राज-स्त्री / राजा सिंह
उसे आए हुए अभी दो-तीन दिन ही बीते थे कि गार्ड ने आकर उसे बताया कि राजा साहब आपसे मिलने आ रहे है। राजा साहब उसकी बैंक के मकान मालिक भी थे। इसलिए वह अतिरिक्त उत्सुक था उनसे मिलने के लिए परन्तु इस तरह से पूर्व सूचना देकर मिलना उसे कुछ अजीब-सा डर लगा। क्योंकि उससे मिलने अकसर लोग बेधड़क आते है, ग्राहक या अन्य जन। कुछ नेता टाइप लोग उनका संस्तुति कार्य न होने पर बिगड़ भी जाते है और कहते है, आप हमारे नौकर है, ढंग से काम करो।
जब वे आए तो वह किसी राजसी पोशाक में नहीं थे बल्कि धवल श्वेत वस्त्रों में नेता टाइप ही ज़्यादा लग रहे थे ना कि राजा महाराज सरीखे। परंतु उनमें शालीनता और गरिमा थी, निःसंदेह राजसी अकड़ ज़रूर थी। उन्होंने उस दिन उसे रात्रि भोज पर आमंत्रित किया और निश्चित आश्वासन पाकर कुछ पलो के भीतर ही चले गए. उस समय वह गौरवान्वित महसूस करता रहा।
वह यहाँ शेरई में उनके मकान में नहीं नहीं, राजा साहब की कोठी के परिसर में स्थित एक बैंक में प्रबंधक है। एक छोटी-सी बैंक, छोटी-सी आबादी के अनुरूप जिसमें रोज़ बमुश्किल बीस-तीस ग्राहक आंतें है। शेरई कानपुर प्रतापगढ़ के बीच स्थित एक कस्बा है जो कभी वर्तमान राजा साहब के दादा परदादा की रियासत हुआ करती थी। यहाँ उनका कोठी-नुमा महल अब भी विद्यमान है, अपने पुराने वैभव दिनों को रोता हुआ। जिसके वंशजों में पुरानी अकड़ अब भी बाक़ी है, अब भी वे राजा साहब कहलाते थे क्योंकि, उनकी काफ़ी संपदा शेरेई में है। जिनसे किराया सामान्य गुज़ारे लाइक आता रहता था। वर्तमान राजा साहब के लड़के एक किसानी में, एक फ़ौज में और एक पास के शहर में प्राइवेट संस्थान में क्लर्क था, परंतु सब में राजसी गुरूर भरपूर मात्रा में था। उनके एक लड़की भी थी जिसकी शादी पट्टी के पुराने राजपरिवार में हुई थी। उसी ही की क्यों, सभी का विवाह प्रतापगढ़ के अन्य राज घराने में हुआ था, तथा सभी उसी राजमहल में रहते थे।
वह बैंक के ऊपर रहता है,एक दो कमरों वाले सभी सुविधाओं से युक्त, एक बड़ी-सी छत के पास। ऊपर आने के लिए बैंक के बगल से सीढ़ियाँ लगी है।
वह चाहता तो राजा साहब के यहाँ भीतर से अपने बैंक के रास्ते से भी जा सकता था। परंतु उसने बाहर का रास्ता चुना। उसे राजमहल बाहर से कैसा दिखता है, अवलोकन करना था? हालांकि बैंक से वह ठीक दिखता, क्योंकि वह एक ही परिसर में स्थित थे। वह एक ऐसा मकान था जिसके कई चेहरे थे, कभी महल, कभी कोठी और कभी सफेदी से पुता एक बड़ा साधारण-सा बड़ा आवास। बाहर से दिखने पर वह राजमहल क्या महल भी नहीं दिख रहा था? सफेद रंगों में पुती एक विशाल कोठी अवश्य लगी थी। परंतु सभी उसे महल ही कहा करते थे। चूंकि राजा साहब ने आमंत्रित किया है, अपने राजपरिवार के साथ रात्रि-भोज पर ।उसने अपने भीतर भी राजसी काबिलीयत विकसित होती दिखी।
राजसी वंशज होने के कारण अवश्य वे राजपरिवार के थे। परंतु वे किसी तरह से भी राजसी नज़र नहीं आ रहे थे, न वेशभूषा के और न दिखने के ढंग से। वे अंतर्निहित अकड़ के साथ साधारण मध्यम वर्ग के लगे। हाँ, अलबत्ता गेट पर दरबान के सलाम, कोठी के भीतर की साज-सज्जा महल के अनुरूप होने पर और रात्रि भोज में चांदी के बर्तनों का उपयोग किया था जो उसे फिर राजसी अहसास करा गया।
रात्रि भोज से पूर्व राजपरिवार से परिचय के दौरान पुरुष वर्ग ने हाथ मिलाया और स्त्रियों ने हाथ जोड़कर नमस्ते की, सिवाय राजकुमारी के, जिसने उससे हाथ मिलाकर अभिवादन किया। सभी स्त्रियाँ परंपरागत साड़ियों में थी सिर को ढके, जिसमें सिर्फ़ आधा चेहरा दिख रहा था। यहाँ भी राजकुमारी अलग थी। वह साड़ी में ही थी परंतु अभिनेत्री सरीखी ढंग में। भोज में भी पुरुषों के अलावा सिर्फ़ राजकुमारी ने भाग लिया था।
हमारी पुत्री राजकुमारी प्रकृति अपनी ससुराल रियासत पट्टी से आई है, कुछ दिनों के लिए. राजा साहब ने कहा। उसे इस परिचय में कोई संदेह नहीं, किन्तु राजकुमारी के भाव उपेक्षित थे। तभी उसे कुछ ऐसा लगा था कि उसमें कुछ ऐसा है जो किसी दूसरे में नहीं है। वह एकाग्रता से उसे देखने लगा था किन्तु जब उसने आँख उठाकर भरपूर नज़र उसे देखा तो उसने अपनी निगाहें फेर ली थी। वह उसे देखकर पता नहीं किस ख़्याल से मुस्कराने लगी थी।
जब वह मिली थी, तब उसके उदास, निराशा, हताशा और नाउम्मीदों के दिन थे। उन निष्क्रिय भरे दिनों में भी, वह आकर्षक और कामायनी थी। पर तब वह उसके दिल के दलदल में दफन गुस्से संताप निराशा और उदासी को देखने असमर्थ था। उसे पट्टी के महल से निकले पाँच वर्ष बीत चुके थे। यहाँ के लोगों के लिए उसका यहाँ स्थान अपरिहार्य बन चुका था। हालांकि यह पचाना बेहद अविश्वसनीय था। उसके भीतर निस्सारता और ना उम्मीदियाँ अपने पंख पसार चुकी थी। उसकी तसल्ली समाप्त हो चुकी थी। कोई भी फ़ैसला उसे वापस पट्टी की ओर जाता दिखता नहीं था, अब वह ख़ुद भी वापस लौटने को उत्सुक नहीं थी। वह अपने आप से बेजार नज़र आती थी।
उसके बाद कुछ ही दिन बीते थे। वह बैंक में जब काम में बिजी था, तो देखा फ़ोन की घंटी बज रही है। उसने ध्यान नहीं दिया। शाम के छै बज रहे थे और बैंक का काम ख़तम नहीं हुआ था। इस बीच वह घंटी कई बार बजी और उसने एक बार भी नहीं उठाया। जब काम समाप्त करके उठने की सोच ही रहा था, तब उसने सोचा कि अब अगर फ़ोन बजा तो अवश्य उठा लेगा। वह कुछ देर उसे देखता रहा फिर उठ गया कमरे जाने के लिए.
शाम के सात बज रहे थे और वह चैनल तक पहुँच ही नहीं पाया था कि चैम्बर से फ़ोन की घंटी सुनाई पड़ी। इस बार उसने जल्दी की और उसके बंद होने से पहले ही रिसीवर उठा लिया। जैसे बहुत देर से उसका ही इंतज़ार कर रहा हो? उसने रिसीवर उठाकर “हैलो” कहा।
“यह, मैं हूँ !” एक हल्की और मधुर आवाज। उसे कौतूहल और जिज्ञासा हुई.
“कौन?” इस समय कौन-सा कस्टमर हो सकता है? और फिर यहाँ के कस्टमर ऐसे कहाँ होते है? उसकी बोली धीमे और रहस्यमय लगी। वह चुप रहा अनुमान लगाने लगा, मगर असफल रहा। यह आवाज़ पहली बार सुन रहा था।
“हम है, प्रकृति चंदेल... “अब की बार आवाज़ तीखी और तेज थी।
वह पहचान गया किन्तु सुनिश्चित करना था। उन दोनों की पहचान बेहद संक्षिप्त थी। ऐसा परिचय जिसका ऊपरी तौर पर कोई तुक और अर्थ नहीं होता, जो शुरू होने से पहले ही ख़त्म हो जाता है। परंतु ऐसा नहीं था। सोचता है कि वह एक स्वप्न था। उसे विश्वास नहीं आ रहा था। हालांकि यह असभ्यता थी, फिर भी उसने पूछा, “क्या आप राजकुमारी जी बोल रही है ?”
“बिल्कुल हाँ! आवाज़ बिल्कुल धीमी और स्पष्ट थी। फिर उधर से मंद मंद हंसी सुनाई दी।
“कहिए!” उसने बेहद नम्रता से कहा।
“अभी तक काम चल रहा है?”
“नहीं अब समाप्त हो गया है।”
“सुनो, क्या आप शतरंज खेलना जानते है?”
“अवश्य, मैं स्कूल स्तर का चैम्पीयन था।” उसने गर्व मिश्रित स्वर में कहा।
“अच्छा! तो एक बाजी मेरे साथ खेलना पसंद करेंगे ?”
“निःसंदेह यह मेरा सौभाग्य होगा।”
“ठीक है, फिर शाम को मिलते है।”
उसकी आवाज़ लोप हो गई. फिर भी वह फ़ोन के आगे बैठा रहा। वह पूछना चाहता था कहाँ ? परंतु वह कही नहीं थी। सिर्फ़ एक धड़कन छोड़ गई थी जो दिल के कोने में तेजी से चल रही थी।
जब वह ऊपर पहुँचा तो वह दिखाई दी, कोने वाले एकल सोफे में बैठी हुई. उसकी दृष्टि कही और टिकी हुई थी, चेहरे पर अजबनियत का कोई भाव नहीं था। मेज पर प्रारम्भिक बाजी बिछी थी। उसकी पीठ मुड़ी हुई थी और बाल खुले हुए थे। वह कुछ देर उसे देखता ही रह गया, दरवाज़े पर अटका हुआ। ताज़ा चमचमाता युवा चेहरा और खूबसूरत साँचे में ढला एकहरा शरीर। फिर एक प्रश्न उभरा राजकुमारी अकेले उसके पास है? क्या राजकुमारी इंतज़ार में है ? सहसा वह पलटीं उसे वह देखा और मादक हंसी से मुस्कराने लगी। एक ख़्याल जेहन में चक्कर लगाने लगा, क्या वह राजकुमारी को छू सकता है? उसकी धड़कने तीव्र से तीव्रतर होने लगी।
वह जल्दी से दूसरे एकल सोफे पर सटकर बैठ गया। एक क्षण दोनों में से कोई नहीं बोला, जो कि ख़ामोशी नहीं थी। फिर सम्मोहन शब्दों का रूप लेकर चल पड़ी।
“कितने देर से बैठी है?”
“अभी, अभी कुछ देर पहले।” उसने शतरंग के मोहरों को बिना मतलब हिलाया डुलाया। उसने अपनी तरफ़ सफेद मोहरे रखे थे और उसके लिए काले। वह उसकी तरफ़ कुछ खोजता हुआ बोला, “एक कप चाय चलेगी?”
