राजभवन की सिगरेटदानी / श्रीनारायण चतुर्वेदी
मूक होहिं वाचालु, पंगु चढ़हिं गिरिवर गहन’ के अनुसार संयोग से श्री विनोद शर्मा को ‘भारत दैट इज इंडिया’ के एक प्रमुख राज्य के राजभवन की अतिथिशाला में ठहरने का दुर्लभ संयोग प्राप्त हो गया। एक तो स्वतंत्र भारत का राजभवन, और फिर उसकी अतिथिशाला! मूल्यवान और कलात्मक बढिया मोटे गलीचों, सुंदर उपस्करों और अद्यतन सोफा-सेटों से सुसज्जित! स्प्रिंगदार पलंग, जिन पर दुहरे रबड़-फोम के ऐसे मोटे गद्दे कि उनमें शर्मा जी का हल्का शरीर बीते-भर घुस जाए। चौबीसों घंटे चलने वाले गरम और ठंडे पानी के नल। कक्ष में सुंदर एवं नयनाभिराम कलापूर्ण मध्यकालीन कलमी चित्रों की सजावट और करीने से लगी हुई प्राचीन प्रतिमाओं का प्रदर्शन। यद्यपि शर्मा जी सिगरेट नहीं पीते, तथापि अन्य कितने ही अतिथि तो आधुनिक अग्निहोत्री होने के नाते ध्रूमपान करते ही हैं। अतएव उनकी सुविधा के लिए पलंग के सिरहाने के पास एक सुंदर छोटी मेज पर पीतल की एक प्राचीन भारतीय कलाकृति सिगरेटदानी (एशट्रे) के रूप में रखी हुई थी। उसकी सुंदर और अनोखी बनावट के कारण शर्मा जी का ध्यान उसकी ओर आकृष्ट हुआ, क्योंकि प्राचीन और मध्यकालीन भारतीय हस्तकला में उनकी विशेष रुचि है। शर्मा जी उसे उठाकर देखने लगे। ‘ज्यों-ज्यों निहारिये नीर ह्वै नैनन, त्यों-त्यों खरी निकसै-सी निकाई।’ वे विस्फारित नेत्रों से उसे देखने लगे, क्योंकि जिसे वे अब तक एक सुंदर सिगरेटदानी समझे हुए थे वह वास्तव में मंदिरों में काम आने वाली एक ‘आरती’ थी। वह सैकड़ों वर्ष पुरानी मालूम होती थी। संभवत: उसका उपयोग किसी समय किसी राजकीय मंदिर में किसी देवता की अर्चना के लिए किया जाता होगा। किंतु इस समय तो वह राजभवन की अतिथिशाला में राज्यपाल के सम्मानित अतिथियों की जूठी सिगरेटों का भार वहन करके उनकी सेवा कर रहीं थी।
इस सिगरेटदानी का मुख्य भाग खरबूजे के आकार का एक छोटा गडुआ था जो प्राय: सात अंगुल ऊँचा है। पुरानी होने के कारण इस पर जंग जम गया था। पीछे के भाग में पुजारी द्वारा पकड़ने के लिए उसमें एक हत्था लगा था जो टूटा हुआ था। किंतु जहाँ यह हत्था गडुए से जुड़ा था वहाँ गरुड़ की एक छोटी-सी मूर्ति बनी हुई थी। आगे के भाग में कमल-पुष्प के दल के आकार का दीपक बना था जो बीच में गहरा था और उसका अगला भाग कुछ नुकीला था जिसमें बत्ती बैठ सकती थी। जहाँ यह कमल-दल के आकार का दीपक गडुए से जुड़ा था, वहाँ कमल-दलों के मंडल से परिवेष्टित गणेश जी की एक सुंदर मूर्ति बनी थी। दीपदान में जब अधजली सिगरेट डाली जाती होगी तब उसका धुआँ सीधा गणेश जी पर पहुँचकर उन्हें आधुनिक धूम्रपान का आनंद देता होगा। गडुए के गहरे भाग में धूप जलाकर, और दीपक में घी की बत्ती या कपूर जला कर उससे राजकीय देवालय या रनिवास के मंदिर में भगवान की आरती की जाती होगी।
