राज्याश्रय और साहित्य जीविका / नागार्जुन

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मौजूदा शासन के अंदर सर्वांशतः राज्याश्रय सच्चे साहित्यकार के लिए ठंडी क़ब्र है, यानी प्राणशोषक समाधि । युगनिर्माता साहित्यिक जब आज के आराम-तलब और चापलूस अफ़सरों के दर्म्यान जा पहुँचता है तो उस पर ‘भई गति सांप छछूंदर केरी’ वाली कहावत लागू हो जाती है । धीरे-धीरे उसके अंदर का युगशिल्पी मर जाता है, फिर विमूढ़ और पतित हंस की चोंच का पहला शिकार सरस्वती की ख़ुद वीणा ही होती है....

‘राज्याश्रय’ कोई मामूली शब्द नहीं समझा जाए, वह तो हमारे युग-दर्शन का एक ‘बीजक’ शब्द है। इसकी व्याख्या में क्या नहीं समा सकता है? मगर यहाँ उतने विस्तार में जाने का न तो अवसर है, न वह हमें अपेक्षित ही है... साहित्यकारों के लिए राज्याश्रय के क्या-क्या रूप-रंग निखर आये हैं, अभी तो बस उतना-भर देख लेना है--

- राज्य-सभा, विधान परिषदों में सदस्यता की प्रसादी ।

- सरकारी शिक्षण-संस्थाओं में विभागीय प्राधान्य ।

- अर्ध-सरकारी, पौन-सरकारी संस्थाओं में वैतनिक दादागिरी ।

- रेडियो, सूचना विभाग, अनुवाद विभाग, परिभाषा ढलाई विभाग, राजदूतावास आदि गुफाओं में पद-लाभ ।

- पाठ्यक्रम के तौर पर आपकी एक या अनेक पुस्तकों की मंजूरी ।

- मुद्रित या अमुद्रित ग्रंथ पर पुष्कल पुरस्कार ।

- एकमुश्त धनराशि वाला अकादेमिक पुरस्कार ।

- क़ीमती तमगे और पद्मश्री-पद्म-विभूषण आदि उपाधियाँ कि जिनके चलते बुढ़ापे में भी आप जीवन-पथ पर फिसलन के मज़े लूट सकते हैं ।

- आपके प्रयास से संचालित-संयोजित संस्थाओं और समारोहों के नाम अनुदान की अमृत-वर्षा ।

- स्वयं ही प्रकाशन शुरू कर देने पर कई प्रकार की वैध-अवैध सुविधाएँ मिलने लग जाती हैं और आप स्वयं दस गुना, बीस गुना ज़्यादा एक्टिव हो उठते हैं, फिर साहित्य-रसिक मिनिस्टरों की गुणग्राहिता के कारण दो-चार वर्षों के भीतर ही लखपतियों में उठने-बैठने लायक हो जाते हैं ।

- सांस्कृतिक शिष्टमंडलों में नत्थी होकर आप काठमांडू-कोलंबो से लेकर मास्को-पेकिङ-तोकियो-लंदन-न्यूयार्क-पेरिस की हवा खा आते हैं ।

- नाना प्रकार के आयोग, बोर्ड, कमिटियां, परिषदें... जाने किस-किस गलियारे में आपका नाम चमकने लग जाता है! सामर्थ्य और समय हो चाहे न हो, एलाउन्स का लासा आपको इनसे चिपकाए रखता है ।

- आकाशवाणी-केंद्रों से धड़ाधड़ कॉन्ट्रैक्ट आ रहे हैं आपके पास... खाँसते-खाँसते भी हम रिकार्डिंग करवा ही आते हैं ।

- अनुवाद और रिविज़न के काम नयी दिल्ली से ही नहीं, अपने प्रादेशिक सूचना विभाग तक से मिल जाते हैं...

- सिने-संसार की रुपहली मादकता से भी हमारा बंधु वर्ग अब अपरिचित नहीं रहा। उसके आगे दिल्ली के लड्डू मात हैं...