“मैं जानती थी, इसलिए बोल कर आई हूँ। अभी अभी आता ही होगा, शिवराम।” यह कहकर वह जीने की तरफ़ देखने लगी।
उसके यह कहने की देर भी नहीं हुई थी कि जीने की सीढ़ियों पर वह चढ़ता हुआ सुनाई पड़ा। शिवराम ने चाय और स्नैक्स रखे ही नहीं थे कि उसने कहा, “कुछ देर बाद खाना खाएँगे।”
वह कुछ कहता कि नौकर वापस जा चुका था। उसके लिए समय गूंगा हो चुका था। उसके पास आदेश के अनुपालन के अलावा कोई विकल्प नहीं था। उसका दिल तेजी से धड़कने लगा था, लेकिन वह संयत होकर बैठी रही। फिर हँसते हुए कुछ पीछे सरक जाती है और पूछा “खेल प्रारंभ करें?”
“हाँ, हाँ ...क्यों नहीं?” हड़बड़ाहट में बिना सोचें समझे चाल चल दी। किन्तु वह सामान्य थी। उसने समझते हुए खेल प्रारंभ किया।
वह उसकी राजकीय छाया से ग्रसित था। उसने मन को खेल के प्रति बहुत एकाग्र करने के कई प्रयत्न किए किन्तु असफल रहा। उसने कुछ ही मिनटों में उसे मात दे दी। उसने उसकी हार पर कोई मोहलत नहीं दी और दूसरी बाजी बिछा दी।
इस बार वह सम्हलकर खेल रहा था परंतु उसने अपनी बेगम का बेहतरीन इस्तेमाल करते हुए, चंद मिनटों के भीतर फिर मात दी और उसके पूर्व स्कूल चैम्पीयन होने के गुरूर को धूल धूसरित कर दिया। वह अक्तूबर के महीने में पसीने पसीने हो आया था। परंतु उसके पास रहम नहीं थी। लगातार चार बाजी जीतने के बाद वह ठहरी। नहीं... चैन की सांस ली। कुछ ढीले होकर वह सोफे में सिर टिकाया और बोली, “एक बाजी और चलेगी?”
उसने जबरदस्ती हंसी लाते हुए कहा, “कुछ कल के लिए छोड़ देती तो बेहतर रहेगा?” वह हार को पचा नहीं पाया था। उसे उम्मीद थी अगले दिन वह अवश्य ही बेहतर खेल पाएगा, क्योंकि वह कई वर्षों के पश्चात शतरंज खेला था। वह हार के हादसे से उबर ही नहीं पाया था कि उसके नौकर ने भोजन सहित प्रवेश किया।
उसने धीरे से उसके कंधे पर हाथ रखा और कहा, “चलिए खाना खाते है।” उसका स्पर्श उसे झंकृत कर गया।
खाना खाते हुए वे एक दूसरे के अतीत और वर्तमान के विषय में परिचित होते रहे। वास्तव में वे अपनी आत्मकथा कहते रहे। बहुत कुछ उन दोनों ने सुन रखा था या मालूम था। वे पूछ ताछ ढंग से बात कर सकते थे, परंतु उसने ज़ोर दिया कि ऐसे कहा जाए कि दूसरे को कुछ पूछने की ज़रूरत ना पड़े और किसी के दबाव के तहत झूठ बोलने का कोई कारण ना रहे।
अपने विषय में बताते हुए वह संकोच और डर से घिरा था। वह खुलासे से ज़्यादा छिपाने की कोशिश कर रहा था। हालांकि वह इसमें सफल नहीं हो पाया था, क्योंकि उसके तेज प्रति-प्रश्न उसे विचलित कर देते। जबकि उसने सब कुछ अपने विषय में खोल दिया था, बिना किसी दुराव-छिपाव के. वह बोलती जाती और वह उदरस्थ करता जाता। उसके अंदर शब्दों की बाढ़ थी जिसके प्रचंड बेग से वह बहता चला जा रहा था।
रात के बारह बज रहे थे। वह उसकी बातें रुकने की प्रतीक्षा कर रहा था। क्योंकि इसी बीच वह कई तरह के डर से घिरता जा रहा था, मुख्यतः राजा साहब का डर। आख़िर में उसे रोकना पड़ा, “क्या बाक़ी बातें हम कल कर सकते है?”
वह सन्न होकर उसकी ओर देखती रही फिर झटके से उठ खड़ी हुई. यह उसकी आशा के विपरीत था कि कोई सामान्य व्यक्ति ऐसा कह सकता है?
“हाँ, हाँ। क्यों नहीं ? यही ठीक रहेगा।” उसने कहा। वह चली गई, यह सोचते हुए कि वह कैसा है?
उस दिन से उसके आने का सिलसिला दूसरे तीसरे होने लगा-कभी भी, किसी वक्त। कभी शतरंज के साथ कभी उसके बगैर।
वह लस्त-पस्त पड़ा है। आज कैन्टीन ब्वाय नहीं आया। वह मैनेजर के लिए सुबह का नाश्ता और दोपहर का खाना बना जाता है। रात का खाना वह सामने ढाबे में जाकर ख़ुद खा आता है। कभी कभी रात का खाना छूट जाता है, थकावट या मन के वशीभूत। रात के नौ बज चुके है। एक बार ज़रूर वह छत से ढाबे को देख आया था, वह बंद होने के करीब था फिर भी वह अभी तक ढाबे जाने का निर्णय नहीं ले पाया है।
हम चाहे जितने तटस्थ और उदासीन प्रेम में हो, हमारे भीतर कुछ स्थल अवश्य ऐसे होते है जब हमें वे याद आने लगते है।
वह आ रही थी। ख़ुशी थी किन्तु उस ख़ुशी ले पीछे एक तनाव था। एक खिची-सी अपूर्णता उस पर छाई थी।
“माफ कीजिएगा, इस वक़्त आपको तकलीफ दी।” उसने बेहद मुलायम, सभ्य और करूणा से सिक्त स्वर में कहा।
“कहिए!” उसके स्वर में हल्का-सा आश्चर्य और विस्मय था।
“आपका रात्रि भोजन अक्सर टल जाता है। आज भी ऐसा कुछ हुआ है। इसलिए आज में वही लाई हूँ।” यह कहकर उसने दरवाज़े के बाहर देखा, जहाँ शिवराम एक निहायत खूबसूरत रुमाल से ढकी भोजन थाली लिए था। जिसे उसने फुर्ती से मेज पर रखा और अदृश्य हो गया।
उस रात उसने अपने सामने खाना खिलाया और वह चुपचाप उसे खाते देखती रही। उसने उसके साथ भोजन करने के प्रस्ताव को ठुकरा दिया और कहा कर आई हूँ। मगर ऐसा लग नहीं रहा था। वह उसे खाते देख कर तृप्त होती रही। देर तक उसकी आंखें निरीह, ख़ामोश उसके और कमरे के आस पास फिरती रही और फिर उसके रहस्य लेती रही। वे आंखें उसे अजीब नहीं लगी थी, क्योंकि वे उसके अपने सम्बंधों के बीच दिलचस्पी की परतें खोलती थी। उसे यह बहुत भावुक कर गया कि इस निपट अकेली सुनसान जगह, कोई अपना भी है जो उसकी फ़िक्र करता है।
हालांकि वह कोशिश करता था कि ऐसे मौके दोहरा न जायें, परंतु उसका मन उसी के पास अटका रहता। वह आती किसी समय, किसी वक्त, कभी खेलने कभी गप-शप करने और कभी यूं ही। वह उसकी राह तकने लगा था। परंतु इतने दिनों बाद भी उसकी उपस्थिति अपने साथ भय लेकर आती थी। जब कभी वह होती तो ऐसा लगता की कोई उन्हें सुन रहा है, देख रहा है।
लेकिन जब वह सामने बैठी होती है तब एक अलौकिक-सी ख़ुशी उसे घेरे रहती। वह उसे देख सकता है छू सकता है और उस जैसा साधारण व्यक्ति, उसके लिए ख़तरे उठा सकता है।
वह राजा की बेटी थी परन्तु राजकुमारी नहीं थी। वह विवाहित थी किन्तु परित्यक्त। वह बेहद आकर्षक सुन्दर युवती थी। उसमें आकर्षण और गरिमा का अद्भुत समिश्रण था परंतु किसी की चाहना नहीं बन पाई थी। तीन भाइयों पर अकेली बहिन थी परन्तु वह लाड़ली नहीं थी। जब वह उससे पहली बार मिली थी तो उसे विश्वास नहीं आया था कि उसे कोई कैसे छोड़ सकता है? परंतु ख़ुद उसने उसे बताया कि राजकुंवर पट्टी ने उसे सिर्फ़ इस लिए परित्याग कर दिया कि पाँच वर्ष बाद भी वह उन्हें कोई संतान न दे सकी थी, इस कारण वह परित्यक्ता है। सम्बंध-विच्छेद की अदालती कार्यवाही चल रही है परंतु निर्णय नहीं हुआ है। किन्तु उसे किसी से भी कोई गिला-शिकवा नहीं था, यहाँ तक भगवान से भी नहीं। उसकी पसंद नापसंद न पहले थी, न अब है। यह उसकी नियति है। उससे उसकी अतरंगता भी नियति का ही खेल है। वरना एक साधारण व्यक्ति में उसे राजसी छवि क्यों नज़र आती और राजसी व्यक्ति में ओछापन क्योंकर उद्घाटित होता। यह बात उसने उसको देखकर कही थी या ऐसे ही राजकुंवर से तुलना कर के कही थी। वह अनुमान लगाने में असमर्थ था। उसके अनुसार यह नियति का खेल नहीं तो और क्या है कि राजा, रानी, राजकुमार और उनके परिवार सभी महल के मुख्य भाग में थे, जबकि उस राजकुमारी को महल के पिछले भाग में जगह दी गई थी। उसे सबसे छिपा कर रखा गया था, जैसाकि वह अपने ससुराल पट्टी में है। इसका भी एक मतलब था, राजपरिवार में सब कुछ ठीक है।
राजयुवती प्रकृति-जो प्रत्येक की अभीष्ट हो सकती है किन्तु आज उपेक्षित है। उसे एक मानव की तलाश थी जो से सिर्फ़ मानवी के रूप में उसे जाने और पहचाने। उसकी तलाश निर्वेद के रूप में आकर टिक गई थी। वह ही एक ऐसा ही व्यक्ति था, जो प्रतीक्षित था। वह अच्छी तरह जानती है कि निर्वेद खाया पिया अघाया होने के बावजूद उसकी चाहना और आकर्षक से मुक्त नहीं है।
लेकिन निर्वेद का विवाह एक सुखद विवाह की कोटि में आता था। उनमें आपस में कोई शिकायत नहीं थी। वह समर्पित थी और वह संतुष्ट था। किन्तु उसे राजकुमारी के साथ की जो ललक उभरती थी वैसी उसे अपनी पत्नी से नहीं आती थी। वह अलौकिक प्रेम की चाहना राजकुमारी से करने लगा था। वह अपनी पत्नी निष्ठा से असन्तुष्ट तो हरगिज़ नहीं था परन्तु प्रकृति से जैसी संतुष्टि उसे कही नहीं मिलेगी, ऐसी उसकी धारणा स्थापित होती जा रही थी... शायद उसके राजकीय गुण के कारण तो नहीं जो चाहना से प्रारंभ होकर प्यार में तबदील हो गए थे। किन्तु वह सोचती कि वह कैसा व्यक्ति है कि उसे उसकी चाहना नहीं उमड़ती। वह मिलने की पहल क्यों नहीं करता?
