राजस्थान की लघुकथाएँ : बालमनोविज्ञान की कसौटी / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
समाज के बीच में बच्चों को लेकर बहुत-सी भ्रान्त धारणाएँ और अवैज्ञानिक उपाय प्रचलित हैं। जैसे-बच्चे का मन कोरी स्लेट है, उस पर कुछ भी लिखा जा सकता है। बच्चे को डरा-धमकाकर और दण्डित करके रास्ते पर लाना चाहिए. बच्चे जिस कक्षा में शान्त बैठे हों, केवल वहाँ पढ़ाई ठीक तरह से हो सकती है। बच्चों को खेलने की बजाय पढ़ाई पर ध्यान देना चाहिए. घर से लेकर स्कूल तक फैली ये अव्यावहारिक और रूढ़ धारणाएँ आज पूरी तरह ध्वस्त हो चुकी हैं। वास्तविकता यह है कि बच्चे का प्रश्नाकुल मन बहुत सारी जिज्ञासाओं से भरा होता है। हम अभिभावक से लेकर शिक्षक तक के-'अच्छे बच्चों की तरह चुपचाप बैठो, दिमाग़ मत खाओ! गधे हो, उल्लू हो, तुम्हारे दिमाग़ में भूसा भरा है! इतनी-सी बात भी तुम्हारे भेजे में नहीं घुसी!' ये वाक्य बाल जिज्ञासाओं को कुचलने के लिए पर्याप्त हैं। तरह-तरह के सवालों से लैस वह खिला-खिला बच्चा इन अपमानजनक टिप्पणियों से आहत होकर एक गुमसुम—सी मूर्त्ति बन जाता है।
बच्चों की मानसिकता पर लघुकथा लिखना बहुत कठिन है। उनका मनोविज्ञान समझे बिना लिखना केवल लेखन की खानापूर्त्ति हो सकती है। बाल मानसिकता को अनुभूति के स्तर पर जीना पड़ता है। अच्छा अभिभावक, अच्छा शिक्षक वही हो सकता है; जो बच्चों के मन को, उनकी जिज्ञासाओं को, उनके मन में घुमड़ते सवालों को, उनकी उमंग को पढ़ सके. जो नहीं पढ़ सकता, वह बच्चों को पढ़ा-सिखा नहीं सकता। राजस्थान के लघुकथाकारों की लघुकथाओं से गुज़रते हुए कुछ तथ्य सामने आए हैं। इन कथाओं के मूल में अभिभावक, शिक्षक और समाज तीन वर्ग प्रमुख हैं। कुछ लेखक शिक्षा-जगत से जुड़े रहे हैं, कुछ के अपने सामाजिक अनुभव हैं या कुछ प्रचलित अवधारणाएँ।
घर-परिवार के स्तर पर लिखी गई लघुकथाओं में रत्नकुमार सांभरिया की लघुकथा 'फूल' को लिया जा सकता है। दादी माँ ने मन्दिर जाने के लिए गमले से जो फूल तोड़ना चाहा, उसे उनका पाँचेक साल का पोता लेने की ज़िद करने लगा। दादी का यह कहना-'बेटे, मैं तुम्हें ऐसे ही फूल मँगवा दूँगी, लेकिन ये अपने घर के गुलाब हैं। मैंने इनको भगवान के लिए रखा हुआ है।' बच्चा नहीं माना। दादी को मन्दिर जाने में देरी भी हो रही है। घर के अन्य लोग दो भागों में बँट गए-एक वर्ग-बच्चे को फूल दे दिया जाए, दूसरा वर्ग बच्चे पर क्रुद्ध है। दादी माँ को महसूस हुआ कि सूख-सूखकर मरने के लिए भगवान् के चरणों में फेंकने से बेहतर होगा रोते हुए फूल दे देना। इस कथा में दो बातें एक साथ हैं-फूल को लेकर भगवान् के बारे में दादी माँ की धारणा और बच्चे की मनोभावना को समझना।