राजभवनों और उनकी अतिथिशालाओं को सजाने का काम नौकरशाही के उच्च अधिकारी करते हैं। जिस किसी अधिकारी ने इस अतिथिशाला को सजाया है उसमें अच्छा कलाबोध और सुरुचि रही होगी। किंतु इसमें भी संदेह नहीं कि वह पूरा ‘सेक्युलर’ और ‘ऐंग्लो-इंडियन’ भी रहा होगा, अर्थात शरीर से ‘इंडियन’ और मानसिकता से ‘ऐंग्लो’। यदि उसे इस देश के बहुसंख्यक निवासियों के विश्वासों और भावनाओं का तनिक भी ज्ञान या आदर होता, तो वह गणेश जी की प्रतिमा से मंडित आरती से सिगरेटदानी का काम लेने की बात भी न सोचता। किंतु वह उस सरकार का नौकर है जो ‘सेक्युलर’ होने का गर्व करती है। शायद भविष्यदर्शी अकबर इलाहाबादी ने इसी सरकार को लक्ष्य करके लिखा था कि ‘रकीबों ने रपट लिखवाई है जा-जा के थाने में, कि ‘अकबर’ नाम लेता है खुदा का इस जमाने में।’ हमारी सरकार की निगाह में ‘खुदा’ का नाम लेना भी ‘सेक्युलर’ होने में शायद बाधक है। जब श्रीमती इंदिरा गांधी के मंत्रिमंडल ने अपने पद का शपथ ग्रहण किया, तब स्वयं श्रीमती इंदिरा गांधी तथा सर्वश्री चागला, अशोक मेहता, स्वर्णसिंह, संजीवैया, मनुभाई शाह और जगजीवन राम ने ‘ईश्वर’ के नाम पर शपथ न लेकर सत्य, निष्ठा, और दृढ़ संकल्प (सोलेम एफर्मेशन) की प्रतिज्ञा करके अपनी धर्मनिरपेक्षता का सार्वजनिक परिचय दिया था। जब तुलसीदास, कबीर और रैदास के ‘मद्दाह’ श्री जगजीवन राम ने शपथ के लिए ईश्वर का नाम न लेकर अपनी ‘सेक्युलरता’ का विज्ञापन किया, तब श्री चागला और श्री अशोक मेहता की बात कौन करे? ‘जेहि मारुत गिरि मेरु उड़ाहीं, कहहु तूल केहि लेखे माहीं? नौकरशाही तो इस युग की भौतिक सांसारिक सफलता का जीता-जागता रूप है। उसे धर्म और ईश्वर की क्या आवश्यकता है? वह अपने नोट्स, मेमोरेण्डमों और टिप्पणियों में ईश्वर के बाल की खाल निकाल सकती है। उसके लिए ‘धर्म’ और ‘ईश्वर’ अंधविश्वास है। ‘आँखों में हुकूमत का कमल जब से खिला है, आते हैं नजर बाग व बाजार बसंती।’ और हमारी जनता इन्हीं ‘सेक्युलर’ हुक्कामों की ‘रियाया’ मात्र है। इसीलिए अधिकांश नागरिकों के सम्मानित देवताओं की मूर्तियों की अवमानना करने का साहस इसी अनोखे ‘सेक्युलर’ राज्य में ही संभव है।
शर्मा जी इस सिगरेटदानी को बहुत देर तक देखते रहे, और फिर उन्होंने गणेश जी को संबोधित करते हुए कहा, ‘हे ऐश-ट्रे के गणेश जी, आपने महर्षि वेदव्यास के स्टेनोग्राफर (आशुलिपिक) का काम करके इस देश को पंचम वेद उपलब्ध कर दिया था, जिसमें भारत की संस्कृति सुरक्षित है, और जिसके विषय में कहा गया है ‘यन्न भारते, तन्न भारते’। जो बात महाभारत में नहीं वह इस भारत देश में नहीं है। किंतु शायद भारतीय संस्कृति को इस प्रकार अमर और अक्षय कर देना सेक्युलरवाद के प्रति महान अपराध था। देवता होने तथा इस सेक्युलर-विरोधी