पिछले कुछ वर्षों में साहित्यकारों के लिए सुख-सुविधा का एक और सतमंज़िला बिल्डिंग खड़ा हो गया है

- विदेशी दूतावासों द्वारा परिचालित प्रकाशन संस्थाओं की छोटी-बड़ी नौकरियाँ, अनुवाद और ट्यूशन के धंधे भी विदेशियों की बदौलत इधर खूब चमके हैं। सैकड़ों तरुण प्रतिभाएँ देशी प्रतिमान से ऊपर उठकर विश्वात्मा की मधुगंधी परिधियों के अंदर चली गयी हैं। स्टडी-टूर या कल्चरल टूर की तो बात छोड़ दीजिये, सीधे-सादे अनुवाद कार्य के लिए सैकड़ों युवक साहित्यिक मास्को-पेकिङ जा बसे हैं ।

सांस्कृतिक भू-परिक्रमा के लिए अमरीका भी हमारे सुधी साहित्यिकों को गगनविहारी होने का सुयोग दे रहा है... बंगला-मराठी-तमिल-तेलुगु-गुजराती के कतिपय मूर्धन्य साहित्यकारों की तरह हमारे हिंदी के भी अनेक चूड़ामणि साहित्यकार मास्को-पेकिङ-न्यूयार्क-पेरिस-लंदन की उपनगर-वीथियों में चहलकदमी कर आये हैं...

यों कुछ एक दादा-साहित्यकार इस प्रसंग में बेरुखी का अभिनय करके मुस्करा भी पड़ते हैं-- कहते हैं, भई, क्या रखा है इन बातों में ? कल संध्याकाल आओ तो भंग छानें ! अच्छा, तुम तो पिछले जाड़ों में काठमांडू गये थे। कैसा रहा ? सुमन की तबियत लगती है वहाँ ? अजी, ताशकंद जा रहे थे न तुम ?

मुल्कराज आनंद और सज्जाद ज़हीर मुझसे इसीलिए दो बार मिलने आये... मैं भला अब इस बुढ़ापे में कहाँ-कहाँ मारा फिरूँ ?

मगर अभी-अभी तो आप पूना-मद्रास हो आये हैं ! ताशकंद जाना तो इससे कहीं आसान है ! नहीं ?

फिर उन्होंने मेरे आगे पान की डब्बी बढ़ा दी और कुछ कहा ।

- क्या कहा ? - जाने दीजिए !

अंगूर खट्टे हैं तो मीठे कैसे होंगे ? मीठे न भी हों फिर भी हम आप क्या उन्हें यूँ ही छोड़ देंगे ? खट्टे अंगूरों का बहुत बढ़िया सिरका बनता है। अचार नहीं बनेगा ? चटनी भी बना सकते हैं न !

मैं यानी इन पंक्तियों का उद्भावक श्रीहीन नागा बाबा उर्फ अवधूत साहित्यकार गुड़ घोलकर इमली पीता रहा हूँ तो भला खट्टे अंगूरों को छोड़ दूँगा ?

मैं राज्याश्रय को हौआ नहीं मानता । पिछले युगों के दरबारी कवि में और आज के राज्याश्रित कवि में आकाश-पाताल का अंतर है। आज के राज्य चाहे कैसे भी हों, हैं तो जनतांत्रिक ही न ? आज के ये प्रशासकीय जनतंत्री ढांचे हमने खड़े किए हैं। हम और हमारी जनता हुकूमत के अपने इस ढांचे की त्रुटियों से अनभिज्ञ नहीं है। रोज़-ब-रोज़ अपनी स्थिति को बेहतर बनाते चलने का हमारा प्रयास कभी शिथिल नहीं होगा।

जब सारी जनता ही राज्याश्रित है तो हम साहित्यकार भला और किसका सहारा या आश्रय लें?

हाँ, हममें से कुछ-एक साहित्यकार कह सकते हैं कि वे राज्याश्रय को उच्चतम साहित्य के विकास की दृष्टि से सर्वथा फ़िज़ूल, बल्कि हानिकारक मानते हैं। इस सिलसिले में अपनी व्यक्तिगत राय मैं शुरू में ही ज़ाहिर कर चुका हूं। यहाँ फिर से दुहरा दूँ उसे-- ‘मौजूदा शासन के अंदर सर्वांशतः राज्याश्रय सच्चे साहित्यकार के लिए ठंडी क़ब्र है, यानी प्राणशोषक समाधि।’

