राजपथ / सुकेश साहनी
प्रजा बेहाल थी। दैवीय आपदाओं के साथ-साथ अत्याचार, कुव्यवस्था एवं भूख से सैकड़ों लोग रोज मर रहे थे, पर राजा के कान पर जूँ तक नहीं रेंग रही थी। अंततः जनता राजा के खिलाफ सड़कों पर उतर आई। राजा और उसके मंत्रियों के पुतले फूँकती, 'मुर्दाबाद! मुर्दाबाद!' के नारे लगाती उग्र भीड़ राजमहल की ओर बढ़ रही थी। राजमार्ग को रौंदते कदमों की धमक से राजमहल की दीवारें सूखे पत्ते-सी काँप रही थीं। ऐसा लग रहा था कि भीड़ आज राजमहल की ईंट से ईंट बजा देगी।
तभी अप्रत्याशित बात हुई। गगनभेदी विस्फोट से एकबारगी भीड़ के कान बहरे हो गए, आँखें चौंधिया गईं। कई विमान आकाश को चीरते चले गए, खतरे का सायरन बजने लगा। राजा के सिपहसालार पड़ौसी देश द्वारा एकाएक आक्रमण कर दिए जाने की घोषणा के साथ लोागों को सुरक्षित स्थानों में छिप जाने के निर्देश देने लगे।
भीड़ में भगदड़ मच गई। राजमार्ग के आसपास खुदी खाइयों में शरण लेते हुए लोग हैरान थे कि अचानक इतनी खाइयाँ कहाँ से प्रकट हो गईं।
सामान्य स्थिति की घोषणा होते ही लोग खाइयों से बाहर आ गए। उनके चेहरे देशभक्ति की भावना से दमक रहे थे, बाँहें फड़क रही थीं। अब वे सब देश के लिए मर मिटने को तैयार थे। राष्ट्रहित में उन्होंने राजा के खिलाफ अभियान स्थगित कर दिया था। देश प्रेम के नारे लगाते वे सब घरों को लौटने लगे थे।
राजमहल की दीवारें पहले की तरह स्थिर हो गई थीं। रातोंरात राजमार्ग के इर्द-गिर्दखाइयाँ खोदने वालों को राजा द्वारा पुरस्कृत किया जा रहा था।
-0-