राजर्षि / परिच्छेद 6 / रवीन्द्रनाथ ठाकुर / जयश्री दत्त
नक्षत्रराय के चले जाने पर जयसिंह ने कहा, "गुरुदेव, ऐसी भयानक बात कभी नहीं सुनी। आपने माँ के सम्मुख माँ का नाम लेकर भाई के हाथों भाई की हत्या का प्रस्ताव कर दिया, और मुझे खड़े होकर वही सुनना पड़ा।"
रघुपति ने कहा, "बताओ, और क्या उपाय है।"
जयसिंह बोला, "उपाय! किसका उपाय!"
रघुपति - "देख रहा हूँ, तुम भी नक्षत्रराय की तरह हो गए हो। तो, अब तक सुना क्या?"
जयसिंह - "जो सुना है, वह सुनने योग्य नहीं है, उसे सुनना पाप है।"
रघुपति - "पाप-पुण्य तुम क्या समझते हो? "
जयसिंह - "इतने दिन आपसे शिक्षा प्राप्त की है, क्या पाप-पुण्य कुछ भी नहीं समझता?"
रघुपति - "सुनो वत्स, तब तुम्हें एक और शिक्षा देता हूँ। पाप-पुण्य कुछ नहीं होता। पिता कौन है, भाई कौन है, कोई ही कौन है? अगर हत्या पाप है, तो सारी हत्याएँ ही एक जैसी हैं। लेकिन कौन कहता है, हत्या पाप है? हत्याएँ तो हर रोज ही हो रही हैं। कोई सिर पर पत्थर का एक टुकड़ा गिर जाने से मर रहा है, कोई बाढ़ में बह जाने से मर रहा है, कोई महामारी के मुँह में समा कर मर रहा है, और कोई आदमी के छुरा मार देने से मर रहा है। हम लोग रोजाना कितनी चींटियों को पैरों तले कुचलते हुए चले जा रहे हैं, हम क्या उनसे इतने ही महान हैं? यह सब क्षुद्र प्राणियों के जीवन-मृत्यु का खेल खंडन योग्य तो नहीं है, महाशक्ति की माया खंडन योग्य तो नहीं है। कालरूपिणी महामाया के सम्मुख प्रतिदिन कितने लाखों-करोड़ों प्राणियों का बलिदान हो रहा है - संसार में चारों ओर से जीवों के शोणित की धाराएँ उनके महा-खप्पर में आकर जमा हो रही हैं। शायद मैंने उन धाराओं में और एक बूँद मिला दी। वे अपनी बलि कभी-न-कभी ग्रहण कर ही लेतीं, मैं बस इसमें एक कारण भर बन गया।"
तब जयसिंह प्रतिमा की ओर घूम कर कहने लगा, "माँ, क्या तुझे सब इसीलिए माँ पुकारते हैं! तू ऐसी पाषाणी है! राक्षसी, सारे संसार का रक्त चूस कर पेट भरने के लिए ही तूने यह लाल जिह्वा बाहर निकाल रखी है। स्नेह, प्रेम, ममता, सौंदर्य, धर्म, सभी मिथ्या है, सत्य है, केवल तेरी यह रक्त-पिपासा। तेरा ही पेट भरने के लिए मनुष्य मनुष्य के गले पर छुरी रखेगा, भाई भाई का खून करेगा, पिता-पुत्र में मारकाट मचेगी! निष्ठुर, अगर सचमुच ही यह तेरी इच्छा है, तो बादल रक्त की वर्षा क्यों नहीं करते, करुणा स्वरूपिणी सरिता रक्त की धारा बहाते हुए रक्त-समुद्र में जाकर क्यों नहीं मिलती? नहीं, नहीं, माँ, तू स्पष्ट रूप से बता - यह शिक्षा मिथ्या है, यह शास्त्र मिथ्या है - मेरी माँ को माँ नहीं कहते, संतान-रक्त-पिपासु राक्षसी कहते हैं, मैं इस बात को सहन नहीं कर सकता।"
