राजर्षि / परिच्छेद 23 / रवीन्द्रनाथ ठाकुर / जयश्री दत्त
चाचा साहब के लिए क्या आनंद का दिन है। आज दिल्ल्लीश्वर के राजपूत सैनिक विजयगढ़ के अतिथि हुए हैं। प्रबल प्रतापी शाहशुजा आज विजयगढ़ का बंदी है। कार्तवीर्यार्जुन के बाद से विजयगढ़ को ऐसा बंदी और नहीं मिला। कार्तवीर्यार्जुन की बंदी हालत को याद करके निश्वास छोड़ते हुए चाचा साहब राजपूत सुचेत सिंह से बोले, "सोच कर देखो, हजार हाथों में हथकड़ियाँ पहनाने के लिए कितनी तैयारी करनी पड़ी थी! कलियुग आने के बाद से धूमधाम एकदम कम हो गई है। अब तो राजा का पुत्र हो चाहे बादशाह का बेटा, बाजार में दो से ज्यादा हाथ खोजे नहीं मिलते। बंदी बना कर आनंद नहीं मिलता।"
सुचेत सिंह ने हँसते हुए अपने हाथ की ओर देख कर कहा, "ये दो हाथ ही काफी हैं।"
चाचा साहब थोड़ा सोच कर बोले, "वह तो ठीक है, उस जमाने में काम बहुत ज्यादा था। आजकल काम इतना कम हो गया है कि इन दो हाथों का ही कोई स्पष्टीकरण नहीं दिया जा सकता। और हाथ रहने पर मूँछों को और ताव देना पडता है।"
आज चाचा साहब की वेशभूषा में कोई कसर नहीं रह गई थी। ठुड्डी के नीचे से पकी दाढ़ी दो हिस्सों में बाँट कर अपने दोनों कानों पर लटका ली है। मूँछें ऐंठ कर कर्ण रंध्रों के आसपास ले जाई गई हैं। सिर पर बाँकी पगड़ी है, कमर में बाँकी तलवार। जरी वाले जूते का सामने का हिस्सा सींग की तरह टेढ़ा मुदा हुआ है। आज चाचा साहब की चाल की भंगिमा ऐसी है, मानो विजयगढ़ की महिमा उन्हीं के सर्वांग में तरंगायित हो रही है। आज इन सभी समझदार लोगों के सामने विजयगढ़ की महिमा प्रमाणित हो जाएगी, इस आनंद में उन्हें न भूख है, न नींद।
सुचेत सिंह को लेकर प्राय: पूरे दिन दुर्ग का मुआयना करते रहे। जहाँ सुचेत सिंह ने किसी प्रकार का आश्चर्य प्रकट नहीं किया, वहाँ चाचा साहब ने स्वयं "वाह वा, वाह वा" करके अपने उत्साह को राजपूत वीर के हृदय में संचारित करने की चेष्टा की। विशेष रूप से दुर्ग-प्राचीर के निर्माण के सम्बन्ध में उन्हें असाधारण परिश्रम करना पड़ा। जिस तरह दुर्ग का प्राचीर अविचलित है, सुचेत सिंह उससे भी अधिक अविचलित है - उसके चेहरे पर किसी भी तरह का भाव प्रकट नहीं हुआ। चाचा साहब घूम-फिर कर उसे एक बार दुर्ग-प्राचीर के बाएँ, एक बार दाएँ, एक बार ऊपर, एक बार नीचे ले जाने लगे - बार-बार कहने लगे, "क्या तारीफ की जाए!" परन्तु किसी भी तरह सचेत सिंह के हृदय-दुर्ग पर अधिकार नहीं कर सके। अंत में शाम को थक कर सुचेत सिंह ने कहा, "मैंने भरतपुर का गढ़ देखा है, और कोई गढ़ मेरी आँखों को नहीं भाता।"
चाचा साहब कभी किसी के साथ विवाद नहीं करते; अत्यंत उदास होकर बोले, "अवश्य अवश्य। यह बात तो कह ही सकते हो।"
निश्वास छोड़ते हुए दुर्ग के सम्बन्ध में चर्चा बंद कर दी। विक्रम सिंह के पूर्वज, दुर्गा सिंह की बात उठाई। बोले, "दुर्गा सिंह के तीन पुत्र थे। कनिष्ठ पुत्र, चित्र सिंह की एक आश्चर्यजनक आदत थी। वे रोजाना प्रात: अंदाजन आधा सेर चना दूध में उबाल कर खाते थे। उनका शरीर भी वैसा ही था। अच्छा जी, तुम जो भरतपुर के गढ़ की बात कह रहे हो, वह अवश्य ही बहुत विशाल गढ़ होगा - किन्तु ब्रह्मवैवर्त पुराण में तो उसका कोई उल्लेख नहीं है।"
सुचेत सिंह ने हँस कर कहा, "उसके कारण काम में कोई बाधा नहीं पड़ रही है।"
चाचा साहब ने बनावटी हँसी हँसते हुए कहा, "हा हा हा! वह सही है, वह सही है। तो क्या जानते हो, त्रिपुरा का दुर्ग भी कोई बहुत कम नहीं है, किन्तु विजयगढ़ का..."
सुचेत सिंह - "त्रिपुरा फिर कौन देश है?"
चाचा साहब - "वह बड़ा भारी देश है। इतनी बातों की क्या जरूरत है, वहाँ के राजपुरोहित ठाकुर हमारे गढ़ में अतिथि हैं, तुम उन्हीं के मुँह से सब सुन लोगे।"
किन्तु आज ब्राह्मण ढूँढ़ने पर भी कहीं नहीं मिला। वे मन-ही-मन कहने लगे, "इस राजपूत गँवार से वह ब्राह्मण बहुत अच्छा है।" सुचेत सिंह के सामने सैकड़ों मुखों से रघुपति की प्रशंसा करने लगे और विजयगढ़ के सम्बन्ध में रघुपति का क्या विचार है, वह भी प्रकट किया।