वह सोचती है वे मुझे कभी भी पकड़ सकते है, उसके साथ। लेकिन फिलहाल नहीं। क्योंकि अभी सम्बंध उस स्तर पर नहीं थे जो अनुचित हो? परंतु आरोपित होने के लिए यह नाकाफी नहीं है। किन्तु वह सोचती है कि वह क्या इस तरह की मित्रता के लायक है? कोई व्यक्ति हर चीज के काबिल नहीं होता है। अगर लायक है तो क्या वह विश्वास योग्य है? जिज्ञासा? नहीं, यह नहीं थी सिर्फ़ वह एक अहसास था जो उसके करीब लाता चला गया।
फिर अचानक उसके आने का सिलसिला थम गया। करीब करीब एक माह से ज़्यादा हो गए थे, वह नहीं दिखी। वह बेचैन हो उठा था। किससे पूछे ? उसके विषय में किसी से पूछा भी तो नहीं जा सकता ? उसकी तृष्णा दिल, दिमाग़ और जिगर में सदैव छाई रहती। राजसी स्त्री के सान्निध्य से जो सुख उसे प्राप्त होता, वह अवर्णनीय था और उसे उस पीड़ा से मुक्त कर देता है जो उसे अपनी पत्नी निष्ठा से उसके विषय में न ज़िक्र करने से मिलती है।
अचानक एक दिन उसने देखा कि वह अकेली, कोठी के पीछे हिस्से में है और बेहद गुस्से में है। वह बेख्याली में अपने कपड़े खींचने लगी, वह ख़ुद अपने को काटने लगी थी और इस खींच-तान काटने में, वह भूल गई कि निर्वेद उसे देख रहा था। जैसे ही उसने उसे देखा वह सुन्न हो गई. कुछ देर फटी फटी फटी आँखों से उसे देखती रही फिर रोने लगी। वह डर गया परंतु उसके डर में उसके प्रति बेहद प्यार उमड़ आया। वेदना की एक लहर उठी और उसे अपने साथ बहा के ले गई. फिर एक अजीब चमत्कार हुआ। वह उसके पास चला गया, बिना किसी प्रत्याशा। उसने उसके आँसू पोंछे और सांत्वना दी। वह उसके साथ ही उसके कमरे चली आई.
रिक्त होते उसके हाथों को अपने हाथ में लिया। सफेद हथेलियाँ धीरे धीरे रंगत पाने लगी और उसका चेहरा और शरीर जो वह धवल सफेद शांत होकर खिलने लगा। वे फिर बहुत देर तक वे उन विषयों में बात करते रहे, जो उसकी पिछली ज़िन्दगी से सम्बंधित थे। उसी समय उसने उससे वादा लिया कि वह अतीत को भूलने का प्रयत्न करेगी। उसने भी उसे विश्वास दिलाया कि वह उसकी मदद करेगा।
“आप बहुत दिनों से ना दिखी न मिली।” उसने हिचकते हुए कहा
उसने उसकी तरफ़ देखा। उसकी लंबी काली आँखें उठी और कुछ सहम कर उस पर ठहर गई. एक उदास-सी मुस्कराहट उसके चेहरे पर आई और विलोप हो गई.
“आप को फ़िक्र थी?”
उसे कोई जवाब देना उचित नहीं लगा। क्योंकि उसका कुछ भी कहना अर्थ का अनर्थ भी हो सकता था।
“जब मैं पहले अकेले में होती थी तो वास्तव में अकेली होती थी, लेकिन अब तो अचरज होता है कि अकेलेपन में भी मैं आपके साथ होती हूँ ! ऐसा क्यों है कुछ कह सकते है?” वह बोली।
“आप दूसरा विवाह क्यों नहीं कर लेती?” उसने पूछा।
वह चुप रहीं-एक डबडबाया चेहरा, जिसमें पुरानी विपदाएँ, शिकायतें और ज़ख़्म चमकने लगे।
“राजघराने की स्त्रियाँ ऐसा नहीं करती।” उसका स्वर भर्रा गया।
अब वह अपने को रोक ना सकी। सुबकते हुए वह फिर रोने लगी उसे अफ़सोस हुआ कि उसने ऐसी बात क्यों की ?थोड़ी देर बाद वह सम्हली और उसकी तरफ़ प्रश्नों की तरह देखा।
उसे कुछ समझ ना आया कि क्या किया जाए. यकायक वह आगे झुका धीरे से उसके कंधे पर हाथ रखा। देखिए, “अगर आपको कोई ज़रूरत हो ...” फिर उससे बोला ना गया।
जब वह जाने लगी तो उसका हाथ अपने हाथ में लिया और देर तक मूँदे रही, फिर झटके से निकल गईं। उसे कुछ हैरानी हुई.
उपेक्षा की घनी भूत रात्रि में उसे निर्वेद का अक्स उभरता और आरजू उफनती तो वह अगले दिन उसके पास आ जाती। वह खुले दिल से उसे स्वीकार करता। परंतु उसकी निष्क्रिय प्रतिक्रिया से, वह उसे विस्फारित नेत्रों से देखती। ऐसा लगता कि जैसे उलाहना देती हो! वह कुछ समझ ना पाता। वापसी पर उसके चेहरे पर छाई खेदजनक उदासी उसे असन्तुष्ट कर देती। वह उसके डर को समझकर मानो कहती, “क्यों इतनी चिंता कर रहे हो?” मैं हूँ तुम्हारे पास। कभी कभी खेद भरी निगाहों से उसकी तरफ़ देखती और उसके पास रुक जाती। वह सोचती है,जो साधारण है वह क्या विशिष्ट बन पाएगा?
वह उसकी निःशब्द नीरव भूमिका से बेहद प्रभावित और अभिषिक्त था। उसकी चाह कभी भी मिटती नहीं थी। उसे राजकुमारी का साथ एक विशिष्ट विजयोल्लास से भरती थी जो लिप्सा में तबदील होती जा रही थी। कभी कभी वह अजीब एकाग्रता से उसे देखता रहता, अपने को विश्वास दिलाता रहता कि यह राजयुवती उसकी मित्र-प्रेमिका है। लेकिन जब वह उसकी नजरों को पकड़ने की कोशिश करती तो वह निगाहें फेर लेता। वह यह देखकर पता नहीं किस ख़्याल से मुस्कराने लगती तो वह बुरी तरह झेप जाता।
ऐसी ही एक शाम को जब वह उससे मिलने आई तो उसे देखा कि वह दिन भर की चिकचिक झिकझिक एवं कार्य से थकी क्लांत मुद्रा में बड़े सोफे पर पसरा पड़ा है। उनींदा। उस पर बेहद प्यार उमड़ आया। उसकी आहट पाते ही वह उठ कर बैठ गया।
वह उसके सामने वाली कुर्सी में बैठ गई. “शायद आँख लग गई थी?”
“नहीं, कुछ भी नहीं... ऐसे ही !” उसने कहा।
उसके देखते ही उसके अंगों में एक हल्की-सी स्फूर्ति का अहसास हुआ। वह उसे छूना चाहता है, चूमना चाहता है और एक बार कम कम एक बार आलिंगन बद्ध होना चाहता है। युवती ने उसकी आँखों में आँखें डाल दी है और उन्हें पढ़ रही थी कि वे क्या कह रही है ?
अब वह एकदम से उसके पास आ गई. इतने पास कि उसकी साँसे उसकी साँसों से टकराने लगी। आंखें उठाकर आकुल, विवश निगाहों से उसे निहारती रही, ख़ामोश। उसकी अपेक्षित प्रतिक्रिया से प्रतीक्षारत रही।
अचानक वह अप्रत्याशित रोशनी में आ गया, जहाँ सिर्फ़ वह था। किन्तु डर, वासना जैसे दो चीजे एक साथ उसमें थीं। उसने कंपकंपाते हाथों से उसे छुवा। उसके छूते ही प्यास उसकी प्यास सताने लगी। वह बढ़ती ही जा रही थी।, उसने अपने गीले कोमल होंठों से उसे बार बार उसके ठंडे, सूखे होंठों को चूमने लगी। अब उसके दोनों होंठ गीले, गरम, कोमल और अभिषिक्त हो गए.। बहुत दिनों के बाद उसे अपने मुंह का स्वाद अच्छा लगा था। उसके गले मिली और देर तक उसे भिचें रही। अचानक वह मछली की तरह फिसली और झपटकर दूर चली गई. उसे उसकी प्यास सताने लगी। प्यास बढ़ती जा रही थी... उसने उसे इशारे से बुलाया। वह नहीं आई और कमरें से निकल कर वापस चली गई.
उसे कभी लगता था कि वह ख़ामोशी से उसे उन छिपे धुंधले कोनों तक ले जाना चाहती जहाँ वह राजकुंवर के साथ नहीं पहुँची थी। उस दिनों उसे पहली बार यह अहसास हुआ कि हमारी भूख वर्तमान या भविष्य की ही भूख नहीं होती बल्कि अतीत की भी होती है, जब हम अलग अलग किसी और के साथ होते है। जिसे हम दुबारा उन क्षणों को जी लेना चाहते है।
शनिवार इतवार उसके लिए खलनायक दिन है, क्योंकि इन दिनों वह अपने बसाये वास्तविक घर में होता था यानी कि सामाजिक घर में, जहाँ उसकी पत्नी और बच्चा उसका बेचैनी और उत्सुकता से प्रतीक्षारत होते। मगर उसे उनसे क्या? उसके लिए तो वे रातें अजीब होती–मरते हुए, सांस चलते हुए. फिर ऊपर उठते हुए और फिर मरते हुए या जीवन जीते हुए. वह उसे जाते हुए देखती और उसका मन उसके साथ भागने लगता। वह दोहराती है एक-एक शब्द को, जैसे हर शब्द में विवशता, वादा और कर्तव्य छिपा हो, जैसे उसका जाना एक आवश्यक क्रिया हो जिसके बगैर उसका कोई अस्तित्व न हो। यहाँ वह रह जाती है- निसहाय, निरर्थक, अनुपयुक्त। वह दोहराती है, वह तसल्ली देता है। ख़ुद खाली होता है, पर उसे आश्वासनों से भर देता है, ढक देता है। वह अपनी पत्नी-बच्चे से मिलने जाता है। निःसंदेह अपनी पत्नी से वह दो रात और एक पूरा दिन देता होगा यह सोचकर वह झुलस जाती है। इस समयावधि में वह मर जाती है।
सोमवार की सुबह से उनके दिन फिर होते थे।
जब वह इस स्थान से बाहर जाता,वह समझता था कि वह काफ़ी अकेली है। परंतु ऐसा नहीं था, वह सप्ताहाँत में गुजरे दिनों की अनुभूतियों में लौट जाती थी। तब वह उसकी गंध और सान्निध्य में विचरती और उस निर्मित दुनिया में रहती, जहाँ वे दिन थे और रातें थी जब वह उसके साथ थी। तब वह उन दिनों रातों के बारे में नहीं सोचती जो उसके बगैर गुज़ारने होंगे। यह दीगर बात है कि अनायास वे गाहे-बगाहे दस्तक दे दिया करते थे और एक ख़ौफ़ की मानिंद उस पर सवार हो जाते थे, शनिवार इतवार जब वह यहाँ नहीं होता। वह जी उठती है, जिस दिन वह लौट आता है। उसे तब बहुत कोफ्त होती है, जब वह बीच में पड़ने वाली छुट्टियों में भी चला जाता, ये दिन उसे अनावश्यक लगते है।
शाम के सात बज रहे है। उसके विषय में कोई सुगबुगाहट नहीं हुई थी। उससे रहा नहीं गया। उसे जब आना होता है वह आ जाती है। उसने चारों ओर एक टटोलती निगाह डाली, लेकिन वह कहीं दिखाई नहीं दिया। कमरा खुला हुआ था पर वह नहीं था। अचानक एक आशंका ने उसे जकड़ लिया। संभव है आज न आया हो?
