राज्यप्रबंध शिक्षा / भाग-2 / टी. माधवराव / रामचंद्र शुक्ल

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सुंदर शासन के संबंध में परामर्श देते हुए मैं वेथल नामक एक यूरोपियन ग्रंथकार की बातों की ओर ध्यान दिलाता हूँ जो 18वीं शताब्दी में हुआ है और जिसके उपदेश मनुष्य मात्र के, विशेष कर राजाओं के, बहुत काम के हैं। नीचे उसके कुछ विचार उध्दृत किए जाते हैं:-

“समाज को चलानेवाले बुद्धिमान् राजा को यह अच्छी तरह समझ रखना चाहिए कि उसके हाथ में राज शक्ति केवल राज्य की रक्षा और सारी प्रजा की भलाई के लिए दी गई है। राजकाज चलाने में उसे यह न समझना चाहिए कि जो कुछ है सो हमारे लिए ही तो है। उसे अपना ही सन्तोष व अपना ही लाभ न देखना चाहिए बल्कि अपनी सारी विद्या, बुद्धि राज्य व प्रजा के हित में लगानी चाहिए जो उसके अधीन है।

“पर बहुतेरे राज्यों में चापलूसी का पाप बहुत दिनों से घुसा है जिसके कारण यह मूल मंत्र ध्यान में नहीं रहने पाता। बहुत से जूती चाटनेवाले दरबारी अहंकारी राजाओं के मन में यह जमा देते हैं कि जनसमूह उनके लिए बना है, वे जनसमूह के लिए नहीं बनाए गए हैं। ऐसे राजा राज्य को अपनी बपौती व निज की सम्पत्ति समझने लगते हैं। वे प्रजा व जनसमूह को समझते हैं कि भेड़ बकरी के झुण्ड हैं, इनसे जिस प्रकार हो रुपया निकालो और मनमानी मौज उड़ाओ। इसी कारण अहंकार, असन्तोष और विरोध से भरे हुए सत्यनाशी यद्ध होते हैं। इसी कारण वे खलनेवाले टैक्स व कर लगाए जाते हैं जिनकी आमदनी सत्यनाशी ठाट बाट व भोग विलास में खपती है अथवा कृपापात्रों व रखैली स्त्रियों पर फूँकी जाती है। इसी कारण अच्छी-अच्छी जगहें अयोग्य कृपापात्रों को मिलती हैं, योग्यता और गुण का कुछ भी विचार नहीं किया जाता तथा जिन बातों में राजाओं को रुचि नहीं होती वे दीवन मुसद्दियों पर छोड़ दी जाती हैं। ऐसे अभागे राज्य में कौन कह सकता है कि राजशक्ति सर्वसाधारण की भलाई के लिए प्रतिष्ठित है? एक महान् राजा अपने सतोगुण की वृत्तियों तक से चौकस रहता है, कुछ ग्रंथकारों के समान मेरा यह कहना नहीं है कि सर्वसाधारण का सतोगुण राजाओं के लिए गुण नहीं है। ऐसा सिद्धान्त तो गंभीर विचार न करनेवाले राजनीतिज्ञों का है। भलाई, मित्रता, कृतज्ञता आदि राजा के लिए भी गुण ही हैं पर बुद्धिमान राजा ऑंख मूँदकर इन्हीं की प्रेरणा पर नहीं चलता। वह इन गुणों को धारण करता है और परस्पर के (ख़ानगी) व्यवहार में उनका पालन करता है पर राजकाज के व्यवहार में वह केवल न्याय और पक्की राजनीति का ध्यान रखता है। क्यों? इसलिए कि वह जानता है कि 'राज्य मुझे समाज के सुख के लिए दिया गया है अत: मुझे राजशक्ति का प्रयोग करने में अपना सुख व सन्तोष न देखना चाहिए।' वह अपनी भलमनसाहत को बुद्धि के अधीन रखता है। वह अपने मित्रों को जो लाभ पहुँचाता है वह निज की ओर से (राज्य की ओर से नहीं)। वह राज्य की जगहों और नौकरियों को योग्यता के अनुसार देता है। राज्य की ओर से वह जो कुछ इनाम देता है वह राज्य की सेवा के लिए, सारांश यह कि वह सर्वसाधारण की शक्ति सर्वसाधारण ही की भलाई में लगाता है।

“इसी शक्ति के सहारे पर राजा कानून व शास्त्र की मर्यादा का रक्षक होता है। जबकि उसका यह धर्म है कि वह उस मर्यादा को भंग करनेवाले प्रत्येक धृष्ट मनुष्य को रोके तब क्या उसके लिए यह उचित होगा कि वह स्वयं उसे पददलित करे?

“जब तक जो कानून व नियम हैं तब तक राजा को उनका पालन और उनकी रक्षा करनी चाहिए। वे ही सर्वसाधारण की शान्ति के मूल और राजशक्ति के दृढ़ आधार हैं। जिस अभागे राज्य में मनमानी शक्ति का अधिकार है वहाँ किसी बात का ठिकाना नहीं, बलव, उत्पात जो न चाहे सो हो जाए। अत: राजा का धर्म और लाभ इसी में है कि वह कानून व नियम का पालन करे, स्वयं उसके अधीन हो। यह न कहना चाहिए कि राजा राज्य में प्रचलित कानून के वश में नहीं है। सब जातियों में ठीक इसका उलटा सिद्धान्त बर्ता जाता है अर्थात् यह कि राजा कानून के अधीन है। यद्यपि चापलूस समय-समय पर इस (सिद्धान्त) के विरुद्ध चक्र चलाते रहते हैं पर बुद्धिमान् राजा देवता के समान उसका आदर करते हैं।”

अब मैं मनु के दो एक वक्य उध्दृत करता हूँ उनका वचन है, “राजा को प्रजा का पालन उसी प्रकार करना चाहिए, जैसे पिता-पुत्र का करता है।”

“राजा भले मानसों को उचित पुरस्कार और दुष्टों को उचित दण्ड दे। न्याय का उल्लंघन उसे कभी न करना चाहिए।”

“जो राजा दण्ड के योग्य मनुष्य को छोड़ता है और दण्ड के अयोग्य मनुष्य को दण्ड देता है वह अन्यायी है। न्यायी वही है जो शास्त्र की व्यवस्था के अनुसार दण्ड देता है।”

इन सबसे प्रकट है कि राजाओं को कठिन धर्म का पालन करना रहता है, उन्हें बड़े-बड़े सिद्धान्तों और नियमों पर चलना रहता है। उन्हें वनैले पशुओं की तरह मनमाना नहीं चलना रहता। उनका सबसे बड़ा कर्तव्य उस प्रजा के सुख की वृद्धि करना है जिसके ऊपर परमात्मा ने उन्हें प्रतिष्ठित किया है।

प्रजा के सुख की वृद्धि करना इस बात को मोटे तौर पर समझ लेना तो बहुत सहज है पर आजकल के समय में इसको पूरा कर दिखाना गहरे मनन और स्वार्थ त्याग का काम है, क्योंकि आजकल लोगों को न जाने कितनी तरह की भलाइयाँ चाहिए और शासन पद्धति भी एक ख़ासी विद्या हो गई है जो बिना सीखे नहीं आती। सुंदर शासन के नियमों और सिद्धान्तों को ध्यानपूर्वक सीखना, पढ़ना पड़ता है। अस्तु, राजाओं के लिए इतना ही बस नहीं है कि वह यह कहकर कि, “मैं जानता हूँ कि प्रजा का पालन करना मेरा धर्म है” बिना कुछ सीखे पढ़े अपनी मनमानी मौज व समझ के अनुसार जो जी में आए करने लगे। बात यह है कि राजा को भी अपना काम सीखना पड़ता है और उसके गूढ़ नियमों ओर सिद्धान्तों के अनुसार उसे करना पड़ता है। जो राजा इन नियमों और सिद्धान्तों को नहीं मानता और उन पर नहीं चलता वह उस माँझी के समान है जो बिना पतवर की नाव चलाता है।

मैं आगे उन पत्रों के कुछ अंशों को दूँगा जो अवध की नवाबी से संबंध रखते हैं।

मैंने इस बात पर बहुत जोर दिया है कि प्रजा के जीवन, धन आदि की रक्षा करना राजा का धर्म है और इस धर्म के पालन के उपाय भी बतलाए हैं। अवध के नवाब इस बात में बहुत चूके और यही कारण था कि उनका राज्य अंग्रेजी राज्य में मिला लिया गया।

अवध के रेज़िडेंट ने लिखा है, “मैंने बहुतेरा कहा पर हज़रत सलामत (नवाब वजिद अलीशाह) राजकाज के सब व्यवहार उन्हीं निकम्मे और अयोग्य कुपात्रों के ऊपर छोड़े हुए हैं, अपना सारा समय भोग विलास और धूम धड़ाके में बिताते हैं और अपने उच्च कर्तव्य के पालन में वैसी ही बेपरवही दिखाते हैं। उनके राज्य के सब भागों में धन प्राण की वैसी ही अरक्षा बनी है और सब मुहकमों में वैसा ही कुप्रबंध और वैसी ही अंधार फैली हुई है।”

दूसरे स्थान पर रेज़िडेंट फिर लिखते हैं, “यह कोई अचम्भे की बात नहीं है कि अधिकार पाकर जवान नवाब साहब क्षुद्र लोगों के साथ में पड़कर और उतनी ही शिक्षा पाकर जितनी देशी राजकुमार पाते हैं यह समझने लगें कि संसार में मुझे जो चाहें सो करने का सबसे बढ़कर सुविधा मिला है और बादशाह की इच्छा को रोकनेवाला कोई नियम व बंधन नहीं।”

आगे चलकर रेज़िडेंट बड़े लाट साहब को लिखते हैं, “अदालत और कहीं तो हैं नहीं, राजधनी में हैं, सो भी किसी काम की नहीं।”

इसका फल यह था कि अवध में न्यायालय की दशा बहुत ही बुरी थी। देखना चाहिए कि अंग्रेजी सरकार ने एक मामले की ओर कैसा ध्यान दिया जिसमें एक आदमी मेल मुलाकात के ज़ोर से सजा से साफ बच गया यद्यपि इस बात का पक्का सबूत था कि उसने हत्या की है। उस अवसर पर भारत सरकार ने लखनऊ के रेज़िडेंट को इस प्रकार लिखा:-

“आप बादशाह से भेंट करें। आप हज़रत सलामत को सूचित करें कि लखनऊ में अभी भी जो यह घोर अन्याय हुआ है कि साफ सबूत रहने पर भी हत्यारा छोड़ दिया गया इस पर गवर्नर जनरल साहब बहुत ही असंतुष्ट हैं। आप यह भी कहें कि बादशाह के राज्य में ऐसे मामले बराबर हो रहे हैं जिनका फल यही होगा, जैसा कि उन्हें कई बार चेताया जा चुका है, कि बादशाही अधिकार बिलकुल ले लिया जाए।”

रेज़िडेंट ने यह भी शिकायत की कि अवध में न्यायालयों की ठीक व्यवस्था न होने के कारण अंग्रेजी सरकार की जो प्रजा वहाँ है वह भी कष्ट पा रही है तब अंग्रेजी सरकार चुप नहीं रह सकती।

रेज़िडेंट ने साफ लिखा कि, “अवध में पुलिस का कोई ठीक प्रबंध ही नहीं है। वर्तमान राज्य प्रणाली में अवध में धन और प्राण की रक्षा का लेश भी नहीं है। देश के इस भाग में बिना बहुत से हथियारबंद आदमी साथ लिए लोगों का रास्ता चलना असम्भव है।”

मैं समझता हूँ कि मैंने जितनी बातें लिखी हैं और जितने दृष्टान्त सामने रखे हैं उनसे यह बात मन में अच्छी तरह बैठ गई होगी कि अच्छी पुलिस रखना और अच्छे न्यायालयों का स्थापित करना कितना आवश्यक है। इसके बिना धन, प्राण और स्वतंत्रता की रक्षा हो नहीं सकती। और बिना इस रक्षा के राज्य रह नहीं सकता, किसी न किसी दिन जाएगा, चाहे जल्दी या देर में।

मैं देशी राज्यों का बड़ा भारी शुभचिन्तक हूँ। मैं चाहता हूँ कि वे बराबर बने रहें। अत: मेरा कहना है कि राजा-महाराजा इन सब बातों को स्वयं ही मन में धारण करके न रह जाएँ बल्कि जैसे हो तैसे इन्हें अपनी सन्तानों को भी बतलावें और साथ ही ऐसा उपदेश दें कि उनकी सन्तान भी अपनी सन्तानों को इसी प्रकार बतलाए जिसमें इन बातों का तार न टूटे, पीढ़ी दर पीढ़ी ये बातें मन में बैठती रहें। देशी रजवाड़े जब तक अपने में धन, प्राण और स्वतंत्रता की रक्षा बनाए रखेंगे तब तक वे अचल रहेंगे।

स्वास्थ्य- राज्य का दूसरा बड़ा कर्तव्य जहाँ तक हो सके प्रजा के स्वास्थ्य की रक्षा करना है। समाज के प्रत्येक व्यक्ति का स्वास्थ्य अधिकतर उसी पर निर्भर है, अर्थात् उसके भोजन, वस्त्र, व्यायाम, चिकित्सा आदि पर। हर एक को भला चंगा रहने की स्वाभाविक इच्छा होती है इससे वह अपने स्वास्थ्य का ध्यान रखता ही है। पर सर्वसाधारण के स्वास्थ्य से संबंध रखनेवाली बहुत सी ऐसी बातें हैं जिनका प्रबंध एक-एक व्यक्ति नहीं कर सकता। वे ऐसी बातें हैं जिनका प्रबंध राज्य ही की ओर से हो सकता है। यदि राज्य उनका प्रबंध अपने हाथ में न लेगा तो उनका प्रबंध होगा ही नहीं। मैं इन बातों में जो मुख्य हैं उन्हें बतलाता हूँ।

जहाँ बहुत से लोग पास पास बसते हैं, जैसे शहरों और कस्बों में वहाँ सफाई का सबसे पहले ध्यान रखना चाहिए। गलियों में से गलीज और कूड़ा करकट दूर होना चाहिए। नल दुरुस्त रहने चाहिए। अच्छी ताज़ी हवा खूब आनी चाहिए, इत्यादि। यही सब स्वास्थ्य प्रबंध कहलाता है। इसके सिवाय लोगों के आराम, सुबीते और रक्षा आदि के लिए भी अनेक प्रबंध रहें। जैसे गाड़ी, घोड़े आदि आने जाने के लिए अच्छी-अच्छी सड़कें हों। सड़कों पर छिड़काव हो, रोशनी हो। आग बुझाने की कलें हर समय तैयार रहें।

सर्वसाधारण के स्वास्थ्य के लिए एक और आवश्यक बात यह है कि लोगों को नित्य के खर्च के लिए साफ और काफी पानी मिले। गरम देशों के लिए तो यह एक बड़ी भारी नियामत है। जो राजा-महाराजा इसका प्रबंध करेंगे उन्हें बहुत दिनों तक लोग आशीर्वाद देंगे।

सर्वसाधारण की स्वास्थ्य रक्षा के लिए यह भी आवश्यक है कि नगर की घनी बस्ती में रहने वाले लोगों के लिए कुछ खुली और सुहावनी जगहें हों जहाँ वे गाड़ी घोड़े पर हवा खा सकें व पैदल टहल सकें और जहाँ वे संध्या सवेरे अपने अवकाश का समय बितावें जिससे उनके स्वास्थ्य को लाभ पहुँचे।

सर्वसाधारण की स्वास्थ्य रक्षा के लिए टीका लगाने का प्रबंध भी होना चाहिए। जिससे लोग शीतला के भयानक रोग से बचे रहें।

लोगों की स्वास्थ्य रक्षा का एक उपाय यह भी है कि बस्तियों के बीच में अस्पताल और औषधालय स्थापित हों जहाँ रोगियों को सहज में दवाएँ मिल सकें, उनके रोग की देखभाल हो सके।

जिस राज्य को अपनी प्रजा के सुख की चिन्ता होती है वह इन सब बातों का प्रबंध करता है। ऐसी बातों में जो रुपया खर्च होता है वह सफल ही होता है। प्रजा का यह स्वत्व है कि उसके स्वास्थ्य की इस प्रकार रक्षा की जाए। जो राजा अपनी प्रजा का पालन करता है वह लोगों की स्वास्थ्य रक्षा का पूरा प्रबंध रखता है।

इस संबंध में मुझे यही कहना है कि राज्य की ओर से लोगों का स्वास्थ्य बढ़ाने, रोग दूर करने और क्लेश हटाने के लिए जो कुछ किया जाएगा वह सुराज्य का लाभ समझा जाएगा। अच्छा राजा सर्वसाधारण के स्वास्थ्य का बहुत ध्यान रखता है जो कि सर्वसाधारण के सुख का प्रधान अंग है और राजा का प्रधान कर्तव्य है।