इसमें पाँच शब्द हैं, जिनकी ओर मैं आपका ध्यान बार-बार आकृष्ट करना चाहूँगा ।

‘मौजूदा’, ‘सर्वांशतः’, ‘सच्चे’, ‘क़ब्र’ और ‘प्राणशोषक’-- इन शब्दों की तत्वबोधनी व्याख्या आपके दिमाग़ में अनायास ही भासित हो उठेगी ।

मेरा क्या तात्पर्य था, आप समझ गए होंगे ।

उच्चतर और उच्चतम साहित्य पहले युगों की तरह आनेवाले युगों में भी निर्मित होंगे और इस युग में भी उनका निर्माण चालू है-- हाँ, रेडियो और सूचना विभाग की मेज़ों पर नहीं... साहित्य अकादमी के रूमों में? नहीं, वहाँ भी नहीं... नई दिल्ली की बड़ी सेक्रेटेरियट में और प्रादेशिक महानगरों की सेक्रेटेरियटों में पचासों साहित्यकार साहब घुसे पड़े हैं, वे लिख रहे हैं उच्चतर साहित्य ? एम० पी० और एम० एल० सी० साहित्यकार रच रहे हैं उच्चतम साहित्य ? अपनी पिछली कीर्ति के कारण ही जिनके लिए विश्वविद्यालयों में ‘विभागीय प्रधान’ पद सुलभ हुआ था, शायद वे लिख रहे हों उच्चतम साहित्य ! हमारा जो भाई मास्को-पेकिङ-न्यूयार्क का चक्कर मार आया है, उसने शायद अनोखी चीज़ लिखी होगी ! हमारा वह दादा उपन्यासकार जो तीन वर्षों से आकाशवाणी केंद्र में सिग्नेचर-सनीचरी वसूल कर रहा है, उसकी घुटन ही शायद महान साहित्यकार बन जाए ! वे भाई जो प्रकाशक बन गए हैं, कहते फिरते हैं : माँ का असली दूध तो बस वही पीते हैं... माँ यानी सरस्वती का! उनका दंभ कितना वीभत्स है ! कितना ख़तरनाक !

वे ही शायद आगे कोई अनूठी वस्तु हमें दे जायें...

दूसरी तरफ़ हम देखते हैं कि अमुक नगर का सर्वश्रेष्ठ युवक कहानीकार अमुक बक्शी या अमुक पांडेय या अमुक वर्मा ‘स्क्रिप्ट राइटर’ के मोढ़े पर अमुक रेडियो स्टेशन पर बैठा दिया गया... पिछले सात वर्षों में या चार वर्षों में उसके दिल-दिमाग़ बिलकुल भूसा हो गये हैं । तबियत करती है, भाग जाये कहीं किसी छोटे कस्बे की तरफ़... खादी का बाना धर के भारत-सेवक समाज में रात्रि पाठशाला की मामूली नौकरी कर लेगा... शरद् बाबू भी तो रंगून भागे थे ! मश्केबाज़ी का गुर मालूम होता तो अवश्य यह युवक कथाकर ‘पी०ई०’ हो गया होता... दो संकलन छपे थे, सो प्रकाशकों ने कुल जमा सौ रुपए दिए हैं अब तक... ख़ुदा उनका भला करे !

पिछले बारह-तेरह वर्षों में साहित्यकार की स्थिति में काफ़ी परिवर्तन आया है। भंग पीकर लिखनेवालों की संख्या कम हो गई है । हिंदी अब राज्यभाषा हो चुकी है, हिंदी के अधिकांश साहित्यकार किसी न किसी रूप में राज्याश्रय प्राप्त कर चुके हैं । जो राज्याश्रय से पृथक् होने के कारण अपने को ‘परम-स्वतंत्र’ मानते हैं, उनकी भी स्थिति राज्य से सर्वथा असहयोग की नहीं है । पग-पग पर राज्य से असहयोग की भावना पागलपन का पर्याय ही कहलाएगी । प्रशासन (राज्य) चाहे जैसा भी हो, हमारा अपना है । सुशिक्षित और समृद्विशील पाठक वर्ग बड़ा होता जाएगा, किताबों की खपत बढ़ती जाएगी, साहित्यकार सुखी होगा । फिर किसी प्रख्यात उपन्यासकार को झख मारकर आकाशवाणी केंद्र में चाकरी नहीं करनी पड़ेगी, किसी श्रेष्ठ कवि को सूचना-विभाग की फ़ाइलों में गर्क होकर घुटन को छंद का जामा नहीं पहनाना पड़ेगा...।

ज़रा सोचिये कि 15 वर्ष बाद हमारी जनता इस हद तक शिक्षित और पैसेवाली हो जाएगी कि आपका मामूली प्रकाशन भी पचास हज़ार प्रतियों में छपेगा और महीने-दो महीने के अंदर ही रायल्टी की पूरी राशि आपके नाम बैंक में जमा हो चुकी रहेगी...

