राजस्थानी कविता में लोक / डॉ. नीरज दइया
सोने री धरती जठै, चांदी रो आसमान ।/रंग रंगीलो रस भरियो, म्हारो राजस्थान। स्वर्णिम धोरों की धरती राजस्थान की कीर्ति का लोक-स्वर का ना जाने कब से चला आ रहा है। वर्तमान में राजस्थान भूभाग की दृष्टि से भारत का सबसे बड़ा राज्य है। राजस्थान अपने साहस, वीरता, शौर्य, त्याग और भक्ति के अनेक उदाहरणों से परिपूर्ण और विशिष्ट माना जाता रहा है। अपनी मातृभूमि का यशोगान करते हुए राजस्थानी और हिंदी के महाकवि कन्हैयालाल सेठिया ने लिखा- ‘आ तो सुरगां नै सरमावै,/ ईं पर देव रमण नै आवै,/ ईं रो जस नर नारी गावै,/ धरती धोरां री!’ यही वह धरा है जहां मांड गायिका पद्मश्री अल्लाह जिलाई बाई के स्वर में ‘केसरिया बालम! आओ नीं पधारो म्हारै...’ गीत विख्यात है। यह गीत दुनिया भर को राजस्थान का एक प्रकार का न्योता बन गया है। राजस्थान की प्रमुख भाषा राजस्थानी है, जो लंबे समय तक हिंदी-अध्येयताओं द्वारा हिंदी की उपभाषा और बोलियों के रूप में वर्णित की जाती रही है और आज भी इसके स्वतंत्र अस्थित्व पर संवैधानिक मान्यता प्रदत्त भाषा नहीं होने से प्रश्नचिह्न बना हुआ है। हिंदी साहित्य का विशाल भवन भाषा-वैज्ञानिक मानकों पर खरी राजस्थानी भाषा की नींव पर खड़ा हुआ है। रासो काव्य परंपरा इसका अकाट्य प्रमाण है। ‘पथ्वीराज रासो’ के मूल में राजस्थानी भाषा का ग्रंथ है और इसको अगर हिंदी भाषा से अलग कर दिया जाए तो हिंदी का आदिकाल कितना क्या रह जाएगा, यह कहने की आवश्यकता नहीं है।
समस्या यह है कि प्रांतीय भाषाओं की भांति हिंदी भाषा का अपना लोक साहित्य है ही नहीं। भारत के समृद्ध, व्यापक और विस्तृत लोक साहित्य में क्षेत्रीय भाषाओं की प्रमुख भूमिका है, जिसमें राजस्थानी का विशिष्ट योगदान है। लोककथा और लोकगीतों की सांस्कृतिक विरासत को सहेजे राजस्थानी कविता अपने आरंभिक काल से ही लोक-जुड़ाव से विकसित हुई है और वर्तमान काल की कविता में यह लोक जुड़ाव अबाध गति से गतिशील और विकसित होते हुए देखा जा सकता है।
राजस्थान के इतिहास को देखेंगे तो हमारे यहां के कवियों ने वीरों के साथ अपनी कर्मस्थली युद्ध के मैदान को माना है। यहां के कवियों ने जहां राज्याश्रय में काव्य और ग्रंथों की रचनाएं की हैं तो साथ ही उन्होंने युद्ध के मैदान में भी उनका साथ निभाते हुए न केवल योद्धाओं का उत्साहवर्द्धन किया है, वरन उनको दिशा भी प्रदान करते रहे हैं। राजस्थान के चारण कवियों को तो कविता के लिए देवी का वरदान रहा है। लोक में अवधारणा है कि चारण कवियों के कंठों पर स्वयं सरस्वती विराजती थी। यहां यह भी रेखांकित किया जाना चाहिए कि डिंगळ काव्य परंपरा अपने नाद-सौंदर्य और शैली के लिए विश्व विख्यात रही है। छंद को साधना और शक्ति-भक्ति के साथ लोक-कल्याण राजस्थानी कविता का उद्देश्य रहा है।
राजस्थान यानी राजाओं और रजवाड़ों की भूमि। राजपूता में राजपूत जाति के साथ विभिन्न उपजातियां रही हैं। वैसे भारतीय उपमहाद्वीप में राजस्थानी लोगों के लिए ‘मारवाड़ी’ अर्थात मारवाड़ क्षेत्र के लोग शब्द प्रयुक्त होता रहा है। मारवाड़ी लोग देश में बुद्धि और व्यापार के लिए विश्व-विख्यात हैं।