यादवेन्द्र शर्मा की लघुकथा 'जिज्ञासा' में महाभारत देखते-देखते सोनू अपने दादा जी से तरह-तरह के सवाल करता है, जिनका उत्तर दादा जी देते हैं, लेकिन वे उत्तर अवैज्ञानिक हैं। बच्चा उनसे सन्तुष्ट नहीं होता। दादा जी उसको समझाने में असमर्थ हैं। अन्तत: बच्चे की मन की गुत्थी खुलती है-'दादा जी देखिए, उस बच्चे ने इतने बड़े आदमी को उछाल दिया। मैं भी अपनी काली मैडम को उछाल दूँगा, वह मुझे डाँटती है।' यही वह बच्चे के अवचेतन में बैठा घृणा का भाव है, जिसे आज के शिक्षक अपने रूढ़िवादी चिन्तन की खाद से पोषित कर रहे हैं। बच्चा उनके लिए बच्चा नहीं, वरन् कोई भयंकर प्रतिद्वन्द्वी है, जिस पर काबू पाना ही उनके शिक्षण का चरम उद्देश्य है।
खेलना बच्चों के लिए बहुत अच्छा होता है, लेकिन इसका दूसरा रूप पारस दासोत की लघुकथा 'भूख' में उजागर होता है। माँ, बेटे को ज़्यादा दौड़ने-कूदने से मना करती है। पड़ोसिन का यह कथन-'तुम्हें मालूम नहीं। दौड़ने-कूदने से भूख अच्छी लगती है। इस पर गरीब माँ का यह उत्तर उसकी गरीबी की कथा का खुलासा कर जाता है-' दौड़ने-कूदने से भूख अच्छी नहीं, अधिक लगती है। 'इस कथा में पारस दासोत ने पोषाहार की कमी में पलने वाले निर्धन बच्चों की दुर्दशा का बहुत कम पंक्तियों में सांकेतिक चित्रण बहुत कुशलता से किया है।' शोक की लहर' (घनश्याम नाथ कच्छावा) में बुआ जी के देहान्त के कारण दीपावली न मनाने का निर्णय लिया जाता है। रघु का लड़का पटाखों की वाज़ सुनकर खिड़की तक दौड़कर जाता है, पर कुछ सोचकर रुक जाता है। बच्चा अपनी जिज्ञासा बमुश्किल शान्त कर पाता है।
डॉ शकुन्तला किरण वरिष्ठ लघुकथाकार रही हैं। 'प्रतिबन्ध' लघुकथा के माध्यम से जहाँ लेखिका ने पारिवारिक परिस्थितियों की विषमता का उल्लेख किया है, वहीं संजू के माध्यम से शिक्षा-जगत् की सबसे बड़ी दुर्बलता-'बिना समझे तथ्यों को रट लेना' पर प्रकाश डाला है। संजू कहता है-"जीजी, कल पन्द्रह अगस्त है, स्कूल में बोलना है, कुछ रटवा दो न।" बहुत कुछ बदल जाने पर भी यही शिक्षा-प्रणाली आज भी बच्चों पर हावी है। बाल मज़दूरी को लेकर भी कुछ लघुकथाएँ सामने आई हैं। इनमें त्रिलोक सिंह ठकुरेला की 'असाधारण' पॉलिश करने वाले बच्चे की बोहनी नहीं होने पर एक सज्जन बिना पॉलिश कराए उसे पाँच रुपये देते हैं, जिनको'वह बच्चा' बाबू जी, भिखारी नहीं हूँ। मेहनत करके खाना चाहता हूँ' कहकर लेने से वह मना कर देता है। नन्हे हाथ (डॉ आशा पथिक) में गरीबी के कारण पढ़ाई में आने वाली अड़चनों से जूझने वाला आठवीं कक्षा का छात्र रामू लघुकथा के केन्द्र में है। उसे बोर्ड की फीस भरने-भरने के लिए रिक्शा चलाना पड़ रहा है। रिक्शे पर उस दिन बैठने वाली मैडम उसको कुछ अतिरिक्त पैसा देना चाहती है, लेकिन रामू स्वीकार न करके आगे बढ़ जाता है।