वह उठ खड़ी हुई. जीना उतर कर उसने बैंक में झाँका। चैनल गेट बंद था परंतु लाइट जल रही थी। किन्तु वहाँ कोई दिख नहीं रहा था।
“भीतर हैं!” बैंक गार्ड ने पीछे से आवाज़ दी। वह कुछ दूर हटकर कुर्सी में बैठा था। शुरू से उसका पीछा दो जोड़ी आँखें कर रही थीं, जब से वह अपने कोठी से निकली थी। चैनल में झाँकते ही वह बोल पड़ा था। उसे हमेशा यह लगता था कि उनके विषय में कोई कुछ नहीं जानता। किन्तु यह उसका भ्रम था। बैंक में गार्ड और राजपरिवार में राजा साहब तथा अन्य राजसी स्त्रियाँ। जिनके पास संदेह था परन्तु प्रमाण नहीं था। किन्तु वह उपेक्षित किए थे और उसे यह अहसास नहीं होने दे रहे थे कि वे कुछ जानते है। या शायद उनमें राजकुमारी से या आपस में इस बात की ज़िक्र करने की हिम्मत नहीं थी।
वह चैनल वाले गेट से भीतर आती है जिसे गार्ड ने तुरंत ही खिसका दिया, जब उसने इरादा किया था। भीतर काउन्टर तक आते ही वह दिख गया। वह अपने चैम्बर में काग़ज़ों में उलझा था। उसने एक दृष्टि उस पर डाली और फिर लापरवाही से अपने काम में खो गया। जैसे उसे उससे कोई वास्ता न हों। इस व्यस्त वक़्त में और यहाँ उसे उसका आना अच्छा नहीं लग रहा था, परंतु वह उसे मना नहीं कर सकता था। यहाँ आना वह भी नहीं चाहती थी, किन्तु उसे कमरे में ना पाकर एक बेचैन-सी झुंझलाहट के तहत वह अपने को रोक ना सकी थी। वह बहुत कुछ कहना चाहती थी परंतु सीधे सीधे वह कुछ भी नहीं कहती पर उसे देखकर कोई भी समझ सकता था कि वह कितनी उद्विग्न है, उसकी ज़िन्दगी में व्याप्त हो गई सारी शिकायतें उससे हल कर लेने को उत्सुक।
वह अपने काम में इतना व्यस्त था कि उसे अंदाजा नहीं था कि वह नाराज भी हो सकती है। वह उसे लगातार देख रही थी। उसने इसे अपनी अवमानना समझा।
अब वह सरकते हुए उसके बिल्कुल पास चली आई थी, लगभग एकदम सामने। उसके सीधे चमकदार बाल उसके टेबल पर गिर पड़े।
इस बार वह अपने को रोक ना सका। उसने लिखना बंद किया। टेबललैम्प स्विच-ऑफ किया तो उसने आगे बढ़कर उसके हाथ को पकड़ लिया।
“अपना काम पूरा कर लीजिए. मैं प्रतीक्षा कर रही हूँ।” परंतु उसने उसकी नाराजगी भांप ली थी।
“नहीं अब चलते है।“ उसने डरते हुए कहा। उसे आभास था कि गार्ड उनकी हरकत नोट कर रहा है। वह घबरा गया। राजकुमारी का इस समय होना एक अनहोनी को दावत हो सकता था। उसकी भी ड्यूटी पाँच बजे समाप्त हो जाती है, किन्तु उसे ब्रांच बंद करके ही जाना होता है।
“आप देर तक काम करते है?”
“नहीं आज ही, कुछ ऐसे ही। रिपोर्ट हेड ऑफिस भेजनी थी। बाक़ी कल कर लूँगा।“ उसने उड़ते स्वर में कहा। “आप ऊपर चले मैं अभी आता हूँ।”
उसने एक क्षण उसकी ओर देखा और फिर निकल गई. वह भी उसके पीछे पीछे चला आया।
उसने गार्ड से कुछ कहा। वह देखना चाहता था कि उस पर क्या प्रतिक्रिया होती है। उसमें कोई भाव नहीं आया था। उसने कोई जवाब नहीं दिया। अब गार्ड ने सारी बैंक बंद की और चाबियाँ साहब को देकर चलता बना।
उसे राजकुमारी की भाषा समझ से परे लगती। जिसमें काफ़ी मतलब छिपे रहते थे। जिन्हें बाहर से नहीं भीतर से समझना पड़ता है। इसे छिपाना नहीं कहा जा सकता। एक तो वह बहुत कम बोलती थी, दूसरे जितना बोलती थी उससे ज़्यादा छिपाती थी। वादा लेती कि किसी को सम्बंधों के विषय में पता नहीं चलना चाहिए और कार्य ऐसे करती कि सब कुछ खुल जाए. वह सोचती कैसा आदमी है जो स्त्री की भाषा नहीं समझता जबकि वह शादीशुदा और एक बच्चे का पिता है। क्या वह अपनी पत्नी को पढ़ पाया है?
जब वह ऊपर आया तो देखा कि वह कुर्सी पर सिर टिकाए बेफिक्र आँखें मूँदे बैठी है। वह देहरी पर ठिठका। कुछ पल उसे देखता रहा। इस समय बेहद मासूम भोली और सुन्दर लग रही थी। उसके चेहरे पर थकान का कोई चिह्न नहीं था, बल्कि कोमलता, सौम्यता और गुलाबीपन दूर तक छिटक रहा था। वह चुपचाप उसका आस्वादन करता रहा। सफ़र और काम की थकावट ग़ायब थी और उसके प्रति खिजता कब की हवा हो ग्ई थी।
उसे लगा की प्रतीक्षा में उसकी आँख लग गई है। वह उसकी पीछे चला आया और अपनी हथेलियों से उसके गाल थपथपा दिए। उसने धीरे से आँख खोली और उसे अपने में खींच लिया। वह आवाक उसे देखता रहा, जैसे कि वह कोई और हो? वह धीमे धीमे उसे सहलाती रही और खो गई. एक दूसरे के अगाध आगोश में आबद्ध, आविष्ट और अभिभूत होकर, वे दोनों पूरी तरह मिल गए.
किसी दिन रात को बिस्तर में पड़े, कुछ ऐसा होता कि काबू नहीं होता, निर्वेद की आरजू उठती और वह उसके पास आ जाती। उसे डर रहता कि वह उसे भी सम्पूर्ण पाने की ज़िद में विजयराज की तरह ना खो दे। वह जैसा है और जिस रूप में है उसे उसी रूप में स्वीकार करना चाहिए. खेद भरी निगाहों से उसकी तरफ़ देखती और उसके पास रुक जाती। वह डर और शंका से घिरी रहती, परंतु मादकता से सिक्त होती। उसकी इस तरह की भंगिमा से उस पर बेहद प्यार उमड़ता और वह उसमें खो जाता। वह खिच जाती। एक दूसरे में बंध जाते। एक दूसरे के प्रति अकथ प्यास, प्यार और चाहना भरी होती। वह जगती। उसने उसे आलिंगन में लिया। उसके आलिंगन में लेते ही वे एक दूसरे के खाली पड़े स्थानों को भरने लगते। उसकी बच्चों-सी मुलायम कोमल सफेद त्वचा निरीह देह में होती, जो विवाहित होने बावजूद कुंवारी जान पड़ती। उसे यह सोचना असंभव लगता कि इस राजकन्या को कभी किसी ने भोगा होगा? उसकी देह के हर कोने में स्थिति जमी हुई दर्द पिघलने लगती। वह उसे खोलता और वह खुलती जाती। वह ख़ुद अपने रहस्य के अनावृत होने से उल्लसित है। तब वह धीरे से फुसफुसाती-यह ही उचित है।
कभी कभी वह चोरी चुपके आ जाती जब वह नींद में हुआ होता। वह अचानक चौक-सा जाता, दरवाज़े पर एक धुंधली छाया-सी आकृति खड़ी होती। उसे कुछ हिलता देखकर, वह जो परदे की ओट में स्तब्ध खड़ी हो जाती। सहमी-सी हिलती हुई छाया उसके नज़दीक आकर रुकती। कुछ देर उसे एकटक देखने में उसका चेहरा लगता। उसके होंठों के काँपते स्वर से वह जान जाता कि राजकुमारी है।
तब उसे उस पर दया और प्यार दोनों उमड़ता कि वह राजकुमारी कैसे एक साधारण व्यक्ति के लिए सर्दी-गर्मी रात-विरात निर्जन अकेले चली आती है मिलने ? उसके चेहरे पर भय से लिपटी एक विस्मित-सी आतुरता होती, जिसे उसका सान्निध्य धीरे से तिरोहित कर देता। किन्तु जाते हुए भी उसके चेहरे पर छाई अभाव की रिक्तता उसे चुभती जिसे वह भरना चाहता। जिसे तटस्थ भाव से देखा जा सकता है। वह कुछ समय के बाद सहज होती है किन्तु वह अपनी न रहकर पराई बन गई होती है। किसी की आहट सुनने पर वह उसकी ओर देखता और अजीब से आतंक से भर जाता। परंतु वह अकारण नहीं चौकती। वह गुमसुम सी, निस्तब्ध और निश्चल पड़ी रहती। उसे उसका साथ एडवेंचर महसूस होता जो डर और ख़तरे से भरपूर होता। परंतु उससे अधिक कौतूहल और जिज्ञासा जगाती। उसका राजसी सम्मोहन सदैव उसे अपनी ओर खींचता था। उसे वह उसकी ज़िन्दगी की विशिष्ट उपलब्धि लगती।
“प्रिय, एक बात पूछे ?” उसने कहा।
“पूछो !” वह अनमनस्कता से बोली।
“तुम इतना उदास क्यों रहती हो?”
“कहाँ? कम से कम आपके पास तो नहीं।” वह मुस्कराई. एक ऐसी मुस्कराहट जो मनुष्य को बाँध दे।
“आप तो यहाँ से जाने के बाद हमें भूल जाओगे?”
“नहीं...” बिल्कुल नहीं! फिर कुछ देर बाद बोला, “जो आप से एक बार आपसे मिल ले, असंभव है।” वह हंसने लगी और देर तक हँसती रही।
“आप याद करेंगी, सामान्य...मानुष को ?” उसका वाक्य पूरा ही नहीं हो पाया था कि उसने कहा, “क्या कह रहे है आप? आपने ज़िन्दगी के नए अर्थ दिए है और ज़िन्दगी के उन कोनों को भरा है जो जाने कब से रीते थे? आप साधारण नहीं बल्कि विशिष्ट हैं !”
फिर उसने एक लंबी गहरी-सी उसांस ली और उसकी दृष्टि शून्य में खो गई. उसकी फाँस गहरे तक धँसी थी जिसे आसानी से निकाला नहीं किया जा सकता था। उसकी नंगी आँखों की मृतप्राय स्थिरता को देखकर वह कुछ विचलित-सा हो आया। जिज्ञासा ? नहीं, यह नहीं थी सिर्फ़ वह एक अहसास था जो उसके करीब लाता चला गया।
उस दिन छुट्टी का दिन था। वह कानपुर नहीं गया क्योंकि बैंक में कुछ ज़रूरी कार्य लंबित पड़े थे जिन्हें तुरंत निपटाना आवश्यक था। फ़ोन करके निष्ठा को बता दिया था। फिर भी दोपहर को उसका फ़ोन आया, “आज भी नहीं आए ! सिर्फ़ आपको ही कार्य होता है? काम वाली जगह पर, अवकाश वाले दिन भी कोई क्योंकर रह सकता है?” उसने दबे स्वर में कहा। उसका स्वर बिल्कुल धीमा था, धीमा किन्तु संयत। जिसमें न कोई तरफदारी थी, न तटस्थता सिर्फ़ एक हमदर्दी थी जो उतनी ही बड़ी थी जितनी उसकी आवाज।
वह सोचता है निष्ठा कभी कभी अर्थहीन बाते क्यों करती है? परंतु उसकी बातों में गहरे अर्थ छिपे होते है। वह उन शब्दों और वाक्यों के जरिए कुछ तलाशती है। वह मेरी किसी मांग का विरोध नहीं करती। कभी कभी चोरी चुपके मेरी तलाशी लेती। जब कुछ नहीं मिलता तो निराश होने के स्थान पर संतुष्ट होती। वह बीते हुए दिनों में लौट चला गया... जब दो एक दूसरे से संतुष्ट, मज़बूत बिंधी गांठ-सी बंधी ज़िन्दगी में किसी कील की तरह प्रवेश करती राजकुमारी। जिसने गांठ में ढील ज़रूर डाल दी थी परंतु उसे खोल सकने असमर्थ थी- दो के बीच गुथी प्रकृति।
पहले वह सोचता था कि कितना आसान है प्रकृति के नज़दीक जाना और फिर सिरे से नकार देना। परंतु जब अपनी पत्नी निष्ठा के पास लेटता तो वह अचंभे से उसे देखती। स्त्री शरीर में रची-बसी पराई गंध को आसानी से सूंघ लेती है। यह उसने तब जाना जब प्रकृति के बाद निष्ठा के साथ सोया। फिर जब वह उसे अपने आगोश में खींचता तो उसके चेहरे एक ऐसी पीड़ा उभरती जो उसके समझ के परे होती। वह प्रतिक्रिया विहीन होती।
“यह कैसी गंध है जो तुम्हारे शरीर से झरती है?” निवृत्त होने पर पूछती।
“कुछ भी तो नहीं, अगर है भी तो तुम्हारी?