राजस्थानी भाषा के संदर्भ में यहां की कविता के लोक जुड़ाव और शब्दावली का एक अनुपम उदाहरण देखें- ‘चार बांस चौबीस गज अंगुल अष्ट प्रमाण, ता उपर सुलतान है मत चूके चौहान!’ यह पंक्तियां राजा प्रथ्वीराज चौहान के दरबारी कवि और मित्र चन्द्र बरदाई की हैं। यह शब्दों का कमाल अथवा उसमें अंतर्निहित गणित कहें कि बंदी राजा पृथ्वीराज चौहान ने अपने शब्दभेदी बाण से सुलतान का वध कर दिया था।
दूसरा उदाहरण मुगलकालीन देखें- जहां कवि पीथल के शब्दों से महाराणा प्रताप का शौर्य पुनः जाग्रत हुआ। ‘पातल जो पतसाह, बोलै मुख हुँता बयण/ मिहर पछम डिसमाह, ऊगे कासप राव उत/ पटकूँ मूंछां पाण, कै पतकुं निज तन करद/ दीजे लिख दीवाण, इण दो महली बात इक।’ भावार्थ यह है कि यदि पातल (महाराणा प्रताप) अपने मुख से अकबर को बादशाह कह दे तो कश्यप का पुत्र सूर्य पश्चिम दिशा में उदय होगा। हे दीवान! मैं गर्व के साथ अपनी मूंछों पर ताव दूं अथवा शर्म से अपने शरीर को तलवार से काटकर मर जाऊं। और हुआ चमत्कार- जिसे हम शब्दों का शौर्य कह सकते हैं। पीथल का पत्र पाते ही महाराणा प्रताप का शौर्य जाग उठा और उन्होंने जबाव में चार पंक्ति कही- ‘तुरक कहासी मुख पतौ, इण तनसूं एकलिंग।/ उगै जांहि ऊगसी, प्राची बीच पतंग।/ खुसी हून्त पीथल कमथ, पटको मूंछां पाण/ पछटंन है जेतै पतौ, कलमां सिर के बाण।/ सांग मुंड सहसी सको, समंजस जहर सवाद।/ भड़ पीथल जीतो भलां, बैण तुरक सूं बाद। भावार्थ यह है कि एकलिंग जी की कृपा से जब तक यह मेरा शरीर है मैं अपने मुख से अकबर को तुरक ही कहूंगा। सूर्य पूर्व दिशा में ही ऊगेगा और हे वीर राठौड़ पृथ्वीराज (पीथल)! तुम प्रसन्नता के साथ अपनी मूंछों पर ताव देते रहो, क्यों कि मेरी तलवार हमेशा शत्रुओं के सिरों को काटती रहेगी। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि कवि और कला की यह कीर्ति है कि अकबर की व्यथा इस दोहे के रूप में देख सकते हैं- ‘पीथल सूं मजलिस गई तानसेन सूं राग।/ हंसबो रमिबो बोलबो गयो बीरबर साथ॥’
राजस्थान में रूठी रानी के नाम से विख्यात उमादे के विषय में एक प्रसंग चर्चित रहा है कि कवि आशानंद के साथ जब रूठी रानी उमादे अपने पति राजा मालदेव के पास जोधपुर चलने हेतु हठ त्याग कर प्रस्थान कर चुकी होती है तो जोधपुर के रास्ते में एक जगह रानी कवि आशानंद से मालदेव और दासी भारमली के बारे में पूछती है तो कवि का दो पंक्तियों का यह दोहा पासा पलट देता है। ‘माण रखै तो पीव तज, पीव रखै तज माण।/ दो दो गयंद न बंधही, हेको खम्भु ठाण।।’ भावार्थ यह कि मान-सम्मान रखना है तो पति को त्याग दे और पति को रखना है तो मान-सम्मान को त्याग देना होगा। किंतु दो-दो हाथियों को एक ही स्थान पर बांधना असंभव है। यहां कवि ने अपना कवि धर्म निभाया वह रूठी रानी को मना कर जोधपुर ले कर जा रहा था कि बीच रास्ते उसी के शब्दों का असर यह हुआ कि रानी उमादे पुनः रोषाग्नि से भर उठी और पुनः रूठ कर सदा के लिए लौट गई।
