राजर्षि / परिच्छेद 10 / रवीन्द्रनाथ ठाकुर / जयश्री दत्त
महाराज ने महल लौट कर नियमित राज-काज निबटाया। प्रात:कालीन सूर्यालोक ढक गया है। मेघों की छाया से दिन में ही अंधकार घिर आया है। महाराज अत्यंत अनमने हैं। और दिन नक्षत्रराय राजसभा में उपस्थित रहता है, आज नहीं था। राजा ने उसे बुलावा भेजा, उसने बहाना बना कर कहलवा दिया, उसका स्वास्थ्य ठीक नहीं है। राजा स्वयं नक्षत्रराय के कक्ष में जा पहुँचे। नक्षत्रराय मुँह उठा कर राजा के चेहरे की ओर नहीं देख सका। एक लिखा हुआ कागज लेकर दिखाया कि काम में व्यस्त है। राजा बोले, "नक्षत्र, तुम्हें क्या बीमारी हुई है?"
नक्षत्रराय ने कागज को इधर से, उधर से उलट-पलट कर उँगलियों का निरीक्षण करते हुए कहा, "बीमारी? नहीं, ठीक-ठीक बीमारी नहीं - यही जरा-सा काम था - हाँ हाँ, बीमार हो गया था - थोड़ा बीमारी की तरह ही कह सकते हैं।"
नक्षत्रराय बहुत अधिक हडबडा उठा, गोविन्दमाणिक्य अत्यधिक दुखी चेहरे से नक्षत्रराय के चेहरे की ओर देखते रहे। वे सोचने लगे - 'हाय हाय, स्नेह के नीड़ में भी हिंसा घुस गई है, वह साँप की तरह छिपना चाहती है, मुँह दिखाना नहीं चाहती। क्या हमारे जंगल में हिंस्र पशु काफी नहीं हैं, अंत में क्या मनुष्य को भी मनुष्य से डरना होगा, भाई भी भाई के निकट जाकर संशयहीन मन से नहीं बैठ पाएगा! इस संसार में हिंसा-लोभ ही इतना बड़ा हो गया, और स्नेह-प्रेम को कहीं भी ठौर नहीं मिला! यही मेरा भाई है, इसके साथ प्रति दिन एक ही घर में रहता हूँ, एक आसन पर बैठता हूँ, हँस कर बातें करता हूँ - यह भी मेरे पास बैठ कर मन में छुरी सान पर चढाता रहता है!' तब गोविन्दमाणिक्य को संसार हिंस्र जंतुओं से भरे अरण्य के समान लगने लगा। घने अंधकार में चारों ओर केवल दाँतों और नाखूनों की छटा दिखाई देने लगी। दीर्घ निश्वास छोड़ते हुए महाराज ने सोचा, 'इस स्नेह-प्रेमहीन, मारकाट भरे राज्य में जीवित रह कर मैं अपनी स्वजाति के, अपने भाइयों के मन में केवल हिंसा लोभ और द्वेष की अग्नि प्रज्वलित कर रहा हूँ - मेरे सिंहासन के चारों ओर मेरे प्राणों से भी अधिक प्रिय संबंधी मेरी ओर देख कर मन-ही-मन मुँह टेढ़ा कर रहे हैं, दाँत घिस रहे हैं, पंक्तिबद्ध भयानक कुत्तों के समान चारों ओर से मुझ पर टूट पडने का अवसर खोज रहे हैं। इसकी अपेक्षा इनके तीक्ष्ण नाखूनों के आघात से छिन्न-विच्छिन्न होकर, इनके रक्त की प्यास बुझा कर यहाँ से दूर चले जाना ही अच्छा है।'
प्रभात के आकाश में गोविन्दमाणिक्य ने जो प्रेम-मुख-छवि देखी थी, वह कहाँ बिला गई!
