राज कपूर के वंशज और आवारा / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 13 मार्च 2013
स्टीवन स्पिलबर्ग ने कहा कि उन्होंने केवल दो हिंदुस्तानी फिल्में देखी हैं - राज कपूर की 'आवारा' और राज कुमार हिरानी की 'थ्री इडियट्स।' उन्होंने कहा कि 'आवारा' एक अद्भुत फिल्म है, जिसमें एक पिता अपने बेटे को अदालत में गुनहगार साबित करना चाहता है, जबकि स्वयं उसकी एक मिथ्या धारणा के कारण बेटे का जीवन तबाह हुआ है। स्पिलबर्ग ने अन्य फिल्में नहीं देखी हैं, वरना उन्हें ज्ञात होता कि हमारे यहां मसाला फिल्मों के साथ ही अनेक सार्थक फिल्में भी बनी हैं। अफसोस तो इस बात का है कि राज कपूर के वंशज सभी तरह से साधन-संपन्न और योग्य होते हुए भी 'आवारा' को वर्तमान में नहीं बनाना चाहते, क्योंकि उन्हें लगता है कि इस पुरानी कहानी की आज कोई कीमत नहीं है। ऋषि कपूर पृथ्वीराज की भूमिका में और उनका पुत्र रनबीर राज कपूर की भूमिका चुनौती स्वरूप ले सकते हैं और शंकर-जयकिशन के संगीत को पुन: स्टीरियो में रिकॉर्ड कर सकते हैं, जैसा मुगल-ए-आजम के रंगीन संस्करण के समय नौशाद साहब ने किया था। प्रथम प्रदर्शन के साठ वर्ष पूरे होने के कारण संगीत अधिकार समाप्त हो गए हैं, परंतु उन्हीं स्टीरियो में पुन:ध्वनिबद्ध करने से अधिकार पुन: प्राप्त हो सकते हैं।
पिता-पुत्र के रिश्ते की कहानियां पहाड़ों की तरह पुरानी होकर भी हमेशा हरी-भरी रहती हैं। उपनिषद में श्लोक है कि पिता की कमान पर पुत्र का तीर तनाव के कारण जीवन में निशाने पर लगता है। यह रिश्ता इतना गहरा है कि निदा फाजली लिखते हैं कि कोई पिता कभी मरता नहीं, वह बेटे की सांसों में जीवित रहता है। पिता और पुत्र के बीच वैचारिक संघर्ष के आधार पर ही प्रगति होती है। इसी रिश्ते के आधार पर के.आसिफ ने अपनी सफल फिल्म 'मुगल-ए-आजम' रची। यह सच है कि अनारकली का पात्र काल्पनिक है, परंतु सभी कालखंडों में किसी अनारकली के लिए कोई सलीम किसी अकबर से टकराया है और केवल खाप पंचायतों से सलीम हारता है। राज कपूर ने भी अपनी फिल्म 'बॉबी' इसी विषय पर बनाई थी, जिसमें बेटा पिता से अपनी अनारकली के लिए टकराता है। 'बॉबी' में राज कपूर ने अनारकली के पिता की भूमिका भी रची थी, जिसमें प्रेमनाथ ने कमाल किया था।
राज कपूर उस समय पच्चीस वर्ष के थे, जब उन्होंने 'आवारा' का निर्माण किया था। फिल्म १९५१ में प्रदर्शित हुई और उसे निकिता ख्रुश्चेव, माओ सी तुंग जैसे नेताओं ने सराहा और वह आम आदमी को भी पसंद आई। यह एकमात्र फिल्म है, जिसका एक प्रिंट रूस के नॉर्थ पोल पर शोध करने वालों के देखने के लिए पोर्टेबल प्रोजेक्शन के साथ भेजा गया था। दरअसल इसी फिल्म की सफलता ने आरके संस्था को मजबूती दी थी और आज मृतप्राय संस्था इसी फिल्म से दोबारा सक्रिय हो सकती है।
विगत वर्ष ही अरविंद अडिगा ने लिखा था कि राज कपूर की 'आवारा' और 'श्री ४२०' में आप चाल्र्स डिकेंस की दुनिया की झलक देख सकते हैं। दुनियाभर से प्राप्त प्रमाण-पत्र भी उनके वंशजों को विश्वास नहीं दिला पा रहे हैं कि इसका नया संस्करण बनाया जाना चाहिए।
पिता और पुत्र के रिश्ते ने अनेक कहानियों को जन्म दिया है। अनेक किंवदंतियां इनके आधार पर बनी हैं, जैसे 'रुस्तम सोहराब।' ज्ञानरंजन की श्रेष्ठ कथा 'पिता' अनेक भाषाओं में अनूदित होकर सराही गई है। श्रवण गर्ग ने इस विषय पर एक अद्भुत कविता लिखी है, जो अब तक अप्रकाशित है। बहरहाल ख्वाजा अहमद अब्बास की यह पटकथा मेहबूब खान पृथ्वीराज कपूर और दिलीप कुमार के साथ बनाना चाहते थे, परंतु अब्बास साहब का मानना था कि पृथ्वीराज और राज कपूर के साथ बनाई जानी चाहिए, क्योंकि यथार्थ में पिता-पुत्र होने से फिल्म के संघर्ष को धार मिलती है। अब्बास साहब सही थे, क्योंकि फिल्म में जब बेटा कहता है कि वह अपने आपको चोर मानता रहा, परंतु आप(पिता) तो मेरे भी बाप हो। इस दृश्य तक दोनों पात्रों को अपना रिश्ता नहीं मालूम था, परंतु दर्शकों ने इस संवाद पर तालियां बजाईं।
फिल्म के अंतिम दृश्य में कातिल घोषित पुत्र जेल के सींखचों के भीतर एक रोशनदान की तरह देख रहा है और आभास होता है कि प्रकाश की किरण पर सवार वह स्वतंत्र है, जबकि सींखचों के बाहर पश्चाताप करते खड़े हैं, जज रघुनाथ और बाहर होते हुए भी वे जानते हैं कि वे मुजरिम हैं। फिल्म के अनेक दृश्य कविता की तरह हैं। अदालत के एक दृश्य में मुजरिम नायक कहता है कि जज साहब उसने अपराध किया है, परंतु कभी वह मासूम था और जज बनने के सपने देखता था, परंतु झोपड़-पट्टी के पास बहते नाले मेंअपराध के कीड़े थे। कोई व्यक्ति जन्म से अपराधी नहीं होता। वह कहता है कि उसे सजा मिलनी चाहिए, परंतु उन अनगिनत मासूम बच्चों को बचा लीजिए, जो गंदी बस्ती में रहते हैं, जहां अपराध के कीड़े हैं। सन १९५१ में कही गई यह बात आज भी सच है। आज भी झोपड़-पट्टी हैं, गंदी बस्तियां हैं और हमारी महानता तथा तथाकथित 'विकास' की धज्जियां उड़ रही हैं।