रात के आइने में / कुमारेन्द्र सिंह सेंगर

Gadya Kosh से
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कार धीमी गति से आकर होटल के पोर्टिको में रुक गई, ड्राइवर ने उतर कर कार का पिछला दरवाजा खोला। कार से अकेले मीनाक्षी ही उतरी। आसमानी रंग की साड़ी, उसी मैंचिग का ब्लाउज, जिसकी बाँह पर खिलती एमब्राइडरी पोर्टिको की तेज रोशनी में और भी खिल रही थी। साड़ी के रंग से मेल खाती छोटी सी बिन्दी माथे पर शोभित होकर चेहरे को दमका रही थी। मीनाक्षी ने उतरकर अपना नीला बैग झुलाते हुए दाँये कंधे पर टाँगा और आहिस्ता, सधे हाथों से अपनी साड़ी को सँभाला। लम्बा कद, छरहरी काया, रंग कहा जाय तो मानो दूध में हल्का सा सिन्दूर मिला दिया हो, कजरारी काली बड़ी आँखें बहुत कुछ कहने को तत्पर, कुल मिलाकर सौन्दर्य की ऐसी प्रतिकृति जो सभी को अपने आकर्षण में बाँध ले। हुआ भी यही, कार से मीनाक्षी के उतरते ही आसपास के लोगों की निगाहें उसके चेहरे पर टिक गईं और फिर धीरे-धीरे शरीर के सम्पूर्ण उतार-चढ़ावों पर फिसल कर वापस चेहरे पर लौट गईं।

मीनाक्षी ने आसपास के लोगों पर उड़ती सी निगाह डाल कर कदम सामने की ओर बढ़ा दिये। होटल के बाहर चमकते बल्बों की रोशनी हल्की ठंडक भरे मौसम को खुशनुमा बना रही थी। जुगनुओं की तरह चमकते बल्ब होटल को नीचे से ऊपर तक किसी दुल्हन की तरह सजाये हुये थे। मीनाक्षी भी सादा वेशभूषा में किसी परी की मानिन्द इठलाकर, अपने सौन्दर्य का जादू बिखेर लोगों को वशीभूत करते हुये रोशनी के बादल पर चलती हुई गेट तक पहुँच चुकी थी। दरबान ने अदब से झुककर अभिवादन करते हुए उस शाम की परी के लिये दरवाजा खोल दिया। यूँ तो हर शाम कई जोड़े सज-धज कर हाथों में हाथ डाले, मुस्कान के मोती बिखेरे वहाँ आते-जाते रहते हैं पर कहीं अनेक में कोई एक ऐसा होता है जो एक पल में ही लोगों की सारी गतिविधियों को रोककर उनका ध्यान अपनी ओर खींच लेता है। हर शाम को सैकड़ों लोगों के आने-जाने का क्रम देखने का अभ्यस्त दरबान भी एकबारगी मीनाक्षी के सौन्दर्य के दरिया में बह जाता परन्तु अपनी ड्यूटी के प्रति सचेत वह अगले आगन्तुक के सामने बाअदब होशियार खड़ा था।

होटल के अन्दर का मुख्य हॉल रोशनी से जगमगा रहा था। बीचोंबीच छत पर टँगा मँहगा झाड़फानूस अपनी पूरी दीप्ति-क्षमता से रात को पराजित करने की कोशिश में लगा था। हॉल के एक कोने में रिसेप्शन काउन्टर आने वालों के स्वागत में तत्पर था लेकिन मीनाक्षी को वहाँ से कोई वास्ता न था। उसने घड़ी पर निगाह डाली जो अभी भी सात बजाने में पाँच मिनट की कंजूसी किये थी। ‘वार्डन मैम को तो सात बजे आना है, फिर उन्हीं के साथ आज के मेहमान से मिलना होगा’ सोचते हुए मीनाक्षी धीरे-धीरे चलकर हॉल के एक किनारे पर करीने से सजे सोफे पर जाकर बैठ गई।