महाराज उठ खड़े होकर गंभीर स्वर में बोले, "नक्षत्र, आज अपराह्न में हम लोग गोमती के किनारे वाले निर्जन जंगल में घूमने जाएँगे।"
राजा की इस गंभीर आदेश-वाणी के विरुद्ध नक्षत्र के मुँह से बात तक नहीं निकली, बल्कि संशय और आशंका में उसका मन व्याकुल हो उठा। उसे लगने लगा, इतनी देर तक महाराज चुपचाप दोनों नेत्र उसी के मन की ओर लगाए बैठे थे - वहाँ अँधेरे गड्ढों में जो भावनाएँ कीटों के समान किलबिल कर रही थीं, वे मानो अचानक प्रकाश देखते ही चंचल होकर बाहर निकल आई हैं। नक्षत्रराय ने डरते-डरते एक बार राजा के चेहरे की ओर देखा - देखा, उनके चेहरे पर केवल सुगभीर विषण्ण शान्ति का भाव है, वहाँ रोष का लेशमात्र नहीं है। मानव हृदय की कठोर निष्ठुरता देख कर उनके हृदय में केवल गहन शोक विराज रहा था।
दिन ढलने को आ गया। तब भी बादल घिरे हुए हैं। महाराजा नक्षत्रराय को साथ लेकर पैदल अरण्य की ओर चल दिए। अभी संध्या होने में देरी है, किन्तु मेघों के अंधकार में संध्या का भ्रम हो रहा है - कौवे अरण्य में लौट कर लगातार चीत्कार कर रहे हैं, फिर भी दो-एक चीलें अभी तक आकाश में तैर रही हैं। जब दोनों भाइयों ने निर्जन जंगल में प्रवेश किया, तो नक्षत्रराय का शरीर थरथराने लगा। बड़े-बड़े पुराने पेड़ झुण्ड बनाए खड़े हैं - वे एक बात भी नहीं बोल रहे हैं, लेकिन स्थिर होकर जैसे कीटों की पदचाप तक भी सुन रहे हैं; वे केवल अपनी छाया की ओर, नीचे मौजूद अँधेरे की ओर अनिमेष दृष्टि से देख रहे हैं। अरण्य के उस जटिल रहस्य के भीतर जाने में मानो नक्षत्रराय के पैर नहीं उठ रहे हैं - चारों ओर गहन निस्तब्धता की भृकुटी देख कर हृदय धड़कने लगा है; नक्षत्रराय के भीतर अत्यधिक भय और संदेह उत्पन्न हो गया है; भयानक अदृष्ट के समान मौन राजा इस संध्या-काल में संसार से ओट करके उसे कहाँ लिए जा रहे हैं, कुछ भी तय नहीं कर पाया। निश्चयपूर्वक सोचा, राजा की पकड़ में आ गया है, और राजा ने उसे भारी दण्ड देने के लिए इस जंगल में ला पटका है। नक्षत्रराय साँस रोक कर भागे, तो जान बचे, लेकिन लगा कि जैसे कोई हाथ-पाँव बाँध कर उसे खींचे लिए जा रहा है। किसी भी तरह और मुक्ति नहीं।
जंगल के बीच थोड़ी-सी खाली जगह है। वहाँ एक प्राकृतिक जलाशय जैसा है, वह वर्षा-काल में जल से भरा है। सहसा उसी जलाशय के किनारे घूम कर खड़े होने के बाद राजा बोले, "खड़े हो जाओ।"
नक्षत्रराय चौंक कर खड़ा हो गया। लगा कि उसी क्षण राजा का आदेश सुन कर काल का प्रवाह जैसे थम गया - उसी क्षण जैसे जंगल का वृक्ष जो जहाँ था, झुक कर खड़ा हो गया - नीचे से धरती और ऊपर से आकाश मानो साँस रोके स्तब्ध होकर देखने लगे। कौवों का कोलाहल थम गया, जंगल भर में कोई शब्द नहीं। मात्र वही 'खड़े हो जाओ' शब्द बहुत देर तक जैसे गम् गम् करता रहा - वही 'खड़े हो जाओ' शब्द मानो विद्युत-प्रवाह के समान वृक्ष से वृक्षांतर तक, शाखाओं से प्रशाखाओं तक प्रवाहित होने लगा; जंगल का हरेक पत्ता जैसे उसी शब्द के कंपन के प्रभाव से री री करने लगा। मानो नक्षत्रराय भी पेड़ की तरह स्तब्ध होकर खड़ा हो गया।
तब राजा ने नक्षत्रराय के चेहरे पर मर्मभेदी स्थिर विषण्ण दृष्टि स्थापित करके धीरे-धीरे प्रशांत गंभीर स्वर में कहा, "नक्षत्र, तुम मुझे मार डालना चाहते हो?"