यहां कविता के इन दोनों प्रसंगों और संदर्भों के साथ यह वर्णित किया जाना बेहद जरूरी है कि आधुनिक काल के प्रमुख कवि कन्हैयालाल सेठिया ‘पातल’र पीथल’ कविता में महाराणा प्रताप और पीथल के प्रसंग को वाणी देते हैं, सत्यप्रकाश जोशी ‘बोल भारमली’ काव्य कृति के माध्यम से रूठी रानी के साथ उसी की सहेली-दासी भारमली के माध्यम से नारी चेतना और अस्मिता का प्रश्न उठाते हैं। कवि-नाटककार अर्जुनदेव चारण भी अपनी काव्य कृति ‘अगनसिनान’ में रूठी रानी ‘उमादे’ पर उसकी व्यथा और कवि के प्रसंग को नवीन संदर्भों में अपनी कविता का विषय बनाते हैं।
राजस्थानी कविता में लोक विषय में गहरे प्रवेश से पूर्व हम लोक शब्द पर किंचित विचार करें तो डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार- “‘लोक’ शब्द का अर्थ ‘जनपद’ या ‘ग्राम्य’ नहीं है, बल्कि नगरों और ग्रामों में फैली हुई वह समूची जनता है, जिनके व्यावहारिक ज्ञान का आधार पोथियां नहीं हैं।” इसी प्रकार डॉ. कृष्णदेव उपाध्याय का मानना है- ‘‘जो लोग संस्कृत या परिष्कृत वर्ग से प्रभावित न होकर अपनी पुरातन स्थितियों में ही रहते हैं, वे ‘लोक’ होते हैं।’’ डॉ. श्याम परमार ने कहा है- ‘‘आधुनिक साहितय की नूतन प्रवृत्तियों में ‘लोक’ का प्रयोग गीत, वार्ता, कथा, संगीत, साहित्य आदि से युक्त होकर, साधारण जन-समाज जिसमें पूर्व संचित परंपराएं, भावनाएं, विश्वास और आदर्श सुरक्षित हैं तथा जिसमें भाषा और साहित्यगत सामग्री ही नहीं, अपितु अनेक विषयों के अनगढ़ किंतु ठोस रत्न छिपे हैं, के अर्थ में होता है।’’ वहीं डॉ. श्री राम शर्मा का कहना है- ‘‘‘लोक’ शब्द उस विशेष जनसमूह का वाचक है, जो साज-सज्जा, सभ्यता, शिक्षा, परिष्कार आदि से दूर आदिम मनोवृत्तियों के अवशेषों से युक्त परिधि को समाविष्ट करता है।’’ विद्यानिवास मिश्र के अनुसार- ‘लोक शब्द की उत्पत्ति ‘लुच’ धातु से हुई है, जिसका अर्थ है प्रकाशित होना एवं प्रकाशित करना। जो सामने प्रकाशित हो रहा है और जो सामने दिख रहा है।’ (लोक और लोक का स्वर : पृष्ठ- 11)
‘लोक’ शब्द जिसके लिए अंग्रेजी में ‘FOLK’ शब्द है और जिसके अर्थ के लिए लिखा गया है- ‘‘एक विशाल समानुपाति लोगों का वैसा समूह जो समूह की विशेषताओं को निर्धारित करता है और सभ्यता के विशिष्ट रूप एवं उसकी रीति-रिवाज, कला और शिल्प, किवदंतियां, परंपराओं और विश्वासों को पीढ़ी दर पीढ़ी संरक्षित करता है।’’ सीधे और सरल शब्दों में कहे तो कविता में ‘लोक’ का अभिप्राय ‘जन साधारण’ से है। ‘लोक’ एक विशेष जनसमूह है, जो आदिकाल से ही अपने अनुभव से प्राप्त ज्ञान, परंपराओं, विश्वास, भाषा, संस्कृति, धर्म एवं आदर्शों को संरक्षित कर अपने समुदाय के बीच पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित कर रहा है।
