसा किताब के मामले में हुआ, पेपर छपने में परेशानी हुई। कोई बोलता इंग्लिश ठीक नहीं है! तो कोई विचार और मॉडल को बेकार कहता। कुछ ने तो कहा यह विपक्ष के काम को दोहरने जैसा है, तो कोई कहता यह अनोखा। आखिरकार इसका अकादेमिया नामक शोध पोर्टल पर ही प्रकशन हो सका। इसी से संतोष करना पड़ा।
फिर भी देश-विदेश में इस पर प्रतिक्रिया हुई। अमेरिका, यूरोप, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया तथा फिलिपिनेस के प्रोफेसर और शोध कर्ताओं ने इसमे अभिरुचि दिखाई! उन्होने इससे सम्बन्धित पेपर को डाऊनलोड भी किया था। कुछ तो इससे आगे की शोध में भी जुट गए। एक दो ने थोड़ी बहुत चर्चा भी की थी। सतही तौर पर ही सही!