राजनीति में दिल और दुल्हन का स्थान / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :02 मई 2017
आध्यात्मिकता क्षेत्र के एक महाराज ने विवाह कर लिया और दूसरे ने एक प्रदेश के मुख्यमंत्री पद का सिंहासन प्राप्त कर लिया। एक तीसरा भी है, जिसका व्यापार दस हजार करोड़ रुपए तक जा पहुंचा है। उसके प्रोडक्ट की गुणवत्ता जांच के परे हैं। हम धीरे-धीरे 'सतयुग' में प्रवेश कर रहे हैं और क्यों न करेें हम धर्म के रथ पर जो सवार हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि 1954 में बनी फिल्म 'श्री 420' में शैलेंद्र ने लिखा, 'हम सिंहासन पर जा बैठे, जब जब करे इरादे, हम बिगड़े दिल शहजादे, मेरा जूता है जापानी, पतलून इंग्लिस्तानी, सर पे लाल टोपी रूसी फिर भी दिल है हिंदुस्तानी।' आजकल हिंदुस्तानी दिल छद्म धार्मिकता पर फिदा है। यह इश्क रंग दिखा रहा है परंतु साहिबान इसे 'इश्क' नहीं कहकर 'अमर प्रेम' कहिए, क्योंकि छद्म शुद्धतावादी हिंदी का आग्रह करते हैं। यह जुनून का दौर है और यह सोचना गुनाह है कि हम कोई और हैं।
तमाम पाठशालाओं में यूनिफॉर्म तय किया गया है, जो वैचारिक क्षेत्र के रेजीमेंटेशन का ही हिस्सा है कि सब एक-सा पहनें, एक-सा सोचें और एक ही विचारधारा को मानने वाले सदैव सत्ता पर काबिज रहें। गौरतलब है कि क्या पाठशालाओं के मालिकों का यूनिफॉर्म बनाने वाली कंपनी से कोई संबंध है? भारत महान में कमीशन को रिश्वत तभी कहते हैं जब विरोध पक्ष खाए अन्यथा वह जायज है और जांच के परे है। अवाम ने भी साफ संकेत दिया है कि महंगाई के खिलाफ उसी समय आंदोलन होगा, जब एक पक्ष विशेष सत्ता पर काबिज होगा। पेट्रोल व डीज़ल के दाम बढ़ने पर अब कोई हंगामा नहीं करता। हंगामा करने वाले हुक्मरान जो हो गए हैं। अब तो हम फिरोज खान की फिल्म 'कुर्बानी' का यह गीत भी नहीं गुनगुना सकते कि 'आप जैसा कोई मेरी जिं़दगी में आए तो बात बन जाए।' अब तो वे बाप बन गए हैं।
भगवतीचरण वर्मा के उपन्यास 'चित्रलेखा' से प्रेरित फिल्म दो बार बनी है और दोनों बार केदार शर्मा ने बनाई है। पहली फिल्म श्वेत-श्याम थी परंतु दूसरी बार रंग और भंग के दौर में बनी है। रंगीन संस्करण में मीना कुमारी, अशोक कुमार और प्रदीप कुमार ने अभिनय किया था। इस संस्करण के लिए साहिर लुधियानवी ने गीत लिखे थे और बेचारे साहिर साहब को क्या पता था कि वे किसी दिन धर्मक्षेत्र से सिंहासन क्षेत्र और गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करने वालों का सम्बल बनेंगे। गीत है : 'संसार से भागे फिरते हो/ भगवान को तुम क्या पाओगे/ इस लोक को अपना न सके/ उस लोक में भी पछताओगे/ ये पाप है क्या, ये पुण्य है क्या? रीतों पर धर्म की मुहरे हैं/हर युग में भोग भी एक तपस्या है/तुम त्याग के मारे क्या जानो/अपमान रचयिता का होगा, रचना को अगर ठुकराओगे/ हम कहते हैं यह जग अपना है, तुम कहते हो झूठा सपना है/ हम जनम बिताकर जाएंगे/तुम जनम गंवाकर जाओगे।'
यह प्रसन्नता की बात है कि लोग विवाह कर रहे हैं और इस मुद्दे पर सबकी सहमति है। राजा दिग्विजय सिंह ने भी विवाह किया परंतु उनका अधिकार क्षेत्र घटा दिया गया है। यह अन्याय है कि एक ओर जिसे स्वीकार किया जा रहा है, वहीं दूसरी ओर निंदा का विषय बनाया जा रहा है। गौरतलब है कि यह सब उस समय घटित हो रहा है,जब सत्ता शिखर पर विराजमान व्यक्ति अपनी पत्नी को छोड़ चुका है। वह चतुर सुजान जानता है कि राज सिंहासन पर अपने साथ किसी को नहीं बैठाना चाहिए, भले ही उसके साथ सात फेरे लिए हों।
जब मनुष्य ने कृषि क्षेत्र में प्रवेश दिया तब मेहनत करने वाले खुशहाल हो गए। तब कुछ चतुर आलसी लोगों को लगा कि इस समृद्धि पर अपना अधिकार कैसे जमाएं। उन चतुर लोगों ने धर्म के रीति-रिवाजों का आविष्कार किया। चतुर सुजान पसीने पर नहीं परफ्यूम पर यकीन करता है। राजनीति में सत्ता प्राप्त करने के लिए लोग महाराज के पास जाते थे। वे पद की शपथ का मुहूर्त भी इन्हीं महाराज से निकलवाते थे। अत: अब उनका फर्ज है कि नव-विवाहित महाराज की मधुरात्रि के लिए उनकी स्विट्जरलैंड यात्रा का बंदोबस्त करें। इतना तो उनका हक बनता है और भक्तों का फर्ज बनता है। अब विवाह और सत्ता के योग तो जन्मकुंडली में लिखे होते हैं और कौन माई का लाल कुंडली के योग बदल सकता है। विवाह के जोड़े तो स्वर्ग में बनते हैं और धरती पर भोगे जाते हैं।