‘लोक’ शब्द के व्युत्पत्तिमूकल और परिभाषित अर्थ के लिए अनेक विद्वानों ने अपने ग्रंथों में बहुत कुछ लिखा है, जिससे यह स्पष्ट होता है कि ‘लोक’ शब्द को किसी निश्चित अर्थ अथवा व्याख्या की परिधि में बांधा नहीं जा सकता है। शायद इसका बड़ा कारण यह भी है कि ‘लोक’ को विशेषण के रूप में प्रयुक्त करते हुए हमारे यहां गढ़े गए पदों की बहुलता है। संभवतः इसी कारण ‘लोक’ शब्द में अर्थ वैविध्य और विस्तार की अनेक दिशाएं साथ-साथ चलती रही और कहें जुड़ती जा रही हैं। वैसे ‘लोक’ के व्यापक अध्ययन, मनन और चिंतन के बाद भी इसके अध्ययन की अत्यंत आवश्यक है, इसके बिना किसी भी प्रकार के ज्ञान को परिपूर्ण नहीं कहा जा सकता है।
लोक साहित्य और शिष्ट साहित्य की श्रेणी की बात करने से पूर्व भाषा विकास की बात करनी चाहिए। ‘ऋगवेद’ को यदि लिखित साहित्य का पहला प्रमाण कहें, तो कहना होगा कि लोक शब्द उस काल और उससे पहले भी प्रचलन में रहा है। इसका प्रमाण है कि लोक शब्द वेदों में प्रयुक्त हुआ है। वेद से उपनिषद ग्रंथों, महाभारत, गीता आदि में लोक शब्द और उसके बदलते विविध रूपों को देखा जा सकता है। सम्राट अशोक के शिलालेखों में ‘लोक’ शब्द समस्त प्रजा के भाव में प्रयुक्त हुआ है। वहां ‘लोक’ और ‘जन’ शब्द समानार्थी भाव में प्रयुक्त हुए हैं। जैसा कि सर्वविदित है कि राजस्थानी कविता के खाते में ‘पृथ्वीराज रासो’ जैसे महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है तो साथ ही चारण कवि शिवदास गाडण द्वारा रचित ‘अचलदास खींची री वचनिका’ जैसा बेजोड़ और अद्वितीय ग्रंथ भी है। चंपू काव्य वचनिका में मांडू के सुल्तान हुशंगशाह व गागरौन के शासक अचलदास खींची के मध्य हुए युद्ध (1423 ई.) की जानकारी मिलती है। तुकांत गद्य और दूहा काव्य का वचनिका में सुंदर प्रयोग हुआ है। राजस्थानी में वेलि काव्य परंपरा भी मिलती है और ‘वेलि क्रिसन रुक्मणी री’ (पृथ्वीराज राठौड़) को तो पांचवा वेद कहा गया है। लोक में प्रेम के आख्यान को ‘ढोला मारू रा दूहा’ में देख सकते हैं तो ‘हाला झाला रा कुंडळिया’ के कवि ईसरदास को तो ‘ईसरा सो परमेसरा’ की संज्ञा से लोक ने विभूषित किया। कवि ईसरदास को परमेश्वर कहना राजस्थानी कविता का ही नहीं वरन भारतीय कविता का सम्मान है। मध्यकाल में कवियों के सम्मान में ‘पसाव’ होते थे जिसमें कवियों को धन-दौलत प्रदान कर राजा के साथ जनमानस अपनी भावनाओं को प्रकट करता था। महिला स्वर की बात करें तो मीरा की तुलना किसी भी भारतीय अथवा वैश्विक कवयित्री से की जा सकती है। अपने आराध्य कृष्ण को पति के रूप में पूजते हुए मीरा ने मध्यकाल में लोक को भक्ति के मार्ग पर बढ़ने का संदेश दिया वहीं अपने जीवन चरित्र से यहां की औरत जाति के समक्ष सामाजिक स्वतंत्रता एक आदर्श उदाहरण प्रस्तुत किया। समाज की संरचना में नर और नारी का सामूहिक अनुपात होने से ही उसकी संपूर्णता हो सकती है यह रेखांकन मीरा की कविता में निहित है। राजस्थानी लोक को कविता ने संस्कारित करने का कार्य किया। शिक्षा और संस्कार के साथ समाज निर्माण में जैन साहित्य की अद्वितीय भूमिका स्वीकार की जाती है। राजस्थानी का विशाल जैन साहित्य देखते हैं तो यहां की धरा पर तप और त्याग के साथ जैन मुनियों ने जन कल्याण को केंद्रीय सूत्र के रूप में ग्रहण करते हुए अनेक रचनाएं लिखी हैं। कविता जहां स्वांत:सुखाय रही है, वहीं वह लोक कल्याण और जन-जाग्रति का उद्देश्य लेकर चली है।
