राजा विक्रम और दो ब्राह्मणों की कथा / कथासरित्सागर
संसार में प्रसिद्ध उज्जयिनी नगरी महाकाल की निवासभूमि है। उस नगरी के अमल धवल भवन इतने ऊँचे-ऊँचे हैं कि देखकर लगता है जैसे कैलास के शिखर भगवान शिव की सेवा के लिए वहाँ आ गये हों। उस नगरी में यथा नाम तथा गुण वाला वीर विक्रम सिंह शासन करता था। एक बार वह अपने बुद्धिमान मन्त्री अमरसिंह के कहने से आखेट के लिए वन की ओर जा रहा था। नगर के बाहर एक सूने मन्दिर में उसने दो पुरुषों को गुपचुप बात करते हुए देखा। राजा को उन पर सन्देह हुआ, पर वह उन्हें अनदेखा करके आखेट के लिए बढ़ गया।
बहुत देर बाद अनेक हिंस्र पशुओं को मारकर अपने सेवकों के साथ जब वह उसी मार्ग से वापस लौटा, तो उस सूने मन्दिर में वे दोनों पुरुष फिर उसी तरह गुपचुप मन्त्रणा करते दिख गये। अब राजा ने अपने सेवकों को भेजकर उन्हें पकड़वाकर बँधवा लिया और अपनी सभा में उन्हें उपस्थित करने का आदेश दिया। दूसरे दिन आस्थान में राजा के सामने वे दोनों पुरुष उपस्थित किये गये। राजा ने पूछा, तुम लोग कौन हो और उस मन्दिर में आपस में क्या मन्त्रणा कर रहे थे? वे दोनों राजा से अभयप्रार्थना करने लगे। फिर उनमें से एक ने अपनी कथा इस प्रकार सुनायी - हे राजन्, इसी उज्जयिनी नगरी में करभक नामक एक ब्राह्मण रहता था। वह वेदविद्या में विशारद था। उसने महावीर पुत्र की प्राप्ति के लिए अग्नि की आराधना की।
मैं उसी का बेटा हूँ। मेरे माता-पिता बचपन में ही मुझे छोड़कर चल बसे। मैंने कुछ विद्याध्ययन किया, पर फिर द्यूत और शस्त्रविद्या में मन लगा लिया। इसी तरह मैं तरुण हो गया। गुरुजनों का मेरे ऊपर कोई अंकुश तो था नहीं इसलिए मैं अपने भुजबल से मत्त होकर इधर-उधर भटकता रहता था। एक बार मैं आखेट के लिए वन की ओर जा रहा था। मार्ग में विवाह करके लौटती हुई एक वरयात्रा (बारात) मुझे मिली। नववधू रथ पर बैठी हुई थी और बारातियों से घिरी हुई थी। मैं वरयात्रा की शोभा देखने के लिए ठिठक गया, तभी एक बिगड़ैल हाथी पता नहीं कहाँ से अपने सींखचे तोड़कर भागता हुआ उधर आ गया और वधू के रथ की ओर लपका। हाथी के डर से घबराकर सारे वरयात्री और दूल्हा भी नववधू को रथ पर बैठी छोड़ प्राण बचाकर भागे। मुझे उनकी कायरता पर बड़ा क्रोध आया। वह हाथी नववधू के रथ को तहसनहस करने ही वाला था, तभी मैंने उसे ललकारा। वह रथ को छोड़कर मुझे कुचलने के लिए बढ़ा। मैं उसे दौड़ाता हुआ दूर ले गया। रास्ते में मैं एक घनी पत्तियों वाले वृक्ष की टहनियों में जा छिपा, फिर उनमें से एक टूटी टहनी हाथी के मार्ग में रखकर पेड़ों के झुरमुट में ओझल हो गया।
क्रोध से पागल वह हाथी उस टहनी को कुचलता हुआ आगे बढ़ गया। मैं लौटकर नववधू के पास आया और उससे पूछा कि तुम ठीक से तो हो? नववधू बोली, मेरी अब क्या कुशल? मैं तो ऐसे कायर के पल्ले पड़ गयी। हाँ, यह कुशल अवश्य है कि मैं तुम्हें अक्षत रूप में देख रही हूँ। यह कायर तो अब मेरा पति नहीं हो सकता। तुमने मेरे प्राण बचाए, इसलिए मेरे भर्ता तो तुम ही हो। तुम इस वरयात्रा के पीछे-पीछे आओ। अवसर मिलते ही हम कहीं भाग चलेंगे।
मैंने उसकी बात मान ली। कुछ देर में उसका पति और उसे छोड़कर भाग जाने वाले वरयात्री लौट आये। वे लोग फिर आगे चल पड़े। मैं अलक्षित रहकर वरयात्रा के पीछे-पीछे चलने लगा। मैंने देखा कि नववधू अपने पति को पास में फटकने भी नहीं दे रही है। इस प्रकार हम लोग लोहनगर पहुँचे, जहाँ उसकी ससुराल थी। मैं नगर के बाहर एक मन्दिर में ठहर गया। वहीं मुझे मेरा यह मित्र मिला। हम दोनों तुरन्त एक-दूसरे से घुल-मिल गये। मैंने इसको अपने मन की सारी बात बता दी, इसने भी अपने सब रहस्य मेरे आगे खोल दिये। रहस्य खुलने पर कुछ संयोग ऐसा बैठा कि उसी नववधू की ननद से इसका प्रेम चल रहा था।
