राजपाल यादव तिहाड़ जेल से मुक्त / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 09 अक्टूबर 2014
चरित्र कलाकार राजपाल यादव कुछ महीनों की जेल काटकर छूटे हैं और हॉलीवुड में बनी फिल्म "भोपाल: प्रेयर फॉर रेन' के प्रदर्शन का इंतजार कर रहे हैं जिसमें उन्होंने एक कामगार की भूमिका निबाही है जिसके नजरिए से गैस त्रासदी को इस डॉक्यू-ड्रामा में प्रस्तुत किया गया है। तिहाड़ जेल में अन्य अपराधियों के साथ उन्होंने कुछ महीने गुजारे और उनके साथ यारी-दोस्ती भी हुई। उनका कहना है कि रिहाई के समय उन्होंने उनसे गुजारिश की कि "फिर मिलेंगे' नहीं कहें क्योंकि वे दोबारा तिहाड़ जेल नहीं आना चाहेंगे। याद आता है सन 1951 में प्रदर्शित राजकपूर की "आवारा' का दृश्य जिसमें जेल में मिली रोटी को हाथ में लेकर नायक कहता है, "ये रोटी बाहर मिल जाती तो भीतर क्यों आता'? स्पष्ट है कि जेल के बाहर रोटी पर सबका अधिकार नहीं है। धूमिल की कविता है, "एक आदमी रोटी बेलता हे, एक आदमी रोटी खाता है और एक तीसरा आदमी है जो रोटी बेलता है, रोटी खाता है, वह सिर्फ रोटी से खेलता है। मैं पूछता हूं यह तीसरा आदमी कौन है, मेरे देश की संसद मौन है'। शायद सन 1979 की लिखी कविता है। अब तक संसद अनाज उगाने वाले, अनाज खाने वाले और उससे "खेलने वालों' पर मौन ही है। मेहबूब खान की आजादी के पहले बनी "रोटी' में एक संवाद था कि अगर रोटी मिले तो छीनकर ले लो। मनमोहन देसाई ने भी "रोटी' के नाम से राजेश खन्ना अभिनीत फिल्म अपने अंदाज में बनाई है।
बहरहाल रामगोपाल वर्मा ने अपनी "जंगल' नामक फिल्म में राजपाल यादव को प्रस्तुत किया था और एक दौर ऐसा भी आया जब राजपाल यादव हर दूसरी फिल्म में सुपर सितारों के साथ हास्य भूमिका में नजर आने लगे। पैसों की बरसात होने लगी। हमारी फिल्मों के हर दौर में सुपर सितारों के साथ एक हास्य अभिनेता को काम मिलता रहा है। दिलीप कुमार अभिनीत फिल्मों में मुकरी होते थे, देवआनंद की फिल्मों में रशीद खान और गुरुदत्त की फिल्मों में जाॅनी वॉकर होते थे। इसी परंपरा में सलमान खान और अक्षय कुमार के साथ राजपाल यादव रहे हैं जैसे अमिताभ बच्चन के साथ असरानी हुआ करते थे।
अनेक हास्य कलाकारों ने अपनी लोकप्रियता के नशे में बतौर नायक भी फिल्में कीं परंतु सफलता कम लोगों को ही मिली। राजपाल यादव ने इसी जोश में "अता, पता, लापता' का निर्माण एवं निर्देशन किया जिसके लिए दिल्ली के एक पूंजी निवेशक से पांच करोड़ का कर्ज लिया। यह जेल प्रकरण उससे ही जुड़ा है। बहरहाल में अब किश्तों में कर्ज चुका रहे हैं। कुछ लोगों का ख्याल है कि उत्तरप्रदेश के जिस छोटे से कस्बे से राजपाल यादव आए थे, वहां के अपने गुरु के आश्रम के निर्माण में दी गई रकम का भी कर्ज था। यह जानकारी तो नहीं है कि उस गुरु ने उन्हें तिहाड़ जाने से बचाने के लिए क्या किया?
विगत दशकों में छोटे शहरों और कस्बों के अनेक युवा लोगों को खेल-कूद इत्यादि क्षेत्रों में कामयाबी मिली है। दरअसल भारत में प्रतिभा का अकाल नहीं है, अकाल अवसर का है राजपाल यादव अपनी सफलता के नशे में गाफिल सिनेमा व्यवसाय की निर्मम हकीकतों को नजरअंदाज कर गए। वे यह भूल गए कि मनाेरंजन की थाली में विविध पदार्थ होते हैं, चटनी और पापड़ होते हैं, परंतु पूरी थाली में सिर्फ चटनी ही हो या सिर्फ पापड़ ही हो तो खाने वाले का पेट नहीं भरता। चटपटी मजेदार चटनी भोजन के लिए आवश्यक है परंतु सिर्फ चटनी से पेट नहीं भरता।
बात सिर्फ राजपाल यादव की नहीं है। आम जीवन में भी जब अनायास खूब धन आने लगता है तो मनुष्य खर्च बढ़ा लेता है परंतु आय सदैव समान नहीं रहती। भारतीय मध्यम वर्ग के जीवन में हमेशा किफायत महत्वपूर्ण रही है। बचत मध्यम वर्ग की विशेषता रही है परंतु आर्थिक उदारवाद के बाद रंगीन बाजार ने ऐसा मायाजाल रचाा कि किफायत का स्थायी भाव गायब कर दिया गया है। संतुलन को दकियानूसी करार दिया गया है। बात यहां तक ही सीमित नहीं है वरन् किफायत से जुड़े सारे जीवन मूल्यों को भी तिलांजली दे दी गई है।
राजपाल को आशा है उन्हें पहले की तरह काम मिलेगा। मनाेरंजन जगत में वापसी आसान नहीं होती। अधिक चिंता की बात यह है कि फिल्म बनाने के नशे से वे पूरी तरह मुक्त नहीं हुए हैं। एक बार उन्हें एक फिल्म लिए अनुबंधित किया गया तो उन्होंने निर्माता पर अपना प्रिय लेखक थोप दिया जिसने ऐसे षडयंत्र रचे कि फिल्म बंद ही हो गई।
राजपाल ने क्षमा मांगते हुए उस निर्माता का धन लौटा दिया। वे ईमानदार आदमी हैं परंतु महानगरीय हाेने की चेष्टा में कस्बई रहे ना महानगरीय ही बन पाए। यहअन्य क्षेत्रों में भी हो रहा है। महानगर आकाश है, कस्बा धरती, परंतु महानगर का चुंबकीय प्रभाव लोगाें को हवा में लटका देता है।