ग्रथ के प्रणयन में सहयोग देने के कारण आप आज के देवताओं की निगाह मे घोर अपराधी हैं। अतएव आपको इस सेक्युलर-युग में दंड का भागी होना ही पड़ेगा। बहुत दिनों आपने इस सुंदर कलाकृति में प्रतिष्ठित होकर किसी विशाल मंदिर में या किसी प्रतापी राजा के पूजागृह में, प्रात:कालीन मंगला आरती से लेकर रात्रि की शयन आरती तक नित्यप्रति भगवान की पूजा करने का सुख लूटा होगा। किंतु अब समय बदल गया है। ‘समय एवं करोति बलावलम्।’ अब इस स्वतंत्र सेक्युलर इंडिया में आप इस देश की सर्वशक्तिशाली, ‘सभ्य’, अर्द्धसंस्कृत, संस्कारहीन और जनता की भावना तथा धर्म से निरपेक्ष नौकरशाही के पंजों में फँस गए हैं। अब आपको भगवान की पूजा करने के बजाय राजभवन की अतिथिशाला में ठहरने वाले आधुनिक देवताओं की जूठी और अधजली सिगरेटों से दग्ध होने का दंड दिया गया है। बहुत दिनों आपने अगरु और चंदन के बुरादे की धूप की सुगंधि का आनंद लिया है, अब आप गोल्डफ्लेक, कैप्स्टन और 555 की निकोटीन की गंध का मजा लीजिए। आपने इस शांति के मतवाले देश में ‘महाभारत’ संभव कर जो पाप किया था, उसका प्रायश्चित यही है कि आप आज के स्वतंत्र, पाश्चात्य संस्कृति में दीक्षित, धर्मनिरपेक्ष, सेक्युलर ‘इंडियन’ वी.आई.पी. लोगों की जूठी और अधजली सिगरेटों को वहन करके उनके भारवाही बना करें। आप अपने को ‘विघ्नविनाशक’ समझते हैं। किंतु आज के ‘इंडियन’ स्वयं समर्थ हैं। आपके ही कालिदास ने कहा है, ‘स्ववीर्य गुप्ताहि मनोप्रसूति’, वे अपने विघ्न स्वयं या अमरीका अथवा रूस की सहायता से दूर कर लेंगे। उन्हें अब आपकी कपोलकल्पित विघ्नविनाशक शक्ति की आवश्यकता नहीं है। अब वे देवी-देवताओं और उनकी मूर्तियों का आदर करने के अंधविश्वास से ऊपर उठ गए हैं। आधुनिकता का यही तकाजा है। किंतु वे मूर्तिभंजक नहीं हैं, और न वे आपको तोड़कर राष्ट्रीय क्षति करना ही पसंद करते हैं। अतएव आप इस मुक्त और निरपेक्षता के युग में आधुनिक सभ्यता के सार्वभौम प्रतीक धूम्रपान की अवशिष्ट अधजली सिगरेटों को वहन करके राष्ट्र की सेवा करें जिससे उन अधजली सिगरेटों के इधर-उधर गिर जाने से राजभवन में कोई अग्निकांड न हो जाए। इस प्रकार आप इस सुंदर कक्ष की सेवा करके अपने को समाजोपयोगी बनाएँ। किसी समय इस देश में तैंतीस करोड़ देवता थे। आज उनकी संख्या बढ़कर पैंतालीस करोड़ हो गई है। इनमें से जो सभ्य, सुसंस्कृत और प्रबुद्ध हैं, वे बहुधा धूम्रपान करते हैं। आपका सौभाग्य है कि आपको उनकी सेवा करने का अवसर मिला है।’
ऐश-ट्रे के गणेश जी निर्विकार और निरपेक्ष भाव से शर्मा जी का भाषण सुनते रहे। उनमें कोई प्रतिक्रिया होती न देख शर्मा जी खिसियाकर चुप हो गए और उन्होंने अपने शरीर को रबड़-फोम के स्प्रिंगदार पलंग पर डाल दिया जो बीता-भर धँस गया। गणेश जी फिर भी मौन ही रहे।