'शी इज़ आलवेज़ राइट' (पुष्पलता कश्यप) में टी वी विज्ञापन को हू-ब-हू ले लिया है। इसके साथ बच्चे के मानस की प्रतिक्रिया उसके मनोविज्ञान को तो रेखांकित करती है; परन्तु विज्ञापन के कथन मात्र से यह रचना लघुकथा नहीं बन पाती। अगर गहराई से देखा जाए तो बच्चों की लड़ाई का मुख्य कारक माता-पिता का आपसी कटु व्यवहार ही है। यही कारण है कि बदज़ुबानी के कारण 'बच्चे' लघुकथा में घर में बच्चों की लड़ाई की परिणति माता-पिता की आपसी मारपीट में बदल जाती है। यह लघुकथा संकेत मात्र से पूरी हकीकत बयान कर देती है। 'मासूम बण्टी' में बच्चे को पीटने पर माँ का अनुताप बच्चों के साथ किए जाने वाले बड़ों के व्यवहार को अनुचित करार देता है, साथ ही चोट लग जाने पर ध्यान न देना बंटी की शिकायत को वाजिब ठहराता है। लेखिका ने मनोविज्ञान के परिप्रेक्ष्य में आत्मस्वीकृति के द्वारा जो निदान प्रस्तुत किया है, वह व्यावहारिक और अनुकरणीय है।
बच्चों के मन की कोमलता का उद्घाटन मुरलीधर वैष्णव ने अपनी लघुकथा 'फ़र्क पड़ेगा' में बखूबी किया है। बालिका समुद्र की लहर के साथ किनारे आई मछलियों का तड़पना नहीं देख पाती और उनको एक-एक करके पानी में डालती जाती है। एक आदमी के टोकने पर कि यहाँ तो हज़ारों मछलियाँ पड़ी हैं, बेटी तुम्हारे ऐसा करने से क्या फ़र्क पड़ेगा? 'बालिका का उत्तर-' जिन्हें मैं पानी में डाल रही हूँ, उनको फ़र्क पड़ेगा'-उसके दयाभाव को प्रकट करने में सक्षम है, साथ ही उसके उच्च उद्देश्य को भी आकार देते हैं। बहुत कम पंक्तियों की यह लघुकथा पाठकों को ज़रूर प्रभावित करेगी।' नीम और टाट' बड़ों के ग़लत व्यवहार को बच्चों पर प्रक्षेपण की कथा है। इसका कथानक प्रकारान्तर से पुराने दृष्टान्त पर ही आधारित है। माता-पिता अपने माता-पिता के साथ जैसा व्यवहार करते हैं, बच्चा भी अपने माता-पिता के साथ वही सब कुछ करने की कल्पना करता है।
'सदा सच बोलो' (शिवचरण शिवा) में लेखन ने बताना चाहा है कि बच्चों को ग़लत आदतें सिखाने में अभिभावकों का ही हाथ होता है। इस कथा में नयापन कुछ नहीं है। इस कथा में आया प्रसंग बहुत बार दोहाराया जा चुका है। डॉ रामकुमार घोटड़ की लघुकथाएँ 'दुष्कर्म' और 'आदम देही' में पिता 'दुष्कर्म' और 'आतंकवादी' के बारे में बाल जिज्ञासाओं को शान्त न करके बल्कि अपने तरीके से सुलझाने का प्रयास करते हैं, जिससे बात और उलझ जाती है।
शिक्षा-जगत् सबसे अधिक समस्याग्रस्त है। इसका कारण है बालमनोविज्ञान से अनभिज्ञ लोगों की इस क्षेत्र में निरन्तर बढ़ती संख्या। माता-पिता से उपेक्षित बच्चा स्कूल में आकर और बेगानापन महसूस करता है। शिक्षाजगत् से निकटता से जुड़े भगीरथ ने इन समस्याओं पर सफलतापूर्वक कलम चलाई है। इनकी लघुकथाओं में जो कथ्य है वह कल्पना की उड़ान नहीं, वरन् शिक्षा के क्षेत्र में हो रहे ग़लत निर्णयों और नीतियों की शल्य चिकित्सा है। भगीरथ की कथा 'अपराध' में जिस तथ्य को अपराध जैसा बना दिया है, समाज उसके कारणों की पड़ताल नहीं करता। प्रेम जैसे विषय को गोपनीय बनाकर उसको वर्जित तक की सीमा में पहुँचाना कुण्ठित सोच का ही परिणाम है। 