राज्यसभा में जावेद अख्तर और जया बच्चन के भाषण / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :17 मार्च 2016
जावेद अख्तर ने राज्यसभा में अपने कार्यकाल के अंतिम दिन बहुत सारगर्भित भाषण दिया। उन्होंने धर्म के नाम पर भड़काने वालों की कड़ी आलोचना की और इसका प्रारंभ उन्होंने हैदराबाद के ओवैसी से किया। अन्य दलों से भी प्रार्थना की कि अपने नेताओं के नफरत फैलाने वाले भाषणों से परहेज करने का आदेश दें। ओवैसी किस क्रिया की प्रतिक्रिया है, इस पर जावेद साहब ने कुछ नहीं कहा। तालियां दोनों हाथों से ही बजती हैं। उन्होंने कहा कि हमारे पास बीस वर्ष हैं, जिसमें देश की मूल समस्याओं का निदान किया जाना चाहिए अन्यथा तेजी से भागता समय हमें और मोहलत नहीं देगा। सभी दलों में कुछ नेता सस्ती लोकप्रियता प्राप्त करने के लिए भड़काने वाले भाषण देते हैं और इन पर बजीं तालियां उन्हें बढ़ावा देती हैं। रोजी, रोटी और मकान की समस्याएं जस की तस खड़ी हैं और भाषणों के माध्यम से एक अनावश्यक युद्ध जारी है। दरअसल, प्रचार माध्यमों में बने रहने की चाहत इतनी (प्रबल) है कि कुछ नेता सारे समय जुमलेबाजी में व्यस्त रहते हैं।
जब तक अवाम चटखारे लेकर शब्दों की होली का आनंद लेता रहेगा, तब तक बकवास जारी रहेगी। टेलीविजन युग में हर क्षेत्र में परिवर्तन हुए हैं, परंतु ताली बजवाने वाले वाक्यों को बुद्धिमानी का स्थान दिलाया जा रहा है। राजनीतिक दलों में प्रमुख नेताओं के पास उनके भाषण लिखने वालों की एक टीम होती है और टीम के सदस्यों में प्रभावोत्पादक जुमलेबाजी खोजने की प्रतिस्पर्द्धा जारी रहती है। यह शायद सारे मानव इतिहास का सबसे अधिक वाचाल कालखंड है। संभवत: प्रति बोले हुए शब्द में पांच कैलोरी ऊर्जा लगती है परंतु बड़बोले नेता हमें मोटे-ताजे ही लग रहे हैं, क्योंकि ये अवाम की तालियों की गिज़ा पर जो पलते हैं। ताली-दर-ताली इनका खून बूंद-दर-बूंद बढ़ता जाता है। विकास के सारे दावे भी महज जुमलेबाजी ही सिद्ध हो रहे हैं। भूखे लोगों को भी खाली थालियों में चंद जुमलों को खाकर डकार लेने की कला सिखाई जा रही है। अर्से पहले जावेद अख्तर ने अपनी एक नज्म में इस आशय की बात की है कि भागती ट्रेन की खिड़की से हमें जंगल के स्थिर दरख्त भागते नज़र आते हंै। शायद हमारे भाग्य विधाता नेता भी भागती ट्रेन में बैठे हैं और स्थिर दरख्तों को विकास समझ रहे हैं। इस रवैये की इंतहा यह होगी कि अवाम जुमलेबाजी के अति भोजन के अपच का शिकार हो जाएगा। कुछ लोग मानते हैं कि बोले हुए शब्द कभी मरते नहीं, ध्वनी अमर-अजय है। यह भी कहा जाता है कि कभी कुरुक्षेत्र से घायल योद्धाओं की चीत्कार सुनाई देती है। सन्नाटे की भांय-भांय के कई अर्थ निकाले जा सकते हैं। अधिक भोजन करने से डकार आती है परंतु एकदम खाली-पेट से भी भांय-भांय की आवाज आती है, जिसे देश के भाग्य विधाता डकार ही समझ रहे हैं और अवाम के गले भी उन्होंने यह बात उतार दी है।
जावेद अख्तर के भाषण के साथ ही जया बच्चन ने भी एक बयान दिया कि देश एक और बंटवारे की ओर बढ़ रहा है। दोनों ही फिल्म वालों के भाषणों की अपनी अहमियत है, परंतु जया बच्चन का संकेत स्पष्ट है कि भाषा, प्रांतीयता की जगाई गईं लहरें कभी भी सारे कूल-किनारे तोड़ सकती हैं और हम सब एक डूब के शिकार हो सकते हैं। भारत की एकता में अनेकता का आदर्श अब ध्वस्त होने को है। कम से कम ऐसा आभास तो हो ही रहा है परंतु इस देश की एक आंतरिक ताकत है कि वह टूटता-सा लगता है परंतु टूटता नहीं। यह उसका लचीलापन है, जिसके कारण शताब्दियों से वह विदेशी आक्रमण के साथ भीतर की अलगाववादी ताकतों को कामयाब नहीं होने दे रहा है। यह लचीलापन ही उसे बचाए रखता है। वह सारे प्रभावों को ग्रहण करते हुए एक लट्टू की तरह अपनी कील पर घूमता है अौर दूर से देखने पर यह लट्टू स्थिर लगने का आभास देता है। कुछ स्वयंभू नेता कलाबाजी से इस लट्टू को जमीन के बदले अपनी हथेली पर ले लेते हैं और समझते हैं कि घूमती हुई दुनिया उनकी मुट्ठी में है। जावेद अख्तर के राज्यसभा में नामांकन के पहले उनकी पत्नी शबाना सदस्य रही हैं और उनका नामांकन अटलबिहारी वाजपेयी ने किया था। इस दंपती के बारह साल राज्यसभा में पूरे हो गए हैं परंतु दोनों ने ही समय-समय पर सार्थक भाषण दिए हैं। क्या यह संभव है कि अब जावेद अख्तर वाला रिक्त स्थान सलीम खान को मिले। सिनेमा में चुस्त पटकथा और सटीक सवाद के लिए प्रसिद्ध टीम को टूटे अरसा हो गया है। दरअसल, सलीम साहब इस तरह का पद स्वीकार नहीं करेंगे, क्योंकि उनका मिज़ाज ही अलग है। यह आश्चर्य की बात है कि राज्यसभा में फिल्म उद्योग के व्यक्ति की नामांकन प्रथा पृथ्वीराज कपूर से प्रारंभ हुई तो परंतु अभी तक किसी नामजद व्यक्ति ने राज्यसभा में फिल्म जगत की समस्याएं नहीं उठाई। यह प्राय: देखा गया कि किसी भी उद्योग का व्यक्ति राज्यसभा में नामांकन के बाद अपने उद्योग की समस्याएं नहीं उठाता।