पर इस बात का भी ध्यान रहना चाहिए कि सर्वसाधारण का स्वास्थ्य बढ़ाने की चिन्ता में कहीं राजा-महाराजा व्यर्थ एक-एक आदमी की स्वतंत्रता में न बाधा डालें। स्वतंत्रता एक बड़ी अनमोल वस्तु है। किसी पर यह ज़ोर न डालना चाहिए कि तुम झख मारकर यही भोजन करो, यही दवा खाओ, या यहीं कसरत करो। इन सब बातों को तो हर एक आदमी अपने आप समझ बूझ लेगा। राज्य की कार्यवाई तो उन्हीं मामलों तक रहनी चाहिए जिनमें मोटे तौर पर सबकी भलाई है, जैसे सफाई कराना, अच्छे नल लगवना, साफ पानी पहुँचाना, अस्पताल खोलना, टीका लगाने का प्रबंध करना इत्यादि, इत्यादि। ऐसे मामलों में राजा जो कुछ करता है वह समाज की ओर से और समाज के भले के लिए।

इस ढंग से चलने में भी राज्य को यह ध्यान रखना चाहिए कि वह कहीं लोकोपकार करने की झोंक में बहुत न बढ़ जाए। लोगों की विद्या वृद्धि की जो वर्तमान अवस्था है और उसके अनुसार उनके जो विचार हैं उनसे बहुत आगे न बढ़ा जाए। किसी मामले में राज्य को कहाँ तक बढ़ना चाहिए और कहाँ तक जाना चाहिए, इसका विचार समय-समय पर यह देखकर करना चाहिए कि किसी कार्यवाई से लोगों की भलाई कितनी होगी और लोगों की ओर से विरोध कितना होगा।

मैं ऊपर कह चुका हूँ कि स्वास्थ्य के मामले में व्यर्थ एक-एक आदमी की स्वतंत्रता में बाधा न पड़ने पावे। पर राज्य यह कर सकता है कि बिना लोगों की स्वतंत्रता में बाधा डाले अपनी राय प्रकाशित करे। जैसे यदि हैज़ा फैला हो तो स्वास्थ्य विभाग द्वारा राज्य की ओर से लोगों को यह सूचना दी जाए कि इन इन युक्तियों से हैजे से बच सकते हैं, ये ये दवाएँ हैजे में उपकारी पाई गई हैं तथा इन इन उपायों से हैजे क़ा फैलना रुक सकता है।

जब कभी हैज़ा, मरी, शीतला आदि रोग फैलें तो राज्य को उनकी रोक और चिकित्सा के लिए विशेष प्रबंध करना चाहिए। जिन जिन स्थानों में ये रोग फैले हों वहाँ कुछ अधिक वैद्य, डॉक्टर तैनात करके भेजे जाएँ। वहाँ के लोगों को दवा आदि की अधिक सुविधा कर दिया जाए। यदि स्वास्थ्य विभाग प्रस्ताव करे कि यहाँ ये ये कार्रवइयाँ हों तो राज्य को चाहिए कि उन्हें चटपट मंजूर कर ले।

सर्वसाधारण के स्वास्थ्य के संबंध में स्वास्थ्य विभाग ही की सम्मति पर राज्य को चलना चाहिए।

प्रजा की प्राण रक्षा- ऊपर कहा जा चुका है कि राजा का कर्तव्य प्रजा का स्वास्थ्य बढ़ाना है। स्वास्थ्य-वृद्धि के मुख्य मुख्य उपाय भी बतलाए जा चुके हैं। राजा का दूसरा भारी कर्तव्य यह है कि जहाँ तक हो सके प्रजा को भरपूर भोजन इत्यादि प्राप्त करने का सुविधा कर दे। यह प्रत्यक्ष है कि भरपूर भोजन के बिना लोग सुखी नहीं रह सकते।

सबसे पहले तो यह कहना है कि राज्य इस विषय में कुछ अधिक नहीं कर सकता। बहुत कुछ तो लोगों के निज के परिश्रम के ऊपर है। समाज के प्रत्येक व्यक्ति को अपने और अपने परिवर के लिए कोई न कोई काम करना पड़ता है और उसके द्वारा जीविका प्राप्त करनी पड़ती है। प्रकृति ने हर एक के लिए भोजन इतना आवश्यक रखा है कि वह आप अपने भोजन के लिए भरसक सब कुछ करता है। इसके लिए उस पर कोई ज़ोर डालने की जरुरत नहीं, इस विषय में तो स्वाभाविक प्रवृत्ति ही पूरा काम करती है।

स्वाभाविक प्रवृत्ति केवल भोजन ही प्राप्त करने के लिए नहीं बल्कि सुख पहुँचानेवाली और बहुत सी वस्तुओं को प्राप्त करने के लिए उभाड़ती है। अब राज्य का धर्म यह है कि इस प्रवृत्ति को उचित स्वच्छन्दता के साथ काम करने दे। राज्य इस बात का ध्यान रखे कि इस स्वाभाविक प्रवृत्ति में मनुष्यों की उत्पन्न की हुई कोई बाधा व रुकावट न पड़ने पावे। राजा को यह कर्तव्य साफ साफ समझना और दृढ़ता के साथ पूरा करना चाहिए।

अब यहाँ पर यह देखना है कि राजा को क्या करना चाहिए और क्या न करना चाहिए कि इस स्वाभाविक प्रवृत्ति के अनुसार पूरा कार्य हो और उसका अच्छा फल हो।

जैसा मैं पहले कह चुका हूँ, समाज के प्रत्येक व्यक्ति में अपने सुख के साधन इकट्ठे करने की स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है। इस प्रवृत्ति के अनुसार वह धन कमाने के लिए भरसक पूरा प्रयत्न करेगा। राज्य को चाहिए कि धन, प्राण, शरीर और स्वतंत्रता की रक्षा करके इस स्वाभाविक प्रवृत्ति की भी भरपूर रक्षा करे। इन प्रयत्नों के लिए पूरी राह खोल दे और कमानेवाले को उस धन का सुख भोगने दे। यदि धन, प्राण, शरीर और स्वतंत्रता की रक्षा न रहे तो क्या हो, सोचिए तो, बहुत से लोग मन में यही कहें, “मैं धन क्यों कमाऊँ और कमाकर क्यों बचाऊँ जब कि इस बात का कोई ठिकाना ही नहीं कि मैं कब मार डाला जाऊँ, घायल कर दिया जाऊँ, कैदख़ाने में डाल या लूट लिया जाऊँ”?

इससे सिद्ध हुआ कि धन, प्राण, शरीर और स्वतंत्रता की रक्षा समाज के धानोपार्जन और धनसंचय के लिए आवश्यक है। लोगों को किसी बात का डर नहीं रहना चाहिए।

इस बात को थोड़े और ब्योरे के साथ मैं कहता हूँ। लोगों को डर न रहना चाहिए कि हम शहर में, दिहात में व सड़क पर लूट लिए जाएँगे। सेठ साहूकार अपना रुपया अपने पास बेखटके रख सकें। किसान अपने अनाज का ढेर बेखटके रख सकें। एक तरकारी बेचनेवाली गरीब बुढ़िया को भी इस बात का खटका न रहे कि मेरी तरकारी कोई छीन लेगा। सारांश यह कि छोटे, बड़े, ग़रीब, अमीर सबको इस बात का निश्चय रहे कि हमारी सम्पत्ति हमारे पास रहेगी और हम उसका सुख उठावेंगे। लोगों को इस बात का कुछ भी खटका न रहे कि हमारे साथ ज़बरदस्ती होगी, हमें कोई धोखा देगा, हम झूठे मामले मुकदमों में फँसेंगे, हमारे साथ राज्य कोई मनमानी कार्यवाई करेगा।

ये सब बातें उन उपायों से प्राप्त हो सकती हैं जिन्हें मैं पहले कह चुका हूँ अर्थात् शहरों और गाँवों में अच्छी पुलिस रखने से, योग्य अदालतों को बैठाने से और अच्छे अच्छे कानून जारी रखने से।

प्रजा के सुख सम्पत्ति की वृद्धि- राज्य को धन की वृद्धि के लिए और भी बहुत सी बातें करनी चाहिए जिनमें से कुछ मैं आगे बतलाता हूँ।

राज्य के लोगों को अपने धन का पूरा उपभोग स्वच्छन्दतापूर्वक अर्थात् बिना व्यर्थ की रुकावट व भय के करने देना चाहिए, जैसे क़िसी के लिए यह रोक न होनी चाहिए कि वह गाड़ी घोड़े पर चढ़कर न चले। किसी को सड़क के किनारे भारी मकान बनाने से न रोकना चाहिए। इसी प्रकार, कोई बढ़िया कपड़े व कीमती गहने पहनने से न रोका जाए। सारांश यह कि लोगों को इस बात की पूरी स्वतंत्रता रहे कि वे जिस प्रकार चाहें अपने धन को भोगें व दिखावें। राजा-महाराजा अपनी प्रजा को जितना ही सुखी देखें उतना ही उन्हें सुखी होना चाहिए।

एक बड़ी भारी बात और है। हमारे यहाँ के लोग अधिकांश खेती पर निर्वाह करते हैं। धारती धन को देनेवाली है। किसान भूमि पर परिश्रम करते हैं और भूमि उन्हें फल देती है। इससे सिद्ध हुआ कि भूमि के संबंध में और किसानों के संबंध में जो राज्य प्रबंध होगा उसका प्रजा के सुख के साथ बहुत कुछ लगाव होगा।

यह स्मरण रखना चाहिए कि अधिकांश लोग तो स्थिर भाव से देश में बसे हैं अर्थात् खेती का काम करते हैं। जिस प्रकार वह भूमि, जिसे वे जोतते हैं, अचल है उसी प्रकार वे भी अचल हैं। अधिकतर किसान जब तक उन पर लगातार जुल्म न हो अपनी भूमि को छोड़ने का कभी विचार नहीं करते। किसान हमारे यहाँ की स्थिर जनसंख्या के एक प्रधान अंग हैं और जो फ़सल वे हर साल पैदा करते हैं वह हमारे देश के धन का एक प्रधान भाग है। इसी से रैयत और भूमि के संबंध में बहुत ठीक प्रबंध रहना चाहिए।

किसानों को सुखी रखने और भूमि से धन की वृद्धि करने के लिए यह आवश्यक है कि ज़मीन की मालगुज़ारी बहुत ज्यादा न हो, इतनी जितने में रैयत अपना और अपने बाल बच्चों का पालन सुख से कर सके। बहुत सी देशी रियासतों में इस सिद्धांत का पालन ठीक-ठीक नहीं होता है। बहुत सी रियासतें रैयत से जहाँ तक हो सकता है मालगुज़ारी ऐंठती हैं और इससे जनसंख्या का एक बड़ा भाग दरिद्र हो जाता है। यह बात उस मूल सिद्धान्त के बिलकुल विरुद्ध है जिसकी ऊपर चर्चा हुई है अर्थात् राज्य का पहला उद्देश्य प्रजा के सुख की वृद्धि करना है।

दूसरी बात जो प्रजा को सुखी करने और भूमि से धानोपार्जन की वृद्धि करने के लिए आवश्यक है वह यह है कि किसानों के कब्जेश् में काश्त अच्छी हो। किसानों को यह पूरा विश्वास रहे कि जब तक रियासत को लगान बराबर देते जाएँगे तब तक हम बेदख़ल न किए जाएँगे। किसानों को यह भरोसा रहे कि यदि हम लगान बराबर समय पर देते जाएँगे तो ज़मीन हमारे कब्जे में पीढ़ी दर पीढ़ी चली जाएगी। बुद्धि से भी यह बात ठीक ठहरती है और अनुभव से भी यह बात पाई गई है कि कब्जे का ठीक ठिकाना न रहने से खेती की वृद्धि नहीं हो सकती।

एक और बात जो प्रजा को सुखी करने और भूमि से धन बढ़ाने के लिए आवश्यक है वह यह है कि जब किसानों की पूँजी और परिश्रम लगने से भूमि की उपज बढ़ जाए तब राज्य को उसके कारण अपना कर बढ़ाकर किसानों को उस उचित फल से वंचित न करना चाहिए जो उन्हें अपनी पूँजी और परिश्रम के कारण प्राप्त हुआ है। यदि रियासत ऐसा करेगी तो किसान कहेंगे कि हमें क्या पड़ी है कि भूमि को अधिक उपजाऊ करने के लिए अधिक परिश्रम और पूँजी लगावें। इससे भूमि की उपज बढ़ेगी नहीं, चाहे घट भले ही जाए।

जबकि भूमिकर ऊपर लिखी व्यवस्था के अनुसार ठीक-ठीक अर्थात् न बहुत थोड़ा न बहुत अधिक एक बार निश्चित हो गया तब राजा-महाराजाओं को और मनमाने ऊपरी कर जैसे गद्दी और ब्याह शादी आदि के नज़राने न लगाने चाहिए।

एक बुराई और है जिसे बचाना चाहिए। प्राय: ऐसा हुआ है कि राजा-महाराजाओं के पास साधु संन्यासी व ऐसे ही और लोग आए हैं और कुछ वार्षिक सहायता की प्रार्थना की है। राजा-महाराजाओं ने क्या किया कि उन्हें सनद दे दी कि इन इन गाँवों और परगनों से असामी पीछे व हल पीछे इतना रुपया वसूल कर लिया करो। इस प्रकार का अधिकार देना बहुत ही बुरा है, क्योंकि इससे किसानों को हानि पहुँचती है।

जिन उपायों से भूमि की उपज बढ़े व अच्छी हो उनको काम में लाना चाहिए।

खेती की उपज इन इन उपायों से बढ़ती है, जैसे अच्छी जोताई, अच्छी खाद और अच्छी निराई।

सिंचाई का प्रबंध करने से भी भूमि की फसल बहुत अच्छी हो सकती है। इस उपाय से जिस भूमि में पहले कोई मोटा अन्न होता था उसमें ईख हो सकती है, जहाँ 100 रुपये बीघे की फसल होती थी वहाँ 500 रुपये बीघे की फसल हो सकती है। इससे किसानों को और सारी प्रजा को लाभ पहुँचेगा।

इसलिए राज्य को चाहिए कि सिंचाई के लिए ताल कुएँ खुदवाएं, नहर बनवाएं तथा जो प्रबंध हो सके करे।

किसी देश में भूमि की उपज बढ़ाने का एक और उपाय यह है, ऐसे नियम बनें, जिनसे किसानों को ऊसर ज़मीन सुबीते में और पक्के क़ब्जे क़े साथ मिले।

भूमि के अतिरिक्त धन के और भी मार्ग हैं। इनमें से मुख्य कारीगरी है। कारीगरी से बहुत से लोगों का पालन होता है। इससे कारीगरी को पूरा बढ़ावा देना चाहिए। यह आजकल और भी ज़रूरी है क्योंकि आबादी दिन-दिन बढ़ रही है, इतनी ज़मीन कहाँ से आएगी कि जिसमें सबका निर्वाह हो। जिन लोगों को खेती के लिए भूमि न मिल सके उनके लिए तरह-तरह की कारीगरी का मैदान खुला रहना चाहिए।

अस्तु, लोगों की जीविका की बढ़ती करने और देश में धानोपार्जन की वृद्धि करने के लिए ये बातें आवश्यक ठहरीं-

(क) लोगों के प्राण, धन, शरीर और स्वतंत्रता की रक्षा रहे।

(ख) लोग अपने धन का पूरा सुख भोगने पाए।

(ग) भूमि धन का एक प्रधान मार्ग है इससे मालगुज़ारी बहुत अधिक न होनी चाहिए।

(घ) भूमि के अधिकार की पूरी रक्षा रहनी चाहिए।

(च) किसान अपनी पूँजी और अपना परिश्रम लगाकर ज़मीन की पैदावर में जो बढ़ती करें उस पर राज्य की ओर से कर न बढ़ाया जाए, यदि बढ़ाया भी जाए तो बहुत दिनों के पीछे।

(छ) ज़मीन की ठीक-ठीक नाप और बन्दोबस्त हो।

(ज) नज़राना आदि मनमाने ऊपरी कर न लगाए जाएँ।

(झ) साधु पुरोहित आदि को गाँवों में जाकर असामी पीछे व हल पीछे कुछ वसूल करने का अधिकार न दिया जाए।

(ट) पैदावर की रफ्तनी पर महसूल न लिया जाए। यदि लिया भी जाए तो थोड़ा।

(ठ) अनाज पर किसी तरह का महसूल न लगाया जाए।

(ड) भूमि की अच्छी जोताई, अच्छी खाद और अच्छी निराई के लिए जहाँ तक सुबीते हो सकें कर दिए जाएँ।

(ढ) सिंचाई के लिए कुएँ आदि खुदवाये जाएँ।

(त) सड़क और रेल बने जिससे मनुष्यों के और माल के आने जाने में ख़र्च कम पड़े।

(थ) किसानों को ऊसर ज़मीन सुबीते में और पूरे कब्जे के साथ मिले।


राज्य की इमारतें- राज्य की इमारतों को बनवाने का एक अलग महकमा चाहिए। जिसका एक ऐसा योग्य अफसर हो जिसे इंजीनियरी की पूर्ण शिक्षा मिली हो।