नक्षत्र वज्राहत की भाँति खड़ा रहा, उत्तर देने की कोशिश भी नहीं कर पाया।
राजा ने कहा, "क्यों मार डालोगे, भाई? राज्य के लालच में? क्या तुम समझते हो, राज्य केवल सोने का सिंहासन, हीरों का मुकुट और राजछत्र होता है? जानते हो, इस मुकुट, इस राजछत्र, इस राजदण्ड का भार कितना है? शत-सहस्र लोगों की चिन्ता इस हीरे के मुकुट के नीचे ढक रखी है। राज्य पाना चाहते हो, तो हजारों लोगों के दुःख को अपना दुःख मान कर स्वीकार करो, हजारों लोगों की विपदा को अपनी विपदा मान कर वरण करो, हजारों लोगों के दारिद्र्य को अपना दारिद्र्य समझ कर कन्धों पर ढोओ - जो यह करता है, वही राजा होता है, चाहे वह पर्णकुटी में रहे या महल में। जो व्यक्ति सब लोगों को अपना समझ पाता है, सब लोग उसी के होते हैं। जो संसार के दुखों का हरण करता है, वही संसार का राजा है। जो संसार के रक्त और अर्थ का शोषण करता है, वह तो दस्यु है - हजारों अभागों के आँसू दिन-रात उसके सिर पर बरस रहे हैं, अभिशाप की उस धारा से कोई राजछत्र उसकी रक्षा नहीं कर सकता। उसके प्रचुर राज-भोगों में शत-शत उपवासियों की क्षुधा छिपी हुई है, अनाथों का दारिद्र्य गला कर वह सोने के अलंकार गढ़वा कर धारण करता है, उसके भूमि तक लटके राज-वस्त्रों में सैकड़ों-सैकड़ों ठण्ड से ठिठुरने वालों के गंदे फटे कंथे हैं। राजा का वध करके राजत्व प्राप्त नहीं होता भाई, संसार को वश में करके राजा बनना पड़ता है।"
गोविन्दमाणिक्य रुक गए। चारों ओर गहन स्तब्धता विराजने लगी। नक्षत्रराय सिर झुकाए चुप रहा।
महाराज ने म्यान से तलवार निकाल ली। नक्षत्रराय के सामने रखते हुए बोले, "भाई, यहाँ आदमी नहीं है, साक्ष्य नहीं है, कोई नहीं है - अगर भाई, भाई की छाती में छुरी भोंकना चाहता है, तो उसके लिए यही जगह है, यही समय है। यहाँ तुम्हें कोई रोकेगा नहीं, कोई तुम्हारी निंदा नहीं करेगा। तुम्हारी और मेरी शिराओं में एक ही रक्त बह रहा है, एक ही पिता, एक ही पितामह का रक्त - तुम उसी रक्त को बहाना चाहते हो, बहाओ, लेकिन आदमियों की बस्ती में मत बहाना। कारण, जहाँ ये रक्त-बिंदु गिरेंगे, वहीं अलक्ष्य रूप में भ्रातृत्व का पवित्र बंधन ढीला पड़ जाएगा। कौन जाने, पाप का अंत कहाँ जाकर हो। पाप का एक बीज जहाँ पड़ जाता है, वहाँ देखते-देखते गोपन रूप में कैसे हजारों वृक्ष उत्पन्न हो जाते हैं, कैसे धीरे-धीरे सुशोभन मानव-समाज जंगल में परिणत हो जाता है, यह कोई नहीं जान पाता। अतएव नगर में, गाँव में, जहाँ निश्चिन्त हृदय से परम स्नेह में भाई भाई के साथ मिल कर रहता है, वहाँ भाइयों के घरों के मध्य भाई का रक्त मत बहाना। इसीलिए आज तुम्हें जंगल में बुला लाया हूँ।"
इतना कह कर राजा ने नक्षत्रराय के हाथ में तलवार पकड़ा दी। तलवार नक्षत्रराय के हाथ से भूमि पर गिर पड़ी। नक्षत्रराय दोनों हाथों से चेहरा ढक कर रोते हुए अवरुद्ध कंठ से बोला, "भैया, मैं दोषी नहीं हूँ - यह बात मेरे मन में कभी भी पैदा नहीं हुई... "
राजा ने उसे आलिंगनबद्ध करके कहा, "वह मैं जानता हूँ। तुम क्या मुझे कभी चोट पहुँचा सकते हो - तुम्हें और लोगों ने बुरी सलाह दी है।"
नक्षत्रराय ने कहा, "मुझे केवल रघुपति यह सलाह दे रहा है।"
राजा बोले, "रघुपति की सोहबत से दूर रहो।"
नक्षत्रराय ने कहा, "बताइए, कहाँ जाऊँ! मैं यहाँ रहना नहीं चाहता। मैं यहाँ से... रघुपति की सोहबत से भाग जाना चाहता हूँ।"
राजा बोले, "तुम मेरे पास ही रहो - और कहीं जाने की आवश्यकता नहीं - रघुपति तुम्हारा क्या करेगा!"
नक्षत्रराय ने राजा का हाथ कस कर पकड़ लिया, मानो उसे रघुपति के द्वारा खींच लिए जाने की आशंका हो रही है।