राजर्षि / परिच्छेद 15 / रवीन्द्रनाथ ठाकुर / जयश्री दत्त
चतुर्दशी तिथि। बादल भी छाए हैं, चन्द्रमा भी निकला है। आकाश में कहीं आलोक है, कहीं अंधकार। कभी चन्द्रमा निकल रहा है, कभी चन्द्रमा छिप रहा है। गोमती के किनारे वाला जंगल चन्द्रमा की ओर देख कर अपनी गहन अंधकार-राशि का मर्म भेद कर बीच-बीच में निश्वास छोड़ रहा है।
आज रात लोगों का बाहर मार्ग में निकलना निषिद्ध है। रात में मार्ग में निकलता भी कौन है! लेकिन निषेध है, इस कारण आज मार्ग की विजनता और भी गहन प्रतीत हो रही है। समस्त नगरवासियों ने अपने घर के दीपक बुझा कर द्वार बंद कर लिए हैं। मार्ग में कोई प्रहरी नहीं है। चोर भी आज मार्ग में नहीं निकले हैं। जिन्हें शव-दाह हेतु श्मशान में जाना है, वे शवों को घर में रखे प्रभात होने की प्रतीक्षा कर रहे हैं। जिनके घरों में मृत्युमुखी संतान पड़ी है, वे वैद्य को बुलाने बाहर नहीं निकले हैं। जो भिक्षुक मार्ग के किनारे वृक्ष के नीचे सोता था, उसने आज गृहस्थ की गोशाला में आश्रय ले लिया है।
रात्रि में श्रृगाल-श्वान नगर के मार्गों पर विचरण कर रहे हैं, एक-दो चीते गृहस्थों के द्वार पर आकर झाँक रहे हैं। मनुष्यों में आज केवल मात्र एक व्यक्ति घर के बाहर है - और कोई मनुष्य नहीं। वह नदी किनारे पत्थर पर एक छुरी शान पर चढ़ा रहा है तथा अन्यमनस्क होकर कुछ सोच रहा है। छुरी की धार काफी थी, किन्तु लगता है, वह छुरी के साथ अपनी भावना भी शान पर चढ़ा रहा था, इसी कारण उसका शान चढ़ाना खतम नहीं हो रहा है। पत्थर पर घिसने से तेज छुरी हिस् हिस् की ध्वनि करके हिंसा की लालसा में तप्त होती जा रही है। अंधकार के बीच अंधकार की नदी बही चली जा रही थी। संसार के ऊपर से अँधेरी रात के पहर बहे चले जा रहे थे। आकाश के ऊपर से अँधेरे घने मेघों की धारा बही जा रही थी।
अंत में जब मूसलाधार बारिश पड़नी आरम्भ हुई, तब जयसिंह की चेतना जगी। तप्त छुरी म्यान में रख कर उठ कर खड़ा हो गया। पूजा का समय निकट आ गया है। उसे शपथ की बात याद आ गई। और एक दण्ड भी विलम्ब करना संभव नहीं।
मंदिर आज सहस्र दीपों से आलोकित है। त्रयोदश देवताओं के मध्य खड़ी काली नर-रक्त के लिए जिह्वा फैलाए हुए है। मंदिर के सेवकों को विदा करके चतुर्दश देव-मूर्तियों के सम्मुख रघुपति एकला बैठा है। उसके सामने एक दीर्घकाय खाँडा है। नग्न उजला खड्ग दीपालोक में चमचमाते हुए दृढ़ वज्र के समान देवी के आदेश की प्रतीक्षा कर रहा है।
पूजा अर्ध-रात्रि में है। समय निकट है। रघुपति अत्यंत बेचैन हृदय से जयसिंह की प्रतीक्षा कर रहा है। सहसा तूफान की भाँति हवा चल कर मूसलाधार वर्षा आरम्भ हो गई। हवा में मंदिर की सहस्र दीप-शिखाएँ काँपने लगीं, नग्न खड्ग पर विद्युत खेलने लगी। चतुर्दश देवताओं और रघुपति की छायाएँ मानो जीवित होकर दीप-शिखाओं के नृत्य की ताल-ताल पर मंदिर की दीवार पर नाचने लगीं। एक नर-कपाल तूफान की हवा में इधर-उधर लुढ़कने लगा। दो चमगादड़ मंदिर में आकर सूखे पत्तों के समान एक के पीछे एक उडते घूमने लगे। उनकी छाया दीवार पर उड़ने लगी।
दूसरा पहर आ गया। पहले निकट, बाद में दूर-दूरांतर पर श्रृगाल बोलने लगे। तूफान की हवा भी उनके संग मिल कर हू हू करके रुदन करने लगी। पूजा का समय हो गया। रघुपति अमंगल की आशंका में अत्यंत बेचैन हो उठा।
उसी समय जीवंत तूफानी बारिश की बिजली के समान जयसिंह ने अचानक रात के अंधकार में से मंदिर के उजाले में प्रवेश किया। देह लंबी चादर से ढकी है, सर्वांग से बह कर बारिश की धार गिर रही है, साँस तेजी से चल रही है, चक्षु-तारकों में अग्नि-कण जल रहे हैं।
रघुपति ने उसे पकड़ कर कान के पास मुँह लाकर कहा, "लाए हो राज-रक्त?"
जयसिंह उसका हाथ छुड़ा कर ऊँचे स्वर में बोला, "लाया हूँ। राज-रक्त लाया हूँ। आप हट कर खड़े होइए, मैं देवी को निवेदन करता हूँ।"
आवाज से मंदिर काँप उठा।
काली की मूर्ति के सम्मुख खड़ा होकर कहने लगा, "तो क्या तू सचमुच संतान का रक्त चाहती है, माँ! राज-रक्त के बिना तेरी तृषा नहीं मिटेगी? मैं जन्म से ही तुझे माँ पुकारता आ रहा हूँ, मैंने तेरी ही सेवा की है, मैंने और किसी की ओर देखा ही नहीं, मेरे जीवन का और कोई उदेश्य नहीं था। मैं राजपूत हूँ, मैं क्षत्रिय हूँ, मेरे प्रपितामह राजा थे, मेरे मातामह वंशीय आज भी राजत्व कर रहे हैं। तो, यह ले अपनी संतान का रक्त, ले, यह ले अपना राज-रक्त।" चादर देह से गिर पड़ी। कटिबंध से छुरी बाहर निकाल ली - बिजली नाच उठी - क्षण भर में ही वह छुरी अपने हृदय में आमूल भोंक ली, मृत्यु की तीक्ष्ण जिह्वा उसकी छाती में बिंध गई। मूर्ति के चरणों में गिर गया; पाषाण-प्रतिमा विचलित नहीं हुई।
रघुपति चीत्कार कर उठा - जयसिंह को उठाने की चेष्टा की, उठा नहीं पाया। उसकी मृत देह पर पड़ा रहा। मंदिर के सफेद पत्थरों पर रक्त बहने लगा। धीरे-धीरे एक-एक करके दीपक बुझ गए। अंधकार में पूरी रात एक प्राणी के साँस की ध्वनि सुनाई पडती रही; रात के तीसरे पहर तूफान थम कर चारों तरफ सन्नाटा छा गया। रात के चौथे पहर बादल के छिद्र से चन्द्रमा के प्रकाश ने मंदिर में प्रवेश किया। चन्द्रालोक जयसिंह के पाण्डुवर्ण चेहरे पर पड़ा, चतुर्दश देवता सिरहाने खड़े उसे ही देखने लगे। प्रभात में जब वन में पक्षी बोले, तब रघुपति मृत-देह छोड़ कर उठ गया।