इस महकमे का हिसाब रखने और जाँचने का पूरा प्रबंध चाहिए जिससे एक-एक रुपये का ख़र्च दर्ज रहे और उसकी जाँच हो।

इस महकमे को जितने रुपयों की आवश्यकता हो उतना रुपया चट मिलना चाहिए। यदि ऐसा न किया जाएगा तो यह महकमा सुस्त पड़ जाएगा। ऐसी किफायत से कोई लाभ नहीं।

यदि कोई बड़ी, भड़कीली और लागत की इमारत खड़ी करनी हो, विशेष कर राजधनी में, तो उसका ढाँचा आदि तैयार करने के लिए अच्छे से अच्छे शिल्पी नियत किए जाएँ। यह बहुत ही आवश्यक है। यदि इसका ध्यान न रखा जाएगा तो लाखों रुपए व्यर्थ बरबाद होंगे और भद्दी इमारतें खड़ी कर दी जाएँगी जिनसे बनानेवालों का अनाड़ीपन ही प्रकट होगा।

इमारत बनवाने में ऑंख मूँदकर यूरोपियन ढंग की नकल न करनी चाहिए। यूरोपियन ढंग यूरोप ही के लिए ही ठीक है। हम लोगों को वही ढंग काम में लाना चाहिए जो हमारे देश के अनुकूल हो और जिसका व्यवहार सब दिन से हमारे यहाँ चला आया है। बड़ौदा में कालिज महल और जमनाबाई अस्पताल अच्छे ढाँचे पर बने हैं।

नियम यह होना चाहिए कि इमारत बनने का काम तब तक शुरू न हो जब तक कि ढाँचा और तख़मीना पेश न किया जाए और मंजूर न हो जाए।

राज्य की ओर से जो काम बने वह अच्छे ढंग पर बने। काम पुख्ता और सुंदर हो जिससे कई पीढ़ियों तक उसकी कदर रहे। इसमें जो ख़र्च और तरद्दुद हो उसे उठाना चाहिए।

जहाँ तक हो सके काम ठेके पर बनवए जाएँ। ठेके का नियम कई बातों में अच्छा है।

राज्य में जो-जो काम बने उनसे राज्य के मज़दूरों और कारीगरों का गुज़ारा हो बाहरियों की अपेक्षा उन्हें लगाना अच्छा है। बाहर से सामान मँगाने की अपेक्षा अपने राज्य से सामान लेना अच्छा है।

राज्य की इमारतों, सड़कों और पुलों की मरम्मत में जो ख़र्च लगे उसे लगाना चाहिए। यदि राजा-महाराजा कोई नए काम न बनवावें तो जो पहले के बने हुए हैं कम से कम उनकी तो रक्षा करें। किसी रियासत की इमारतों का बेमरम्मत रहना उस रियासत के लिए बदनामी की बात है।

जहाँ मरम्मत का वार्षिक व्यय प्रतिवर्ष बहुत घटता बढ़ता न रहता हो वहाँ सालाना मरम्मत का बँधा ख़र्च मंजूर हो जाना चाहिए जिसमें बार-बार का झंझट न रहे, समय का बचाव हो और मरम्मत भी ठीक वक्त पर हो जाया करे।

अच्छे ढाँचे पर बनी हुई बड़ी और लागत की इमारतों की मरम्मत करने और उनको बढ़ाने में इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि जो काम नया बने वह पुराने के मेल में हो। देशी रियासतों में प्राय: इसका ध्यान नहीं रखा जाता।

कचहरी, अदालत, जेल, स्कूल आदि की इमारतें सभ्य राज्य के लिए आवश्यक हैं। पर ये मुनाफे के काम नहीं हैं। इनसे लोगों के धन की बढ़ती सीधे नहीं हो जाती। पर ये अत्यन्त आवश्यक और ध्यान देने योग्य हैं।

कचहरी मुनाफे का काम नहीं है क्योंकि इससे न तो देश के धानोपार्जन में वृद्धि होती है और न व्यय की बचत होती है। सींचने का कुऑं मुनाफे का काम है, क्योंकि उससे फसल की बढ़ती होती है। इसी प्रकार सड़क बनाना भी मुनाफे का काम है, क्योंकि इससे माल की रवानगी के ख़र्च में बहुत कुछ बचत होती है।

अस्तु, राज्य में मुनाफे के कामों को खूब बढ़ाना चाहिए। जितने ही ये काम अधिक होंगे उतनी ही देश की बढ़ती होगी। राजा-महाराजा आजकल नए देश नहीं जीत सकते हैं, पर जो देश उनके अधिकार में हैं उनका मोल वे इन मुनाफे के कामों से बढ़ा सकते हैं।

इस देश में सबसे मुख्य काम सींचने के लिए कुएँ, तालाब खुदवाना और अच्छी-अच्छी सड़कों का बनवाना है।

कम लागत में ऐसी कच्ची सड़कें बहुत सी बन सकती हैं जिन पर सूखे दिनों में बैलगाड़ी, छकड़े आदि मजे में चल सकें।

भारतवर्ष में पोखरे और तालाब बड़े काम के होते हैं। राज्य को चाहिए कि वह इनकी मरम्मत रखे।

यदि बहुत ख़र्च न हो तो दलदल की ज़मीन निकालने और ऊसर भूमि को उपजाऊ करने का भी राज्य को प्रबंध करना चाहिए।

मंदिर, धर्मशाला तथा ऐसी ही सबके काम आनेवाली और और इमारतों की मरम्मत का भी ध्यान राज्य को रखना चाहिए।

शिक्षा- मैं अब यहाँ कुछ ऐसे मोटे-मोटे सिद्धान्तों का वर्णन करूँगा जिनके अनुसार राज्य के शिक्षा विभाग को चलना चाहिए।

अंग्रेजी भाषा के द्वारा जो उच्च शिक्षा पाना चाहते हों उन्हें उस प्रकार की शिक्षा मिलने का प्रबंध होना चाहिए। जो लोग अंग्रेजी भाषा के द्वारा उच्च शिक्षा पाएंगे वे समाज में अत्यन्त उन्नत विचार के मनुष्य होंगे। वे उन्नति साधन में सबसे अधिक सहायक होंगे, वे मूर्खता और अंधविश्वास की बातों को दूर करने में सबसे आगे रहेंगे। मेरा तो विश्वास क्या दृढ़ निश्चय है कि भारतीय जन समाज बिना ऊपर लिखी बातों के समावेश के जहाँ का तहाँ पड़ा रहेगा, एक डग आगे न बढ़ेगा।

अंग्रेजी, साहित्य, विज्ञान और दर्शन अच्छा पढ़ा सकते हैं। इससे स्कूलों और कॉलेजों में अंग्रेजी अध्यापक रहने चाहिए। स्वदेशानुराग के कारण व किफायत के ख्याल से देशी आदमियों ही को रखना ठीक नहीं है। देशी लोग अंग्रेजी अधयापकों के सहायक के रूप में बहुत अच्छा काम करेंगे, विशेष कर गणित और पदार्थ विज्ञान पढ़ाने में।

धर्म संबंधी शिक्षा ज्ञान मूलक हो, अर्थात् किसी विशेष मत की शिक्षा न दी जाए।

मेरी समझ में छोटी-छोटी चुनी हुई पुस्तकों द्वारा स्कूलों में सर्वदेशीय सदाचार की शिक्षा होनी चाहिए। इसी प्रकार उस सदाचार की शिक्षा भी हो जिसका पालन राज्य में दण्डभय से कराया जाता है। यह बहुत आवश्यक है कि लड़कों को आरम्भ से ही यह बतलाया जाए कि कौन-कौन सी नीयत और कौन-कौन से काम बुरे हैं और किन के लिए राज्य से दण्ड मिलता है। इसके सिखाने में थोड़ा ही समय लगेगा पर इसके द्वारा बहुत से युवा पुरुष ऐसे कर्मों से बचे रहेंगे जो नीति विरुद्ध हैं व न्याय से दण्डनीय हैं।

राजा-महाराजाओं को चाहिए कि वे अपने यहाँ के सरदारों, सेठ साहूकारों पर इस बात का दबाव डालें कि वे अपने लड़कों को स्कूल भेजें।

ऐसे लोगों के अनुकरण के लिए राजा-महाराजाओं को चाहिए कि वे अपने तथा अपने संबंधियों के लड़कों को भी स्कूल भेजें।

यह स्मरण रखना चाहिए कि शिक्षितों को अधिक आश्रय देने से शिक्षा को बहुत उत्तेजना मिलती है। राज्य के भिन्न-भिन्न विभागों के अधिकारियों को इस बात की ताकीद रहे कि उनके यहाँ जो जगहें खाली हों उन्हें वे कार्य की उत्तमता के विचार से शिक्षितों को दें।

स्कूलों व कॉलेजों में जो अपनी शिक्षा समाप्त कर चुके हों उनमें से कुछ को छात्रावृत्तियाँ दी जाएँ जिसमें वे प्रयाग, कलकत्ता, बम्बई आदि जाकर और ऊँची शिक्षा प्राप्त करें। छात्रावृत्तियाँ योग्य लोगों को दी जाएँ और कुछ उचित शर्तों के साथ।

राजा-महाराजाओं को मुख्य मुख्य परीक्षाओं और इनाम बाँटने के उत्सवों में सभापति का आसन ग्रहण करके तथा उत्साहपूर्ण व्याख्यान देकर अपनी रुचि विद्या की ओर दिखानी चाहिए। यह उनके राजकर्त्तव्यों में से है।

सर्वसाधारण के लिए पुस्तकालय, सुबोध व्याख्यान तथा शिक्षा के ऐसे ही और और साधानों को सहायता पहुँचानी चाहिए और उनको वृद्धि करनी चाहिए।

इन उपायों को धीरता के साथ काम में लाने से धीरे-धीरे प्रजा की बुद्धि और विवेक की वृद्धि होगी और राज्य का बड़ा भारी कर्तव्य पूरा होगा।

राजा अपने राज्य में सबसे बड़ा और शक्तिमान् पुरुष होता है इससे वह लोगों की चाल सुधारने के लिए बहुत कुछ कर सकता है। राजा के आचरण का प्रभाव दिन रात और हर घड़ी पड़ता रहता है। राजा की बातचीत तक का बहुत कुछ फल होता है।

अत: राजा को बात-बात में यह जताना चाहिए कि उसे सदाचार से प्रेम और बुराई से चिढ़ है। जब जैसा अवसर पड़े, राजा को कोई न कोई बात इस तरह की कहनी चाहिए। जैसे श्रीमान कहें, “मैं ऐसे लोगों को बिलकुल नहीं चाहता जो झूठ बोलते हैं” व “मुझे ऐसे कर्मचारियों से बड़ी चिढ़ है जो घूस लेते हैं।” व “मुझे इधर-उधर की लगानेवालों से बड़ी घिन है” अथवा “कोई यह न समझे कि मैं चालबाजियों से बढ़ूंगा” इत्यादि। ये बातें इस ढंग से भी कही जा सकती हैं “जो सच्चे हैं मैं उनका सम्मान करता हूँ” “मैं सच्चे और ईमानदार कर्मचारियों पर बहुत प्रसन्न होता हूँ” इत्यादि।

निश्चय समझिए कि बहुत से लोग राजा की ऐसी ऐसी बातों पर बड़ा ध्यान रखेंगे और उन्हें दूर-दूर तक फैलावेंगे। ऐसी बातों का बड़ा प्रभाव पडेग़ा। इनसे भले लोगों को उत्साह होगा और बुरे लोगों की चाल सुधरेगी। इनसे सबको चेतावनी मिलती रहेगी। इस प्रकार मैं समझता हूँ कि राजा एक बड़े प्रभावशाली उपदेशक का काम कर सकता है। उसे थोड़े ही दिनों में लोगों की सत्प्रवृत्ति बढ़ाने का यश प्राप्त हो सकता है। यह समझ रखना चाहिए कि लोगों की प्रवृत्ति जितनी ही अच्छी होगी उतना ही शासन कार्य सुगम और अच्छा होगा तथा प्रजा का सुख बढ़ेगा।

संक्षेप यह है कि राजा का यह बड़ा भारी कर्तव्य है कि वह अपने अधिकार और प्रभाव का प्रयोग सदाचार को बढ़ाने और बुराई को दबाने के लिए करे। वह जो कुछ कहे, जो कुछ करे, जो पद और प्रतिष्ठा प्रदान करे सबका लक्ष्य इस बड़े उद्देश्य की ओर हो।

महल- मैं अब महल के प्रबंध के विषय में कुछ कहना चाहता हूँ। जिस प्रधान उद्देश्य से महल का सारा प्रबंध होना चाहिए वह यह है कि महाराज और उनके परिवर के लोग आराम और सुख से रहें तथा अपना आवश्यक राजसी ठाटबाट बनाए रहें।

इस काम में जो खर्च पड़े वह ठीक ही है और उसे उठाना चाहिए। यह ख़र्च यूरोपीय राज्यों की अपेक्षा एशिया के राज्यों में कुछ अधिक होता है, क्योंकि वहाँ और यहाँ की चालढाल, रीति व्यवहार और आचार विचार में भेद है। भारतवर्ष के लोग बहुत काल से तड़क भड़क को शक्ति का अंग समझते आए हैं। यहाँ तक कि ठाटबाट ही देखकर लोग शक्ति का अन्दाज करते हैं।

पर साथ ही यह भी है कि महल का ख़र्च रियासत की आमदनी के हिसाब से हो। यदि यह ख़र्च हिसाब से अधिक होगा तो क्या होगा? प्रजा के सुख की वृद्धि करने के जो साधन हैं, उनमें कमी होगी, अर्थात् प्रजा के सुख का कुछ अंश न्योछावर हो जाएगा। पर जहाँ तक हो सके प्रजा को सुखी करना राजा का पहला कर्तव्य है।

महल के एक-एक विभाग के एक-एक मद का खर्च बँधा व निर्धारित हो। राजा साहब यह देखते रहें कि जिस काम के लिए जितना ख़र्च मुकर्रर है उतना ही होता है। बड़ा भारी सिद्धान्त तो यह है कि जहाँ तक हो सके बहुत कम ऐसे मद हों जिनका ख़र्च बँधा व मुकर्रर न हो। जो खर्च बिना बँधा छोड़ा जाएगा वह बराबर हर साल बढ़ता ही जायेगा।

पर कुछ थोड़े से मद ऐसे अवश्य होंगे जिनका खर्च बाँधा नहीं जा सकता। ऐसे मदों की देखभाल राजा-महाराजा स्वयं करें और किसी खास ख़र्च को मंजूर करने का अधिकार अपने हाथ में रखें।

महल का व ख़ानगी ख़जाना अलग होना चाहिए। जो रुपया ख़ानगी ख़र्च के लिए मुकर्रर हो वह समय-समय पर रियासत के बड़े ख़जाने से इसमें आया करे। इन दोनों ख़जानों को गडबड न करना चाहिए।

महल की सारी आमदनी और ख़र्च महल के ख़जाने के नाम हो जिसमें इस ख़जाने की बही उठाते ही महल के सारे जमा ख़र्च का पता चल जाए।

रुपये पैसों के मामलों में जहाँ तक हो सके, लिखकर आज्ञाएँ दी जाएँ, जबानी हुक्मों का कुछ ठीक ठिकाना नहीं। कुछ दिनों पीछे उनमें बड़ी-बड़ी कठिनाइयाँ और संदेह पड़ते हैं। लिपिबद्ध आज्ञा की उस समय विशेष आवश्यकता होती है जब कोई बड़ा और असाधारण ख़र्च आ पड़ता है।

तनख़्वाह और देना बराबर ठीक समय पर चुकाया जाए। इससे रियासत के छोटे बड़े सब कर्मचारियों तथा व्यापारियों आदि को बड़ी सुविधा होगा।

महल के ख़जाने से किसी को रुपया उधार न दिया जाए। महल का ख़जाना बैंक नहीं है। इस सिद्धान्त पर बड़ी दृढ़ता से स्थिर रहना चाहिए, नहीं तो बहुत बुरी और सत्यनाशी रीति चल पड़ेगी।

महल का हिसाब-किताब बड़े विश्वासपात्र और योग्य कर्मचारी के जिम्मे रहना चाहिए। हिसाब-किताब लिखने में किसी प्रकार की ढिलाई न होने पावे। जो ख़र्च हो वह तुरन्त टाँक लिया जाए। जहाँ तक हो सके, हिसाब में एक वर्ष के ख़र्च के अन्दर उस वर्ष का सारा ख़र्च आ जाए। यह न हो कि किसी एक वर्ष का ख़र्च दूसरे वर्ष में डाल दिया जाए। यदि इस बात का ध्यान रखा जाएगा तभी एक वर्ष के ख़र्च का मिलान दूसरे वर्ष के ख़र्च से हो सकेगा।

हिसाब की जाँच रियासत के आडिटर व हिसाब जाँचनेवाले द्वारा बराबर होती रहे, किसी प्रकार की रोकटोक न रहने से बड़ी गड़बड़ी होगी।

महाराज का कोई ख़ानगी ख़र्च रियासत के ख़जाने से न लिया जाए और न उसके हिसाब में डाला जाए। महल का ख़र्च कम दिखाने के लिए ऐसा प्राय: किया जाता है। पर यह चाल धोखे की है और बंद होनी चाहिए।

