राजेन्द्र यादव से बातचीत / लालित्य ललित
प्रख्यात कथाकार, आलोचक और हंस के संपादक श्री राजेन्द्र यादव जी से लालित्य ललित की विशेष बातचीत
लालित्य ललित: क्या 'हंस' की कोई योजना है? आने वाले समय में? प्रवासी साहित्य को अगर स्थान देने की बात करें तो?
राजेन्द्र यादव: प्रवासी साहित्य पर हमने 'हंस' का विशेषांक भी निकाला था। और आपको ध्यान हो हम जो अपना वार्षिक कार्यक्रम करते हैं। उसमें इस विषय को लेकर बड़ी सार्थक बातचीत का आयोजन किया था।
लालित्य ललित: आने वाले लेखकों में वे कौन लोग हो सकते हैं जो पढ़े जायेंगे। यह ठीक है कि अभिमन्यु अनंत जो काफी सीनियर हैं; वे अपनी जगह ठीक है। पर नयों में किस में संभावना देखी जा सकती है?
राजेन्द्र यादव: मुझे लगता है कि नए लोग वहाँ से कम आ रहे हैं। युवा ऊर्जा वहाँ दूसरी-दूसरी दिशा में जा रहे हैं। हिन्दी में अभी कितने लिखते हैं सही डाटा मुझे मालूम नहीं। और उनमें कितने लिखते हैं या लेखक हैं! कह नहीं सकता। पर यह जो दूसरा डायसपोरा है। पश्चिमी देशों का....इनमें संभावना मुझे ज़्यादा लगती है।
लालित्य ललित: कहना चाहिए कि जो प्रवासी लेखन है उनकी समस्याएँ और चिंताएं क्या हमारी जैसी हैं?
राजेन्द्र यादव: हाँ ।
लालित्य ललित: उनका जो लेखन है क्या वो मन को छूता है ?
राजेन्द्र यादव: हाँ, वह हमारा ही लेखन है। जैसे मान लो एक आदमी बिहार का रहने वाला है और वह मुम्बई में आ कर किस तरह एडजस्ट करता है। लगभग उसी तरह की स्थिति बाहर भी है। लंदन में जो भी द्वन्द्व, स्थितियाँ या समस्याएं आपको मिलती हैं वह आपके लेखन का विषय होंगी। उधर वालों ने बहुत लिखा है। पंजाबी बंधु कनाडा में बहुत गए हैं। उन्होंने खूब लिखा है। सरदार लोग; इनमें भी संघर्षशीलता दिखती है। तो मैं यह मानता हूँ कि हमारे यहाँ साहित्य में रोमांटिक एक मापदंड था; छायावादी साहित्य का; सत्यं शिवं सुंदरम का। है ना! 'सत्यं-शिवं-सुंदरम।
मुझे यह लगता है कि किसी ने भी इसका ठीक से विश्लेषण नहीं किया। कहने को तो बड़ी अच्छी बातें हैं। बड़ा सुंदर साहित्य था। लेकिन आज का लेखक पूछता है कि किस का सत्य है! आप का सत्य या मेरा सत्य!