राजस्थान का सांस्कृतिक जीवन ऐसा है कि जिसमें जीवन के प्रत्येक प्रसंग से जुड़े हुए लोकगीत है। यहां जन्म, मरण और विवाह के साथ जीवन के हर रंग में लोक गीतों से हर्ष और विषाद को अभिव्यक्ति मिली है। नायक नायिका का मिलन और विरह गीतों से भरा हुआ है। अपनी प्राकृति और पर्यावरण को अपने जीवन दिनचर्या में शामिल करते हुए यहां का लोक जीवन और जीजीविषा से भरा हुआ है। अकाल की मार पर मार सकते हुए भी लोग हिम्मत हार कर बैठने वाले नहीं है। जल संकट के उपरांत भी मुख्य कार्य खेती रहा है। अभावों में जीवन जीने वाले यहां के मानवी कभी काम करते हुए गीत गाते हैं तो कभी खाली बैठे बैठे गीत गाते हैं। गीत उनकी दिनचर्या और जीवन का अहम हिस्सा है। बिना गीतों के यहां के जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती है। समृद्ध लोकगीत और लोक साहित्य मन को बिलमाने के साथ-साथ जीवन को रंगों से भर देते हैं। लोक साहित्य की बात करते हुए यहां कहना चाहिए कि जिस भाषा का लोक साहित्य समृद्ध होगा उसका शिष्ट साहित्य भी निसंदेह समृद्ध और विशिष्ट ही होगा। परंपरा ही जड़ें पोषित करती हैं, जिस के बल पर आधुनिक साहित्य की संरचना होती है।
डॉ. आईदान सिंह के अनुसार- ‘‘राजस्थानी कविता का इतिहास और उसकी जड़े हमें ‘अपभ्रंश’ के दोहों में मिलती है। इसका विकास ही आधुनिक रूप में दोहा साहित्य के रूप में सामने आता है। लौकिक काव्य ‘ढोला मारू रा दूहा’ इसी अपभ्रंश के दूहा काव्य का विकास है। कालांतर में राजस्थानी का एक भाषा रूप डिंगल काव्य के रूप में विकसित हुआ, जिससे हमारी आज की हिंदी का आदिकाल विकसित हुआ। इस डिंगल के मध्यकाल की सुप्रसिद्ध कृति ‘वेलि क्रिसन रुकमणी री’ सुप्रसिद्ध है। इसी मध्यकाल में भक्त कवयित्री मीरा की वाणी ने राजस्थानी साहित्य को एक विशेष ऊंचाई प्रदान की। इस तरह चन्द्रबरदाई का ‘पृथ्वीराज रासो’, भक्त कवयित्री मीरा की वाणी और पृथ्वीराज राठौड़ की ‘वेलि क्रिसन रुकमणी री’ की त्रयी हिंदी संसार में राजस्थानी का प्रतिनिधित्व करने के लिए सुख्यात रही है।’’ (समकालीन साहित्य-दृष्टि, पृष्ठ - 129)
अगर हम भारत के स्वतंत्रता संग्राम की बात करें तो अंग्रेजी राज के विरूद्ध सर्वप्रथम लोक में अपनी वाणी से कवि बांकीदास आसिया (1771–1833) ने आह्वान किया जिसे हम एक कवि की कविता के माध्यम से ललकार कह सकते हैं। क्योंकि 1857 के गदर से 52 वर्ष पूर्व अर्थात 1805 ई. में ‘चेतावणी रो गीत’ लिखकर राजस्थान के राजाओं को जैसे फटकार लगाते हुए अंग्रेजी राज की कुचालों से सावधान किया था- ‘आयो अंगरेज मुलक रै ऊपर/ आहंस लीधी खैंच उरां।/ धणियां मरै न दीधी धरती/ धणियां ऊभा जाय धरा॥’ (भावार्थ यह है कि अंग्रेज नामक शैतान हमारे देश पर चढ़ आया है। देश रूपी शरीर की समग्र चेतना को उसने अपने खूनी अधरों से सोख लिया है। इससे पहले यह धरती स्वामियों ने मर कर भी धरती के दुशमनों के हवाले नहीं की और आज यह स्थिति आ गई है कि इस धरती के स्वामी जिंदा है और उनके हाथों से धरती चली गई है।) कविराजा बांकीदास की बेबाकी देख सकते हैं- ‘महि जातां चींचातां महलां/ ऐ दुय मरण तणा अवसाण।