जयसिंह की आँखों से आँसू झरने लगे - वह अपनी बातों पर स्वयं ही सोचने लगा। इसके पूर्व कभी इतनी बातें उसके मन में नहीं आईं, यदि रघुपति उसे नवीन शास्त्र की शिक्षा नहीं देता रहता, तो कभी भी उसके मन में इतनी बातें नहीं आतीं।
रघुपति ने थोड़ा हँसते हुए कहा, "तब तो बलिदान की परम्परा पूरी तरह उठा देनी होगी।।"
जयसिंह शैशव-काल से ही प्रतिदिन बलि देखता आ रहा है। इसी कारण, कभी मंदिर में बलि बंद हो सकती है अथवा होनी उचित है, यह बात किसी भी तरह उसके मन में नहीं समाती। यहाँ तक कि, इस बात को सोचने भर से उसके मन को आघात लगता है। इसीलिए रघुपति की बात के उत्तर में जयसिंह ने कहा, "वह बात अलग है। उसका कोई दूसरा अर्थ है। उसमें कोई पाप नहीं है। किन्तु उसी कारण भाई भाई की हत्या करेगा! उसी कारण महाराज गोविन्द माणिक्य को - प्रभु, आपके चरण पकड़ कर पूछता हूँ, मुझे बहकाइए मत, क्या माँ ने सचमुच ही सपने में कहा है - राज-रक्त के बिना उनकी तृप्ति नहीं होगी?"
रघुपति ने कुछ देर चुप रह कर कहा, "सचमुच नहीं, तो क्या झूठ कहा है? तुम क्या मुझ पर अविश्वास करते हो?"
जयसिंह ने रघुपति की चरण-धूलि लेकर कहा, "गुरुदेव के प्रति मेरा विश्वास शिथिल न पड़े। किन्तु नक्षत्रराय का जन्म भी तो राजकुल में हुआ है।"
रघुपति ने कहा, "देवताओं का स्वप्न इंगित मात्र होता है, सारी बात सुनी नहीं जा सकती, बहुत कुछ समझ लेना पडता है। साफ ही समझ में आ रहा है, देवी गोविन्द माणिक्य से असंतुष्ट हो गई हैं, असंतोष का पूरा कारण भी पैदा हो गया है। अतएव जब देवी ने राज-रक्त की इच्छा की है, तो समझ लेना होगा कि वह गोविन्द माणिक्य का ही रक्त है।"
जयसिंह ने कहा, "अगर यह सच है, तो राज-रक्त मैं ही लाऊँगा - नक्षत्रराय को पाप में लिप्त नहीं होने दूँगा।"
रघुपति ने कहा, "देवी के आदेश-पालन में कोई पाप नहीं है।"
जयसिंह - "पुण्य तो है, प्रभु। वह पुण्य मैं ही कमाऊँगा।"
रघुपति ने कहा, "तो वत्स, सच-सच कहता हूँ। मैं तुम्हारा बचपन से ही पुत्र से अधिक सार-सँभाल के साथ, प्राणों से अधिक प्यार करते हुए पालन-पोषण करता आया हूँ, मैं तुम्हें खो नहीं सकूँगा। अगर नक्षत्रराय गोविन्द माणिक्य का वध करके राजा बन जाता है, तो कोई उसे एक बात भी नहीं कहेगा, लेकिन तुम यदि राजा पर हाथ उठाते हो, तो मैं तुम्हें वापस नहीं पा सकूँगा।"
जयसिंह ने कहा, "मेरे स्नेह में - पिता, मैं अपदार्थ - मेरे स्नेह में आप एक चींटी को भी नुकसान नहीं पहुँचा पाएँगे। अगर आप मेरे स्नेह में पाप में लिप्त हो जाएँ, तो मैं उस स्नेह को अधिक दिन नहीं भोग पाऊँगा, उस स्नेह का परिणाम कभी भी अच्छा नहीं होगा।"
रघुपति ने कहा, "अच्छा, अच्छा, वह बात बाद में होगी। कल नक्षत्रराय के आने पर जो भी हो, एक व्यवस्था हो जाएगी।"
जयसिंह ने मन-ही-मन प्रतिज्ञा की, "राज-रक्त मैं ही लाऊँगा। माँ के नाम पर, गुरुदेव के नाम पर भ्रातृ-हत्या नहीं होने दूँगा।"