उसके बैठते ही होटल की लकदक पोशाक में सजे-सँवरे एक कर्मचारी ने अदब सहित अपनी उपस्थिति का एहसास मीनाक्षी को करवाया। ‘‘अभी कुछ नहीं, किसी का इन्तजार है’’ कहकर मीनाक्षी ने सामने ट्रे में रखे पानी से भरे गिलास को उठाकर अपने होठों से लगा लिया। ‘‘यस मैडम’’ कह कर वह कर्मचारी खाली गिलास लेकर वहाँ से चला गया। मीनाक्षी ने बाँये हाथ से चेहरे पर झूल आई लटों को समेट कर पीछे किया और सामने मेज पर पड़ी पत्रिकाओं और समाचार पत्रों में से एक पत्रिका को उठा उसके पन्नों को पलटने लगी। थोड़ी देर तक तो वह बड़ी सहजता से पन्ने पलटती रही, बाद में उसके पन्नों को पलटने के अंदाज से ऐसा लगने लगा कि उसको बेसब्री सी हो रही है। और हो भी क्यों नहीं, उसकी वार्डन मैम ने उसे ठीक सात बजे मिलने को कहा था, अब तो घड़ी भी सात बजकर पच्चीस मिनट बता रही थी। अकुलाहट और बैचेनी के साथ पत्रिका के बाकी पन्ने तेजी से पलटते हुए पत्रिका वापस मेज पर पटक दी और नजरें होटल के मेनगेट पर टिका दी।

‘ऐसा तो पहले कभी नही हुआ कि मैम समय से न पहुँची हों, फिर आज क्या हो गया? मैम अभी तक क्यों नहीं आईं? क्या उनका पुराना परिचित मेहमान अभी तक नही आया? पर मैम ने तो हॉस्टल आकर बताया था कि उनका मेहमान आ चुका है और वह वहीं मिलेगीं फिर क्या हो गया?’ विचार उमड़-घुमड़ कर मीनाक्षी की बैचेनी को और बढ़ा रहे थे। मीनाक्षी ने सोचा कि यदि उसे मैम के परिचित का नाम मालूम होता तो वह स्वयं उससे मिल लेती पर अगले ही क्षण उसने अपना यह विचार सिर झटक कर बाहर निकाल दिया। मीनाक्षी को अच्छी तरह से मालूम है कि उसके इस काम में किसी का नाम नहीं बताया जाता। खुद उसका भी असली नाम मीनाक्षी कहाँ है कभी सलमा, कभी शालिनी, कभी शोभना पता नहीं कितने-कितने नाम अभी तक उसे रखने पड़े। कभी-कभी तो उसे लगता है कि उसका अपना असली नाम इन्हीं नामों के साये में कहीं गुम हो गया है।

मीनाक्षी का भी एक अपना नाम है, अपनी पहचान है पर अब सब कुछ वार्डन मैम के निर्देशानुसार तय होता है। वह कितनी आसानी से अपने वजूद को भुला बैठी। सब कुछ उसे वार्डन मैम के अनुसार क्यों करना पड़ता है? क्या मात्र अपने आप को जिन्दा बनाये रखने के लिये या फिर मन के भीतर छिपी शारीरिक संतुष्टि की चाह के लिये? मीनाक्षी के अन्तर्मन ने उस पर चोट की। नहीं सिर्फ संतुष्टि ही नहीं क्योंकि उसके द्वारा सब यंत्रवत चलता है। एक पीड़ा, संत्रास, भय, बनावटीपन और पूरे शरीर का गिलगिलापन कभी भी सामने वाले के साथ उसको नहीं जोड़ सका। वह तो एक खिलौना मात्र है जिसको वार्डन मैम के हाथों में थमे रिमोट-कन्ट्रोल द्वारा संचालित किया जाता है। हर बार एक नया नाम, हर बार एक नया शख्स। कभी-कभी लगता है कि उसके भीतर की प्यास मर गई है। यन्त्रवत चलता जीवन उसे नीरस सा लगने लगा है। प्यार, उमंग, यौवनारम्भ का उफान टुकड़े-टुकड़े होकर न जाने कितनों के नीचे मसल कर धम गया। फिर, ऐसा क्या शेष रह गया है जो उसे रिमोट से संचालित करवाता है।

शायद जिजीविषा ही बाकी है। शेष है अभी अपने परिवार के सामने जिन्दा पहुँच पाने की आशा। जिन्दा तो वह अभी भी पहुँच सकती है, पहले भी पहुँच सकती थी पर बताती क्या? क्या यह बता देती कि उसके सपनों के महल को अनेक पैरों ने अपने तले कुचला है? घर वालों को बता देती कि उनकी बगिया की यह कली कितनी बार मसली जा चुकी है? क्या वह अपनी उस छलनी आत्मा को दिखा पाती जो कि उसके शरीर के भीतर सिसक रही है जिनको लोगों ने रात के अंधियारे में कितनी कितनी बार नोंचा-खसोटा है?