साधारण नियम यह होना चाहिए कि किसी मद का ख़र्च, जब तक किसी और मद से बचत न हो, न बढ़ाया जाए। यदि ख़र्च एक तरफ बढ़ता है तो दूसरी तरफ घटना चाहिए। यदि इस सीधे सादे सिद्धान्त का ध्यान बराबर रहेगा तो महल का औसत ख़र्च सदा बराबर रहेगा। मान लीजिए कि कोई चोबदार कुछ तनख़्वाह बढ़ाने की प्रार्थना करता है। उसे ऑंख मूँदकर मंजूर न कर लेना चाहिए। चोबदार बहुत से रहते हैं। इनमें से यदि किसी की जगह खाली हो तो या तो वह जगह तोड़ दी जाए या उसकी तनख़्वाह घटा दी जाए। इस प्रकार जो रुपया हाथ में आए उससे उस चोबदार की तनख़्वाह, यदि आवश्यक हो, बढ़ा दी जाए। सारांश यह कि जब किसी की तनख़्वाह बढ़ानी हो तो यह देख लेना चाहिए कि हाथ में कुछ रुपया फाजिश्ल है, यदि हो तो उसी में से तनख़्वाह बढ़ाई जाए। ऐसे मामलों में महल का हिसाब-किताब रखनेवाले कर्मचारी से राय ली जाया करे और उसे यह आज्ञा रहे कि वह आय व्यय की अवस्था महाराज को सूचित करता रहे।

महीने महीने महल के ख़जाने की बाकी की जाँच होनी आवश्यक है। महल के दो व तीन बड़े अफसर यह जाँच खुद किया करें और यह निश्चयपत्र महाराज को दिया करें कि बाकी की रकम इतनी है जो हिसाब से मिलान खाती है। ये निश्चयपत्र एक बही में टाँक लिए जाएँ और वह बही बराबर रखी रहे।

पण्डित, पुजारी, ज्योतिषी तथा इसी वर्ग के और लोग सदा ख़र्च बढ़ाने की फिक्र में रहा करते हैं इससे उन पर कड़ा दबाव रहना चाहिए। व्यवहार उनके साथ अच्छा हो पर वे अपनी सीमा का उल्लंघन न करने पाए।

महल की रानियाँ भी राज्य की आर्थिक अवस्था का कुछ ध्यान नहीं रखतीं और बराबर किसी न किसी ढंग से ख़र्च बढ़ाना ही चाहती हैं। उनकी इस प्रवृत्ति को रोकना चाहिए।

इन रानियों तथा लोगों को यह अच्छी तरह निश्चय करा देना चाहिए कि वे जो ऋण करेंगी उसका देनदार महल न होगा। पहले तो वे कर्ज लें नहीं, यदि लें भी तो उसे उसी रुपये से चुकावें जो उन्हें ख़र्च के लिए मिलता है।

गोदान इत्यादि बहुत से दान हैं जो राजा-महाराजाओं तथा उनके परिवर की ओर से दिए जाते हैं। ऐसे दानों में बहुत सी बुराइयाँ घुस गई हैं। राजा-महाराजाओं को इनकी ओर ध्यान देना चाहिए और यह देखना चाहिए कि जो भारी दान हों उनसे कोई सच्चा लाभ व उपकार हो, विद्या की वृद्धि हो, दोनों का कष्ट दूर हो।

जवाहरात वगैरह- राजा-महाराजाओं के महल में बहुत से जवाहरात और सोने चाँदी की चीजें रहती हैं। जिन पर उनकी पूरी निगरानी रहनी चाहिए।

इन सबकी एक सूची महल के दफ्तर में रहनी चाहिए। राजा-महाराजाओं को चाहिए कि वे जाकर स्वयं एक बार देख लें कि संग्रह में क्या क्या चीजें हैं। उनके इस देखने का बड़ा अच्छा फल होगा।

जब महाराज ने एक बार सब देखकर सहेज लिया तब कुछ लोगों को नियत करने का प्रबंध होना चाहिए जो समय-समय पर उनकी जाँच करते रहें और महाराज को निश्चयपत्र देते रहें कि सब ठीक है। जाँच करनेवाले यह भी देख लें कि बहुमूल्य पत्थर और मोती इत्यादि बराबर वही हैं बदले नहीं गए हैं।

इन सब चीजों की ताली विश्वासपात्र मनुष्यों के हाथ में रहे। एक आदमी से काम न चलेगा, क्योंकि न जाने कब वह बीमार पड़े, मर जाए। इससे अच्छा यह होगा कि कई आदमियों की एक कमेटी बना दी जाए।

पहले जवाहरात छोटी-छोटी अँधेरी कोठरियों में इधर-उधर बिखरे रहते थे। प्रबंध ढीला रहता था। अब भारी भारी चीजें लोहे की कोठरियों के भीतर अलग-अलग सन्दूकों में रहती हैं। यह प्रबंध अच्छा है।

ये वस्तुएँ पुरखों की संचित हैं। इन्हें अच्छी तरह रखने में मर्यादा है। इनमें से व्यर्थ बहुत सी चीजें इनाम व भेंट में न दी जाएँ। यदि कभी देना आवश्यक हो तो हलकी चीजें दी जाएँ।

जौहरी लोग नए जवाहरात खरीदने के लिए राजा-महाराजाओं से बड़ी लम्बी-चौड़ी बातें करते हैं जिनसे उन्हें सावधन रहना चाहिए। वे सुंदर सुंदर नए केसों (खानों) में जड़ाऊ गहने रनिवस में दिखाते हैं और अनेक ऐसी युक्तियाँ रचते हैं कि जिसमें रानियाँ उन्हें मोल लेने के लिए जोर दें। कभी-कभी तो वे ऐसे लोगों को घूस तक देते हैं जिनका रानियों पर कुछ जोर रहता है। ऐसे फेरों में कभी न पड़ना चाहिए। ऐसी ही बातों में तो दृढ़ता दिखानी चाहिए। रानियों को समझा देना चाहिए कि इस प्रकार की चीजें तो महल में बहुत सी हैं अथवा महल में प्रस्तुत सामग्रीयों से थोड़े दिनों में तैयार हो सकती हैं।

गाड़ी घोड़े तथा महल के और सामान अच्छे और दुरुस्त रहें। साधारण नियम यह होना चाहिए कि जिन वस्तुओं का महाराज स्वयं व्यवहार करते हों वे बहुत अच्छे मेल की हों, क्योंकि बीस रद्दी गाड़ियों से दस अच्छी गाड़ियों का रखना अच्छा है। इसी सिद्धान्त का पालन महल की और और बातों में भी करना चाहिए। जैसे कि महाराज के जो अर्दली और नौकर चाकर हों वे चुने हुए और अच्छे कपड़े पहने हुए हों।

महल में स्वास्थ्य रक्षा की बातों का पूरा ध्यान रहना चाहिए। बहुत से नौकर चाकर एक ही बंद जगह में गन्दगी से न रहने पाए।

राजा-महाराजाओं के यहाँ बहुत सी अलभ्य और अद्भुत वस्तुएँ रहती हैं। वे इधर-उधर पड़ी न रहने पाए, एक जगह ठिकाने से रख दी जाएँ, जिनमें राजा-महाराजाओं को मालूम रहे कि कौन सी चीजें हैं और वे उन्हें काम में ला सकें।

महल में नित्य की बातों का लेखा रखने के लिए एक दिनचर्या व रोज़ना मचे की पुस्तक रहे। इसमें जो बातें याद रखने लायक हों दर्ज कर ली जाया करें। ऐसी पुस्तक बड़े काम की होगी, विशेषकर नज़र व दृष्टान्त रखने के लिए।

महल का जो अफसर व कामदार हो वह बहुत योग्य और निपुण हो। उसे महल के लिए मामूली ख़र्च करने, नौकरों को रखने, छुड़ाने आदि का पूरा अधिकार रहना चाहिए।महल का कामदार हर एक वर्ष के अंत में महल के प्रबंध का एक विवरण व रिपोर्ट उपस्थित किया करे। यह रिपोर्ट बड़े काम की होगी।

राज्य का मंत्रीमण्डल- राजा राज्य की शक्ति है और राज्य की सभा वह यन्त्र है जिसे वह शक्ति चलाती है। इन्हीं पर प्रजा के हित का भार है।

इस सभा व कचहरी को नीति बल और बुद्धि बल होना चाहिए। इस कचहरी का प्रधान अधिष्ठाता दीवन होता है अत: उसे बहुत योग्य होना चाहिए। उस पर महाराज का विश्वास होना चाहिए, प्रजा का विश्वास होना चाहिए और अंग्रेजी सरकार का विश्वास होना चाहिए। उसे शासनकार्य में विशेषत: देशी राज्यों के शासनकार्य में निपुण होनी चाहिए। वह निपुणता उसे यदि उसी रियासत में काम करते-करते प्राप्त हुई है तो और भी अच्छी बात है।

रियासत की कचहरी में सदा कुछ ऐसे योग्य और नीतिपरायण मनुष्य रहें जो शासनकार्य में दक्षता प्राप्त कर चुके हों। इन्हीं में से समय-समय पर दीवन चुने जाया करें तो बहुत ही अच्छा है।

यदि इस बात का ध्यान नहीं रखा जाएगा तो जब-जब दीवन की जगह खाली होगी तब-तब महाराज को बड़ी कठिनता होगी। अपनी रियासत के कर्मचारियों में किसी को योग्य न पाकर उन्हें किसी बाहरी आदमी को बुलाना पड़ेगा जो ठीक नहीं है।

अपरिचित व्यक्ति को दीवन बनाना राजा-महाराजाओं के सुबीते की बात नहीं है। जिससे कभी की जान पहचान नहीं, जिसका स्वभाव और रंग-ढंग मालूम नहीं, जो उस स्थान और वहाँ के लोगों को नहीं जानता, जिसे रियासत के भिन्न-भिन्न स्थानों के शासनक्रम और ब्योरे से जानकारी नहीं, जिसको महाराज का इतना जोर नहीं जितना बाहर के लोगों का, ऐसे आदमी का दीवन बनना ठीक नहीं।

दीवन को अंग्रेजी भाषा पर पूरा अधिकार होना चाहिए। इसके बिना किसी बड़ी रियासत का प्रबंध चार दिन भी नहीं चल सकता।

दीवन दृढ़ पर शान्तिप्रिय हो, न्यायी पर शीलवान् हो, तत्पर पर धीर हो, उत्साही पर विचारवान् हो, मान अपमान का ध्यान रखनेवाला हो पर झगड़ालू न हो, महाराज को प्रिय हो पर समय पर साफ बात कहनेवाला हो। वह शासन के प्रत्येक विभाग में उन्नति का पक्षपाती हो पर साथ ही उसमें इतना विवेक हो कि जो बातें पुरानी, स्वाभाविक और उपयोगी हों उन्हें वह बनी रहने दे।

राजा-महाराजाओं के लिए बिना भारी कारण के जल्दी दीवन बदलना अच्छी नीति नहीं है। दीवन को यह विश्वास रहना चाहिए कि वह अपने पद पर कम से कम पाँच वर्षों तक रहेगा। किसी राजा का जल्दी दीवन बदलना दुर्बलता का लक्षण है।

दीवन के नीचे राज्य के जो और विभाग हों उनके अधिकारी भी बहुत सोच समझकर चुने जाएँ। उनमें अपना काम करने की पूरी योग्यता हो, वे अंग्रेजी अच्छी तरह जानते हों। वे कई जातियों और धर्मों के हों।

भिन्न-भिन्न विभागों के अधिकारियों के साथ अच्छा व्यवहार होना चाहिए। अच्छे प्रबंध और शासन के लिए उनकी प्रशंसा होनी चाहिए। राजा-महाराजाओं की कभी-कभी उचित प्रशंसा कर देना सौ इनाम से बढ़कर है, क्योंकि प्रतिष्ठित लोग मान के भूखे रहते हैं।

अधिकारी और मंत्री लोग राजा के नौकर ही हैं। पर उनसे कुछ कहने में चतुर राजा ऐसे शब्दों को बचाते हैं जिनसे हुकूमत टपके। उच्चाशय लोग तो छोटे-छोटे नौकर चाकरों के साथ भी ऐसा ही करते हैं।

रियासत की कचहरी का काम बहुत बड़ा है। उसमें व्यवस्था और नियम की बड़ी आवश्यकता है। देशी रियासतों में व्यवस्था और नियम प्राय: ढीले पड़ जाते हैं और तोड़ दिये जाते हैं। राजा-महाराजाओं को ऐसा न होने देना चाहिए। व्यवस्था का यह मतलब है कि सारा काम कई उचित विभागों में बाँटा जाए, एक-एक कर्मचारी के जिम्मे एक-एक विभाग कर दिया जाए और उस विभाग के काम को पूरा कराने के लिए उसके नीचे और कार्यकर्ता रखे जाएँ। मुहर्रिर से लेकर दीवन तक किसी न किसी के अधीन हों। ऐसी व्यवस्था के अंतर्गत रियासत का सारा कारख़ाना आ जाए, उसका प्रत्येक अंग दूसरे अंग के अधीन काम करे। नियम का मतलब यह है कि कार्य विभाग की सब श्रेणीयों में एक दूसरे की अधीनता बनी रहे।

केवल यही ढंग है जिससे बहुत से मनुष्य अपनी शक्तियों को दूसरों की शक्तियों के अनुकूल रखते हुए किसी बड़े उद्देश्य की सिद्धि में लगा सकते हैं। नियम और व्यवस्था के बिना सब बातें गड़बड़ रहेंगी। लोगों पर इस बात का कोई दबाव न रहेगा कि वे सदा एक उद्देश्य पर दृष्टि रखकर काम करें। यही नहीं कि उनके काम एक-दूसरे के मेल में होंगे बल्कि एक दूसरे के विपरीत होंगे।

राजा-महाराजाओं को रियासत के कामों में नियम और व्यवस्था का पूरा ध्यान रखना चाहिए। 'क' नाम का कर्मचारी जो 'ख' नामक कर्मचारी के अधीन है, महाराज से आकर कहता है। “मैं 'ख' की आज्ञा पर काम नहीं करना चाहता, मैं या तो महाराज की या कम से कम दीवन की आज्ञा पर चलना चाहता हूँ।” ऐसा कभी न होने देना चाहिए। इसी प्रकार कोई मुहर्रिर अपने अफसर से छुट्टी न माँगकर सीधे महाराज के पास छुट्टी का प्रार्थनापत्र भेजता है। महाराज को ऐसा प्रार्थनापत्र लौटा देना चाहिए और प्रार्थी से कहना चाहिए कि “तुमने नियम विरुद्ध कार्य किया है। तुम अपनी अर्जी अपने अफसर के पास भेजो।”

देशी रियासतों में दीवन और मंत्रीयों के विरुद्ध गुमनाम अर्ज़ियाँ बहुत आया करती हैं। दीवन और मंत्री प्रतिष्ठित आदमी होते हैं इससे ऐसी अर्ज़ियों पर बहुत समझ बूझकर कार्यवाई होनी चाहिए।

साधारण नियम तो यह होना चाहिए कि जो चिट्ठियाँ गुमनाम व झूठे नामों से आवें उन पर कुछ ध्यान ही न दिया जाए।

राजा साहब को चाहिए कि वे अपने दीवन और भिन्न-भिन्न विभागों के मंत्रीयों पर विश्वास रखें और उन्हें सहारा दें तथा सर्वसाधारण पर यह बात प्रकट कर दें कि हम उन पर विश्वास रखते हैं और उन्हें हर बात में सहारा देते हैं। जहाँ इसके विरुद्ध लोगों की धारणा हुई कि चट भाँति भाँति के कुचक्र चलने लगेंगे, राज्य की सारी व्यवस्था शिथिल हो जाएगी और हानि पहुँचेगी।

ऐसा प्रबंध करना चाहिए कि मंत्रीयों में मेल रहे। उन्हें इसलिए लड़ा देना जिसमें उन्हें एक दूसरे का डर रहे अच्छी नीति नहीं है। यदि मंत्री बुरे आदमी हों तो उनकी चौकसी के लिए यह भद्दी युक्ति ठीक है। पर ऊपर अच्छे लोगों को ही मंत्री चुने जाने की व्यवस्था है। चोट्टे आपस में लड़ें, भले आदमी क्यों ऐसा करें।

राजाओं को तो चाहिए कि मंत्रीयों में मेल बनाए रहें। जब देखें कि कुचक्री लोग उनमें फूट डालना चाहते हैं तब उन्हें रोकें।

मंत्रीयों में मेल बढ़ाने और उन्हें एक साथ जवबदेह बनाने के लिए प्रबंध करना चाहिए कि प्रत्येक मंत्री भारी मामले में अपने और सहयोगियों के साथ विचार करके तब सबकी सम्मति से कोई बात स्थिर करे। इस ढंग से हर एक बड़े मामले पर पूरा-पूरा विचार होगा और सब मंत्री एक दूसरे की कार्यवाई के जवबदेह रहेंगे। तब कोई मंत्री यह न कह सकेगा कि अमुक मंत्री ने यह बुराई की है। इस प्रकार बुरी कार्यवाइयों की सम्भावना बहुत कम हो जाएगी।