/ राखो रे कैहिक राजपूती/ मरदां हिंदू कै मुसळमाण।’ (भावार्थ यह है कि इस भांति मरने के अच्छे अवसर जीवन में केवल दो बार ही मिलते हैं पहला तो उस समय जब व्यक्ति का जिंदा रहना व्यर्थ हो जाता है जब देश की धरती कोई विदेशी हथियाना चाहता है और दूसरा उस समय मरना जरूरी हो जाता है जब दुख में पड़ी हुई किसी अबला की करुण चीत्कार सुनाई दे। देश और जननी की रक्षा करना किसी जाति विशेष की बपौति नहीं है। आज देश पर भयानक विपत्ति छाई हुई है। अरे तुम मनुष्य हो, कुछ तो वीरता दिखलाओ। देश की आजादी के लिए क्या हिंदू और क्या मुसलमान अर्थात सब आदमी जाति वर्ग भेद से परे देश और समाज के लिए बराबरा है।)
महाकवि सूर्यमल्ल मीसण (1815-1868) की राजस्थानी कविता में अमिट कीर्ति रही है। उनकी पंक्तियां है- ‘इळां नै देणी आपणी, हालरियै हुलराय।/ पूत सिखावै पालणै,/ मरण बड़ाई मांय॥’ अर्थात हमारे यहां तो बाल्यकाल से ही युद्ध की शिक्षा मां के द्वारा दी जाती रही है। जन्म के साथ ही युद्ध में लड़कर मरने और वीरता-साहस की यह अद्भुत वाणी राजस्थानी भाषा में ही संभव है। राजस्थानी कविता कपोल कल्पना और किसी वायवी दुनिया के चित्र प्रस्तुत नहीं करती है वह तो जनमानस की अभिव्यक्ति है। यहां का कवि देश और समाज की चिंता करता है। वह चाहता है कि व्यक्ति अपने व्यसनों से मुक्त हो।
राष्ट्र और समाज हित की संकल्पना यहां के कविता में अभिव्यक्त होती रही है। आधुनिक कविता का सूत्रपात कवि गणेशीलाल व्यास ‘उस्ताद’ (1907-1965) से माना जाता है। देश की आजादी के बाद के मोहभंग को कवि उस्ताद इस प्रकार प्रस्तुत करते हैं- ‘इण दिस सुख री पड़ी न झांई/ राज बदळग्यौ म्हांनै कांई’ अथवा ‘लोग कैवै सोनै रो सूरज ऊग्यो,/ पण कठै गयो परकास/ हाथ हाथ नै खावण दौड़ै/ किण री राखां आस।’ उस्ताद ने लिखा है- ‘गायक एक दिन मर जासी, पण ऐडा गीत बणासी।/ जन जन रे कंठा रमसी, पीढ़ी दर पीढ़ी गासी।।/ आ काया तो कवि री है, पण जनता री युगवाणी है।/ आ जनकवि री जुगवाणी, आ कदैई न चुप रह जाणी।’
राजस्थानी कविता-यात्रा की विशद विवेचना करते हुए डॉ. अर्जुन देव चारण ने लिखा- ‘‘आजादी के बाद राजस्थानी कविता में जहां विचारों का बदलाव देखने को मिलता है वहीं शिल्पगत बदलाव भी देखने को मिलता है। अभी तक जो राजस्थानी कविता छंद को संभाले खड़ी दिखाई देती थी उसने जल्द ही स्वयं का आवरण त्याग दिया। छंदों की लहरें कुछ वर्षों तक तो साथ चलती रही पर फिर धीरे-धीरे मंद पडऩे लगी। नारायणसिंह भाटी की ‘दुर्गादास’ और सत्यप्रकाश जोशी की ‘राधा’ दो महत्त्वपूर्ण रचनाएं हैं जिनके बल पर हम राजस्थानी कविता के इस बदलते स्वरूप को पहचान सकते हैं। आजादी के बाद इन दोनों पुस्तकों का स्थाई महत्त्व है। ‘दुर्गादास’ जहां शिल्पगत बदलाव को स्वीकारती दिखाई देती है वहीं ‘राधा’ उससे भी एक कदम आगे डग भरती शिल्प के साथ पूरी काव्य पंरपरा के भाव को बदलती दिखाई देती है।’’ (साख भरै सबद, पृष्ठ -16)