पर, पर वह दोष किसे दे? पुरुष प्रधान समाज को, पुरुष की भोगवादी प्रवृत्ति को या फिर अपने स्त्री होने को? स्त्री जो समाज में अभी भी बस ‘यूज एण्ड थ्रो’ के सिद्धान्त पर पुरुष के लिये कार्य कर रही है, कब प्रेयसी, कब पत्नी और कब बिस्तरसंगिनी बने पता नहीं चलता? सब कुछ पुरुष के इशारे पर एक स्त्री को करना होता है। पुरुष के अनुसार ही स्त्री को अभिनय करना होता है। लेकिन वह यहाँ तो स्त्री-पुरुष दोनों को अपने सामने कटघरे खड़ा पाती है। मीनाक्षी को लगता है कि एक उसके साथ खेल रहा है दूसरा लोगों को उसके साथ खेलने को प्रेरित कर रहा है। उसका तो जीवन ही एक खेल होकर रह गया है किन्तु वह यह सब क्यों सोच रही है? कौन सी क्रान्ति हो जायेगी इससे? मीनाक्षी ने सिर झटक कर खुद को अपने अतीत से बाहर लाकर वर्तमान में खड़ा किया।

मीनाक्षी ने फिर घड़ी की ओर देखा। समय खिसक कर सात बजकर चालीस मिनट तक ही पहुँच सका था। उसने अपनी विचारों की शृंखला का रोकने और बोरियत दूर करने के उद्देश्य से एक कर्मचारी को बुलाकर कॉफी का आर्डर दिया। अकेले बैठे-बैठे उसे आसपास निगाह डालते रहना भी बहुत देर तक रास नहीं आया। अकेले होने के कारण न चाहते हुए भी उसकी विचार-यात्रा कॉफी की चुस्कियों के साथ फिर शुरू हो गई।

उस दिन वह अकेले नहीं थी। कॉलेज के बैडमिन्टन हॉल में मीनाक्षी के साथ सुगंधा भी साथ थी। कोर्ट को छोड़कर सारे हॉल में अँधेरा तैर रहा था। बैडमिन्टन कोर्ट में छाई रोशनी के घेरे में शेखर अपनी प्रैक्टिस कर रहा था। मीनाक्षी और सुगंधा वहाँ पड़ी कुर्सियों पर आकर बैठ गईं। उन दोनों पर नजर पड़ते ही शेखर ने अपनी प्रैक्टिस ‘बाकी कल’ कह कर रोक दी और कदम उनकी ओर बढ़ा दिये।

‘‘हाय! क्या हाल हैं?’’

‘‘मजे में, तुमसे तो अपने जीतने की पार्टी भी न दी गई।’’

‘‘अरे यार, बस इतनी सी बात की नाराजगी है। अच्छा, मैडम तभी शान्त-शान्त हैं।’’ शेखर ने रैकेट मीनाक्षी ठोड़ी पर लगाते हुये कहा। ‘‘नो प्राब्लम, सुगंधा, तुमसे प्रॉमिस किया था सो सब तैयार है। तुम लोग कमरे में चलो, मैं जरा चेन्ज करके आता हूँ।’’

दोनों ने एकदूसरे की ओर देखा और होंठों पर हल्की सी मुस्कान तैर गई। सुगंधा और मीनाक्षी उठने की इच्छा रखते हुए भी अपने स्थान पर बैठे रहे। मीनाक्षी के दिल की धड़कन तेज होती जा रही थी। शेखर के प्रति उसकी दीवानगी उसे एक तरफ पागल कर देती थी, वहीं अब धड़कन को तेज किये जा रही है।

‘क्या यार ? तुम लोग अभी तक यहीं बैठे हो, सुरेश जरा एक जग पानी लेते आना, चलो कमरे में चलते हैं।’’

‘‘नहीं, मुझे तो थोड़ा काम है लाइब्रेरी में, और वैसे भी मैं कबाब में हड्डी भी नही बनना चाहती, अपनी पार्टी मैं फिर कभी ले लूँगी’’ कह कर सुगंधा ने मीनाक्षी की देख कर आँख दबाई और हाथ हिलाती हुई बाहर चली गई। नौकर भी समझदार था, पानी लेने के बहाने वह भी दरवाजा बंद करके चला गया।