तब सौ पेज का एक उपन्यास, बीस कविताओं का एक संकलन, दस गीतों की एक रिकार्डिंग, एक नाटक का महीने-भर अभिनय, पंद्रह कहानियों का एक संग्रह, आलोचना की छोटी-सी एक पुस्तक हमारे कथाकार-गीतकार-नाटककार-आलोचक के लिए वर्षों का ‘योगक्षेम’ जुटा देंगे। फिर अपेक्षित बेफ़िक्री और सुविधा सुलभ रहने पर पंद्रह सौ पृष्ठों या तीन खंडों में जो साहित्यकार जन-जीवन का महाकाव्य अर्थात् बृहत् उपन्यास लिख लेगा, उसकी रायल्टी से तो वह करोड़ीमल हो जायेगा न ? तब भी क्या वह आज की तरह ‘राज्याश्रय’ शब्द से चौंक उठेगा ?

आज हिंदी क्षेत्र की हमारी जनता अल्पशिक्षित है, साधनहीन है। जहालत और ग़रीबी में साहित्य ‘घी की बूँदों’ की तरह नज़र आता है, ख़ुशहाली के समुद्र में तो कल वह तेल की तरह फैलता दीखेगा ।

मुझे विस्मय होता है कि राज्याश्रय को हौआ या अमृतफल बताकर विपक्ष और पक्ष में वाद-विवाद का अंत नहीं है।

साहित्यकार सरकारी नौकरी क्यों न करे? साहित्यकार बड़ी नौकरी के लिए क्यों लार टपकाये? कल उसने अख़बारों के ज़रिए जनता को धमकी दी थी-- वह पान की दुकान कर लेगा ! आज वह शेखी बघारता घूम रहा है-- वह अपने को नहीं बेचेगा!.. अपनी पांडुलिपियों की होली जलाएगा वह !.

आज वह सरकार को फटकारता है, प्रकाशक को गाली देता है, अपने अमुक साहित्यकार बंधु पर कीचड़ उछालता है... आकाशवाणी केंद्र के अधिकारियों के पीछे डंडा लेकर पड़ा रहता है... टेक्स्ट बुक कमिटियाँ, विश्वविद्यालयों के हिंदी बोर्ड, शिक्षा विभाग, साहित्य अकादमी सभी का गोत्रोच्चारण करता है आज का साहित्यकार!... मुझे विस्मय होता है अपनी बिरादरी की यह गतिविधि देखकर । लगता है, हम उन्हें भी भूल गए हैं जिनका दिया हुआ खाते हैं। जनसाधारण-- पाठक वर्ग ही हमारे अन्नदाता हैं । हमारे अन्नदाता कल नहीं तो परसों अवश्य सुखी होंगे, फिर अपने साहित्यकार की सुधि वे ज़रूर ही लेंगे । फ़िलहाल, जनसाधारण की तरह यदि पेट की आग बुझाने के लिए आप पान की दुकान खोल लें तो उसमें हर्ज़ क्या है ? चीन के लोकप्रिय कहानीकार श्री षूली ने एक पत्रकार से कहा था, ‘यहाँ के प्रकाशकों से मुझे खाने-पीने, पहनने और ओढ़ने लायक रकम मिल जाती है, अतएव मैं निश्चिंत हूँ। बड़ा साहित्यकार बनने की मेरी अभिलाषा नहीं है, क्योंकि उससे जन-संपर्क टूट जाएगा। मैं साधारण जनता के बीच रहकर ही लिखना पसंद करता हूँ... लाखों किसान पढ़ना नहीं जानते, इसलिए मैंने उनके लिए नाटक लिखना आरंभ किया है... मैं अपने को स्वयंसेवक मानकर पुस्तकें लिखता हूँ...’

