राज्यप्रबंध शिक्षा / भूमिका / रामचंद्र शुक्ल
प्रत्यक्ष ज्ञान की आवृत्ति का नाम अनुभव है। सांसारिक व्यवहार में जितना दूसरों के अनुभव से हमारा काम चलता है उतना उनकी कल्पना आदि से नहीं। अपने व दूसरों के अनुभव के सहारे हम थोड़ी दूर ऑंख मूँदकर भी चल सकते हैं। इतना भरोसा हमें किसी और दूसरी वस्तु पर नहीं हो सकता। किसी एक मनुष्य से यह सुनकर कि “मैंने कई बार ऐसा होते देखा है” जितनी जल्दी हम किसी कार्य में प्रवृत्त होते हैं उतनी जल्दी सैकड़ों सत्यवदियों से यह सुनकर नहीं कि “हम निश्चय समझते हैं कि यह बात ऐसी ही है।” अत: समाज के हित और सु-बीते के लिए यह आवश्यक है कि उसमें अनुभव की हुई बातों का अच्छा संचय रहे जिससे लोगों को अपना कर्तव्य स्थिर करने के लिए इधर-उधर बहुत भटकना न पड़े।
आज इस अनुवाद द्वारा हिन्दी पाठकों के सामने देशी राज्यों के प्रबंध आदि के विषय में ऐसे पुरुष का अनुभव रखा जाता है जिसने अपने नीति बल और व्यवस्था कौशल से भारतवर्ष के दो बड़े-बड़े राज्यों को चौपट होने से बचाया था। जिन लोगों ने राजा सर टी. माधवराव का नाम सुना होगा वे यह भी जानते होंगे कि उनकी सारी आयु देशी राज्यों की शासन पद्धति सुधारने में बीती थी। वे बड़े भारी नीतिज्ञ और राज्य संचालक थे।
माधवराव का जन्म कुम्भकोणम के एक महाराष्ट्र ब्राह्मणकुल में हुआ था। उनके पूर्वज महाराष्ट्र आधिपत्य के समय दक्षिण गए थे। उनके चाचा वेंकटराव ट्रावंकोर राज्य में दीवन थे और पिता भी उसी रियासत में एक ऊँचे पद पर थे। माधवराव ने मद्रास के गवर्नमेंट स्कूल में शिक्षा पाई और गणित और विज्ञान में बड़ी दक्षता प्राप्त की। कुछ दिनों तक ये वहीं गणित और विज्ञान के अध्यापक रहे। फिर सन् 1849 में एकाउंटेंट जनरल के दफ्तर में नौकर हुए। कुछ दिनों वहाँ रहकर वे ट्रावंकोर के राजकुमारों के शिक्षक होकर गए। इस कार्य में उन्होंने इतनी दक्षता दिखाई कि उन्हें शीघ्र माल के मोहकमे में एक अच्छी जगह मिली और धीरे-धीरे वे दीवन-पेशकार हो गए। जिस समय माधवराव ट्रावंकोर राज्य में घुसे उस समय उस राज्य की बड़ी बुरी दशा थी। चारों ओर घोर कुप्रबंध और अन्धाधुन्धा थी। लार्ड डलहौजी बार-बार धमका रहे थे कि यदि झटपट सुधार न हुआ तो ट्रावंकोर राज्य अंग्रेजी राज्य में मिला लिया जाएगा। माधवराव ने देखा कि राज्य के वे बड़े कर्मचारी जिनको बाहर के स्थानों में अपने-अपने काम पर रहना चाहिए, वे भी राजधनी में रहकर दीवन के विरुद्ध षडयन्त्र रचा करते हैं। उन्होंने महाराज से प्रस्ताव किया कि सारा राज्य बहुत से जिलों में बाँट दिया जाए और वे जिले ऐसे कर्मचारियों के अधीन कर दिए जाएँ जो वहीं रहें। इस प्रकार माधवराव के अधिकार में जो-जो जिले पड़े उनका प्रबंध उन्होंने ठीक कर दिया। धीरे-धीरे महाराज उनकी बड़ी प्रतिष्ठा करने लगे। सन् 1857 में दीवन कृष्णराव के मरने पर माधवराव उनकी जगह दीवन बनाए गए। उस समय उनकी अवस्था केवल तीस वर्ष की थी।
दूसरा कोई होता तो ट्रावंकोर की उस समय की अवस्था देख घबड़ा जाता। जहाँ देखो उधर बेईमानी, अत्याचार और अव्यवस्था। माधवराव ने निश्चय किया कि जब तक देशी राज्यों में भी अंग्रेजी शासन के सिद्धान्तों का प्रचार न किया जाएगा तब तक उनकी अवस्था न सुधरेगी। राज्य की आर्थिक दशा दिन-दिन गिरती जाती थी। माधवराव ने बहुत से सुधार किए जिनसे राज्य की आमदनी बहुत बढ़ गई। बहुत सी वस्तुओं की बिक्री आदि का अधिकार थोड़े से लोग अपने हाथ में लिए बैठे थे जिससे व्यापार बढ़ने नहीं पाता था। माधवराव ने यह प्रथा बंद कर दी। बाहर जानेवाली मिर्च पर उन्होंने महसूल लगाया। पीछे अंग्रेज सरकार से जो संधि हुई उसके अनुसार आमदनी और रफ्तनी पर जो बड़े-बड़े महसूल थे वे उठा दिए गए। बहुत से ऐसे कर भी उठा दिए गए जो प्रजा को बहुत खलते थे और जिनके वसूल करने