राजर्षि / परिच्छेद 4 / रवीन्द्रनाथ ठाकुर / जयश्री दत्त
भुवनेश्वरी देवी मंदिर का सेवक जयसिंह जाति से राजपूत, क्षत्रिय है। उसके पिता सुचेत सिंह त्रिपुरा राज घराने में पुराने सेवक थे। सुचेत सिंह की मृत्यु के समय जयसिंह एकदम बालक था। इस अनाथ बालक को राजा ने मंदिर के काम में नियुक्त कर दिया। जयसिंह मंदिर के पुरोहित रघुपति द्वारा पाला-पोसा गया और शिक्षित हुआ। बचपन से ही मंदिर में पलने के कारण जयसिंह मंदिर को घर के समान चाहता था, मंदिर की प्रत्येक सीढ़ी, प्रत्येक प्रस्तर-खण्ड के साथ उसका परिचय था। उसकी माँ नहीं थी, भुवनेश्वरी की प्रतिमा को ही वह माँ के रूप में देखता था, प्रतिमा के सामने बैठ कर बातें करता था, अत: उसे अकेलापन अनुभव नहीं होता था। उसके और भी संगी थे। मंदिर के बगीचे में उसने बहुत-से वृक्ष अपने हाथों बड़े किए हैं। प्रतिदिन उसके चतुर्दिक उसके वृक्ष बड़े हो रहे हैं, लताएँ लिपट रही हैं, शाखाएँ पुष्पित हो रही हैं, छाया विस्तार पा रही है, श्यामल वल्लरियों के पल्लव-गुच्छों के कारण निकुंज यौवन के गर्व से परिपूर्ण हो रहा है। किन्तु जयसिंह के मन की इस सारी बात को, प्यार की बात को अधिकतर कोई नहीं जानता था; अपने विपुल बल और साहस के चलते ही वह विख्यात था।
मंदिर का कामकाज निबटा कर जयसिंह अपनी कुटिया के द्वार पर बैठा है। सामने मंदिर का कानन है। संध्या हो रही है। बहुत घने मेघ घिर कर वर्षा हो रही है। नव-वर्षा के जल में जयसिंह के पेड़-पौधे स्नान कर रहे हैं, वर्षा की बूँदों के नृत्य से पत्ते-पत्ते में उत्सव हो रहा है, वर्षा के जल की छोटी-छोटी सैकड़ों-सैकड़ों धाराएँ परस्पर मिल कर, कलकल करते हुए गोमती नदी में जाकर गिर रही हैं - जयसिंह परमानंद में अपने बगीचे की ओर देखता हुआ चुपचाप बैठा है। चारों ओर मेघों का स्निग्ध अंधकार है, वन की छाया है, घने पत्तों की श्यामल शोभा है, मेढकों का कोलाहल है, वर्षा का अविराम झर झर शब्द है - बगीचे में ऐसी नव-वर्षा की घोर घटा को देख कर उसका मन प्रफुल्ल हो रहा है।
भीगते-भीगते रघुपति आ पहुँचा। जयसिंह ने जल्दी से उठ कर पैर धोने के लिए जल और सूखे कपड़े लाकर दिए।
रघुपति ने चिढ़ते हुए कहा, "तुमसे कपड़े लाने को किसने कहा?"
कहते हुए कपड़े लेकर कमरे में फेंक दिए।
जयसिंह पैर धोने का जल लेकर आगे बढ़ा। रघुपति ने चिढ़े स्वर में कहा, "ठहरो ठहरो, अपना यह पानी रख दो।"
कहते हुए पैर से जल का लोटा ठेल कर गिरा दिया।
जयसिंह सहसा ऐसे व्यवहार का कारण न समझ पाने की वजह से अवाक हो गया - कपड़े जमीन से उठा कर यथास्थान रखने को हुआ - रघुपति ने फिर से चिढ़ते हुए कहा, "ठहरो, ठहरो, तुम्हें उन कपड़ों को हाथ लगाने की जरूरत नहीं है।"
कहते हुए स्वयं जाकर कपड़े बदल आया। जल लेकर पैर धो लिए।
जयसिंह ने धीरे-धीरे कहा, "प्रभु, मैंने क्या कोई अपराध किया है?"
रघुपति ने थोड़े उग्र स्वर में कहा, "किसने कहा, तुमने अपराध किया है?"
जयसिंह दुखी होकर चुपचाप बैठा रहा।
रघुपति बेचैन होकर कुटिया के बरामदे में घूमने लगा। इसी तरह बहुत रात हो गई; धीरे-धीरे बारिश पड़ने लगी। अंत में रघुपति ने जयसिंह की पीठ पर हाथ रख कर कोमल स्वर में कहा, "वत्स, सोने जाओ, बहुत रात हो गई है।"
जयसिंह रघुपति के स्नेहिल स्वर से पिघल कर बोला, "पहले प्रभु सोने जाएँ, उसके बाद मैं जाऊँगा।"
रघुपति बोला, "मुझे देर है। देखो पुत्र, आज मैंने तुम्हारे साथ कठोर व्यवहार किया है, कुछ बुरा मत मानना। मेरा मन ठीक नहीं था। विशेष वृत्तांत तुमसे कल सुबह कहूँगा। आज तुम सोने जाओ।"
जयसिंह ने कहा, "जो आज्ञा।"
कह कर सोने चला गया। रघुपति सारी रात घूमता रहा।
सुबह जयसिंह गुरु को प्रणाम करके खड़ा हो गया। रघुपति ने कहा, "जयसिंह, माँ के लिए बलि बंद हो गई है।"
जयसिंह ने विस्मित होकर कहा, "यह क्या बात प्रभु!"
रघुपति - "राजा का ऐसा ही आदेश है।
जयसिंह - कौ-से राजा का?
रघुपति ने चिढते हुए कहा, "यहाँ राजा फिर कितने दर्जन हैं? महाराज गोविन्द माणिक्य ने आदेश दिया है, मंदिर में जीव-बलि नहीं हो सकती।"
जयसिंह - नर बलि?
रघुपति - आह क्या बखेडा है! मैं कह रहा हूँ जीव-बलि, तुम सुन रहे हो नर-बलि।
जयसिंह - कोई जीव-बलि ही नहीं हो सकेगी?
रघुपति - नहीं।
जयसिंह - महाराज गोविन्द माणिक्य ने ऐसा आदेश दिया है?
रघुपति - हाँ रे, एक बात कितनी बार बोलूँ?
जयसिंह ने बहुत देर तक कुछ भी नहीं कहा, केवल अपने मन में बोलता रहा, 'महाराज गोविन्द माणिक्य!' जयसिंह ने बचपन से गोविन्द माणिक्य को देवता के रूप में जाना है। आकाश के पूर्ण चन्द्र के प्रति शिशु की जैसी एक प्रकार की आसक्ति होती है, गोविन्द माणिक्य के प्रति जयसिंह के मन का भाव उसी प्रकार का था। गोविन्द माणिक्य का प्रशांत सुन्दर मुख देख कर जयसिंह प्राण विसर्जित कर सकता था।
रघुपति ने कहा, "इसका कोई तोड़ तो निकालना होगा।"
जयसिंह ने कहा, "अवश्य। मैं महाराज के पास जाता हूँ, उनसे विनती करके कहता हूँ -"
रघुपति - वह चेष्टा व्यर्थ है।
जयसिंह - तब क्या करना होगा?
रघुपति ने कुछ पल सोच कर कहा, "वह कल बताऊँगा। कल प्रभात में तुम कुमार नक्षत्रराय के पास जाकर अनुरोध करना कि मुझसे गुप्त रूप से भेंट करें।"