अपनी कविता में तेजसिंह जोधा ने हमें भाषा, भरोसे और सांसों के संबंध में एक चेतावनी दी थी। सर्प अब भी कुंडली साधे भाषा पर बैठा है और हमारी सांसें किसी भरोसे चल रही है-
बाद में
जब यह
पूंछ का फटकारा देकर जाएगा
तब तुम्हें देश और
आजादी का अर्थ समझ आएगा
अफसोस! कि देरी हो जाएगी
बहुत देरी हो जाएगी!
(‘पीवणा सांप’ कविता से)
जीवन को लेकर प्रत्येक व्यक्ति का अलग-अलग दृष्टिकोण होता है। एक ही वर्ण के विभिन्न शब्दों में प्रत्येक भावक का निहितार्थ और उद्देश्य भिन्न-भिन्न हो सकता है। ‘क’ वर्ण के शब्दों से जुड़ी अपनी कविता में कवि सांवर दइया ने लिखा- पिता की जिंदगी में पीड़ा-/ क से कर्ज/ मां की आंखों में सपने/ क से कमाई/ भाईयों के लिए भविष्य/ क से कमठाणा (यानी मकान बनाने का काम)/ मेरे लिए-/ क से कविता। (कविता संग्रह- ‘आखर री आंख सूं’ से) यह हमारे लोक में जहां चयन के अवसरों की अभिव्यक्ति है वहीं साहित्य से समाज के जुड़ाव को भी यहां देख सकते हैं। राजस्थानी कविता ने अपना पारंपरिक स्वरूप भी संभाले रखा और अनेक स्तरों पर वह आधुनिक हुई। देश-काल-परिस्थितियां साहित्य को प्रभावित करती हैं। किसी आकलन के लिए जरूरी होता है कि हम अपनी दृष्टि किसी निर्धारित निश्चित बिंदु अथवा कोण पर समायोजित करें और रचना के भीतर अंत तक जाएं। स्वयं रचना और रचनाकर भी देखने-परखने की दृष्टि और नजरिया देते हैं। नंद भारद्वाज के अनुसार- ‘‘असली सवाल लेखक की जीवन-दृष्टि का होता है कि आम लोगों और पीडि़त वर्ग के प्रति उसके सृजन का रिश्ता और असली रवैया क्या सामने आता है, जिससे उसके लेखन की दिशा और दृष्टि का खुलासा होता है।’’ (अपरंच : जनवरी-मार्च, 2012, पृष्ठ - 13) कवि और साहित्यकार अपने लोक में जन-चेतना का संचार करते हैं। वे समाज को बौद्धिक और वैचारिक स्तर पर मजबूत बनाते हैं। राजस्थानी कविता में अनेक ऐसे कवि और कविताएं है जिनमें बिना घुमाए-फिराए सीधे मुद्दे की बात हुई है। कविता केवल मनोरंज अथवा प्रकृति के रंगों की अभिव्यक्ति का माध्यम नहीं है वह लोक में जीवन जीने और उसके विकास के अनेक आयामों से स्वयं को जोड़ती है। कवि अम्बिकादत्त लिखते हैं- आप कहते हैं-/ पैर उतने ही पसारें/ जितनी लंबी हो चादर/ मैं पूछता हूं-/ चादर इतनी लंबी क्यों नहीं बनाते/ कि पैर आराम से फैला सकें। (कविता- सावल, ‘रेत में नहाया है मन’ से) गांव और ग्रामीण समाज को जिस ढंग से कवि नंद भारद्वाज अपनी कविताओं में लोक जीवन की शब्दावली के साथ उठाते हैं, वह अनुकरणीय है। वे देश की आजादी के बाद बदलते लोकचित्त की गहरी समझ रखते हुए अपनी कविताओं में संस्कारों और लोक मान्यताओं की बातों के साथ बदलते परिवेश को शब्द देते हैं। इन कविताओं में अपने बच्चों के भविष्य के लिए जूझते पिता की लाचारी है, तो बच्चों के मासूस सवाल भी हैं। उनकी एक कविता की पंक्तियां देखें -
उसकी आंखों के आगे घूमती है
बच्चे की इच्छाएं
और सवालों से जूझता है उसका मन
आखिरकार कांपते पैरों
वह चल पड़ता है अपने आप उसी मार्ग
जो एक अन्तहीन जंगल में खो जाता है!