दलित का सत्य या एक संपन्न का सत्य, शिव किस के पीछे है आप तो इलीट वर्ग है क्या आपके पीछे या मेरे पीछे! इसी तरह सुंदर की परिभाषा भी अलग-अलग है। संजीव की कहानी थी 'दुनिया की सबसे खूबसूरत - औरत' उसमें एक सुंदर स्त्री का सौंदर्य देखा। सौंदर्य को व्यापक करने की ज़रूरत है क्योंकि हमारे यहाँ सौंदर्य की अवधारणा मुख्य रूप से उत्तर भारत के लिए है। या गोरे रंग की बात करूं तो! हमारे यहाँ गोरे रंग की लड़की अगर दिख जाए तो कहेंगे अरे! बिल्कुल 'मैम जैसी है'। मैम माने विदेशी। उस धारणा से दक्षिण की तो कोई स्त्री सुंदर हो ही नहीं सकती। क्योंकि वो सांवली है, काली है। लेकिन लोग कहते हैं कि असली सौंदर्य वही है। लोग सुंदरता को मानते हैं। इसलिए इन धारणाओं को विशेष चश्मे से देखने की आवश्यकता है और अब जो नई धारणा बन रही है। वो है यातना, संघर्ष और जो 'विजन' से जुड़े हैं। कहना यह चाहिए बिना विजन के आप साहित्य नहीं लिख सकते। अपना संघर्ष नहीं व्यक्त कर सकते। विरोध व्यक्तिगत हो, सामाजिक हो या अपने समय का हो। विकासशील देश बिना विजन के आगे कैसे बढ़ेगा? कोई व्यक्तिगत 'एफर्ट है क्या'? अर्थ सेलर (लक्ष्मी निवास मित्तल) या दूसरे लोग आगे बढ़ गए। व्यक्तिगत रूप से कहूँ तो संसार की तीसरी शक्ति बनने जा रहा है भारत। हमारे सामने सबसे बड़ा प्रमाण है।
लालित्य ललित: मुझे लगता है कि हमारे यहाँ जो या जितने भी पूंजीपति है; जैसे आपने मित्तल का नाम लिया; अंबानी है हमारे सामने। क्या इन लोगों का दायित्व नहीं बनता कि अपनी भाषा को समृद्ध करने का प्रयास करें? या अच्छा साहित्य प्रकाश में लाया जाए?
राजेन्द्र यादव: मेरे ख्याल में, इन लोगों की वो बैक ग्राउंड ही नहीं है। इन लोगोें में कांवेंट से आ रहे हैं। और जो है वे शायद इतने समृद्ध ही नहीं है कि अपनी भाषा के लिए कुछ करें। अब जैसे मैं बताऊँ । अशोक वाजपेयी ने 'रजा फाउंडेशन बनाई' बहुत अच्छे कार्यक्रम करने की योजना है । उनके लिए 5-10 करोड़ रुपए एकत्र कर कोई भी ट्रस्ट बना लेने की ज़रा भी दिक्कत नहीं है। वे बना सकते हैं। पूंजी-पति अपने व्यापार को चमकाने में तो अथाह पूंजी लगा सकते हैं; लेकिन वे हिन्दी को क्यों देंगे? संगीत की दुनिया देख लीजिए; पैसा कहाँ नहीं है!
लालित्य ललित: जैसा सरकार ने बजट में अभी केंद्र कर्मचारियों को 20,000 की छूट दी है, उस राशि को 80 जी के तहत साहित्यिक पत्रिकाओं के लिए नहीं दिया जा सकता है जैसे किसी ट्रस्ट को राशि देकर आयकर से बचा जा सकता है।
राजेन्द्र यादव: देखिए साहित्यकार, लेखक और कवि थोड़ा गंभीर होता है। यह उसकी प्रतिष्ठा के अनुरूप नहीं है कि वह जा कर किसी विदेशी या पैसे वाले से कहें; यह अलग बात है अगर वह सहयोग स्वेच्छा से करें। यहाँ भी कौन से पैसे वाले है जो उदार है। डालमिया या जैन जिन्होंने भारतीय ज्ञानपीठ की स्थापना की हो। ऐसे चार-पाँच ही लोग हैं। दिक्कत यही है कि संपन्न वर्ग से दूर हैं इस तरह के सरोकार। और जो मिडिल कलास में है लेखक लोग इनका उनसे संवाद कैसे हो?
लालित्य ललित: लेकिन यादव जी, नई पीढ़ी से आपको क्या उम्मीद है ?