इससे एक लाभ और होगा। जबकि एक मंत्री किसी भारी मामले पर दूसरे मंत्रीयों के साथ विचार किया करेगा तब हर एक मंत्री को, न कि केवल अपने ही विभाग के काम से जानकारी रहेगी बल्कि, और और विभागों के काम से भी जानकारी हो जाएगी। ऐसा होने पर, यदि कभी किसी विभाग का मंत्री न रहेगा तो जो उसके स्थान पर होगा वह और मंत्रीयों से अपना काम बहुत जल्दी सीख लेगा।

राज्य के भिन्न-भिन्न विभाग- रियासत की कचहरी में कई विभाग रहते हैं, जैसे माल विभाग, सेना विभाग, न्याय विभाग और इंजीनियरी विभाग आदि।

माल विभाग का अधिकारी अपने कार्य के सारे ब्योरे और सिद्धान्त समझता हो। आमदनी के जितने द्वार हैं, जैसे चुंगी, आबकारी, ज़मीन, उसे उन सबकी जानकारी रखनी चाहिए। इन सबके विषय में उसे इतनी बातें जाननी चाहिए1. प्रत्येक का पिछला वृत्तान्त। 2. उसकी वर्तमान अवस्था। 3. अंग्रेजी राज्य में उसकी अवस्था। 4. उसके ज्ञाताओं के निश्चित किए हुए सिद्धान्त। उसे अर्थ प्रबंध में निपुण होना चाहिए। पहले इस विभाग के जो अधिकारी रखे जाते थे उन्हें इन सब बातों का ज्ञान नहीं होता था। वे यह समझते थे कि प्रजा से जहाँ तक मालगुजारी ऐंठते बने ऐंठनी चाहिए। कहीं की प्रजा तो मालगुजारी के बोझ से दबती थी और कहीं ठीक-ठीक मालगुजारी भी नहीं वसूल होती थी। तहसीलदार और इजारदार लोग मनमाने महसूल लगाया और बढ़ाया करते थे। इससे व्यापार की वृद्धि नहीं होने पाती थी।

इस विभाग से हजारों आदमियों को नित्य काम पड़ता है, अत: इसका प्रबंध बहुत सन्तोषदायक होना चाहिए।

न्यायविभाग का अधिकारी बुद्धिमान् तथा कानून का अच्छा जाननेवाला हो। वह न्याय के सिद्धान्तों तथा न्याय शासन के ब्योरों को अच्छी तरह समझता हो।

इंजीनियरी व स्थापत्य विभाग भी राज्य के बड़े काम का है। इसका अधिकारी व मंत्री भी बहुत योग्य होना चाहिए। वह अंग्रेजी में निपुण हो तथा स्थापत्य विषय की पुस्तकें बराबर देखता रहता हो, क्योंकि उसे इंजीनियर से लिखा पढ़ी करनी रहती है।

तनख्वाह- पहले यह समझा जाता था कि राज्य का हर एक काम हर एक आदमी कर सकता है। इससे रियासत के लिए कर्मचारी मिलना कोई कठिन बात नहीं थी। जहाँ कुछ जगहें खाली हुईं कि करोडो आदमी टूट पड़ते थे और बहुत ही कम तनख्वाह पर नौकरी कर लेते थे।

बात यह थी कि पहले कर्मचारी लोग तनख्वाह के ऊपर बहुत रुपया पैदा करते थे। उनकी आमदनी इस प्रकार की थी जिसे आजकल शिक्षित लोग बड़ी घृणा की दृष्टि से देखते हैं। साफ बात यह है कि वे लोग घूस लेते थे। वे लोग नौकरी तनख्वाह के लिए नहीं करते थे, प्रजा को लूटने के लिए करते थे, इसी से थोड़ी तनख्वाह पर काम करते थे।

आजकल की अवस्था और है। उत्तम शासन अब बिना शिक्षितों के नहीं हो सकता है। अब रियासत की नौकरियों के लिए ऐसे शिक्षित पुरुषों की जरूरत है जिनमें काम की पूरी योग्यता हो और जो इतने खरे और ऊँचे विचार के हों कि कभी अनुचित लाभ उठाने की ओर ध्यान ही न दें। पर जो अच्छी चीज़ चाहे वह अच्छा दाम लगावे। अत: देशी रियासतों की तनख्वाहें ज्यादा देनी चाहिए।

देशी रियासतों को अपने यहाँ के कर्मचारियों की तनख्वाह निश्चित करने में एक बात का और ध्यान रखना चाहिए। अंग्रेजी राज्य में ऐसे खरे और सुशिक्षित आदमियों की बड़ी माँग है। अत: जितना वेतन उन्हें अंग्रेजी सरकार देती है उससे कम देशी रियासतों को न देना चाहिए।

अंग्रेजी सरकार की नौकरी में पेंशन मिलती है। देशी रियासतों में नहीं। इस विचार से भी तनख्वाह अधिक होनी चाहिए।

अंग्रेजी सरकार की नौकरी बड़ी पक्की होती है। जब तक कर्मचारी कोई भारी कुचाल न करे तब तक उसे किसी प्रकार का खटका नहीं, उसकी नौकरी बराबर बनी रहेगी। पर देशी रियासतों का ढंग कुछ और ही है। वहाँ नौकरी का कुछ ठिकाना नहीं। अच्छे से अच्छा काम करनेवाला कर्मचारी भी यह नहीं कह सकता कि वह बराबर रियासत में बना रहेगा। प्राय: यह देखा गया है कि जितना ही जो कर्मचारी योग्य और अच्छा काम करनेवाला होता है उतना ही महाराज उसे कम पसन्द करते हैं, क्योंकि अपने उच्च सिद्धान्तों के कारण वह झूठ-मूठ इधर-उधर की खुशामद तथा गन्दे काम नहीं कर सकता। देशी रियासतों की यही सब बातें देखकर अच्छे और योग्य आदमी अंग्रेजी राज्य की अपेक्षा वहाँ अधिक तनख्वाह चाहते हैं।

अब हम यहाँ थोड़े में उस रीति की हानि और लाभ पर विचार करेंगे जिसके अनुसार देशी रियासतों में अंग्रेजी सरकार के कर्मचारी बुलाये जाते हैं।

पहली बात तो यह है कि रियासत को ऐसे कर्मचारियों को उससे अधिक तनख्वाह देनी पड़ती है जितनी वे सरकारी नौकरी में पाते हैं। उसके अतिरिक्त उनकी पेंशन की रकम भी रियासत को भरनी पड़ती है।

वे जब होगा तब रियासत की नौकरी छोड़कर अपनी सरकारी जगह पर वपस चले जाएँगे।

यदि उनमें से कोई कुचाल करेगा और छुड़ दिया जाएगा तो रियासत को इस बात का ध्यान रखना पड़ेगा कि उसके छुड़ाए जाने का कारण ऐसा प्रबल हो जिससे अंग्रेजी सरकार को सन्तोष हो जाए।

ऐसा लोग राजनीति में प्राय: कच्चे होते हैं क्योंकि अंग्रेजी सरकार के यहाँ वे बहुत छोटी जगहों पर रहते हैं। वे नीचे से ऊपर तक सरकारी राज्य के सारे ढाँचे को नहीं समझे रहते।

दूसरी ओर जो देखते हैं तो अंग्रेजी सरकार ने अपने यहाँ से कर्मचारी देने का जो सुविधा देशी रियासतों के लिए कर दिया है उससे लाभ भी कई दिखाई पड़ते हैं। देशी रियासतों को कर्मचारी चुनने के लिए बहुत मैदान मिल जाता है। इसके सिवाय उन्हें ऐसे सीखे सिखाए कर्मचारी मिल जाते हैं जो स्थानिक संबंध व ईष्या द्वेष से रहित होते हैं। ऐसे कर्मचारियों से रियासतों को बहुत लाभ पहुँच जाता है।

यहाँ दो एक बातों की चेतावनी भी आवश्यक है। राज्य के सब कार्य विभागों को बुराई से बचाये रखना पहला कर्तव्य है। अत: देशी रियासतों को किसी ऐसे आदमी को अपने यहाँ न लेना चाहिए जो किसी भारी अपराध के कारण सरकारी नौकरी से अलग किया गया हो। ऐसे लोग बहुत कम तनख्वाह पर काम करने के लिए मुस्तैद होंगे। वे राजा-महाराजाओं पर कई तरह का जोर डालेंगे। कभी वे कहेंगे कि 'हम कुछ तनख्वाह नहीं चाहते, केवल महाराज के साथ रहकर कुछ इस तरह के काम यों ही करना चाहते हैं, जैसे इधर-उधर की बातों की खबर देना, मामलों में राय देना, अखबारों में लिखना इत्यादि।' पर ऐसे लोगों को एकदम फटकार देना चाहिए।

ऐसे सरकारी नौकरों को रखना भी ठीक नहीं जो पेंशन पा चुके हों। जो सरकारी काम के लिए असमर्थ हैं वे देशी रियासतों का काम कैसे अच्छा करेंगे। हाँ, यदि कोई बड़ा अनुभवी और योग्य मनुष्य, और उसमें कार्य करने की पूरी शक्ति हो, तो उसे ले लेना चाहिए।

पहले रियासत के नौकरों को तनख्वाह, ज़मीन, पालकी खर्च, इनाम इत्यादि कई तरह की रकमें दी जाती थीं। इससे बहुत सी धोखेबाजी और गड़बड़ी होती थी। अब नौकरों की केवल नकद तनख्वाह बाँधनी चाहिए।


रियासत की नौकरियाँ- जबकि भिन्न-भिन्न विभागों के अधिकारी योग्य चुने गए हैं तब उन्हें लोगों को मुकर्रर करने और तरक्की देने आदि का पूरा अधिकार देना चाहिए। जुरमाना करके मुअत्तल करने और बरखास्त करने का अधिकार भी उन्हीं के हाथ में रहना चाहिए। बिना इस अधिकार के वे सुंदर प्रबंध और व्यवस्था नहीं रख सकते। इसका यह अभिप्राय नहीं कि वे अपने इस अधिकार का मनमाना प्रयोग करें।

किसी विभाग का अधिकारी ही यह ठीक-ठीक जान सकता है कि उस विभाग की किसी जगह के लिए कैसी योग्यता चाहिए और किसी उम्मीदवार में वह योग्यता है व नहीं। वही ठीक-ठीक विचार कर सकता है कि उसके मातहतों में से किसे तरक्की मिलनी चाहिए। अत: नौकरी आदि देने के विषय में उसी की राय पक्की माननी चाहिए।

मूर्ख और स्वार्थी लोग राजाओं को सुझाते हैं कि नौकरी आदि देने का सारा अधिकार महाराज ही अपने हाथ में रखें, अधिकारियों पर न छोड़ें। चतुर राजा ऐसी सलाह को नियम और व्यवस्था के विरुद्ध समझ कभी नहीं मानते।

जबकि प्रधान उद्देश्य अत्यन्त योग्य मनुष्यों को ही रखना और तरक्की देना है तब इस उद्देश्य के विरुद्ध जो सिफारिशें पहुँचें उन पर कुछ ध्यान न देना चाहिए, चाहे वे कहीं से आवें। ऐसी सिफारिशें मित्रों व संबंधियों के यहाँ से आ सकती हैं, सरकारी अफसरों के यहाँ से आ सकती हैं, पर राजा को अपने उद्देश्य पर दृढ़ रहना चाहिए।

रियासत के काम के कई विभाग व महकमे होते हैं। प्रत्येक विभाग के लिए एक विशेष प्रकार की योग्यता चाहिए। अत: यह बात नहीं है कि जो आदमी एक विभाग के लिए उपयुक्त है वह अवश्य दूसरे के लिए भी उपयुक्त है। अत: कर्मचारियों की बदली एक विभाग से दूसरे विभाग में बिना समझे बूझे न कर देनी चाहिए। जैसे किसी माल के महकमे के अफसर को न्याय विभाग में चटपट न बदल देना चाहिए।

राजा-महाराजा मुकर्ररी व तरक्की के लिए किसी प्रकार का नजराना न लें। वे अपने किसी कर्मचारी को मुकर्ररी व तरक्की के लिए किसी से घूस न लेने दें। उत्तम राज्य शासन के लिए वह बड़ा भारी विष है, इससे बचना चाहिए। जो कर्मचारी इस सिद्धान्त के विरुद्ध कोई कार्यवाई करे वह निकाल बाहर कर दिया जाए और यदि आवश्यक हो तो फौजदारी सुपुर्द किया जाए।

अच्छे पदों पर रखे जाने के लिए लोग और कई तरह की चालें चलते हैं। जैसे कोई महाराज से आकर कहता है, “यह जगह मुझे मिल जाए तो मैं मालगुजारी चौगुनी कर दूँ।” यदि महाराज रुपए के भक्त हुए तो बात में आ गए। फल क्या हुआ कि प्रजा को पीड़ा पहुँचने लगी, आय बढ़ाने का उत्तम उपाय यह नहीं है। आय वही ठीक है जो सुराज्य के कारण हो, प्रजा के धन धान्य की वृद्धि के कारण हो, न कि गला दबाने से।


अंग्रेजी सरकार का संबंध- यह तो प्रत्यक्ष है कि हिमालय से कन्याकुमारी तक और रंगून से पेशावर तक अंग्रेजी सरकार ही का एकाधिपत्य है। इस आधिपत्य के अंतर्गत अंग्रेजी अमलदारी भी है तथा वे प्रदेश भी हैं जिनमें देशी रजवाड़े राज करते हैं। अंग्रेजी सरकार ही इस इतने बड़े भूखण्ड पर शान्ति रखती है।

इस बड़े कार्य को अंग्रेजी सरकार ऐसी शक्ति के साथ करती है जो अनिवार्य है। यह ऐसी शक्ति है जो विरोध करनेवालों का बात-की-बात में ध्वंस कर सकती है।

अंग्रेजी सरकार की यह शक्ति इस कारण और भी अनिवार्य है कि उसमें बाहुबल, बुद्धिबल और नीतिबल तीनों का संयोग है। इसी सुख संयोग के कारण अंग्रेजी राज्य अपने से पहले के राज्यों की अपेक्षा अधिक शक्तिसम्पन्न और स्थिर है।

इससे सिद्ध है कि प्रत्येक देशी रजवाड़े को उस अंग्रेजी सरकार से मिलकर चलना चाहिए जिसकी इतनी अनिवार्य शक्ति है। जो देशी राजा उसे कुपित करे उसकी बड़ी भारी मूर्खता है। अंग्रेजी सरकार को प्रसन्न रखना राजा-महाराजाओं के लिए अत्यन्त ही आवश्यक है। इस आवश्यकता को वे जहाँ तक समझें वहाँ तक उनके लिए अच्छा ही है।

आनंद की बात यह है कि अंग्रेजी सरकार के गुण और व्यवहार ऐसे हैं कि उसे प्रसन्न रखने में कोई बड़ा खर्च व कठिनता नहीं है। जिस प्रकार अंग्रेजी सरकार का बाहुबल अदमनीय है उसी प्रकार बुद्धि, नीति और न्याय का बल भी अदमनीय है। वह अनीति, अन्याय और नासमझी की बातों से सदा बचती है। यदि उसे यह अच्छी तरह दिखला दिया जाए कि यह काम अनीति और अन्याय का है तो वह उससे किनारे हो जाएगी। यह अंग्रेजी सरकार में बड़ा भारी गुण है। इसी गुण को देख देशी रियासतों को भरोसा है कि वे सुख और मान मर्यादा के साथ बराबर बनी रहेंगी।

इन सब बातों को विचार कर देशी रजवाड़ों को चलना चाहिए। उन्हें उन लोगों से कुछ भी संबंध न रखना चाहिए जो अंग्रेजी सरकार के विरुद्ध हों। उन्हें ऐसे राजनीतिक आन्दोलनों में सहायता न देनी चाहिए जो अंग्रेजी सरकार के सरासर विरुद्ध हों।

आजकल देशी रजवाड़ों के लिए अंग्रेजी सरकार को प्रसन्न रखने की सबसे अच्छी युक्ति यही है कि वे अपने राज्य का शासन अच्छा करें और इसका ध्यान रखें कि उनका प्रबंध ऐसा न हो जिससे अंग्रेजी सरकार के प्रबंध में किसी प्रकार की बाधा पड़े।

यदि अंग्रेजी सरकार से किसी बात में मतभेद हो तो राज्यों को अपने पक्ष की युक्तियों को उसके सामने उपस्थित करना चाहिए। अपने स्वत्व, मान और अधिकार की रक्षा के लिए उन्हें अंग्रेजी सरकार के न्याय और नीति की दुहाई देनी चाहिए। अत: राजा-महाराजाओं तथा उनके दीवनों को उसके न्याय और नीति के मुख्य सिद्धान्तों को जान लेना चाहिए। इनमें से कुछ थोड़े से यहाँ बतलाए जाते हैं।