वह अजीब-सी कातर निगाहों से उसे देखती पास आती, चाहती। परंतु एक शक उसके भीतर तक धस जाता जिसे वह बाहर निकालना चाहती, परन्तु असफल रहती। फिर एक ग्लानि उमड़ती कि वह उस पर शक करती है?
वह सोचता, एक ओर निष्ठा है- उसके पहले जैसे समर्पित एकनिष्ठ प्यार की अभिलाषी और दूसरी ओर प्रकृति राजसी वैभव की प्रति मूर्ति, स्वप्न सरीखी जिसका स्पर्श अलौकिक दुनिया का आभास करता। उसके सान्निध्य हेतु, निर्निर्मेष, ताकता, निहारता। उसके जाते ही वह वास्तविक दुनिया में आ जाता।
राजा साहब ने उसे बुलाया है। उसने नौकर से कहा शाम को बैंक के बाद आएँगे। तब से वह चिंतित है क्या बात है ? कही राजा साहब को कुछ उनके सम्बंधों के विषय में पता तो नहीं चल गया? क्या कहेंगे? धमकी देंगे? शेरेई छोड़ने को कहेंगे? ट्रांसफर कराने को कहेंगे?
वह राजा साहब की बैठक में उनका इंतज़ार कर रहा है। वह आए तो उसे वह गंभीर कतई नहीं लगे। उसने राहत की सांस ली। तब तक उनका घरेलू नौकर शिवराम शराब और कुछ नमकीन रख गया। उन्होंने दो गिलाश में ख़ुद डाली और उससे आग्रह किया।
“मैं नहीं लेता। आप लीजिए !”
“आज लीजिए. आज आवश्यक है। साथ दीजिए.” वह कुछ सहम गया। उसने फिर कोई प्रतिवाद नहीं किया। वे जब एक-दो पैग पी चुके तो उन्हें कुछ याद आया।
“मैनेजर साहब, मैं तुमसे कहना भूल गया। अभी कुछ दिन हुए आपकी पत्नी आई थी।”
“आपके पास ? क्यों?” उसे आश्चर्य हुआ। उसे लगा कि राजा साहब को ग़लतफहमी हुई है।
सब कुछ संभव था। परंतु यह असंभव जान पड़ा कि वह कानपुर से चलकर यहाँ आई और बिना उससे मिले, उसकी भनक पड़े वापस लौट गई.
“आपने मुझे उस समय बताया नहीं।“
“मैं समझा आई है, तो अवश्य आपके पास जाएगी रुकेगी।“
“क्या कहने आई थी, मतलब पूछने?”
“हाँ और क्या?” वह मुझे पूछने आई थी, क्या सचमुच यह सत्य है कि राजकुमारी और मैनेजर साहब में अंतरंग सम्बंध है?”
“मैंने मना किया। मुझे नहीं लगता कि उसने मेरी बात का विश्वास किया हो ?”
“क्यों ?”
“मैं पहली बार उससे मिल रहा था, पहले तो यक़ीन करना मुश्किल था कि कोई लड़की के पिता से ही उसके चरित्र के विषय में ऐसी बात करने की हिम्मत करेगा और दूसरे अपने पति के विषय में... फिर यक़ीन करना पड़ा जब उसने अपना नाम और मोबाइल नंबर और घर का पता लिखकर दिया... हाँ, क्या नाम था निष्ठा अग्रवाल।” उन्होंने वहाँ एक पड़ी डायरी में उसका लिखा सब कुछ दिखाया।
वह पहचान गया, परंतु अब भी संदेह में था।
“क्या उसके साथ कोई बच्चा था, करीब छै-सात वर्ष का ?”
“हाँ, परंतु वह मेरे पास नहीं लाई थी। उसे दूर अपनी कार में छोड़ कर आई थी। बेटा भी चुपचाप कार में बैठा उसे टुकुर टुकुर देखता रहा, ना रोया न चिल्लाया।
“आपने कुछ नहीं पूछा ?”
“नहीं, क्या पूछता? इच्छा तो हो रही थी कि गोली मार दें, मगर मैं जबरदस्ती शांत रहा। क्योंकि आपका मामला था।”
“मैं आपसे कुछ पूछना चाहता हूँ?” राजा साहब की आँखें उस पर जमी थी...“आखिर, में माजरा क्या है?”
“कुछ नहीं, कुछ भी तो नहीं!” उसकी थकी, क्लांत आँखे ऊपर उठीं और राजा साहब की जलती आँखों से टकरा गई.
“फिर वह घर की स्त्रियों से क्यों मिलना चाहती थी विशेष रूप से राजकुमारी प्रकृति से। रानी साहिबा के अलावा वह किसी से नहीं मिल पाई, राजकुमारी के लिए मैंने कह दिया कि वह अपने ससुराल पट्टी में है?”
“आपकी पत्नी क्योंकर यह कर रही है?”
“अरे ! कुछ नहीं।”
“कुछ तो है...हम आपके पर्सनल मामले में दखल नहीं देना चाहते परंतु यह मेरे राज परिवार से जुड़ा है। जिसकी भनक तक हमें नहीं है, परन्तु उसकी आंच तुम्हारे घर तक पहुँच गई है। इसलिए अगर कुछ भी है तो उसे ख़त्म करने का रास्ता खोज लो नहीं तो हम सब कुछ ख़त्म कर देंगे।”
माहौल गरमा गया था। उसने ख़तरे शब्द का प्रयोग धमकी के रूप में किया था। उनके नशे में और बिगड़ने के पूर्व ही वह वहाँ से उठ आया। जैसे कि पराई और अजनबी जगह से कोई पिंड छूटा कर भागता हो।
वह बैंक के भीतर आया। अपनी सीट पर बैठा। सोच रहा था कि बैंक गार्ड से पूछना है। क्या उसने उसे देखा था ? वह उससे कुछ पूछता की उसने पहल की, “साहब जी, क्यों बुलवाया था राजा साहब ने?”
“कुछ नहीं ऐसे ही।“ उसने बात दरकिनार करने की सोची।
“कहीं, राजकुमारी साहिबा के विषय में बात तो नहीं थी?”
‘ऐसा तुम कैसे कह सकते हो?” वह कुछ तैश में आ गया था।
वह सकपका गया। चुप लगा गया। किन्तु अब उसे अफ़सोस हुआ की उसने बेकार में उसे डाँट दिया।
“बैंक बंद करें और जाए.” उसने मुलायम स्वर में कहा। वह खड़ा रहा फिर बोला, “साहब जी, एक बात कहूँ?”
“हाँ, बोलिए.” उसने पुचकारते हुए कहा। वह उत्साहित हुआ।
“साहब जी, राजकुमारी साहिबा से सम्बंध मत रखिए. यह ठीक नहीं है...आप ऐसा कुछ न करें जिससे उन्हें आप पर शक हो। अगर राजा साहब को...?”
“किसे? क्या कह रहे हो? दिमाग़ ठिकाने तो है?”
“सर जी,! बात बाहर फैलती जा रही है... अभी कुछ दिन पहले एक टीचर आपके विषय में पूंछ-ताछ कर रही थी। साहब उस दिन मैं बताना भूल गया था। मैं समझा कि वह लोन के सम्बंध में मिलने को कह रहीं थी साहब कब फ्री होते है? मैंने उसे 5 बजे के बाद आने को कहा था...”
“मगर साहब, वह यह क्यों कह रही थी कि साहब कैसे है?”
“क्या उनके राजकुमारी से कुछ...?”
“मैंने कहा नहीं...पता नहीं, कुछ नहीं, मैंने कहा ख़ुद साहब से पूछ लीजिए. उसने कहा पूछेंगे परंतु शाम को !” किन्तु वह शाम को नहीं आई. परंतु वह सामने वाले ढाबे गई थी और काफ़ी देर बात करती रही। शायद खाना भी वही खाया। तब उनके साथ एक बच्चा भी था और उनकी कार का ड्राइवर।
“ढाबे वाले से पूछकर बताओ, क्या पूछा था?”
“उससे पूछा था, परंतु उसे कुछ नहीं पता। उसकी घरवाली से बात हुई थी ?”
“क्या वह आपकी वाइफ थीं ?”
“हाँ,” परंतु यह कहते हुए वह काँप गया।”
“क्योंकि, मुझे नहीं पता था कि वह आपकी वाइफ है ? वरना मैं अवश्य उन्हें रोक लेता और ऊपर घर को भेजता। वह ढाबे वाली अच्छी औरत नहीं है। वह कई बार राजकुमारी साहिब को आपके कमरे आते जाते देखा है। उसने ज़रूर सब कुछ कह दिया होगा। मेम साहब को शक पक्का हो गया होगा ?”
“देखिए किसी से कुछ कहने की ज़रूरत नहीं है। समझे। आइंदा सचेत रहिए. अब कभी वे आए तो बताएगा।”
उसने सहमति में सर हिलाया। वह कुछ देर बौखलाया-सा उसे देखता रहा फिर भी उसने कोई अहमियत नहीं दी। हालांकि वह इस प्रकरण से हिल गया था। यह प्रकरण उसकी जानकारी में आ चुका था, यही क्या कम है ? उसने यह भी तुरंत निर्णय लिया कि वह निष्ठा से यहाँ की ट्रिप के विषय में नहीं पूछेगा।
उस रात वह बार बार उठ जाता। शराब, थकान, सपने और जागती आँखों में मँडराते ख़तरे। हर बार चौक कर जाग जाता। लगता कोई नीचे दरवाज़ा खटखटा रहा है। जीना का दरवाज़ा खोलता, तो कोई नहीं खाली सूनापन। सुनसान वीरान आगे-पीछे फैला मैदान और किनारे किनारे हिलते पेड़ों की कतारें। ऐसा लगता इन पेड़ों के पीछे कोई छिपा हुआ है -राजा साहब का भेजा कारिंदा या पत्नी का का भेजा हुआ कोई भेदिया। वह भागने लगता है-नंगे, बेशर्म, उधड़ने वाले अतीत वर्तमान या भविष्य में लेते तथ्यों के बिखरने रोकने या समेटने हेतु। वह हाँफता हुआ कुछ देर पीपल के नीचे खड़ा रहा। उसके पसीना चुहचुहा आया था जिसे उसने हाथों से पोंछने की कोशिश की, असफल रहा। वह स्लीपिंग ड्रेस में था। वापस आकर उसने जल्दी से वह दरवाज़ा बंद किया जो सदैव खुला रहता था, उसके आगमन हेतु। कभी कभी उसे आशंका होती कि वह अपने कमरे का दरवाज़ा खोलेगा तो उसकी जगह राजा साहब दिखाई देंगे अपने पूरे राजसी परिधान और तलवार के साथ और पलक झपकते ही उसका सिर धड़ से अलग पड़ा तड़फ रहा होगा।
अगले दिन वह शाम होने के तुरंत बाद आई. वह उसके विषय में कुशल क्षेम पूंछ पाता कि उसने प्रश्न दाग दिया।
“कल दरवाज़ा क्यों बंद था। दरवाज़ा भी खटखटाया था, फिर मैं लौट गई.”
“नहीं, मैं आया था देखने, खोलने परंतु कोई नहीं था। मैं नीचे तक भी गया था खोजने। असल में कल आपके पिता से मुलाकात के बाद, एक अजीब-सी आशंका ने मुझे जकड़ लिया था।” उसका स्वर सहमा था।
“कोई ख़ास बात हुई थी क्या? मेरे से सम्बंधित ?”
“नहीं, वे कुछ जानना चाहते ज़रूर थे परंतु मैंने कुछ नहीं बताया। लेकिन मुझे लगता है कि उन्हें कुछ शक ज़रूर हो गया है। क्योंकि अंत के शब्द धमकी से भरे थे।” वह पत्नी के गुप्त अभियान को छुपा गया। क्योंकि उसे पूरी तरह यक़ीन हो गया था कि राजा साहब ने उस प्रकरण का ज़िक्र उससे नहीं किया होगा।
“जब तक आप यहाँ है, इस घर-बैंक परिसर में, वे कुछ भी आपको हानि नहीं पहुँचाएँगे ?” उसने उसे आश्वस्त किया।
वह शाम अचानक एक अनहोनी नियति की तरह उसके सामने थी।
वह कुछ देर सोचती रही फिर झटके से अपने साथ लाए बैग से व्हिस्की की बोतल, काजू-नमकीन और सिगरेट के दो पैकेट निकाल कर सामने टेबल पर रख् दिए. दो सिगरेट निकाली और उन्हें सुलगाकर एक उसके मुंह पर लगा दिया। कभी कभी जब वह परेशान हो जाती है तो पीती है।
वह अभी तक निर्विकार बैठा सब कुछ देख रहा था बोल पड़ा, “राजकुमारी जी! आप?”