इसने कहा कि मैं अपनी प्रेमिका की सहायता से तुम्हारा काम भी बनवा दूँगा और अपना काम भी साध लूँगा। दूसरे दिन वह नववधू अपनी ननद के साथ मन्दिर में गयी। मन्दिर में हम दोनों पहले ही छिपकर बैठे थे। मन्दिर के भीतर आकर ननद ने पहले मेरे इस मित्र को अपनी भाभी का वेष पहना दिया और उसे साथ लेकर घर चली गयी। नववधू ने मेरे मित्र का पुरुषवेष पहन लिया और मैं उसे अपने साथ मन्दिर से बाहर निकाल लाया और उसे लेकर उज्जयिनी की ओर चल पड़ा। उसी रात को जब विवाह की धूमधाम के कारण लोग मद्यपान के कारण मत्त होकर सो गये, तो मेरे मित्र के साथ उसकी प्रेमिका भी घर से निकल भागी और उज्जयिनी में आकर ये लोग यहाँ हमको मिल गये। हे राजन्, यही हमारी कथा है। हम दोनों मित्रों की प्रेमिकाएँ भाभी और ननद हमारे साथ हैं।
हम लोग उज्जयिनी में रहने का ठौर खोज रहे हैं और अपनी प्रेमिकाओं के परिजनों के भय से त्रस्त भी हैं। आप हमारे साथ, जैसा चाहें वैसा करें। राजा उन दोनों की यह कथा सुनकर बड़े प्रसन्न हुए और बोले, घबराओ मत। मैं तुम लोगों के उज्जयिनी में निवास की व्यवस्था करूँगा और जीविका की भी। इतनी कथा सुनाकर राजा ने रानी से कहा, इस प्रकार मनुष्य साहस करे, तो कहाँ से कहाँ पहुँच सकता है और दुस्साहस के कारण अधोगति को भी पा सकता है। मनुष्य को अपने कर्मों का फल भोगना ही पड़ता है। मुझे यही लगता है कि अपने कर्मों के कारण कोई देवजाति का प्राणी ही तुम्हारे गर्भ में आया है।
कुछ समय बाद रानी तारादत्ता ने एक अलौकिक रूप वाली कन्या को जन्म दिया। राजा कलिंगदत्त को पुत्र की चाह थी। कन्या के जन्म का समाचार सुनकर उनका मन खिन्न हो गया। राजा ने अपनी सद्यःजात कन्या का मुँह भी नहीं देखा। दिन भर वे उदास बैठे रहे। तब राजकुल में सबसे पूज्य और वयोवृद्ध एक ब्राह्मण ने उन्हें समझाते हुए कहा, महाराज! कन्या तो पुत्र से भी उत्तम होती है। वह इस लोक और परलोक दोनों में कल्याण करती है। पुत्रों का क्या? राज्य के लोभ में बन्दरों की तरह वे पिता को नोच खाते हैं। इस प्रकार बड़े-बूढ़ों के समझाने पर राजा का जी हल्का हो गया। कन्या का नाम कलिंगसेना रखा गया। सागर की नन्ही लहरों की तरह वह अपनी किलकारियों से सारे राजभवन और उसके बाहर के राजोद्यान को आनन्दित कर देती। फिर वह थोड़ी बड़ी हुई तो पिता के प्रासाद में, अन्तःपुर में प्रमदोद्यान में और राजकुल के दूसरे महलों में कूदती फुदकती फिरती। एक बार वह राजप्रासाद की छत पर खेल रही थी।
आकाश से जाती हुई सोमप्रभा ने देख लिया। सोमप्रभा मय दानव की बेटी थी। उसे देखते ही सोमप्रभा का जी जुड़ा गया। उसका मन हुआ कि इस सुन्दर राजकन्या से मित्रता कर ले। वह अदृश्य होकर छत पर उतरी और फिर मानवी के रूप में कलिंगसेना के आगे प्रकट हो गयी। कलिंगसेना उसे देखकर बड़ी प्रसन्न हुई। दोनों घुलमिलकर बातें करने लगीं। दोनों बतरस में डूबी एक-दूसरे का हाथ हाथ में लिये बैठी थीं। कलिंगसेना ने कहा, तुमने अपना नाम, कुल और घर का अता-पता तो बताया ही नहीं। सोमप्रभा ने कहा, सब बताऊँगी। तुम ठहरीं इतने बड़े वंश की राजकुमारी। मुझे तो यही शंका है कि कहीं कभी किसी बात पर तुम कुपित होकर मेरी मित्रता न त्याग दो। राजघराने के लोगों से मैत्री निभाना बड़ा कठिन है। इस विषय में मैं तुम्हें एक कहानी सुनाती हूँ, सुनो।