राजा का न्याय / जगदीशचन्द्र जैन
एक बार कोई किसान अपने किसी मित्र से बैल माँगकर ले गया, और शाम को काम खत्म होने पर उन्हें उसके बाड़े में छोड़ गया।
जब किसान बैल लाया तो उसका मित्र भोजन कर रहा था। उसने बैल देख लिये थे, मगर वह कुछ बोला नहीं।
थोड़ी देर बाद बैल बाड़े में से निकलकर कहीं चले गये और उनका पता न चला।
भोजन करने के पश्चात् मालिक ने देखा कि बैल नहीं हैं। उसने किसान को राजा के पास चलने को कहा।
रास्ते में उन्हें एक घुड़सवार मिला। घोड़ा अचानक उसे गिराकर भाग गया। घुड़सवार चिल्लाया, “पकड़ो! पकड़ो!” इतने में किसान ने घोड़े को इतनी जोर से लाठी फेंककर मारी कि वह उसके मर्मस्थान में लगी और घोड़ा मर गया। घुड़सवार भी किसान को पकड़कर राजा के पास लेकर चला।
रात को तीनों नगर के बाहर ठहरे। वहाँ कुछ नट भी ठहरे हुए थे। रात को लेटे-लेटे किसान सोचने लगा कि राजा मुझे आजीवन कारागार की सजा देगा, अतएव मैं क्यों न गले में फाँसी लटकाकर मर जाऊँ? यह सोचकर वह गले में फन्दा लगा बरगद के पेड़ से लटक गया। दुर्भाग्य से रस्सी टूट गयी। किसान नटों के नेता के ऊपर गिरा और नेता मर गया। अब नटों ने भी किसान को पकड़ लिया, और उसे वे राजा के पास ले चले।
राजा की सभा में पहुँचकर तीनों अभियोगियों ने अपने बयान दिये और राजा से प्रार्थना की कि अभियुक्त को उचित दण्ड मिलना चाहिए।
राजा ने अभियुक्त से सब हाल सुना। उसे सब मामले का पता चल गया।
उसने बैलों के मालिक से कहा, “अभियुक्त तुम्हारे बैल वापस देगा, परन्तु पहले तुम उसे अपनी आँखें निकालकर दो।”
घोड़े के मालिक से कहा, “अभियुक्त तुम्हें घोड़ा वापस देगा, परन्तु पहले उसे तुम अपनी जीभ काटकर दो।”
नटों से कहा, “अभियुक्त को प्राणदण्ड दिया जाएगा, परन्तु पहले वह बरगद के वृक्ष के नीचे लेट जाएगा, और तुममें से कोई गले में फाँसी लटकाकर वृक्ष के ऊपर से गिरने को तैयार हो जाए।”