सिर्फ कानों में गूंजती रहती है
बच्चे की कांपती आवाज -
- आप ऐसे अनमने किधर जा रहे हैं पिताजी।
दोपहर हमें शहर जाना है -
मुझे आजादी की परेड में हिस्सा लेना है
आप ऐसे बिना कुछ कहे कहां जा रहे हैं पिताजी?
(‘बच्चे के सवाल’ कविता से)
बहुत सहजता-सरलता से कविता में साधारण-सा विषय उठाते हुए उसे असाधारण अर्थ-बोध की दिशा में ले जाना कवि मोहन आलोक की कविताओं की विशेषता है। वे रचना को मौलिकता और अद्वितीय आधार पर परखे जाने की पैरवी करते हैं- ‘‘लेकिन वह रचना/ जैसी भी होती है/ जो भी होती है/ पूरी होती है।/ कोई भी रचना/ किसी अन्य रचना के सदृश्य/ कब जरूरी होती है?’’ कवि चंद्रप्रकाश देवल अपनी लोक भाषा के स्तर पर बेहद सजग और महत्त्वपूर्ण कवि हैं। आस-पास की अनेक चीजों को वे सर्वथा नवीन दृष्टि से देखने का उपक्रम करते हुए कविता के लोक में हमारे दृश्य-संसार को विस्तारित करते हैं। भारतीय लोक में भाल पर तिलक करने की परंपरा सर्वत्र है, किंतु साधारण से प्रतीत होने वाले इस घटनाक्रम में कुमकुम, चावल और उस डिबिया को जिस प्रेम पगी दृष्टि से कवि देवल देखते हैं उस दृष्टि से शायद ही अन्य कवि ने देखा होगा।
नित्य हमेशा अलग-अलग पड़े
अपनी-अपनी डिबिया में
करते इंतजार
अंगुली, अंगूठा, पानी और थाली का मिलना
प्रीत भी किन-किन चीजों की मोहताज है
(‘सदा रहता इंतजार’ कविता से)
भारतीय कविता के अंतर्गत प्रादेशिक भाषाओं के मामले में राजस्थानी कविता को हिंदी में केवल दो संपादित संग्रहों- ‘आधुनिक भारतीय कविता संचयन’ (राजस्थानी) संपादक नंद भारद्वाज और ‘रेत में नहाया है मन’ संपदक नीरज दइया द्वारा देखा जा सकता है। जबकि वर्तमान में राजस्थानी भाषा में अनेक कवि सक्रिय हैं जो भारतीय कविता के लोक को राजस्थानी भाषा के माध्यम से अपनी पहचान देने में सक्रिय है। राजस्थानी कविता में अंतर्निहित लोक भारतीय कविता के लोक का वह अंश है जिसके बिना भारतीय कविता के लोक की कल्पना अधूरी है। हमारे प्रांत और प्रांतीय भाषाओं की कविताओं की अपनी अलग रंगत है जिनमें उस क्षेत्र विशेष की विशिष्टताओं के साथ कुछ ऐसी झांकियां और झलकियां भी देख सकते हैं जो केवल और केवल उस क्षेत्र की अनुभूतियों से ही संभव है।
डॉ. नीरज दइया