रात है जैसे अंधा कुआँ / एक्वेरियम / ममता व्यास
रात एक अंधेरी सुरंग है, जिसमें डूब जाना है हम सब को। पूरा ब्रह्माण्ड, मेरा ब्रह्माण्ड, तुम्हारा भी। मेरी दुनिया, तुम्हारी भी।
हम अपनी समस्त पीड़ाओं, दुखों, डर, भय, हल्केपन, छोटे मन आदि को इस सुरंग में डाल देते हैं या डाल देना चाहते हैं। मानो, ये कोई अंधेरी गुफा हो जैसे कोई स्त्री-योनी हो। जिसमें हम अपने भारीपन के साथ रोज प्रवेश करते हैं। जैसे कोई लिंग प्रवेश करता है बिन कुछ जाने, समझे, कोई अता-पता नहीं लक्ष्य का, मंजिल का और जहाँ रुके, जहाँ ठहरे उस टकराहट और उस घर्षण में आनन्द खोज लिया और उसी क्षण स्खलित होकर खत्म हो जाते हैं। इस बिंदु पर हमारी मौत होती है। इसके ठीक बाद हम में हताशा, बेबसी जगती है, पछतावा भी। क्या खोजने आये थे? क्या मिला? कुछ नहीं। जो एक क्षण पहले आनन्द था वह इस पल विरक्ति कैसे बन गया? हम वहीं घबराकर अपनी यात्रा स्थगित कर देते हैं।
उस अंधे कुएँ की मुंडेर से डरकर वापस आ जाते हैं। रात यानी वह अंधी सुरंग जहाँ डाल आते हैं हम अपनी पीड़ाओं का वीर्य, दु: ख संताप और टूटे दिलों के टुकड़े भी। रात हमें भाती है, सम्भोग-सा आनन्द देती है, समाधि का भी। कमाल ये कि
इसमें कहीं किसी देह का काम ही नहीं। आंखें हैं पर आंसू नहीं, सिर्फ़ धुआं ही धुआं चुभता है।
(एक लोकप्रिय गीत सुनते हुए)