“यह क्या आप आप लगा रखा है मुझे अपने से अलग मत करो और हाँ मेरा नाम प्रकृति है, लेने में कठिन लगता है, तो वही उस दिन वाला क्यों नहीं कहते?... जब प्रिये कहा था।” यह कहते हुए वह उसके किचेन में चली गई। कुछ देर बाद वह लौटी तो हाथ में अंडे के आमलेट बना कर ले आई.
उसने उसे रोकने की जुर्रत नहीं की। अब उसकी झिड़की खाने की हिम्मत नहीं थी। उसने दो गिलासों में व्हिस्की डाली और बोली, “पहले जब तुम नहीं थे, मैं कैसे रहती थी?” उसके स्वर में थर्राहट थी। सिगरेट के धुवे से या शायद आँसुवों को रोकने से उसकी आंखें जलने लगी थी... “भीतर बाहर के लंबे सूने दिन और रातें याद आतें है। जब मैं अकेली इस महल के भीतरी पिछवाड़े में क़ैद से आज़ाद होती तो बाग-मैदान, पेड़-पौधों और इनके बीच फैली छोटी-मोटी पगडंडियों घूमती। किसी अपने की राह तकती और जीवन के लंबे फासलों को पार करते चलती थी। अपने भीतर एक अनाम हाहाकारी चीज उठने लगी थी और विद्रोह की ओर उन्मुख होती। फिर तुम मिले और आभास हुआ की हम एक दूसरे को छूकर तसल्ली पा सकते है, जो एक दूसरे की देहों से उठकर बिसरती आत्मा को चुप कर देती।”
“लेकिन आज नहीं !” वह निढाल उसे देखती रही। फिर हकबकाकर उठ बैठी। ”मैं चलती हूँ-आज मुझ पर दृष्टि रखी जा रही है। वह उसे खो रही है, यह ख़्याल आते ही एक रुँधी-सी हूक भीतर उठी,
“क्या हो सकता?” उसने निराशा में पूछा।
“वे मुझे कही मिलने न दें वर्तमान, भविष्य में ?
“नहीं नहीं...” उसने जल्दी में उसे टोंक दिया। ऐसा कुछ न कहों, कभी कभी कुछ कहा सच हो जाता है ।” और उसने प्रकृति का चेहरा झोंक में चूम लिया। उसने किसी तरह की प्रतिक्रिया नहीं दी।
उसने झूमता सिर ऊपर उठाया और उसकी तरफ़ मुड़कर देखा फिर बोली “एक बात बताओ? हम में और तुम में अलग क्या है? दोनों लोग मानव ही है न ? फिर हम राजन और तुम सामान्य जन कैसे हुए? हम दोनों में क्या फ़र्क़ है?” वह चुप रहा... “ मैं बताती हूँ, सिर्फ़ एक फरक है- मैं स्त्री और तुम पुरुष। ठीक है। किन्तु यह तो शारीरिक फरक है मानसिकता में तो कोई फ़र्क़ नहीं है न? सही है ? वैसे ही राजकीय और सामान्य स्त्री में क्या फरक है?...बोलते क्यों नहीं ? जहाँ मैं ग़लत हूँ कहिए, टोकिए ? इसके बाद भी स्त्री स्त्री में फरक क्यों? माँ वाली स्त्री और बिना माँ वाली स्त्री में क्यों फरक ? यह कैसा समाज है ? कैसा धर्म है? हम सब में फरक ही फरक हैं? कहिए... ?” अरे! कुछ तो बोलिए.“ उसने उसे कंधे पकड़कर झकझोर दिया।
वह क्या कहता ? वह सब सही तो कह रही थी। उसके पास प्रतिवाद करने की कोई वजह नहीं थी। अगर कोई आ गया तो? उसे यह सोचकर एक झुरझुरी-सी उसके शरीर में दौड़ गई. ”मुझे आपकी चिंता समझ में आती है, परंतु निदान नहीं है।“ लेकिन आवाज़ इतनी धीमी थी कि सुनने वाला क्या बोलने वाला भी आश्वस्त नहीं था कि संप्रेषित हुआ है कि नहीं? उसने अपने बेबस और बेचैन स्वर को दबा लिया।
“मैं आपसे कुछ कहना चाहती हूँ... क्या आपके पास समय है ?”
उसे ताज्जुब हुआ। क्या व्यक्ति नशे में भी हंसी कर सकता है? जिसके पास करीब करीब रोज़ आ जाया करती थी, उसके पास धैर्य की कमी हो सकती है समय का अभाव नहीं हो सकता।
“कहिए.” उसने थूक निगलते हुए कहा।
उसने दूसरी सिगरेट सुलगा ली थी, फिर उसने उसकी तरफ़ देखा। उसे भी दूसरी उठानी पड़ी। अब उसने दूसरा पैग बनाया और उसे थमा दिया। एक घूंट भरकर वह बोली, “स्त्री को क्या समझते है? स्त्री होने के क्या मायने है? वह संपति है?... वह भोग्या है? इससे ज़्यादा कुछ नहीं ?...मै क्या हूँ ?”
उसे वह सिर्फ़ एक असीम उत्पीड़ित आत्मा लग रही थी, जो लौ की तरह निष्कंप जल रही थी। वह इतना तल्लीन और ग़मगीन दिखाई पड़ रहा था कि उसकी सम्पूर्ण कृतज्ञता उस पर अर्पित हो जाती है।
“नहीं, मुझे ज़्यादा कुछ नहीं कहना, तुम्हें मेरे विषय में मालूम है, मेरी क्या हालत है ?” वह एक पल भी नहीं झिझकी, फिर उसकी ओर देखा, जिनकी वजह से मैं इस हालत में पहुँची हूँ... वह राजशाही पट्टी के राजकुंवर विजयराज। जब स्त्री स्त्री में कोई फरक नहीं है तो एक स्त्री जनने वाली महान हो गई और जो जन न सकी वह परित्यक्ता। मुझे देखकर कहों मेरे में क्या कमी है ?”
“क्या स्त्री का एक ही काम है बच्चे पैदा करना, नहीं तो बेकार ? क्या स्त्री बच्चे पैदा करने की मशीन है बस? क्या उसका और कोई रोल नहीं है? क्या वह माँ के अलावा बहन, बेटी, मित्र और साथी नहीं है? यदि हाँ,... तो माँ ना बन सकने पर त्याज्य क्यों?”
स्त्री सिर्फ़ मानवी है देवी या दासी नहीं। क्या स्त्री की इच्छा-अनिच्छा होती है? उसके कोई मायने है?” क्या यह प्रश्न था या सिर्फ़ याचना थी। उससे उतनी नहीं जितनी उस अज्ञात नियति से! उसके बातों के स्वर उसके भीतर धँसते जा रहे थे। उसके स्वर में अधीरता थी, एक आतुर-सी प्रार्थना थी।
“मैं जब यहाँ आई थी तब अपने को ख़त्म करना चाहती थी। अब ऐसी इच्छा नहीं है। अब मैं जीना चाहती हूँ, एक भरपूर जिंदगी। ये रीति रिवाज, राजसी, सामान्य-विशेष सब ढकोसला है, दूसरों को प्रताड़ित करने माध्यम मात्र। हमारी दुनिया में ऐसा क्या है जो तुम्हारी दुनिया में नहीं है?
उसने एक झटके में दूसरा पैग ख़त्म किया। वह तब तक अपना समाप्त कर चुका था। वह थमी और उसकी तरफ़ देखकर बोली। “क्या यह मुमकिन है कि सब कुछ भूल जाना विस्मृति के गड्ढे में डुबो देना?” उसे प्रकृति एक रहस्यमय स्त्री की तरह लगी जो समय और सृष्टि के बाहर किसी पारलौकिक दुनिया की थी।
“अच्छा एक बात बताओ, “हम आपस में क्या है ?”
“हम मित्र है और क्या?” उसके मुंह से अनायास निकला।
“चूतिया बनाते हो?” उसने बेहद तीखे स्वर में कहा। कुछ रुक कर वह बोली, “वासना में लिप्त सम्बंधों को मित्रता कहते हो !”
“बताएँ... हमारे सम्बंधों को क्या कहते है ?” वह ज़िद में थी और उसकी तरफ़ उत्सुकता से निहार रही थी।
“हम प्रेमी-प्रेमिका हैँ।”
“ठीक है, कुछ हद तक परंतु सम्पूर्ण सत्य नहीं है...!” यह कहते हुए वह शंका से घिरी अवश्य लगी कि वास्तव में सत्य क्या है?
“तुम इतनी हैरान क्यों हो?”
एक क्षण अपलक उसे देखा और फिर बोली, “माफ करिएगा मुझे लगता है कि तुम अपनी पत्नी को प्यार नहीं करते, जैसाकि विजयराज नहीं करता था। वरना वह मुझे छोड़ता नहीं, वैसे ही जैसे कि तुम मुझसे जुड़ गए हो !” वह नर्वस हो गया था। वह बिल्कुल शालीन ज़िम्मेदार और चिंतामग्न व्यक्ति जान पड़ी।
“मेरे ख़्याल से किसी को अपना बनाने या किसी का हो जाने के लिए किसी साक्ष्य किसी तर्क की ज़रूरत नहीं होती...देह के सच के साथ मन जेहन का एक भीतरी सच भी होता है, किन्तु उसे जानने की कोशिश कौन करता है?
फिर वह लड़खते हुए कदमों से चल दी। उसने उसे छोड़ आने की पेशकश की जिसे उसने ठुकरा दिया। उस दिन वह एक निसंग अवसाद से घिरी थी, जो वह कई अनुत्तरित प्रश्न छोड़ गई थी।
वह सोचता है कि कितना आसान है प्रकृति का उससे जुड़ना। वह बंधनहीन है। एक छोड़ी हुई स्त्री और वह पूरी तरह बँधा हुआ, पत्नी, पिता और नौकरी से। प्रत्येक को ख़ुश करने में कही सभी नाख़ुश ना हो जाएँ- वह इसी में उलझता जा रहा है।
प्रकृति कभी खाली नहीं होती, वह स्निग्ध, कोमल, आत्मीय, मौलिक, उदात्त और आत्मबल का प्रतीक है, जो सिर्फ़ और सिर्फ़ उत्तर होती। जबकि निष्ठा वह सेवा, शुद्धि, सुचिता, संयम, समर्पण, अनुशासन और सकारात्मक ऊर्जा के तहत सिर्फ़ प्रश्न होती।
प्रकृति सोचती है कि निर्वेद ने उसे सब कुछ दिया है जिससे वह बँचित थी। प्यार मान सम्मान। वह उसके रूह तक रच-बस गया है। उसने उससे कभी कहा था, “मैं आपकी दुविधा समझती हूँ किन्तु अब तुमसे अलग ना रह पाऊँगी। आप जैसे है वैसे ही स्वीकार है जैसे कि आपने मुझे स्वीकार किया है, मेरे सारे दोषों के साथ। आपकी अपने परिवार के प्रति समर्पण असंदिग्ध है। इसलिए हम सब साथ चल सकते है-बिना किसी को परित्याग किए. मैं कृतज्ञ हूँ तुम्हारी शख्सियत के जो तमाम अवरोधों के बावजूद ऐसे प्रेम को साधे रख सके.