साहित्यकार के लिए राज्याश्रय घातक है या नहीं, इसका निर्णय राज्य के स्वरूप और साहित्यकार की ईमानदारी पर छोड़ देना चाहिए। पुराने जमाने में राजाओं की दी हुई जागीरें पाकर कविजन बहुधा दरबारी साहित्य का ही निर्माण करते रहे। आज के हमारे राज्याश्रित साहित्यकारों पर राजशाही-सामंतशाही-नौकरशाही अंकुश नहीं है; हाँ, उन पर हमारी प्रबुद्ध जनता के युक्तियुक्त सेंसर का ही अंकुश रहेगा ।

प्रेमचंद ने एक पत्र में किसी को लिखा था : साहित्यकार को जीविका के लिए छोटी-मोटी नौकरी ज़रूर कर लेनी चाहिए... हर समझदार आदमी प्रेमचंद की इस बात का समर्थन करेगा। बंकिम, शरद, प्रेमचंद-- कई साहित्यकार हो गए हैं जिन्होंने चाकरी भी की और साहित्य का निर्माण भी किया। शरद और प्रेमचंद ने तो बाद में नौकरी छोड़ दी, उसके बाद उनका सारा वक़्त लिखने में ही बीता । इन दिनों भी अनेकानेक प्रख्यात साहित्यकार छोटी-बड़ी नौकरियों में रहते हुए भी लिख रहे हैं । और यह बात हिंदी-क्षेत्र की ही नहीं है । बंगाल, महाराष्ट्र, गुजरात, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, केरल, मैसूर, पंजाब आदि कई क्षेत्रों में इस कोटि के साहित्यकार मिलेंगे ।

दूसरी कोटि है उन साहित्यकारों की जिनका जीवन साहित्य-निर्माण पर ही आधारित है । साहित्यजीवी के लिए मेहनती गद्यकार होना पहली शर्त है, दूसरी शर्त है मौलिकता का दंभ झाड़कर सब कुछ लिखने के लिए तैयार रहना । प्रूफ दर्शन-अनुवाद संकलन-कापी शोधन से लेकर चर्वित-चर्वण और मथित-मथनवाले बड़े ग्रंथों तक, मामूली एकांकी और बालोपयोगी कहानी से लेकर हज़ार पेजी उपन्यास तक, विज्ञापन और प्रकाशकीय वक़्तव्य से लकर उच्चाधिकारियों-मिनिस्टरों के भाषण की तैयारियों तक, रीडरबाजी से लेकर व्यक्तिगत प्रशंसा-पुराण तक... गद्य का मैदान बड़ा ही विस्तृत है । आप यदि काहिल नहीं हैं, आप यदि हद दर्जे के जिद्दी नहीं हैं, श्रमिक सुलभ सूझबूझ की कमी नहीं है यदि आप में, तो गद्य की खेती आपके लिए नुकसानदेह नहीं रह जायेगी। दस-बीस किताबें लिखेंगे तो दो-चार उनमें से ज़रूर पसंद की जाएँगी। हाँ, शाश्वत साहित्य के फेर में नहीं पड़ियेगा ।

संकट और असुविधाएँ दोनों ओर हैं। बहुत बड़ी तनख्वाह पानेवाला साहित्यकार अक्सर वर्ग बदल लेता है। रहन-सहन में ही नहीं, चिंतन में भी वह लोकोत्तर हो उठता है। प्रमाद-संशय-आत्मरति-दंभ-मोह आदि दुर्गुणों के पनपने से वह असामाजिक प्राणी बन जाता है, फिर जन-विरोधी दार्शनिकता का लबादा ओढ़कर दो अर्थी सूत्रों की शैली में बोलने लगता है वह ।

संकटग्रस्त साहित्यकार रुपए-दो-रुपए के लिए भी मारा-मारा फिरता है। मुसीबतें उसे झूठ-ठगी-बेईमानी-बहानेबाजी-क़र्ज़खोरी-चार सौ बीसी की तरफ़ ठेल देती हैं या धरा धाम से उठा लेती हैं। यह भी देखा गया है कि इस प्रकार के जीवित शहीद को भंग आदि पिला-पिलाकर पागल बना चुकने के बाद लोग उसे ‘युगावतार’ जैसी कोई उपाधि दे डालते हैं !

ऐसी स्थिति में साहित्यकार के लिए संकट-मोचन का क्या रास्ता होगा?

(पुस्तक जगत, दिसंबर 1958)