उस समय में हॉल में मीनाक्षी और शेखर ही बाकी रह गये। शेखर का हाथ थामे मीनाक्षी हाल से सटे कमरे में यन्त्रवत चली आई। जमीन पर बिछे फर्श पर एक छोटा सा केक सजा था, कोल्ड ड्रिंक की बोतलें, खाने का हल्का-फुल्का सामान करीने से लगा रखा था। मीनाक्षी को एक पल में जैसे समूचे जहान की खुशियाँ अपने दामन में सिमटी नजर आईं। उसका छोटा सा संसार उसको अपनी ओर बुला रहा था। मीनाक्षी और शेखर की दुनिया भी अपने आप में इसी करीने से सिमटी सजी रहेगी, ऐसा सोच-सोच कर वह प्रफुल्लित हुए जा रही थी।

‘‘हमारे प्यार की पहली वर्षगाँठ! शेखर ने मीनाक्षी का हाथ पकड़ कर वहीं बिठा लिया। मीनाक्षी मंत्रमुग्ध सी बस शेखर को निहारे जा रही थी। केक काटा गया, कोल्ड ड्रिंक पी गई, तमाम सारी बातें हुई प्यार के वादे, आने वाले कल की कसमें खाई गईं। भावनात्मकता उनके ऊपर हावी हो रही थी। शेखर का बालों में हाथ फिराना, बातें करते-करते, हौले-हौले मीनाक्षी की उँगलियों से खेलना, एकाएक उसके होठों पर अपने होंठ रख देना कहीं न कहीं उत्तेजना की सिरहन मचा जाता था।

‘‘नहीं शेखर, तुम अपने होश न खो देना।’’

‘क्यों, क्या मुझ पर विश्वास नहीं हैं।’’

‘‘विश्वास तो है पर, पर यह सब ठीक नहीं।’’ मीनाक्षी ने अपने ऊपर शेखर के फिसलते हाथों को रोकते हुए समझाया।

‘‘हमारा प्यार इतना गिरा हुआ नहीं कि मात्र शारीरिक आकर्षण में बँध कर अपनी गरिमा खो बैठे‘‘ कहते हुए शेखर ने मीनाक्षी को अपने अंक में भर लिया। मीनाक्षी ने भी अपना सिर शेखर के सीने पर टिका दिया। शेखर की उत्तेजना, बातों में तर्क, प्यार की दुहाई, विश्वास की बातें करते-करते उसके हाथ मीनाक्षी के शरीर में एक अजब सी मदहोशी पैदा कर रहे थे।

वातावरण का प्रभाव, अकेलेपन की मदहोशी, प्यार का सुरूर, जवाँ दिलों का जोश और मन की दबी-छिपी आकांक्षा ने सारे बंधनों को तोड़ने का जैसे निश्चय ही कर लिया था। थोड़ी मीनाक्षी की ना-नुकुर, थोड़ी शेखर की मनुहार, मीनाक्षी का रूठना, शेखर का मनाना और फिर आवेग की प्रचंड़ता में तूफान खामोशी से मीठी बारिश करके गुजर गया। गर्म साँसों की तेजी एकदूसरे के चेहरे, होंठों को तप्त कर रही थी। एक बार उठ चुके बंवडर के, तूफानों के कई दौर गुजरकर कमरे के वातावरण को गर्म और मादक बना रहे थे। शरीर का एक-एक अंग मीठा सा दर्द लिए टूटन महसूस कर रहा था।

कॉफी का खाली कप मुँह से लगाने पर मीनाक्षी वर्तमान में आ खड़ी हुई। वार्डन मैम अभी तक नहीं आईं। उसकी अकुलाहट अब झुंझलाहट में बदलने लगी थी। मीनाक्षी की समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे, क्या न करे, कुछ सोचकर वह झटके के साथ उठी और रिसेप्शन पर पहुँचकर एक फोन करने की अनुमति माँगी। अगले ही पल मीनाक्षी की उँगलियाँ वार्डन मैम के मोबाइल का नम्बर डायल करने लगीं। थोड़ी हाँ-हूँ के बाद उसने फोन रख दिया। अब मीनाक्षी के चेहरे पर संतोष के भाव दिख रहे थे। आसपास की चीजों पर उड़ती निगाह डाल कर वह वापस पलटी तो उसकी नजर पास में लगे नीली रोशनी के बल्ब पर टिक गई जो कीड़े-मकोड़ों को मारने के लिये लगाया गया था। उस नीली रोशनी के आर्कषण में खिचें आते कीड़े-मकोड़े, मक्खियाँ, उसके करंट के कारण ‘चिट’ की आवाज के साथ मर जातीं।