राजेन्द्र यादव: नई पीढ़ी से हमारे यहाँ भी हालत विचित्र है। नए बच्चे हिन्दी कहाँ, अंग्रेज़ी ही जानते हैं। हमारे यहाँ कई ऐसे स्कूल भी है जहाँ हिन्दी बोलना पसंद ही नहीं किया जाता। आपने सुना होगा। अंग्रेज़ी का वर्चस्व है।
आप देखेंगे कि कुछ समय बाद अंग्रेज़ी साहित्य में एक से एक धाकड़ साहित्य के लेखक दिखाई देने लगेंगे। हालांकि वे मुझे बहुत गंभीर नहीं लगते। ऐसा बहुत ही महत्त्वपूर्ण साहित्य उन्होंने नहीं रचा। लेकिन बाज़ार पर उनका कब्ज़ा है।
लालित्य ललित: अगर मैं कहूँ कि विक्रम सेठ कोई किताब लिखता है। या हैरी पार्टर के दीवाने रात से बुक स्टोर्स के बाहर लाइनें लगा लेते हैं। हिन्दी का ऐसा कौन सा लेखक है जिसके लिए पाठक पागल है?
राजेन्द्र यादव: एक भी नहीं। मुझे लगता है कि यह स्थिति पागलपन की, किसी भी भारतीय भाषा में नहीं है। यह जो हमारा सोचना है कि लिखित साहित्य जो लोकप्रिय है और स्तर को बनाए हुए है। यह इस बात पर निर्भर करता है कि लिखने वाले कितने हैं? लिखने पर जीविका चलाने वाले कितने हैं? हमारे ज़माने में थे। अमृतलाल नागर, भगवतीचरण वर्मा थे जो विशुद्ध लेखक थे। लेकिन शायद हम लोग भी उसी में शामिल है; जैसे मैंने कोई नौकरी नहीं की। मोहन राकेश थे।
लालित्य ललित: कभी भी नौकरी नहीं की?
राजेन्द्र यादव: दो-महीने या चार-महीने।
लालित्य ललित: सरकारी नौकरी की?
राजेन्द्र यादव: नहीं, मैंने दो-तीन चीज़ों को तय कर लिया था कि लेखन की स्वतंत्रता के लिए आर्थिक स्रोत जो है उसको पहचानना बड़ा ज़रूरी है। अगर जैसे मैं पुरस्कारों के खिलाफ हूँ। मैंने लिखा भी है पिछले दिनों। अभी एक फैलोशिप मुझे मिल रही थी। उसको मैंने मना कर दिया। सरकारी फैलोशिप थी। तो मैं यह मानता हूँ कि हमेें यह देखना होगा कि कितने लेखक है भारतीय भाषाओं में 40 या 50। जो सिर्फ लिखने पर टिके हैं । कोई तो कहीं-कहीं नौकरी करते हैं।
लालित्य ललित: क्या कभी कुछ ऐसे श्रद्धालुजन भी आपसे मिले हों जिन्होंने गुप्तदान से 'हंस' की सेवा करने की पहल की हो?
राजेन्द्र यादव: नहीं ऐसा तो कुछ याद नहीं पड़ता। हाँ किसी संस्था ने अगर मदद की तो वह पच्चीस-बीस हज़ार रूपए से ज़्यादा की नहीं की। केवल मदद की थी हमारी प्रभा खेतान ने।
लालित्य ललित: हाँ, आपने काफी पहले अपने संपादकीय में लिखा था। यादव जी कितना समय आप लिखने-पढ़ने को देते हैं।
राजेन्द्र यादव: सुबह जब पाँच बजे उठता हूँ । पहले चार बजे उठ जाता था। तीन घंटे अपने को देता हूँ । उसके बाद मैं 12 बजे के लगभग यहाँ (हंस कार्यालय) आ जाता हूँ । और मैंने मित्रों से कह रखा है कि मैं ढाई बजे के बाद 'फ्री' होता हूँ । उस दौरान रचना देखना, डाक देखना या रचनाओं की छंटाई करना शामिल होता है।
लालित्य ललित: एक महीने में आप कितनी कहानियाँ पढ़ लेते हैं?