'प्रतिभा का विकास' में लेखक ने खेल को जीवन के विकास में बाधक घोषित करने वालों की संकीर्ण मानसिकता को कठघरे में खड़ा किया है। किताबें रट लेना ही विकास नहीं है। चाहे जितने कानून बन जाएँ, लेकिन शिक्षा जगत में अनुशासन स्थापित करने के लिए थानेदारों की संख्या घटने वाली नहीं है। अनुशासन की अव्यावहारिक कठोरता और प्रशासनिक मूर्खता का परिणाम इनकी लघुकथा 'हड़ताल की घोषणा' में देखा जा सकता है कि किस कदर छात्रों का गुस्सा फट पड़ता है और डण्डे का साम्राज्य स्थापित करने वाले नये हैडमास्टर को मैदान छोड़ना पड़ता है। 'शिक्षा' लघुकथा में लेखक ने अंगरेज़ी के शिक्षक के माध्यम से बताया है कि होमवर्क करा लेना ही शिक्षक अपने शिक्षण की सफलता मान लेते है, छात्रों की समझ में कुछ आए या न आए. छात्रों के प्रति शिक्षक का व्यवहार भी अत्यन्त अपमानजनक और आपत्तिजनक है। लेखक ने छात्रों की मानसिक प्रतिक्रिया के माध्यम से पूरी शिक्षा-प्रणाली की खबर ली है। शिक्षक के व्यवहार की प्रतिक्रिया-'अकड़ सीधी करने' से लेकर स्कूल में 'तोड़फोड़' मचाने तक पहुँच सकती है। इसका संकेत लेखक ने दे दिया है।
माधव नागदा की असर, तोहफ़ा, नैतिक शिक्षा, किराए का मकान, अपना-अपना आकाश, एहसास, पितृ-ॠण, हक और अंकुर लघुकथाएँ परिवार और शिक्षा-जगत की खामियों और बालमनोविज्ञान की पड़ताल बहुत गहराई से करती हैं। 'असर' में बच्चे का यह कहना-'चाकू घुसा दूँगा' के साथ गाली का प्रयोग परिवार में माता-पिता के आपसी अनुचित व्यवहार की परिणति है। उनका यह व्यवहार शर्मा जी के सामने भी बहुत करवाहट के साथ प्रकट हो जाता है। 'तोहफ़ा' में पिंकू का गिड़गिड़ाना-'पापा, मेरी वर्ष गाँठ है, आज तो मुझे नहीं पीटोगे?' पिता अपने व्यवहार के लिए अनुतप्त होकर पिंकू को सीने से लगा लेता है। यही उस बच्चे के लिए सबसे बड़ा तोहफ़ा है। नागदा की ये दोनों लघुकथाएँ बहुत चर्चित रही हैं। पारिवारिक रिश्तों को पितृ-ॠण में और अधिक तल्खी से विश्लेलिष्त किया है, पिटने के बाद बच्चा जब मम्मी के कथन 'पापा गन्दे लड़के हैं' से सुर मिलाता है और बड़े बनने का अर्थ इस प्रकार समझता है-'फिर मैं भी पापा को पीटूँगा, है न मम्मी।' अभिभावक या जागरूक समाज खुद में कितना गुमराह है, इस तथ्य को माधव नागदा ने 'नैतिक शिक्षा' और 'अपना-अपना आकाश' में चित्रित किया है। जिनका सीधा-सा सन्देश है कि बच्चों को नहीं बल्कि अभिभावकों और शिक्षाजगत् के रहनुमाओं को नैतिक शिक्षा की ज़रूरत है। तभी बच्चों को जीवन का खुला आकाश मिल सकता है।
बालमनोविज्ञान पर बहुत लघुकथाएँ लिखी गई हैं; जिनमें से राजस्थान के लेखकों की लिखी कुछ लघुकथाओं का जिक्र किया गया है। स्थानाभाव के कारण बहुत-सी रचनाएँ छूट गई हैं। उन पर भविष्य में विस्तृत चर्चा की आवश्यकता बनी रहेगी। शिल्प की दृष्टि से कुछ रचनाएँ कमज़ोर हैं, तो कुछ में सहजता का अभाव है। केवल विषय प्रस्तुत कर देना लघुकथा नहीं है, उसकी प्रस्तुति भी उतनी ही महत्त्वपूर्ण है, जो उसको उत्कृष्ट रचना बनाने का प्रबल कारण बनती है। -0-