कभी कभी वह सोचता है कि निष्ठा से सब कह दे। क्योंकि आसान नहीं है, उससे कुछ छिपाना। कभी तीव्र इच्छा होती कि उससे अपना ग़म, उलझन चिंता सब साँझा कर दे, जैसे अभी तक करता आया है। उसके हल काफ़ी मुफीद रहते है, किन्तु यह समस्या उसकी व्यक्तिगत और अप्रिय प्रसंगों से परिपूर्ण है जो उसकी प्रत्युत्पन्नमति निर्णय से घातक हो सकते है। जिसके कारण किसी पर ज़िन्दगी का संकट सन्निकट होगा। कभी उसने कहा था कि “नहीं ,नहीं हरगिज़ नहीं... तुम पर से जुड़ी हरेक चीज पर सिर्फ़ मेरा अधिकार है, यह बटवारे वाली बात नहीं है। ऐसे ही मुझसे जुड़ी है हर एक के लायक सिर्फ़ तुम हो...किसी के साथ सांझा करने का सवाल ही नहीं है।
अब की बार जब वह पत्नी से मिला तो वह दुखी निराश और पस्त दिखी। उसकी ओर निर्निमेष तकती, निहारती खोई-सी अनुपस्थित लगी। उसे देखकर एक ग्लानि उमड़ती कि वापस शेरेई नहीं जाएगा। रात में उसके पास लेटी वह, भागने के लिए छटपटाने लगती। परंतु अपने को समेटकर चुपचाप पड़ी रहती, बिल्कुल निश्चल शांत किसी भी प्रकार की घबराहट और पसीने से परे उसकी लाल बिंदी और सिंदूर अपनी जगह पर स्थिर बने रहते। उदास, दुखी और निराशा में डूबे शरीर को जब उसका हाथ उसे सहलाने लगते, तो सुखी-सी पड़ी नदी बहने लगती।
“क्या बात है?” उसने उसे अपने पास घसीटते हुए पूछा।
“मैं हर हाल में ठीक हूँ!” वह धीरे से अकथ शांति से कहती। कुछ देर तक उसकी आँखों में आँखें डाल कर पड़ी रही फिर वह बोलती है और वह उसके शब्दों को निगलता जाता। “सोचती हूँ मेरे से अलावा और कौन है, जो मुझसे ज़्यादा टूटकर चाह सकता है और प्यार कर सकता?... डर लगता है कि आप किसी मुसीबत में न पड़ जाये ।
“तुम ग़लत अर्थ निकाल रही हो?”
“निरर्थक तो नहीं है न ? जिसे प्रारंभ ही नहीं होना था वह अभी तक सार्थक है ?... मैंने सोचा था कि जब आओगे तो पूछूँगी की कितना सच है ? किन्तु तुम्हारी अस्वीकृति मुझे और संशय में डालती है कि पति देव कितने गहरे स्तर तक लिप्त है?”
एक क्षण चुप्पी रही जैसे वह प्रतीक्षा कर रही हो। जैसे वह कुछ कहना चाहता हो ? उसे लगा कि उसे बता देना चाहिए. लेकिन एक अदृश्य रुकावट ने उसे घेर लिया। उसका चेहरा तन्मय एकांत में डूबा था, मूक और निरीह पशु की तरह। जहाँ सिर्फ़ उसकी साँसे सुनाई पड़ रही थी। वह बिल्कुल शांत बैठा उसे देखता रहा।
नींद के आगोश में कितनी तकलीफें सो जाती है, कितने डर खो जाते हैँ। परंतु कभी कभी वह सपने के रूप में आकर जीवंत होकर डँसने लगतें है। इतनी रात को वह अंधेरे में मेरे चेहरे को टोहने लगी, कातर अविश्वनीय आँखों से देखने लगी।
हाँ, इतनी रात को ...रात और दिन इसका कोई हिसाब शक के पास नहीं होता। वह जानता है कि वह उसे चाहती है, हर समय हर वक्त।
वह रुक गया। उसकी रूखी और नीरव आंखें उस पर टिकी थीं-प्रतीक्षा करती हुई, बिना किसी जल्दी के, एक असीम धैर्य के साथ जिसमें समझ और सहानुभूति दोनों थी।
“कोई ऐसे कैसे कर सकता है घर में ऐसी सुन्दर पत्नी और प्यारे बेटे के होते हुए किसी और का हो जाए ?” उसने बड़ी मुश्किल से कहा। वेदना की एक लहर उठी थी जो उसे भी बहाकर ले गई. अब वह अपने को रोक ना सकी। एक बाँध-सा टूट पड़ा और आंसुओं की बाढ़ निकल आई... वह सचमुच ज़ोर जोर से रोने लगी।
“चुप चुप चुप ! मेहरबानी करके चुप रहो। बेटा जग जाएगा।” उसने कहा। वह सुबक सुबक कर रोती हुई शांत हो गई.
“निर्वेद ?”
“बोलो, मैं सुन रहा हूँ !”
वह हिचकिचाई जैसे पहली बार उसे अलग होते देख रही हो? या अभी अभी देखा हो, सोती आँखों के या जागती आँखों से देखा हो?
“आप मुझसे अलग होना चाहते है ?”
“क्या तुम होश में हो?” उसने उसे झिड़का।
वह चुप रही एक अंतहीन ख़ामोशी। पीड़ा ने उसे जकड़ लिया था।
“तुम बहक रही हो?”
“हो सकता है। आप सच सच बताये ! ऐसा कहे कि शक की गुंजाईस ना हो?” उसका स्वर धीमा हो आया।
“ऐसा कुछ भी नहीं है जिसकी आशंका से तुम पीड़ित हो?” उसने उसे थपथपाया।
आखिर वह चाहती क्या है? रात काफ़ी गहरा गई थी। अँधेरी रात में भी वह मुझे पढ़ रही थी। परंतु उसने अपनी शेरेई के जाने की बात नहीं बताई और उसने भी उसके वहाँ पहुँचने और जानकारी में आने का कोई मुद्दा नहीं उठाया।
उसके प्रश्न बहुत देर तक अटके रहे थे, परंतु उसके उत्तर किसी के पास नहीं थे।
प्रकृति भीतर आ रही थी। वह उसका लंच लेकर आई थी। एक पल वह देहरी पर ठिठकी और उसे देखने कि कोशिश की। वह कुर्सी के सहारे सिर टिकाकर बैठा था। जैसे उसी का इंतज़ार कर रहा हो। उसकी आँखें मुंदी थी यद्यपि नींद में नहीं था। उसके चेहरे पर हल्की चिंतायुक्त थकान थी। मानो किसी तीखे आहत कर देने वाले प्रश्नों से बचने के लिए या उनके उत्तर की तलाश में भटक रहा हो।
वह चलती चली गई, रुकी नहीं, सिर्फ़ चाल में कुछ बेचैनी थी। “आज शनिवार है... आपको याद नहीं है क्या ?” उसके स्वर में व्यंग्यात्मक उलाहना था।
उसे कुछ अपशकुन-सा लगा और तभी उसे वह दिखाई पड़ी, जिससे वह कभी भी मिलना नहीं चाहती थी, उसकी पत्नी अपने लड़के के साथ। वह दूर एक कोने में विचर रही थी अपने उत्तरों की तलाश में जिन्हें उसने कुछ देर पहले निर्वेद पर दागे थे।
निष्ठा सामने खड़ी थी-एक महीन-सी हंसी में हल्का-सा मुंह खुला हुआ। होंठों पर लाल लिपिस्टिक थी, उसकी साड़ी के रंग से मिलती हुई, कानों पर लटकते हुए लंबे इयर रिंग और बालों पर उड़ती हुई लावारिस-सी लटें।
वह आवाक देखती रह गई. उसकी आँखें चुँधिया-सी गई. उसमें एक हल्की-सी ईर्षा उठी जो पराई और अनिश्चित थी। उसके चेहरे की भाव भंगिमा बदल गई. अचानक उसका यहाँ होना अकल्पनीय था। एक क्षण के लिए उसके शरीर में कंपकंपी-सी दौड़ गई. उसने कल्पना नहीं की थी कि वह यहाँ आ सकती है। उसकी पत्नी उसके लिए प्रेत सदृश्य नज़र आ रही थी। अचानक ख़्याल आया कि उसके साथ और क्या हो सकता है, जो अभी तक नहीं हुआ है।
“आईए ! आप ही की कमी थी, या इंतज़ार था।” वह आगे बढ़ी और उसने प्रकृति का हाथ पकड़कर अपने पास लिया।
वह तब तक सीधा होकर बैठ गया था। उसे देखकर वह पुनः अस्तव्यस्त हो उठा। क्योंकि निष्ठा ने प्रकृति के साथ सम्बंधों को लेकर उससे कुछ कबूलवाँ लिया था। निर्वेद की स्वीकृति उसका सम्बल बन चुकी थी। निर्वेद के चेहरे पर एक अजीब-सी आशंका चली आई. उसे विश्वास नहीं आ रहा था कि जब उसने उससे कहा था कि , “तुम उससे कुछ मत कहना ... नहीं तो समझेगी कि हम कितने असभ्य हैँ?”...।“फिर इसका अंत कैसे होगा?” वह आतंकित-सी हो आई... उसके जीवन में कोई विपत्ति यही आ सकती। वह उन काली अफवाहों की तरह घिर गई, जिन्हें हर आदमी सुनता और सूँघता है और उन्हें अनदेखा कर आगे बढ़ जाता है...
“यह सब कुछ कब से चल रहा है?” वह दोनों से सम्बोधित थी। वह कुछ यह कहने के लिए के लिए उद्धत हुआ परंतु हिचक और फिर ठिठक गया। किन्तु प्रकृति रुक ना सकी।
“क्या?” उसके स्वर में लापरवाही थी।
“मुझे आपसे ही कुछ कहना था?” उसकी आँखें उस पर स्थिर थी।
किन्तु उसने भी आँखें झुकाई नहीं थीं... “मैं इसलिए ही यहाँ आई थी।”
“मुझे मालूम है।” उसने फिर रूखे ढंग से जवाब दिया।
“आपको मालूम है मैं क्या कहने आई हूँ ?” वह हतप्रभ रह गई थी।
“हूँ...!” फिर एक हल्की-सी उदास मुस्कराहट प्रकृति के चेहरे पर चली आई.
निर्वेद उन दोनों को देखता रहा और अनहोनी की आशंका से ग्रसित होता रहा। उसका दिल तेजी से धड़कने लगा, लेकिन वह संयत होकर बैठा रहा।
“क्या आप जानती है कि यह विवाहित है और एक बच्चे के पिता है?” उसने बेटे पर हाथ रखते हुए कहा जो अब उनके पास आ गया था।
“क्या फ़र्क़ पड़ता है?” उसने फिर लापरवाही दिखाई जो उसे बेहद नागवार गुजरी। “और हाँ, मैं शुरू से ही जानती थी। निर्वेद ने पहले से ही बता रखा था.. और हाँ ! आप ये सब क्यों दुहरा रही है?”
उसके सामने निष्ठा की दुश्चिंताएँ बिल्कुल छोटी पड़ती जा रही थी। उसके जवाब इतने अप्रत्याशित थे कि वह उलझन में आ गई कि इस स्त्री को पश्चाताप में ले आना काफ़ी जटिल और दुरूह है।
“फिर आप क्यों इन्हें अपने लिए कर लिया है और मेरे से दूर कर दिया।”
“नहीं, मुझे इसकी कोई ज़रूरत यही है, विशेष रूप से आप से अलग करने की। मैं ऐसे ही संतुष्ट हूँ।”
“किन्तु मैं असन्तुष्ट हूँ। विशेष रूप से अपने पति मिस्टर निर्वेद से और कुछ हद तक आपसे भी...क्योंकि आपका डिवोर्स हो चुका है। इसलिए आप इन्हें मुझसे छीनना चाहती है और काफ़ी हद तक छीन भी लिया है। सिर्फ़ एक पारिवारिक जिम्मेदारियों से वशीभूत होकर ही हमारे रह गए है।” वह कुछ पल के लिए रुकी फिर बोली, “मानसिक रूप से पूर्णतया और कुछ हद तक शारीरिक रूप से ये आपके होते जा रहे है।” उसने धाराप्रवाह प्रतिवाद किया।
“ऊँह...” यह कहकर उसने उन्हें खारिज करने की सोची लेकिन वह असफल रही और तब उसके समझ में आया कि वह वास्तव में उसे क्या समझती है और क्या कहने आई है? उस क्षण उसकी चिंताएँ बड़ी से बड़ी होती जा रही थी। उसने इतनी गंभीर बात कह दी थी कि उसे समझ में नहीं आ रहा था क्या प्रति-उत्तर हो सकता है।
वह कुछ पल ख़ामोश रही फिर बोली, “आपको ग़लतफहमी है, ऐसा कुछ भी नहीं है जिसकी आशंका से आप पीड़ित है।
“नहीं, बिल्कुल नहीं... क्या यह प्रमाण नहीं है कि एक राजकन्या स्वयं भोजन लेकर एक साधारण मानुष के लिए स्वयं उपस्थिति है जबकि उसके पास सेवकों कि भरमार होगी?”