राजेन्द्र यादव: आठ-दस रचनाएँ रोज़ आती हैं। उसमें कहानियाँ भी होती हैं, कविताएँ भी होती हैं। महीने में चार-पाँच सौ कहानियाँ तो आ ही जाती हैं। फिर उन्हें पढ़ना पड़ता है।क्योंकि मेरी आँखों में समस्या है। डायबेटिक हूँ। इसलिए यहाँ से जाने के बाद अगर मैं खाली हूँ तो मैं पढ़ता रहता हूँ ।
लालित्य ललित: डायबटीज़ की आपने बात कही। तो एक शीशी में काली मिर्च और काला नमक पचास प्रतिशत के अनुपात में मिला लें। 'शूगर' नार्मल हो जाएगी। चाय पीने से पहले एक चम्मच मिला लें तो 'शूगर' कंट्रोल हो जायेगी।
राजेन्द्र यादव: काली मिर्च और काला नमक; उसे चाय में डाल लें। अब पच्चीस साल हो जायेंगे 'हंस' निकालते। मुझे संतोष इस बात का है कि व्यक्तिगत प्रयास से 'हंस' को खड़ा किया। आज सामूहिक प्रयास से 'हंस' चल रहा है। कोई चंदा दिलाता है, कोई बनवाता है। इस तरह मित्रों के सहयोग से 'हंस' चल रहा है।
लालित्य ललित: कहना चाहिए कि 'हंस' सबकी या कहेें कि अपनी पत्रिका है।
राजेन्द्र यादव: लगभग, एक बात जो गलत हो रही है पिछले 20-25 साल से उसका जो संपादकीय है वह मेरे लिए जान की बला बना हुआ है। जब-जब मैं सोचता हूँ कि संपादकीय से अपने को 'विड्रो कर लूं'। रचनाएँ देख लूं बस। लेकिन तब-तब धमकी आती है जैसे होता है। मुझे याद आ रही है एक घटना... श्रीराम सेंटर में एक थी मिसेज़ आचार्या।
लालित्य ललित: बहुत पहले की बात है...
राजेन्द्र यादव: हाँ, बहुत पहले की बात है। पाँच साल होने को आए। तो मिसेज़ आचार्या किसी संपन्न घर की महिला थी। उनके बच्चे बाहर सेटल हो गए थे। तो उसने सोचा कि अब आगे क्या करें? तो उन्होंने त्रिवेणी में कैंटीन चलाई । और वहाँ से श्रीराम सेंटर में किताबों का कार्नर शुरू कर लिया। उनका पढ़ने का शौक था। जब मैं उनसे मिलता था, कभी तो 'हंस' के संपादकीय की बड़ी तारीफ करती थी। एक बार तो उन्होंने कहा कि हमारी 100 कापियाँ कर दो। 'हंस' निकलता था वहाँ से, रंगकर्मी, पाठक कई तरह के लोग जुटते थे वहाँ पर।
हमने कहा कि यह संपादकीय लिखना हमारी जान पर रोग हो गया है। इससे हम मुक्त होना चाहते हैं। मैं सोचता हूँ कि अब संपादकीय लिखना बंद कर दूँ । उन्होंनें कहा - तकलीफ है तो बंद कर दो; बहुत अच्छी बात है लेकिन उसके बाद मेरी शाप में 'हंस' ना भेजना; इसे भी बंद कर दो।
लालित्य ललित: क्या बात है? यह हुई ना बात! यहीं तो आपका जादू है।
राजेन्द्र यादव: (हँसते हुए) मेरा ख्याल है कि आठ-दस हज़ार लोग ऐसे हैं जो सिर्फ संपादकीय ही पढ़ते हैं।
लालित्य ललित: बड़ी बात है...
राजेन्द्र यादव: मैं लिखूँ या बंद करूँ तो लगभग आत्महत्या होगी। उसके चक्कर में मुझे लिखना पड़ता है।
लालित्य ललित: ज़रूरी है; जैसे आपने अपने संपादकीय की बात की। प्रभात जोशी, अनिल नरेंद्र के संपादकीय भी पहले पढ़ने की ललक शुरू से पाठक के मन में रही है।
राजेन्द्र यादव: यह पाठकों का स्नेह है जो निरंतर हमें मिल रहा है। यही शक्ति है जो हमें लिखने को प्रेरित करती है।