राजर्षि / परिच्छेद 39 / रवीन्द्रनाथ ठाकुर / जयश्री दत्त

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रामू के दक्षिण में राजाकूल के निकट मगों का जो दुर्ग है, वे अराकान के राजा की अनुमति लेकर वहीं रहने लगे।

गाँववालों के जितने बाल-बच्चे थे, सब के सब दुर्ग में गोविन्दमाणिक्य के पास आ जुटे। गोविन्दमाणिक्य ने उन्हें जोड़ कर एक बड़ी पाठशाला खोल ली। वे उन्हें पढ़ाते थे, उनके साथ खेलते थे, उनके घर जाकर उनके साथ रहते थे, बीमार पड़ने पर देखने जाते थे। ऐसा नहीं कि बालक साधारणत: स्वर्ग से आए हैं या वे देव-शिशु हैं, उनमें मानव और दानव भावों का तनिक भी अभाव नहीं है। स्वार्थपरता, क्रोध, लोभ, द्वेष, हिंसा, उनके भीतर पूरी तरह से बलवती है, ऊपर से ऐसा भी नहीं कि घर में माता-पिता से हर समय अच्छी शिक्षा ही मिलती हो। इसी कारण मगों के दुर्ग में मगों का राज्य-शासन हो गया - मानो दुर्ग में उनचास पवन और चौंसठ भूत एक साथ रहने लगे। गोविन्दमाणिक्य यही सब उपकरण लेकर धैर्य के साथ मनुष्य गढ़ने लगे। एक मनुष्य का जीवन कितना महान और कितने प्राणपण के साथ प्रयत्नपूर्वक पालन करने और रक्षा करने की वस्तु है, इस विषय में गोविन्दमाणिक्य का हृदय सर्वदा जागरूक है। उनके चारों ओर अनंत फल से परिपूर्ण मनुष्य जन्म सार्थक हो जाए, इसी आशा में और अपनी कोशिश से इसे ही सफल बनाने में गोविन्दमाणिक्य अपना शेष जीवन समर्पित करना चाहते हैं। इसके लिए वे सभी कष्ट, सारे अत्याचार सहन कर सकते हैं। केवल बीच-बीच में कभी-कभी हताश होकर दुःख करने लगते हैं, 'मैं अपना कार्य निपुणतापूर्वक संपन्न नहीं कर पा रहा हूँ। बिल्वन रहता, तो अच्छा होतारामू के दक्षिण में राजाकूल के निकट मगों का जो दुर्ग है, वे अराकान के राजा की अनुमति लेकर वहीं रहने लगे।

गाँववालों के जितने बाल-बच्चे थे, सब के सब दुर्ग में गोविन्दमाणिक्य के पास आ जुटे। गोविन्दमाणिक्य ने उन्हें जोड़ कर एक बड़ी पाठशाला खोल ली। वे उन्हें पढ़ाते थे, उनके साथ खेलते थे, उनके घर जाकर उनके साथ रहते थे, बीमार पड़ने पर देखने जाते थे। ऐसा नहीं कि बालक साधारणत: स्वर्ग से आए हैं या वे देव-शिशु हैं, उनमें मानव और दानव भावों का तनिक भी अभाव नहीं है। स्वार्थपरता, क्रोध, लोभ, द्वेष, हिंसा, उनके भीतर पूरी तरह से बलवती है, ऊपर से ऐसा भी नहीं कि घर में माता-पिता से हर समय अच्छी शिक्षा ही मिलती हो। इसी कारण मगों के दुर्ग में मगों का राज्य-शासन हो गया - मानो दुर्ग में उनचास पवन और चौंसठ भूत एक साथ रहने लगे। गोविन्दमाणिक्य यही सब उपकरण लेकर धैर्य के साथ मनुष्य गढ़ने लगे। एक मनुष्य का जीवन कितना महान और कितने प्राणपण के साथ प्रयत्नपूर्वक पालन करने और रक्षा करने की वस्तु है, इस विषय में गोविन्दमाणिक्य का हृदय सर्वदा जागरूक है। उनके चारों ओर अनंत फल से परिपूर्ण मनुष्य जन्म सार्थक हो जाए, इसी आशा में और अपनी कोशिश से इसे ही सफल बनाने में गोविन्दमाणिक्य अपना शेष जीवन समर्पित करना चाहते हैं। इसके लिए वे सभी कष्ट, सारे अत्याचार सहन कर सकते हैं। केवल बीच-बीच में कभी-कभी हताश होकर दुःख करने लगते हैं, 'मैं अपना कार्य निपुणतापूर्वक संपन्न नहीं कर पा रहा हूँ। बिल्वन रहता, तो अच्छा होता।'

इस प्रकार गोविन्दमाणिक्य सैकड़ों ध्रुवों के साथ दिन बिताने लगे।