पहले हम महारानी विक्टोरिया के 1858 वाले घोषणापत्र को लेते हैं। उसका एक पैरा इस प्रकार है, “हम अपने वर्तमान राज्य को और बढ़ाना नहीं चाहतीं और जिस प्रकार हम अपना राज्य किसी को दबाने और अपना हक किसी को मारने न देंगी उसी प्रकार दूसरों के राज्यों पर किसी प्रकार के अतिक्रमण की अनुमति न देंगी।”

ऊपर के वक्यों से एक बड़ा सिद्धान्त तो यह निकलता है कि अंग्रेजी सरकार ने दृढ़ प्रतिज्ञा की है कि हम किसी देशी रियासत की कोई ज़मीन न लेंगे। किसी कारण व किसी बहाने से अंग्रेजी सरकार किसी देशी रियासत की कोई जमीन न लेगी। इस प्रकार देशी राज्यों का एक बड़ा भारी खटका तो छूट गया। उन्हें इस बात का निश्चय दिलाया गया है कि उनका राज्य बराबर बना रहेगा। इस निश्चय प्रदान के लिए देशी रजवाड़ों को अंग्रेजी सरकार का अनुगृहीत होना चाहिए।”

पर इस निश्चय दिलाने का यह मतलब नहीं कि अंग्रेजी सरकार किसी राजा को कभी गद्दी से उतारेगी ही नहीं, यदि कोई राजा घोर कुप्रबंध का अपराधी होगा तो अंग्रेजी सरकार से विद्रोह व शत्रुता करेगा अथवा उसके शत्रुओं से मिलेगा तो भी वह उतार दिया जाएगा। पर ऐसी दशा में भी अंग्रेजी सरकार उस गद्दी पर से उतारे हुए राजा का राज्य अपने राज्य में मिला न लेगी, राजा चाहे उतार दिया जाए पर वह राज्य बना रहेगा। उस राज्य की गद्दी पर कोई दूसरा पुरुष, भरसक उतारे हुए राजा को कोई उत्तराधिकारी व संबंधी, बिठा दिया जाएगा।

महारानी के घोषणा पत्र का यह पैरा भी ध्यान देने योग्य है, “हम देशी रजवाड़ों के स्वत्व और मान मर्यादा का वैसा ही ध्यान रखेंगी जैसा अपने स्वत्व और मान मर्यादा का। और हमारी इच्छा है कि वे तथा हमारी प्रजा उस सुख समृद्धि का भोग करें जो भीतरी शान्ति और सुराज्य से प्राप्त होती है।”

इस संबंध में एक बात का ध्यान रखना चाहिए कि देशी रजवाड़े कोई ऐसा अधिकार व ऐसी प्रतिष्ठा न चाहें जो अति व विलक्षण हो व जो सभ्य समाज व सभ्य राज्य के प्रतिकूल हो, जैसे किसी राजा का यह अधिकार चाहना ठीक नहीं है कि वह जिस स्त्री को चाहे जबरदस्ती अपने महल में रख ले, जिसे चाहे उसे अकारण कैद कर दे। किसी राजा का यह अधिकार माँगना ठीक नहीं है कि वह जहाँ कहीं जाए उसके सामने कोई चारपाई पर बैठा न रहने पावे, कोई छाता लगाकर न चलने पावे। इसी प्रकार कोई राजा यह अधिकार नहीं माँग सकता कि हम ऊपर गद्दी पर बैठा करें और सरकारी रेजिडेंट बिना कुर्सी के नीचे फर्श पर बैठा करे। किसी देशी रियासत के साथ जो संधियाँ हुई हैं उनके विरुद्ध कोई अधिकार माँगना भी ठीक नहीं है।

महारानी के इन शब्दों से कि, “हम देशी रजवाड़ों के स्वत्व और मान का वैसा ही ध्यान रखेंगी जैसा अपने स्वत्व और मान का” यह न समझना चाहिए कि महारानी ने देशी रजवाड़ों को अपनी बराबरी का बनाया है। यह बराबरी कभी हो नहीं सकती। अंग्रेजी सरकार संसार की एक बड़ी भारी शक्ति है। महारानी का अभिप्राय केवल यही है कि वे देशी रजवाड़ों का जो जैसा अधिकार व जो जैसी प्रतिष्ठा है उसका वैसा ही ध्यान रखेंगी जैसा अपने अधिकार और प्रतिष्ठा का।

महारानी ने अपने घोषणा पत्र में यह भी कहा है कि देशी रजवाड़ों के साथ जो जो सन्धियाँ हुई हैं उनका यथोचित पालन किया जाएगा, और यह आशा प्रकट की है कि देशी रजवाड़े भी उनका यथोचित पालन करेंगे।

महारानी ने अपना घोषणा पत्र समाप्त करते हुए जो संकल्प प्रकट किया है वह प्रत्येक छोटे बड़े शासक के ध्यान देने योग्य है। महारानी ने कहा है, “यह हमारी प्रबल इच्छा है कि भारतवर्ष के उद्योग व्यवसाय की वृद्धि करें, सर्वसाधारण के लाभ और उन्नति के काम बढ़ावें और अपनी सारी प्रजाओं की भलाई के लिए राज करें। उनकी बढ़ती से हमारा बल है, उनके सन्तोष से हमारी रक्षा है, और उनका धन्यवाद ही हमारा सबसे बड़ा इनाम है।” इसी प्रकार प्रत्येक राजा को अपनी सारी प्रजा के लाभ के लिए राज करना चाहिए, न कि केवल अपने और अपने थोड़े से मित्रों और आश्रितों के भोग-विलास और सुख के लिए।

अंग्रेजी सरकार यह अपना कर्तव्य समझती है कि वह एक रियासत को दूसरी रियासत की ज़मीन दबाने व उस पर जोर जुल्म न करने दे। इसी कर्तव्य के विचार से अंग्रेजी सरकार यह भी देखती है कि कोई रियासत ऐसा काम न करे जिससे दूसरी रियासत उसकी ज़मीन दबाने व उस पर जोर जुल्म करने के लिए तैयार हो। यही कारण है कि जिससे अंग्रेजी सरकार प्रत्येक रियासत से कहती है कि किसी दूसरी रियासत के साथ सीधे पत्र व्यवहार न करो। दो रियासतों के बीच जो लिखा पढ़ी हो वह अंग्रेजी सरकार के अफसरों द्वारा हो।

अंग्रेजी सरकार प्रत्येक देशी रियासत से कहती है कि यदि तुम्हारे और किसी दूसरी रियासत के बीच कोई झगड़ा हो तो उसे हमसे कहो। इसका भार अंग्रेजी सरकार के ऊपर है कि वह ऐसे झगड़ों का ठीक-ठीक निपटेरा करे।

अंग्रेजी सरकार ने देशी रियासतों को रूस, फ्रांस, जर्मनी, अमेरिका आदि दूसरी शक्तियों के जोर जुल्म से बचाने का भार भी अपने ऊपर लिया है। इसीलिए वह इस बात को भी देखती रहती है कि कहीं कोई देशी रियासत इन शक्तियों में से किसी को चिढ़ा न दे जिससे वह जोर जुल्म करने पर उतारू हों। इसीलिए वह कहती है कि देशी रियासतें दूसरी शक्तियों के साथ पत्र व्यवहार न रखें। इसीलिए यदि किसी दूसरी शक्ति को किसी देशी रियासत से किसी प्रकार की हानि पहुँच जाए तो अंग्रेजी सरकार तुरन्त उस देशी रियासत से उस हानि को भरवा देगी। जैसे यदि कोई देशी रियासत किसी दूसरी शक्ति की प्रजा को झूठ मूठ कैद करेगी, उसकी धन सम्पत्ति छीनेगी तो वह शक्ति उस रियासत से हर्जाना माँग सकती है।

अंग्रेजी सरकार ने देशी रियासतों को उनकी प्रजा के जोर जुल्म से बचाने का भार भी अपने ऊपर लिया है। इसी से वह यह भी देखती रहती है कि कोई रियासत कुनीति करके अपनी प्रजा को बिगड़ने न दे।

अंग्रेजी सरकार के एक उच्च अधिकारी ने इस विषय पर साफ कहा है, “देशी रजवाड़ों को भीतरी उपद्रव व बलवे से बचाने का यदि भार लिया गया है तो साथ ही उन कार्यवाइयों में हस्तक्षेप करने का अधिकार भी हाथ में रखा गया है जिनसे उपद्रव व बलव खड़ा होता है। इस हस्तक्षेप की आवश्यकता इस कारण और अधिक पड़ती है कि प्राय: सब रियासतों में एक व्यक्तिगत शासन है जिससे शासन का भला व बुरा होना राजा ही के गुण और आचरण पर रहता है।”

लॉर्ड नार्थब्रुक ने बड़ौदा के महाराज मल्हारराव गायकवड़ के पास 25 जुलाई, 1874 को जो खरीता भेजा था उसमें उन्होंने साफ लिखा था, “मेरे मित्र! मैं अंग्रेजी फौज किसी बुराई करते हुए आदमी को बचाने के लिए नहीं भेज सकता। किसी राज्य की कुनीति को यदि ब्रिटिश शक्ति सहारा देगी तो वह भी उस कुनीति के दोष की भागी होगी। इसलिए अंग्रेजी सरकार यह देखना अपना अधिकार क्या कर्तव्य समझती है कि किसी राज्य का बिगड़ा हुआ प्रबंध सुधारा जाए और उसकी बुराइयाँ दूर हो जाएँ। यदि ये बातें न पूरी होंगी, यदि घोर कुव्यवस्था बनी रहेगी, यदि बड़ौदा की प्रजा के साथ उचित न्याय न होगा, यदि धन और प्राण की रक्षा न होगी, यदि प्रजा और देश के हित पर इसी तरह बराबर ध्यान न दिया जाएगा तो अंग्रेजी सरकार अवश्य बीच में पड़ेगी और इन बुराइयों को दूर करने और सुराज्य स्थापित करने के जो उपाय उसे उचित समझ पड़ेंगे वही करेगी। राज्य का नाश करनेवाली इन बुराइयों को दूर करने के लिए यदि अंग्रेजी सरकार बीच में पड़ी तो यह समझना चाहिए कि उसने गायकवड़ के साथ भी मित्रता का काम किया और उनकी प्रजा के प्रति भी अपने कर्तव्य का पालन किया।”

यह अच्छी तरह समझ रखना चाहिए जब तक कोई कारण न मिलेगा, अंग्रेजी सरकार देशी रियासतों के प्रबंध में कभी दखल न देगी।

यदि किसी दूसरे राजा से मिलना हो तो बड़ी शिष्टता और सभ्यता के साथ मिलना चाहिए जिसमें उसे अंग्रेजी सरकार से इस विषय में किसी प्रकार की शिकायत करने का अवसर न मिले।

यदि किसी दूसरी रियासत का कोई असामी व अपराधी रियासत में आ जाए तो अपने यहाँ की पुलिस द्वारा उसे पकड़ाने का पूरा बन्दोबस्त करना चाहिए।

फौजदारी और दीवनी के मामलों में तथा वानिज्य व्यापार के संबंध में दूसरी रियासत की प्रजा के साथ वैसा ही व्यवहार करना चाहिए जैसा अपनी प्रजा के साथ। उनमें कोई भेदभाव न रखना चाहिए।

जहाँ तक हो सके, सरहदी झगड़े न उठने पाए। और यदि कभी इस तरह का कोई झगड़ा उठ भी खड़ा हो तो शान्ति भंग कभी न होने दें। झगड़े की जाँच और निपटारे के लिए अंग्रेजी सरकार को लिखें।

जहाँ लट्ठे गाड़कर सरहद बाँधी गई है वहाँ उन लट्ठों की पूरी रक्षा करनी चाहिए।

यदि किसी दूसरे राजा की कुछ निज की ज़मीन रियासत में हो तो असामियों से लगान इत्यादि वसूल करने में उसे पूरी सहायता पहुँचानी चाहिए।

ऐसी सड़कों व पुल आदि के बनवाने में जिनसे दोनों रियासतों को लाभ है पूरा योग देना चाहिए।

दूसरे राजाओं के स्वत्व और मान मर्यादा का वैसा ही ध्यान रखना चाहिए जैसा अपने स्वत्व और मान मर्यादा का।

इंग्लैण्ड, फ्रांस, जरमनी, रूस, अमेरिका आदि बहुत से साम्राज्यों के लोग घूमते घामते देशी रियासतों में आ जाते हैं जिनमें से अधिकांश यूरोपियन होते हैं। यह समझ रखना चाहिए कि यूरोपियन कैसा ही हो जहाँ कहीं रहेगा उसकी गवर्नमेण्ट उसकी रक्षा करेगी। वह उस पर किसी प्रकार का अन्याय व अत्याचार न होने देगी। इससे देशी रियासतों को अपने राज्य में आए यूरोपियनों का बड़ा ध्यान रखना चाहिए। जहाँ तक हो सके, राजा-महाराजाओं को यूरोपियनों के साथ ज्यादा रगड़ा न करना चाहिए। यदि कोई यूरोपियन राजा-महाराजाओं से मिलना चाहे तो उन्हें उससे तभी मिलना चाहिए जब वह कोई ठीक परिचय पत्र उपस्थित करे, अन्यथा उसे रेजिडेंट के पास भेज देना चाहिए। यदि कोई यूरोपियन परिचय पत्र के साथ आए तो उसका पूरा सम्मान करना चाहिए।

देशियों की प्रकृति और रीति भाँति न जानने के कारण प्राय: यूरोपियन लोग देशी रियासतों में आकर भूल चूक करते हैं। इसके लिए उनसे बुरा न मानना चाहिए। जैसे कभी कोई यूरोपियन किसी मंदिर में घुस जाए, किसी पवित्र स्थान पर शिकार करे व मछली मारे तो उसे दण्ड देने का प्रयत्न न करना चाहिए, धीरे से समझा देना चाहिए। यदि समझाने से न माने तो रेजिडेंट को सूचना देनी चाहिए।

इस बात का बन्दोबस्त रहे कि कोई यूरोपियन देशी रियासत में लूटा न जाए। यदि किसी यूरोपियन के साथ कोई बुराई की गई हो तो अपराधियों को उचित दण्ड देना चाहिए। इसमें ढिलाई करने से रियासत की बदनामी हो जाएगी।

यदि कोई यूरोपियन अफसर रियासत में कोई छोटा-मोटा अपराध करे, किसी को मारे पीटे, रियासत के अधिकारियों का अपमान करे तो मामले की ठीक-ठीक इत्तला रेजिडेंट को देनी चाहिए, वह उचित कार्यवाई करेगा। या तो वह अफसर बदल दिया जाएगा, या मुअत्ताल कर दिया जाएगा अथवा और कोई दण्ड पाएगा।

सम्भव है कि कभी अंग्रेजी सरकार से शत्रुता रखने वाले यूरोपियन देशों के भेजे हुए गुप्तचर अंग्रेजी सरकार के प्रति विद्वेष फैलाने के लिए रियासत में आ जाएँ। ऐसे गुप्तचरों से बहुत चौकस रहना होगा। उनके विषय में जो-जो बातें मालूम हों, सबकी खबर सरकारी रेजिडेंट को पहुँचानी होगी।

देशी रियासतों को चाहिए कि वे प्रजा के धर्म व मत में किसी प्रकार का हस्तक्षेप न करें क्योंकि धर्मभाव बहुत प्रबल होता है।

किसी बहुत दिनों से चली आती हुई रीति को एकबारगी न बदल देना चाहिए। जिस अधिकार को बहुत से लोग बहुत दिनों से भोगते आ रहे हों उससे उन्हें एकबारगी न वंचित कर देना चाहिए।

सारांश यह कि कोई ऐसा काम न करना चाहिए जिससे बहुत से लोगों में घोर असन्तोष फैले।

अंग्रेजी सरकार के शत्रु और मित्र देशी रियासतों के भी शत्रु और मित्र हैं। यदि अंग्रेजी सरकार से किसी दूसरी शक्ति से लड़ाई हो रही है तो कोई देशी रियासत उस शक्ति के साथ मित्रता का व्यवहार नहीं रख सकती। इसी प्रकार यदि कोई आदमी अंग्रेजी सरकार के विरुद्ध कार्यवाई करता हो, उसके विरुद्ध किसी राजनीतिक आन्दोलन में सम्मिलित होता हो तो देशी रियासतों को ऐसे आदमी को किसी प्रकार का आश्रय न देना चाहिए।

इसी प्रकार यदि कोई आदमी किसी देशी रियासत के विरुद्ध कोई कार्यवाई करता होगा, वहाँ उपद्रव खड़ा करना चाहता होगा तो अंग्रेजी सरकार ऐसे आदमी को किसी प्रकार का आश्रय न देगी, जहाँ तक होगा उसे दबाएगी।

अंग्रेजी सरकार के साथ जो संधियाँ हुई हैं उनके अनुसार अब वे लड़ाइयाँ सब दिन के लिए दूर हो गईं जो देशी रियासतों के बीच हुआ करती थीं और जिनसे सारा देश दु:खी था।