“यह... मेरी बेवकूफी है।“ उसने हँसकर कहा। हालाँकि उसकी हंसी में उदासी और दर्द था।
“नहीं ...! बेवकूफी मेरी थी मुझे सदैव इनके साथ रहना चाहिए था। इस मामले में विश्वास नहीं करना चाहिए था वरना...” उसने वाक्य अधूरा छोड़ दिया और अपनी आँखें प्रकृति पर जमा दी।
उसकी पत्नी रुकी नहीं“अपना घर छोड़ आई हो, मेरा घर तोड़ कर उसे अपना घर मत बनाओ। मैं यह होने नहीं दूँगी। मैं घर, समाज, राजा परिवार सबसे फरियाद करूंगी कि मुझे न्याय दें। आपसे फिर कहती हूँ कि मेरी नींव पर अपना महल मत खड़ा करो!” उसे अपने पर गहरी शर्म-सी हो आई थी। उसे निष्ठा की बातें बेहद बेतुकी लगी। अब उसका बोलने का स्तर काफ़ी निम्मतर पहुँच गया था, जिसे झेलना सहन करना बेहद दुखदायी होता जा रहा था। उसने वहाँ से किनारा करने को सोची।
निष्ठा की बातें और उसके कहने के ढंग उसके भीतर धँसे जा रहे थे। उसके स्वर में अधीरता, धमकी थी और एक आतुर-सी प्रार्थना थी। न्याय सुलगने लगा था। उसकी आंच में वह झुलसने लगी थी। उसे लगा कि वह उससे राजसी न्याय की अभिलाषा लेकर आई थी। वह मतिभ्रम में थी कि कौन-सा न्याय है और कौन-सा अन्याय? कौन अपराधी है और कौन प्रताड़ित?... क्या उसका आग्रह स्वीकार करना उसके अपने प्यार के प्रति अन्याय नहीं होगा? उसने कभी नहीं चाहा था कि निर्वेद उसे सम्पूर्ण प्राप्त हो?...वह बहुत आगे जा चुकी है अब पीछे लौटना नामुमकिन है।
उसे पता नहीं था कि वह दो हिस्सों में बट चुका है, उसे दोनों सही लग रहे थे। काश ! वह अपने दोनों हिस्सों को देख पाता। वह अपने मस्तिष्क की शिराओं में सूखते हुए खून को सरसराते हुए सुन पाता जो सारे शरीर के अंगों से सिमटता हुआ उसके हृदय में तेजी से इकट्ठा होता जा रहा है। वह धड़ाम में वही गिर पड़ा। एक क्षण के लिए उसे गहरा आश्चर्य हुआ कि यह उसका शरीर है जो संज्ञा-शून्य होकर ज़मीन में गिर पड़ा है? क्या यह उसकी देह है जो इस तरह थरथरा रही है और निष्ठा और बेटा उसके पास बैठे, बे तरह रो रहे है। वह पास आई तो निष्ठा ने उसे वहाँ से हटा दिया। उसकी स्थिर आंखें खुली है और यह सब देख रही है। वह दुखी और दयनीय-सी बाहर निकल आई और अपने महल में लौट चली।
प्रकृति प्रताड़ित, अपमानित तिरस्कृत होकर जा चुकी थी किन्तु निष्ठा के वाक्य प्रहार अनवरत जारी थे। वह अपनी पूरी शक्ति से चीख चीख कर उसे कोश रही थी। मानो उसे सुनाई पड़ रहा हो? उसे निष्ठा से इस तरह की भाषा की उम्मीद नहीं थी। निर्वेद में उसकी ज़िन्दगी का वह लमहे छिपे थे, जिसमें वह कुछ पल अपने लिए सुकून के तलाश रही थी।
वह अपने कमरे में है। रात के बाहरी प्रकाश में मद्धिम पीले धुंधलके में भी उसका चेहरा बहुत सफेद, बुझा और मलिन दिख रहा है। उसके कमरे की लाइट नहीं जल रही है परंतु वह अपमान से दग्ध है। उसका शरीर अपमान से तप्त है और मन दहक रहा है। इतना अपमानित तो वह तब भी नहीं हुई थी जब विजयराज ने उसे छोड़ा था। किन्तु देह के सत्य के साथ मन का भी एक सत्य होता है जिसे जानने का प्रयत्न कौन करता है? वह कृतज्ञ है ऐसे प्रेम की जो तमाम अवरोधो के बावजूद निरपेक्ष और तटस्थ रहा। निर्वेद का प्यार-अपने निष्कलुष, दैदीप्यमान प्रेम से उसे निहाल करता रहा। वह सोचती है कि घनिष्ठता अधिकार लाती है परन्तु मेरा अधिकार कब किसी ने स्वीकार किया -ना सात फेरे लेने वाले पति कुँवर विजयराज ने ना प्रेमी निर्वेद ने।
क्या विजय से पुनः मिलन हो सकता है? नहीं... अब नहीं। कतई नहीं...! क्या हमने अलग रहने का फ़ैसला कर लिया है? हमने नहीं, सिर्फ़ उसने। मैंने तो दूसरे के निर्णय स्वीकारें है। आज के बाद प्रेमी भी अलग हो जाएगा। स्त्री को विवाहोपरांत भी कोई अधिकार नहीं और प्रेमोपरांत भी कोई अधिकार नहीं...! क्या स्त्री की यही नियति है? इस राजसी लड़की के भीतर छिपे प्रेम को किसी को भी कद्र नहीं है ना पति को ना प्रेमी को। माँ पिता और भाइयों के लिए तो वह शुरू से पराई रही है और अब बुरी तरह उपेक्षित।
जब वह अतीत के बवंडर में फँसी बाहर आने के लिए छटपटा रही थी तो उसे निर्वेद के रूप में अपना उद्धारकर्ता दिखा था परंतु वक़्त आने पर उसने भी विजय की तरह उसकी आत्मा के साथ खिलवाड़ ही किया और एक कठोर सत्य को अनावृत किया कि वह सिर्फ़ आनंद का साधन मात्र है साध्य नहीं। वह निष्ठा से मिली दूरियाँ, अंतराल और गड्ढे भरने का ज़रिया मात्र थी। उसकी आत्मा लहूलुहान है वह निरर्थक, बेजान और निरुपयोगी वस्तु के सिवा कुछ भी नहीं है।
उसका निर्वेद को अंगीकार करना यह कोई हल नहीं था ? यह धोका था। यह अपने दुख और पछतावे में जीना था। यह जीना था ? या अपने को भुलावे में रखना था !
यथार्थ से साक्षात्कार होने पर पूर्व में लिए गए एकपक्षीय निर्णय नितांत मूढ़ता वाले ही लगे। किन्तु इस समय अर्थहीन और हास्यास्पद था। उसे अपने से ऊब होने लगी। उसे लगा कि यह राजमहल एक क़ैद है, जो उस जैसे निरीह मृग को क़ैद किए है। उसका कमरा ही उसका बाड़ा है जिसका अस्तित्व सीमित है। उसे लगा कि क्या वह इस क़ैद से कभी आज़ाद हो पाएगी? वह सोचती है इस जगह से भाग चले और कही और अपना डेरा बना ले जहाँ वह स्वछन्द पक्षी की तरह रह सके. मगर कहाँ और कैसे? स्त्री की अपनी कोई संपति नहीं होती और फिर राजकुमारी छोटा-मोटा कोई कार्य या नौकरी भी नहीं कर सकती जीविकोपार्जन हेतु।
वह अजीब आँखों से अपने को निहार रही थी और पूछ रही थी कि यदि इसी क्षण उसकी मौत हो, तो वास्तव में उसकी मौत का दोषी कौन होगा ? एक अलौकिक आवाज़ फ़िज़ां में तैर रही थी, धीरे से फुसफुसाती हुई कि फिर निर्दोष कौन ? निष्ठा ने उससे कहा था कि निर्वेद निर्दोष है और विजय राज भी यही कहता था कि उसका कोई दोष नहीं है? आख़िर में उसे राजवंश चलाना है। दोनों स्थानों में दोषी वही हुई ना ? इसका यही मतलब हुआ बत्तीस वर्षीय राज युवती ही पाप, झूठ और धोखे की प्रति मूर्ति है ?
आखिर वह चाहती क्या है ? प्रकृति का प्रश्न बहुत देर तक हवा में अटका रहा।
मैं सिर्फ़ अकेली हूँ, जिसका कभी न कोई था न अब है... ‘मैं प्यार विहीन वह हस्ती हूँ जिसका कोई घर नहीं है...’ एक गंभीर और अक्षम्य अपराध बोध उसे घेर लेता है। ‘मेरा अस्तित्व निरर्थक है, वह एकांतिनी है, मेरा अपना कोई नहीं है। मैं शून्य हूँ जो किसी के साथ जुड़ कर ही अस्तित्व है वरना निरर्थक।
उसे लगा कि वह धीरे धीरे डूब रही है। उसकी बड़ी बड़ी आँखें उत्सुक और भयभीत धीमे धीमे शांत और बुझ रही है फिर धड़कन सिमटने जाने लगी, डूब रही है। यहाँ तक कि उसे अपनी साँसे भी सुनाई पड़नी बंद हो रही है और यह शून्यता की तरफ़ बढ़ती जा रही है। उसे लगा कि वह विराट शून्य में समाहित होने जा रही है ...। यही उसकी वास्तविक परिणति है। उसे ऐसा लगा कि एक विराट शून्य में अस्तित्वहीन होती जा रही हूँ...’
परंतु उसमें जो पैदाईसी राजसी, जिद्द और कुछ ऐसा कुछ कर गुजरने का माद्दा था, जो अनोखा और विस्मित करने वाला है जिसे कोई भी नहीं छीन सकता था और वही हो गया। उसने न्याय कर दिया। आखिरी में उसकी आत्मा एक झटके से बाहर निकल गई और शांत निस्पंद निर्जीव होकर रह गयी देह...
अचानक उसे ख़्याल आया कि राजकुमारी अब नहीं है...उसके भावुक निर्णय का ही प्रतिफल है कि सब कुछ होते हुए भी वह संसार और स्वयं की दृष्टि में गिर गया। जीवन में आदर्श, सम्मान और उपलब्धियों का अर्जन कितना कठिन संघर्ष पूर्ण और दीर्घ साधना के उपरांत होता है और उसने वह सब कुछ खो दिया था।
वे कुछ देर तक सुन्न खड़े रहे । उन्हें विश्वास नहीं हुआ कि अब वह नहीं रही। यह आत्महत्या नहीं थी सिर्फ़ आत्मा ने शरीर छोड़ा था। जैसे उसकी आत्मा यह कहते हुए सब को छूते हुए सरसराते हुए निकल गई- अर्थों की इस दुनिया में उन लोगों के लिए कोई जगह नहीं है जो एक दिन अपने को व्यर्थ पाते है।
लेकिन क्या सचमुच उसकी मुक्ति का रास्ता था? उसे देखते हुए वे निश्चय नहीं कर पा रहे थे, क्या यह उस साम्राज्ञी का चेहरा है जो अब तक किसी के दिल में राज्य नहीं कर रही थी। निश्चय ही वह अपने जीवन की साम्राज्ञी थी, जीवन के समय भी और जीवन के उपरांत भी। निर्वेद सोच रहा था कि राजसी देह की तरह क्या आत्मा भी राजसी होती है जो अपने तरीके से आती-जाती है। एक चिरस्थायी दिव्य-सी मुस्कान उसके चेहरे पर विराजमान थी।