मीनाक्षी को भी अपनी स्थिति इन्हीं कीड़ों-मकोड़ो जैसी लगी। वह स्वयं भी तो शेखर के आकर्षण में उसकी ओर खिंची चली गई थी। शेखर का बैडमिन्टन चैम्पियन होना, आकर्षणयुक्त शारीरिक सौष्ठव मीनाक्षी में ही क्या समूचे कालेज की लड़कियों में उसके प्रति दीवानगी जगाये था। मीनाक्षी के कॉलेज का समय सूरजमुखी के समान अपने सूरज को निहारते-निहारते बीत जाता था। रात को सपनों में शेखर उसके पास चलकर आ जाता था। तब मीनाक्षी को लगता था कि यह उसके प्यार, उसके सौन्दर्य की जीत है लेकिन सत्यता तो कुछ और ही थी।

शर्म का परदा गिरने के बाद मीनाक्षी और शेखर के बीच कई बार तूफान गुजरा पर तब शायद मीनाक्षी को यह मालूम नही था कि उस इंस्टीट्यूट के प्रिंसिपल के इस स्मार्ट पुत्र के लिये लड़कियाँ मनोरंजन की वस्तु मात्र हैं। उसके द्वारा तो हॉस्टल तथा इंस्टीट्यूट के लड़कियों को एक ‘रैकेट’ में फँसाया जाता है। मीनाक्षी को लगा था कि सुगंधा के द्वारा उसे ठगा गया क्योकि सुगंधा भी उसी शृंखला की एक कड़ी थी। मीनाक्षी ने सुगंधा को बहुत भला-बुरा कहा। ‘‘अपने घर से सैकड़ों किलोमीटर दूर तुम्हें कौन पहचानता है? जरा सोचो तब क्या होता जब कुछ गुण्डे तुम्हें उठा ले जाते, बलात्कार करते या फिर किसी दलाल के हाथों बेचकर किसी अड्डे पर सजा देते।‘‘ सुगंधा की बात सुनकर और स्वयं को फँसा देखकर मीनाक्षी को लगा कि अपने घर वापस जिन्दा पहुँचने के लिये इतना संघर्ष भी थोड़ा है।

संघर्ष तो मीनाक्षी ने तब अपने आप से किया था। रात जागते-जागते बीतती और सोचती रहती कि दिन न हो पर कब तक सूरज न निकलता? सूरज तो एक दिशा से घूमकर दूसरी दिशा तक की यात्रा तो बिना किसी की परवाह किये पूरी करता है। मीनाक्षी को प्यार में एकाकार हुये अपने शरीर से उठती महक असहनीय लगने लगी। उसे लगता कि सैंकड़ों जोंक उसके ऊपर रेंग रही हैं। घिन और नफरत की केंचुल वह चाह कर भी नही उतार पा रही है फिर भी वह कब तक शरीर का लिजलिजापन ओढ़े रहती? कब तक उसके शरीर का लहू पीती जोंक उस पर रेंगती रहतीं?

एक दिन मीनाक्षी को प्यार की बगिया से बाहर लाकर शारीरिक कैक्टस के बाजार में खड़ा कर दिया गया। अपने वजूद, नाम, शरीर और आत्मा की लिजलिहाहट त्यागकर हर बार नये रूप, नये सौन्दर्य, नई अदाओं के साथ मीनाक्षी को तश्तरी में सजा कर उन पुरुषों के समक्ष प्रस्तुत किया जाता जो समाज में दिन की खिली धूप में अपनी पारिवारिक स्थिति की सुदृढ़ता दर्शाते और रात के स्याह अँधेरे में अपनी शारीरिक क्षमता दिखाने को किसी आँचल का सहारा ढूँड़ते। इसी काले अँधेरे में झलकती असफलता की खीझ मीनाक्षी बाँये स्तन के ऊपर जलती सिगरेट से बने निशान के द्वारा आज भी महसूस करती है। अनायास ही एक ‘आह’ के साथ मीनाक्षी का दाँया हाथ उस हिस्से पर जा पहुँचा। जैसे वह सपने से जाग उठी हो। आह के कारण आसपास के लोगों को अपनी ओर देखकर मीनाक्षी कुछ असहज सी हो गयी। बाँये हिस्से तक पहुँच चुके हाथ से मीनाक्षी ने अपना पल्लू सही करने का उपक्रम कर अपनी झेंप मिटाने का प्रयास किया।