संधि के अनुसार प्रत्येक देशी रियासत को चाहिए कि अंग्रेजी सरकार जो कुछ उसके भले के लिए सलाह दे उसे मान ले।

यहाँ पर यह समझ लेना भी आवश्यक है कि कौन सलाह अंग्रेजी सरकार की समझनी चाहिए और कौन सलाह उसके मातहत अधिकारियों की। संधि के अनुसार जो सलाह वॉइसरॉय व बड़े लाट देंगे वही अंग्रेजी सरकार की सलाह समझी जाएगी और उसी को मानने को देशी रियासतें बद्ध हैं।

मेरे कहने का यह अभिप्राय नहीं कि कमिश्नर, कलेक्टर आदि मातहत अंग्रेज अधिकारियों की राय मानी ही न जाए। ऐसी राय कभी-कभी बड़े काम की होती है। कहने का प्रयोजन यह है कि उनकी राय न मानने से देशी रियासतों पर संधि भंग का दोष नहीं लग सकता। बात भी ठीक है। यदि देशी रजवाड़ों के लिए प्रत्येक श्रेणी के अफसरों की राय का मानना आवश्यक हो तब तो वे कुछ कर ही न सकेंगे।

भारत सरकार जो सलाह देगी वह या तो पत्र द्वारा सीधे महाराज के पास भेजेगी अथवा रेजिडेंट के मारफत। यदि रेजिडेंट के मारफत भारत सरकार सलाह देगी तो रेजिडेंट कह देगा कि मैं यह सलाह भारत सरकार की आज्ञानुसार देता हूँ। यदि भारत सरकार को अपनी सलाह पर जोर देना होगा तो वह कभी-कभी इस बात का आभास भी दे देगी कि यह सलाह संधिपत्र के अनुसार दी जा रही है।

यह तो प्रत्यक्ष है कि संधि के अनुसार भारत सरकार जो सलाह देगी वह रियासत के भले के लिए होगी। अत: कोई ऐसी सलाह न दी जाएगी जिससे रियासत की कुछ हानि हो या जो रियासत की मान मर्यादा के विरुद्ध हो। जैसे किसी राजा या महाराजा को यह सलाह न दी जाएगी कि वे अपनी कुछ ज़मीन छोड़ दें या दीवनी व फौजदारी का इख्तियार अपने हाथ में ना रखें, इत्यादि।

यह हो सकता है कि भारत सरकार जिस सलाह से राज्य की भलाई समझती हो उससे महाराज कुछ भलाई न समझते हों। ऐसी दशा में महाराज को अपनी राय सरकार को अच्छी तरह समझानी चाहिए। अंग्रेजी सरकार में यही तो बड़ा भारी गुण है कि यदि उसे कोई बात युक्ति के साथ समझा दी जाए तो वह उसे मान लेती है।

तर्क-वितर्क के उपरान्त जो सम्मति सरकार स्थिर करे उसे संधि के अनुसार मान लेना चाहिए। हाँ, यदि कभी कोई ऐसा ही भारी मामला आ पड़े तो वह भारत सेक्रेटरी के पास भी विचार के लिए भेजा जा सकता है।

यह बात भी अच्छी तरह समझ रखनी चाहिए कि अंग्रेजी सरकार जब आवश्यकता देखेगी तभी इस प्रकार की सलाह देगी। यह आवश्यकता उस समय होगी जब कोई रियासत जान बूझकर व अनजाने में ऐसी बात की ओर ध्यान न देगी जिससे उसकी भलाई है। पर जब कोई रियासत अपना काम बुद्धि और विवेक के साथ कर रही है तब उसके साथ किसी प्रकार की छेड़छाड़ न की जाएगी। भारत सरकार बराबर यही चाहती है कि देशी रियासतें जो उन्नति करें आप से आप करें, बाहरी दबाव के कारण नहीं, पर यदि कोई रियासत सरासर भूल करेगी तो अंग्रेजी सरकार का यह कर्तव्य होगा कि वह संधि के अनुसार दखल दे।

अंग्रेजी सरकार देशी राज्यों के लिए इतने उच्च शासन का आदर्श न रखेगी जिसका वे निर्वाह न कर सकें। इसी प्रकार वह इस बात का भी दबाव न डालेगी कि देशी राज्य एकदम से अंग्रेजी राज्य प्रणाली की नकल करें। अंग्रेजी नमूने पर कहाँ तक चलना उचित होगा यह प्रत्येक रियासत आप देख लेगी।

अंग्रेजी सरकार इस प्रकार की सलाह जब कोई भारी मामला होगा तभी देगी, थोड़ी थोड़ी बातों में नहीं, जिससे रियासत के हाथ पाँव बँध जाए। संधि के अनुसार अंग्रेजी सरकार जो सलाह देगी वह प्रसंग के अनुसार जहाँ तक होगा बड़े सुदृढ़ और कोमल भाव से देगी। भरसक इस बात का ध्यान रखा जाएगा कि ऐसी सलाह कठोर शब्दों में न हो और उससे देशी राजा के अधिकार में बट्टा न लगे।

अंग्रेजी सरकार की प्रवृत्ति के विषय में एक बड़ा भारी सिद्धान्त जान रखना चाहिए। जहाँ (देशी) राजा और उसकी प्रजा दोनों को साथ ही संतुष्ट करना सम्भव होगा वहाँ तो अंग्रेजी सरकार दोनों के लाभ का ध्यान रखेगी पर जहाँ दोनों के लाभों में परस्पर विरोध होगा वहाँ अंग्रेजी सरकार प्रजा ही का लाभ देखेगी।

आदर-सम्मान- सरकारी रेजिडेंटों और राजा-महाराजाओं के बीच पूरा मेल रहना चाहिए। इसके लिए दोनों ओर से प्रयत्न होना चाहिए। इस विषय में जो दस्तूर चला आता हो उसका बराबर ध्यान रखना चाहिए, जैसे रेजिडेंट यदि मिलने आवें तो उन्हें कहाँ जाकर लेना चाहिए, किस प्रकार बैठाना चाहिए, इन सब बातों का पूरा विचार रखा जाए। सारांश यह कि रेजिडेंट को हर तरह से निश्चय रहे कि महाराज उनके उचित सम्मान का बराबर ध्यान रखते हैं। रेजिडेंट के मन में यह विचार कभी न हो कि यदि अवसर पाएंगे तो महाराज उनके सम्मान में कुछ कसर करेंगे। एक उदाहरण से अभिप्राय स्पष्ट हो जाएगा। मान लीजिए कि यह दस्तूर चला आता है कि किसी विशेष अवसर पर रेजिडेंट महाराज के दाहिने बैठें। यदि भूल से या यों ही रेजिडेंट साहब महाराज के बाएँ बैठ गए तो महाराज को यह न चाहिए कि वे चुपचाप रह जाएँ बल्कि उन्हें तुरन्त रेजिडेंट साहब को अपने दाहिने बैठाना चाहिए।

यदि इतना ध्यान रखने पर भी कभी कोई भूल हो जाए तो महाराज को तुरन्त उसके लिए खेद प्रकट करना चाहिए।

रेजिडेंट को भी महाराज को राज्य का शासक समझ उनके उचित सम्मान का बराबर ध्यान रखना होगा। सारांश यह कि दोनों को एक दूसरे के साथ उचित व्यवहार रखना पड़ेगा। इस विषय में उनके बीच किसी प्रकार की ईष्या व आशंका न होनी चाहिए।

डाली इत्यादि भेजने का जो दस्तूर है उसके सिवाय रेजिडेंट को और किसी तरह की भारी नज़र देने की कोशिश न करनी चाहिए। अंग्रेजी अफसरों को बहुमूल्य भेंट स्वीकार करने का निषेध है और प्राय: उनमें इतना विवेक होता है कि वे छिपकर भी इस निषेध का उल्लंघन नहीं करना चाहते। सारांश यह कि किसी अंग्रेजी अफसर पर गुप्त व अनुचित रीति से निहोरा डालने का यत्न न करना चाहिए।

रेजिडेंट को जो बातें बतलाई या लिखी जाएँ वे बिलकुल जाँची हुई और सच्ची हों। इसमें कसर होने से विश्वास की हानि होती है।

रेजिडेंट को जो बात बतलाई या लिखी जाए वह पूर्ण शिष्टता और शान्ति के साथ। जहाँ मतभेद प्रकट करना हो वहाँ इसका और भी अधिक ध्यान रखा जाए।

कभी-कभी कुछ बातों में मतभेद भी होगा। बहुत सी बातें तो जाँच, पूछताछ और सोच विचार करने से तय हो जाएँगी। कुछ बातों में मिलकर निपटारे की राह निकालनी होगी। बाकी और छोटे-छोटे मामलों में एक को दूसरे की बात मानने ही से बनेगा।

पर कुछ मामले ऐसे भी आन पड़ेंगे जिनमें भारी बातों का वारा न्यारा होगा और जिनमें मतभेद भी अधिक होगा। ऐसे मामलों में गहरी लिखापढ़ी की जरूरत होगी। ऐसे मामलों में महाराज की ओर उनका मत प्रकट करने के लिए जो पत्र भेजे जाएँ वे बड़ी सावधनी से लिखे जाएँ जिसमें जब वे अंग्रेजी सरकार के ऊँचे अधिकारियों के हाथ में जाएँ तब उनका अभिलाषित प्रभाव पड़े। ऐसे पत्र पूर्ण और अभिप्राय गर्भित हों, उनकी भाषा और ध्वनि शिष्ट और नम्र हो, उनमें लिखी बातें और दलीलें ठीक और स्पष्ट हों, और उनमें जिन सिद्धान्तों की आड़ ली गई हो वे ऐसे हों जिन्हें अंग्रेजी सरकार स्वीकार करती हो।

यहाँ पर यह भी बतला देना आवश्यक है कि ऐसी लिखा पढ़ी के लिए वकील बैरिस्टर उपयुक्त नहीं होते जब तक उन्हें राजनीतिक पत्र व्यवहार का भी अभ्यास न हो। जिस ढंग से एक वकील जज को सम्बोधन करता है वह उससे कहीं भिन्न है जिस ढंग से राजा-महाराजा अंग्रेजी सरकार को सम्बोधन करते हैं। कानूनी दलीलें काम में लाई जाएँ पर ऐसी लिखा पढ़ी शासन विभाग के अनुभवी अधिकारियों ही के द्वारा होनी चाहिए।

जिन मामलों में मतभेद होगा उन्हें सेक्रेटरी ऑफ स्टेट आदि अंग्रेजी राज्य के प्रधान अधिकारियों के पास भेजने से कभी-कभी मनमुटाव हो जाना भी सम्भव है, पर इतने के लिए राजा-महाराजाओं को अपना पक्ष न छोड़ना चाहिए। अपने अधिकार और मान मर्यादा तथा प्रजा के हित की रक्षा के लिए उन्हें ऐसे मामलों को प्रधान अधिकारियों तक ले जाना चाहिए। इसके लिए अंग्रेजी सरकार उन्हें किसी प्रकार का दोष न देगी, क्योंकि वह भी उनके मान और अधिकार को उसी तरह रक्षित रखना चाहती है जिस तरह अपने मान और अधिकार को।

यदि रेजिडेंट की न्याय बुद्धि में आएगा तो जिन बातों के लिए महाराज प्रधान अधिकारियों के पास लिखेंगे उनका वह भी अपने पत्र में अनुमोदन कर देगा। क्योंकि सच पूछिए तो रेजिडेंट दोनों ओर का प्रतिनिधि है। अंग्रेजी सरकार का नफा नुकसान देखनेवाला भी वही है और देशी रियासत का भी। यदि देशी रियासत की ओर से कोई और प्रतिनिधि अंग्रेजी सरकार के यहाँ होता तो बात दूसरी थी। पर रेजिडेंट ही सरकार का नफा नुकसान महाराज को बतलाता है और महाराज का नफा नुकसान सरकार को। इस कारण उसे दोनों पल्ले बराबर रखने चाहिए और निष्पक्ष रहना चाहिए। काम पड़ने पर उसे देशी रियासत के हित की भरसक रक्षा करनी चाहिए। हर्ष की बात है कि बहुत से रेजिडेंट ऐसे उच्चाशय देखे गए हैं कि उन्होंने अधिकारियों का थोड़ा बहुत कोप सहकर भी देशी रियासतों के हित की पूरी पूरी रक्षा की है।

बात यह है कि देशी रियासत को रेजिडेंट ही से काम पड़ता है। जैसा रेजिडेंट होगा अंग्रेजी सरकार भी उन्हें वैसी ही समझ पड़ेगी। बादशाह की सारी घोषणाएँ और बड़े लाट के सारे उदार संकल्प उन्हें वहीं तक ठीक जान पड़ेंगे जहाँ तक रेजिडेंट उन्हें अमल में लाएगा। अत: रेजिडेंट को वह नि:स्वार्थता, वह उदारता और वह न्यायप्रियता पूरी दिखानी चाहिए जिसके लिए अंग्रेजी सरकार प्रसिद्ध है। जैसा स्वामी हो वैसा उसका प्रतिनिधि होना चाहिए।

सब भारी मामलों में महाराज के सामने उनकी कौंसिल व सभा की पक्की सम्मति उपस्थित की जाए। यदि इस पर भी कोई भारी संदेह की बात बनी रहे तो रेजिडेंट से सलाह लेनी चाहिए, वह नि:स्वार्थ सम्मति देगा। यदि कोई भारी मामला हो तो उसके विषय में कोई संदेह न रहने पर भी रेजिडेंट से राय ले लेना अच्छा ही होगा। पर जरा जरा सी बातों के लिए रेजिडेंट को तंग करना भी विचार और शासन शक्ति की न्यूनता प्रकट करेगा।

रेजिडेंट और महाराज के बीच कोई भारी बात झटपट जबानी न तय हो जानी चाहिए। दीवन को इतना समय मिलना चाहिए कि वह आगा पीछा विचारे, कुछ बातें बतलाए तथा कुछ अपनी सम्मति प्रकाशित करे।

यदि कोई बात जबानी तय भी हुई हो तो वह झटपट लिख ली जाए नहीं तो पीछे से बड़ी गड़बड़ी, भ्रान्ति और विरक्ति होगी। नियम तो यह होना चाहिए कि जब तक कोई बात कागज पर लिख न ली जाए तब तक यह तय न समझी जाए।

जब राजा-महाराजा अपनी रियासत के कर्मचारी विवेक और सावधनी के साथ चुनेंगे तब रेजिडेंट को उनकी मुकर्ररी तरक्की आदि के बारे में किसी तरह दख़ल देने की ज़रूरत न होगी।

रेजिडेंट के पत्रों के जवब जल्दी भेजे जाएँ। पर जो पत्र भारी मामलों के संबंध में हों उनका उत्तर सोच विचार कर दिया जाए।

इस नियम का ध्यान रखना चाहिए कि महाराज की ओर से अंग्रेजी सरकार के प्रधान अधिकारियों के पास जो पत्र भेजे जाएँ वे रेजिडेंट की मारफत, बाला-बाला नहीं।

राजा-महाराजाओं को गुप्त कार्यवाइयों पर कभी विश्वास न करना चाहिए। कोई आकर महाराज से धीरे से कहेगा, “मेरा बड़े लाट साहब पर बहुत कुछ जोर है, मैं महाराज का काम करा सकता हूँ।” कोई तो यहाँ तक आकर कहेंगे कि उनका जोर विलायत के अधिकारियों तक पर है। ऐसे लोग प्राय: ओछे होते हैं और झूठी बातें बनाकर रुपया झारना चाहते हैं। ऐसे लोगों को पास न फटकने देना चाहिए क्योंकि वे केवल रुपया ही नहीं लेंगे बल्कि महाराज की बदनामी करेंगे।

रियासतों में सरकारी रेजिडेंट और उनके सहकारियों को कुछ अधिकार प्राप्त रहते हैं। राज्य तथा उसके कर्मचारियों को उनके इन अधिकारों में हस्तक्षेप न करना चाहिए।

सारांश यह कि राजा-महाराजाओं को चाहिए कि सरकारी रेजिडेंट का उचित सम्मान करें, उससे मित्रता का व्यवहार रखें, और अपनी खरी और स्थिर नीति के द्वारा उसे अपना विश्वासी और सहायक बनावें।

अन्तिम वक्तव्य- अब यह अच्छी तरह स्पष्ट हो गया होगा कि भारी शक्ति व अधिकार के साथ भारी जवाबदेही भी है। आजकल महाराजा का पद न अखण्ड सुख और भोग विलास के लिए है, न इसलिए है कि जनसमूह का जितना रुपया जिस तरह चाहे उस तरह उड़ाया जाए, न इसलिए है कि राज शक्ति का प्रयोग बिना किसी प्रकार के अवरोध के किया जाए और न इसलिए है कि जो महाराज के मन में आए वही कानून हो जाए। आजकल राजसिंहासन पर एक प्रचण्ड ज्योति जग रही है। यह ऐसी ज्योति है जो प्रत्येक दोष को जनसमूह के सामने झलकाती है। यह ऐसी ज्योति है जिसने राजाओं के ऊपर कर्तव्य का भार बढ़ा दिया है।