में खर्च इतना पड़ता था कि राज्य को कुछ विशेष लाभ नहीं होता था। माधवराव ने राज्य के कर्मचारियों की भी तनख्वाहें बढ़ाईं जिससे वे घूस न लें। इंजीनियरीं और शिक्षा विभाग की उन्नति की। अदालत में अच्छे कानून जाननेवाले जज नियुक्त किए और ज़ाब्त: दीवनी, ज़ाब्त: फौजदारी, हद समायत और रजिस्टरी के कानून का प्रचार किया। ट्रावंकोर राज्य की काया ही पलट गई। ट्रावंकोर के महाराज इन पर इतने प्रसन्न हुए कि नौकरी छोड़ने पर भी इन्हें बहुत दिनों तक 1000 रुपये महीना पेंशन देते रहे। सरकार से भी इन्हें 'सर' का खिताब मिला।
ट्रावंकोर से जब ये अलग हुए तब सरकार इन्हें बड़े लाट की काउंसिल की मेम्बरी देने लगी, पर इन्होंने अस्वीकार किया।
सन् 1873 में इन्दौर के महाराज तुकोजी राव होलकर ने इन्हें अपना दीवन बनाया। यद्यपि महाराज बहुत सा अधिकार अपने ही हाथ में रखते थे फिर भी इन्दौर में इन्होंने बहुत सा सुधार किया। जिन दिनों ये इन्दौर में थे उन दिनों विलायत में भारत की आर्थिक स्थिति के विचार के लिए एक कमेटी बैठी थी। सरकार ने इन्हें विलायत जाकर उसके सामने साक्ष्य देने को कहा, पर इन्होंने अस्वीकार किया।
ठीक इसी समय महाराज मल्हार राव बड़ौदा की गद्दी से उतारे जा चुके थे। उनके समय के दुराचार, अत्याचार, कुप्रबंध और अन्धाधुन्धा से बड़ौदा राज्य जर्जर हो रहा था। उत्तराधिकारी महाराज सयाजीराव नाबालिग थे। उनकी नाबालिगी में राज्य सँभाले कौन ? अंत में माधवराव बुलाए गए।
सर माधवराव ने वहाँ ट्रावंकोर राज्य से भी गहरी बुराइयाँ पाईं जिनकी जड़ बहुत दिनों की जमी हुई थी। कुछ लोग गद्दी के लिए जोर मार रहे थे। वे कुछ दे दिलाकर शांत किए गए। महाराज मल्हारराव के समय के बहुत से कर्मचारी राज्य का बहुत सा रुपया कर्ज लिए बैठे थे जो धीरे-धीरे उनसे निकाला गया। जौहरी, सौदागर, नौकर, सिपाही तथा बहुत से लोग जो अपना बहुत सा रुपया बाकी बताते थे संतुष्ट किए गए। इस प्रकार माधवराव ने पहले चारों ओर से षडयन्त्र की सम्भावना बंद की, फिर वे शासन के सुधार में लगे।
इन्होंने एकबारगी शासन का सारा क्रम नहीं बदला। धीरे-धीरे प्रजा की प्रवृत्ति बदलते हुए इस बात का सुधार किया। इन्होंने प्रजा के ऊपर से कर का बोझ भी बहुत कुछ हटाया और राज्य की आमदनी भी बढ़ाई। पुलिस का सुधार किया। न्यायालयों की व्यवस्था ठीक की। राज्य की आमदनी में से बहुत सा रुपया इन्होंने सर्वसाधारण की शिक्षा और स्वास्थ्य रक्षा के लिए निकाला। जमीन की मालगुजारी वसूल करने के बड़े सहज ढंग निकाले । किसानों के ठेकों की मियाद इन्होंने बहुत अधिक बढ़ा दी जिससे वे जमीन को अपनी समझ उस पर पूरी मेहनत करने लगे। सारांश यह कि इनके अखण्ड परिश्रम और नीतिबल से बड़ौदा राज्य सर्वाक्ष् सुव्यवस्थित होकर पूर्ण सुख समृद्धि को पहुँचा।
सन् 1882 में राजा सर टी. माधवराव बड़ौदा राज्य की नौकरी से अलग हुए और अंत समय तक मद्रास में रहे। ये जब तक जिये तब तक बराबर सार्वजनिक कार्यों में उद्योग करते रहे। नेशनल काँगरेस की तीसरी बैठक (मद्रास, 1887) की स्वागतकारिणी समिति के ये सभापति हुए थे।
जिस समय राजा माधवराव बड़ौदा में थे उस समय वर्तमान महाराजा साहब सयाजीराव नाबालिग़ थे और राजकाज की शिक्षा पा रहे थे। इन्हीं महाराज साहब की शिक्षा के लिए सर माधवराव ने यह पुस्तक लिखी थी।
परम विद्योत्साही राजा साहब भिनगा की इच्छा और उदारता से यह पुस्तक सभा द्वारा प्रकाशित की गई है। उन्हीं के इच्छानुसार मूल पुस्तक के बीच-बीच के कुछ अंश अनुवाद में छोड़ दिए गए हैं। अवशिष्ट में 'ताल्लुकेदारों के लिए कुछ अलग बातें' राजा साहब की ओर से बढ़ाई गई हैं जिनसे उनकी प्रबंध-कुशलता का अच्छा परिचय मिलता है। कहने की आवश्यकता नहीं कि अनुवाद की भाषा बहुत ही सरल रखी गई है।
रामचंद्र शुक्ल
काशी
22 अप्रैल, 1913