तभी सामने कार से वार्डन मैम को उतरते देख मीनाक्षी को राहत महसूस हुई। ठसक भरी चाल, गठा शरीर, बदन का एक-एक अंग तराशा हुआ। चेहरे, होंठों को कृत्रिम प्राकृतिकता प्रदान कर स्वयं को सोलह साल का बनाये रखने का प्रयास किया जा रहा था। गालों की सुर्खी, आँखों की चंचलता और शरीर का एक-एक उभार अच्छी-भली नवयौवनाओं की भी मात करता था। वार्डन मैम के शरीर में अभी भी इतनी कसावट और मदहोशी तथा चाल में मस्ताना अंदाज था कि आसपास के लोगों को दीवाना बना देती थी। मीनाक्षी ने खड़े होकर सामने लगे आदमकद शीशे में खुद को निहार कर अपनी साड़ी को सँभाला और मैम की ओर चल दी।

वार्डन मैम के पास आकर हौले से मीनाक्षी के गालों पर प्यार भरी चपत लगाते हुये कहा-‘‘क्या करें ट्रैफिक जाम में फँस गयी थी। आओ चलो तुम्हें अपने खास मेहमान से मिलवा दें, बाकी बातें तो अच्छी तरह याद हैं?‘‘ ‘‘जी मैम’’ कहकर मीनाक्षी हॉल के किनारे लगी लिफ्ट की ओर जाती मैम के कदमों का अनुसरण करने लगी। आठवीं मंजिल पर लिफ्ट रोककर वार्डन मैम व मीनाक्षी बाहर आ गईं। वार्डन मैम ने उसके बालों को एक सा किया और गलियारे की मद्विम रोशनी में सधे कदमों से चल दी। मीनाक्षी भी उसी दिशा में बढ़ गयी। एक कमरे के सामने पहुँचकर वार्डन मैम ने हल्के हाथों से दरवाजे को थपथपाया। अंदर से ‘‘यस कम इन, दरवाजा खुला है’’ की रोबीली, गंभीर आवाज से मीनाक्षी के भीतर एक जानी-पहचानी सिरहन सी उतर गई।

दरवाजे को धकियाते हुए मैम के पीछे मीनाक्षी भी कमरे में दाखिल हुई। कमरे की धीमी रोशनी चेहरों को पढ़ने लायक थी। धीमी आवाज में तेज गति का संगीत कमरे को रूमानी बना रहा था, वहीं धुँए के गुबार और किसी बढ़िया-मँहगी विदेशी शराब की महक पूरे वातावरण को मदहोशी से सजा रहे थे।

‘‘हैलो माई रॉयल किंग’’ कहकर मैम द्वारा बड़ी गर्मजोशी दिखलाने पर उनकी ओर पीठ किये सोफे पर बैठा व्यक्ति घूमकर बाँहें फैला कर खड़ा हो गया। “आओ-आओ माई.......” बाकी के शब्द जैसे मीनाक्षी को सुनाई ही नहीं पड़े। उसे महसूस हुआ कि सारा का सारा कमरा घूम रहा है। मीनाक्षी को एहसास हुआ जैसे धुँए के गुबार ने राक्षस का रूप धारण कर लिया हो; कमरे में बजता संगीत कर्कश होकर उसकी कनपटियों पर चोट कर रहा हो; हल्की रोशनी अचानक जैसे हजारों-हजार वाट के समान चमकती नजर आने लगी थी। इससे पहले कि धुँए का राक्षस मीनाक्षी के सीने से दिल को निकाल लेता; संगीत की चोट उसके कानों को फोड़ती; तेज रोशनी उसे अन्धा बना देती; घूमती धरती और आसमान आपस में मिलते और कमरे की दीवारें मीनाक्षी को पीस डालतीं मुँह में दबे सिगार को फेंककर सामने खड़े उसके पापा ने फर्श पर गिरने से पहले उसको अपनी बाँहों में थाम लिया था।