आजकल राजा-महाराजा अपने कामों के लिए कई ओर जवबदेह हैं, वे परमात्मा और अपनी आत्मा के निकट जवबदेह हैं। वे निर्धारित सिद्धान्तों के निकट जवबदेह हैं, वे अपनी प्रजा के निकट जवबदेह हैं। वे अंग्रेजी सरकार के निकट जवबदेह हैं। वे शिक्षित समाज के निकट जवबदेह हैं।

राजा-महाराजाओं को सदैव अपने कर्तव्य का उच्च आदर्श रखना होगा। इसके लिए यह आवश्यक होगा कि उनके चारों ओर ऐसे सलाहकार हों जिनके कर्तव्य के आदर्श उच्च हों।

ताल्लुकेदारों के लिए कुछ अलग बातें

हिसाब किताब- रसीद और चुकता हिसाब सब एक बही पर दर्ज होना चाहिए। पर खर्चों का सब ब्योरा अलग-अलग बहियों पर रहना चाहिए। जैसे इमारत का सब ख़र्च एक बही में रहे, अदालत का दूसरी बही में, भण्डारखाने का तीसरी में, निज का खर्च चौथी में, इसी प्रकार और भी। हर एक विभाग के लिए जितना रुपया दरकार हो वह छपे हुए चेक द्वारा, जिस पर मालिक का दस्तखत हो, राज्य के ख़जाने से मँगा लिया जाए और जितना रुपया ख़जाने से लिया जाए उस विभाग की बही पर चढ़ा लिया जाए। एक-एक विभाग का हिसाब-किताब एक-एक मुहर्रिर के जिम्मे कर दिया जाए और वही उसका जवबदेह रहे। अदालत के ख़र्च का हिसाब रखने के लिए अलग मुहर्रिर रखने की जरूरत नहीं है। जो रियासत का मुख्तार आम हो वही अदालत के ख़र्च का सारा हिसाब-किताब अपने जिम्मे रखे और हर महीने उसे जाँच के लिए सदा कचहरी में भेजा करें। मुख्तार आम हर महीने उन मुकदमों के ख़र्च की सूची भेजे जिनकी डिग्री हो गई हो, जो खारिज हो गए हों, और जो दायर हों।

इस ढंग पर चलने से सब हिसाबों का एक में गव्बव् न रहेगा और मालिक एक-एक मद के हिसाब की जाँच के लिए एक-एक दिन मुकर्रर कर सकेगा।

फसल के समय अनाज भण्डारखाने में बराबर जमा हुआ करे। जो जिस भण्डारखाने में न हो वह बनियों से मोल ली जाए। जितनी चीजें बनियों से ली जाएँ सबके लिए उन्हें छपे चेक दिए जाएँ जिसमें हिसाब के समय यह झगड़ा न रह जाए कि किसके यहाँ से कितनी चीज आई है। बनिए बहुत समझ बूझकर लगाए जाएँ। उन्हें लगाने का काम मुंशी मुहर्रिरों पर न छोड़ दिया जाए क्योंकि वे अपने ही मेल जोल के आदमियों को लगाएंगे। रियासतों में एक बात बड़ी विलक्षण देखने में आती है। हिसाब-किताब रखने के लिए मुहर्रिर तो बहुत से रखे जाते हैं पर उनकी जाँच करनेवाला खुद़ मालिक ही रहता है। विचारने की बात है कि उसके लिए इतने हिसाबों को ठीक-ठीक जाँचना कितना कठिन है। इसलिए यह आवश्यक है कि हिसाब-किताब जाँचने के लिए कई विश्वासपात्र ऑडिटर रखे जाएँ।

भारी भारी चीजों की खरीददारी के लिए बड़ी-बड़ी दूकानों ही से व्यवहार रखना ठीक है। जो चीजें मँगानी हों उनके लिए मालिक खुद अपने हाथ का पुर्जा भेज दे जिसमें बीच के लोगों को खाने की जगह न रहे। भारी दूकानें दाम तो जरूर थोड़ा अधिक लेती हैं पर चीजें बढ़ियाँ देती हैं जिससे खरीददार घाटे में नहीं रहता। चीजें मँगाने के लिए जो चिट व आर्डर भेजे जाएँ उनकी नकल एक बही पर रहे।

प्रबंध-समिति- बडे-बड़े योग्य और विश्वासपात्र कर्मचारियों का भी बिना डर दाब के रहना ठीक नहीं और मालिक हर एक काम के ब्योरों की जाँच आप नहीं कर सकता इसलिए यदि रियासत के कर्मचारियों और प्रतिष्ठित रईसों में से कुछ लोगों को चुनकर एक प्रबंधसमिति व कमेटी बना दी जाए तो मालिक सब हिसाब-किताब और कागज पत्रों को देखने के झंझट से बच जाएगा। रियासत के निवसी यदि अच्छी तरह शिक्षित न होंगे तो भी उस जगह की सब बातें उनकी जानी रहेंगी इससे वे बडे क़ाम के होंगे। मालिक को कमेटी के सदस्यों की राय जानने से बहुत लाभ होगा और वे निश्चय भी कर सकेंगे कि कौन राय ठीक है। ऐसी कमेटी बनाने में कुछ ख़र्च भी नहीं है, क्योंकि रियासत के जो प्रतिष्ठित रईस हैं उन्हें कुछ न कुछ लाभ रियासत से पहुँचता ही है अत: उन्हें वेतन देने की आवश्यकता नहीं है।


गाँवों का ठेका- काश्तकारों से सीधे लगान वसूल करने की अपेक्षा गाँवों को ठेके पर देना अच्छा है। इससे जमा भी सहज में वसूल हो जाती है, हिसाब-किताब जाँचने का उतना बखेड़ा नहीं रहता और रियासत के नौकरों को रुपया कमाने का भी अवसर नहीं मिलता। कुछ लोग ठेकेदारों के जुल्म के कारण इस रीति को अच्छा नहीं समझते पर मेरी समझ में जमींदारों के सिपाही जितनी आफत मचाते हैं उतनी ठेकेदार नहीं, यदि वे समझ बूझकर चुने जाएँ। यदि किसी गाँव का ठेका देना है तो उस गाँव में जो सबसे सम्पन्न और भलामानुस काश्तकार हो उसी को ठेका दे दिया जाए, यदि आवश्यकता हो तो उससे कुछ जमानत भी ले ली जाए। जहाँ तक हो सके छोटी-छोटी मियाद के ठेके न दिये जाएँ। ठेकेदार रियासत के बाहर के आदमी न हों। अपने नौकरों और संबंधियों को ठेका न देना चाहिए। जहाँ तक हो सके ठेके छोटी जाति के लोगों को, जैसे क़ुरमी, काछी, कोयरी आदि को दिए जाएँ, ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि ऊँची जाति के लोगों को नहीं। ठेकेदार से गाँव के मुनाफे की पाईपाई न वसूल कर ली जाए कुछ गुंजाइश उसके लिए भी रखी जाए। यदि ठेके में कुछ लाभ रहेगा तो एक के छोड़ने पर उसके लिए कई आदमी दौड़ेंगे। इस प्रकार लगान वसूल करने के ख़र्च की बचत होगी, उपजाऊ जमीन भी अधिक निकलेगी हर तरह रियासत को लाभ ही होगा। किसी ठेके की मियाद जब पूरी हो जाए तब यदि कोई हर्ज न हो तो पहले ही ठेकेदार को फिर ठेका दिया जाए। थोड़े से और मुनाफे के लिए किसी नए आदमी को देना ठीक नहीं।

ठेका देते समय गाँव का मुनाफा देख लिया जाए फिर उसमें से ठेकेदार के लिए कुछ परता निकालकर ठेका दे दिया जाए। जितने पट्टे और कबूलियत हों सब स्टैंप पर हों, और फाइल की किताब में अक्षर क्रम से लगे रहें।

नौकरों को लगाना- आदमी कैसा ही योग्य हो वह सब काम आप नहीं कर सकता। अच्छा काम कराने के लिए अच्छे नौकर चाहिए और अच्छे और विश्वासपात्र नौकर मिलना सहज बात नहीं है। अच्छे नौकर भी बिना डर दाब के अच्छा काम नहीं करेंगे। स्वामी की बुद्धिमानी इसी में है कि वह एक जगह के लिए उपयुक्त नौकर चुने, क्योंकि यह सम्भव नहीं कि एक ही आदमी में सब आवश्यक गुण हों। कोई आदमी एक काम के लिए उपयुक्त है और दूसरे काम के लिए नहीं। समझदार मालिक अपने नौकर की कदर एक गुण के लिए भी करेगा और उसके उसी गुण से लाभ उठावेगा। जिस तरह चतुर बढ़ई यह जानता है कि अपने किस औजार से कौन-कौन काम लेना चाहिए। उसी तरह चतुर स्वामी इस बात को जानता है कि अपने किस नौकर से कौन-कौन काम लेना चाहिए। पर वह एकबारगी उन्हीं के विश्वास पर सब काम नहीं छोड़ देता। वह उनका नित्य का काम देखकर उन पर धीरे-धीरे विश्वास करता है। जहाँ तक हो पुश्तैनी नौकर रखना अच्छा है। चाहे वे योग्यता में औरों से कुछ घटकर भी हों, क्योंकि नए आदमियों की अपेक्षा पुश्तैनी नौकर मालिक से अधिक प्रेम रखते हैं। जबकि कोई नौकर अपना काम अच्छी तरह कर रहा है तब उसके विरुद्ध छोटी-छोटी शिकायतों को न सुनना चाहिए। छोटे बड़े हर एक राज्य में कुछ कुचक्री धूर्त रहते हैं जो सदा अपने लाभ के लिए इन्तजाम में अदल-बदल चाहते रहते हैं। ये कुटिल नीतिवाले लोग इसी यत्न में रहते हैं कि मालिक सब काम अपने हाथ में ले ले, क्योंकि वे जानते हैं कि ऐसा होने से खूब अंधाधुंधा रहेगी और अपना अर्थ साधाने का अच्छा मौका मिलेगा।

कुचक्री नौकर को निकाल देना चाहिए, क्योंकि यदि एक आदमी ऐसा रहेगा तो वह सब आदमियों को बिगाड़ देगा। यहाँ तक कि वह धीरे-धीरे सब नौकरों का अगुव और सलाहकार हो जाएगा और सब नौकर उसके पास यह सीखने जाया करेंगे कि मालिक को कब और किस ढंग से धोखा देना चाहिए। वह अपने नए चेलों को सिखा देगा कि यदि कोई नौकर मालिक को लूटने का कोई ढंग रचता हो तो उसका भेद न खोलना।

पूरे ईमानदार और योग्य नौकरों का मिलना बहुत कठिन है, क्योंकि सब मालिकों की अवस्था ऐसी नहीं होती कि वे नौकरों को भरपूर तनख्वाह दे सकें। यदि कोई नौकर अपने मालिक के लाभ का बराबर ध्यान रखता है और थोड़ा अपना भी लाभ करता है तो उसे छेड़ना न चाहिए। पूरे ईमानदार नौकरों को छोड़ दो प्रकार के और नौकर होते हैं। कुछ तो ऐसे होते हैं जो बराबर अपने मालिक का लाभ देखते हैं और दूसरों को उसे लूटने नहीं देते, चाहे आप थोड़ा बहुत लाभ उठा लें। पर कुछ ऐसे होते हैं जो मालिक को आप भी लूटते हैं और दूसरों को भी लूटने देते हैं। ऐसे लोगों पर उनके मातहत और साथी बड़े प्रसन्न रहते हैं। कोई कभी उनकी शिकायत नहीं करता। कुछ नौकर ईमानदार तो होते हैं पर चिकनी चुपड़ी बातों में आ जाते हैं। ऐसे लोग रिश्वत लेनेवालों से भी बुरे होते हैं। दो चार चिकनी चुपड़ी बातें ही जिनके लिए रिश्वत है उन पर कहाँ तक विश्वास रखा जा सकता है।

यह भी आवश्यक है कि नौकर कई भिन्न-भिन्न जातियों और धर्मों के रखे जाएँ जिसमें वे गुट न बाँधने पाए। सब बुराइयाँ खाली बैठने से होती हैं। इससे नौकरों को पूरा काम देना चाहिए जिसमें उन्हें तरह-तरह की चालें सोचने का समय न मिले।

चालबाज नौकरों का यह भी एक ढंग है कि वे दिखाने के लिए आपस में झूठमूठ की लड़ाई किया करते हैं, यद्यपि भीतर ही भीतर सब एक रहते हैं। सब विभागों के अलग-अलग अफसर हों। मातहत नौकरों को जो शिकायतें करनी हों उन्ही की मारफत करें। मालिक उन्हीं से सब बातें सुने। जहाँ ऐसी ही कोई बात आ जाए वहाँ मातहत नौकरों को सीधे अपने पास आकर कहने सुनने दे। छोटे नौकर औरों को अपना महत्व दिखाने के लिए जो बात हुई उसे सीधे मालिक के पास जाकर कहना बहुत पसन्द करते हैं। जहाँ वे एक बार ऐसा करने पाये कि नाकों दम कर देंगे। फिर मालिक को रसोईदारों, खिदमतगारों, चपरासियों, कोचवनों और साईसों के झगड़े आप निपटाने पड़ेंगे और यदि सबके सब सलाह करके नौकरी छोड़ देंगे तो नौकर भी खुद ढूँढ़ना पड़ेगा। पर यदि ऐसे छोटे-मोटे काम वह भिन्न-भिन्न विभागों के अफसरों पर छोड़े रहेगा तो उसे अच्छे अच्छे काम करने का समय मिलेगा।

संगत- यह एक पुरानी कहावत है कि “जैसी संगत वैसी बुद्धि”। इससे साथी चुनने में बड़ी सावधनी करनी चाहिए जो लोग दिहात में रहते हैं उन्हें अच्छी संगत मिलना बड़ा कठिन होता है, इससे बड़े-बड़े धनीयों और रियासतदारों को भी अपने नौकर चाकरों का साथ करना पड़ता है जिसका फल बहुत बुरा होता है। इस देश के रईसों के यहाँ यह बड़ी बुरी चाल है कि वे अपने लड़कों को नौकर चाकरों के लड़कों का साथ करने देते हैं। धीरे-धीरे नौकर चाकरों के ये ही लड़के मालिक के लड़कों के गहरे दोस्त हो जाते हैं और उन पर बहुत कुछ जोर रखने लगते हैं। उनके माँ बाप इसके लिए उन पर बहुत प्रसन्न होते हैं और उनके द्वारा अपना काम निकालना चाहते हैं। खिदमतगारों के ये लड़के आगे चलकर इतने इतरा जाते हैं कि अपने को मालिकों के बराबर समझने लगते हैं और राजकाज के मामलों में दखल देने लगते हैं। फिर तो बिना इनके माने जाने योग्य से योग्य मैनेजर व सेक्रेटरी की खैरियत नहीं।

मालिक की लड़कियों का जब ब्याह होता है तब उनके साथ उनसे हिली मिली कुछ लौंड़ियाँ व नौकरों की लड़कियाँ की जाती हैं। ये वहाँ भी अपना जोर रखना चाहती हैं और कभी-कभी घर के प्राणियों में झगड़ा लगा देती हैं।

अस्तु, उत्तम उपाय तो यह है कि अपने संबंधियों व प्रतिष्ठित पड़ोसियों के लड़कों में से कुछ अच्छे लड़कों को चुनकर उन्हें अपने लड़कों के साथ शिक्षा पाने के लिए कर दे। यदि यह न हो सके तो अपने कर्मचारियों के लड़कों में से चुनें। सारांश यह कि छोटे-छोटे नौकर चाकरों को अपने लड़कों के साथ बहुत हेल मेल न बढ़ाने देना चाहिए।

मनबहलाव- केवल समय काटने के लिए ही नहीं बल्कि स्वास्थ्य के लिए भी थोड़ी बहुत कसरत, खेलकूद व मनबहलाव जरूरी है। पर ध्यान इस बात का रहे कि कहीं इन बातों की धुन न हो जाए। कसरत और खेलकूद का मतलब इतना ही है कि स्वास्थ्य की रक्षा रहे जिससे काम अच्छी तरह हो सके और मनबहलाव इसलिए है कि लगातार एक ही काम को करते करते जी भी न ऊबे और समय भी बिलकुल खाली न जाए। जहाँ मनबहलाव का कोई उचित प्रबंध नहीं रहता वहाँ लोग, विशेषकर रईसों के लड़के, बुरी संगत में पड़ जाते हैं और धीरे-धीरे उन्हें कुछ ऐसे व्यसन लग जाते हैं जिनके कारण वे अपना और अपने घर का सत्यानाश करके रख देते हैं। इसी से कसरत और खेलकूद के सिवाय लिखना, पढ़ना, चित्रकारी और संगीत आदि भी मनबहलाव के लिए चाहिए। राजाओं और रियासतदारों के लड़कों को प्राय: दिहात में रहना पड़ता है इससे इसका ध्यान रखना चाहिए कि उनके मनबहलाव के लिए अच्छी-अच्छी बातें हों और वे नौकर चाकरों के लड़कों के साथ बहुत हेल मेल न बढ़ाने पाए।