राधाकृष्ण एक विस्मृत लेखक / संजय कृष्ण

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राधाकृष्ण को हम भूल गए हैं। आज साहित्य का कोई पाठक भी संभवतः इस नाम से परिचित नहीं होगा। पूछेगा, कौन राधाकृष्ण? हम उन्हें याद भी नहीं करते। न आलोचक उनकी कहानियों का जिक्र करते हैं न कहानीकार ही गाहे-बगाहे उनकी चर्चा करते हैं। यही है हमारे हिंदी लेखकों का समाज। इन्हीं के बूते हम साहित्य की रसवती धारा का सिंचन करते हैं, समाज को बदलने का दंभ भरते हैं। गरीब-गुरबों की लड़ाई में अपने को लेखन के स्तर पर ही सही, जोड़कर धन्य होते हैं। प्रेमचंद की वंदना करते हैं, लेकिन उस कड़ी के किसी महत्वपूर्ण लेखक को याद करना गवारा नहीं करते। पश्चिम के लेखकों का मुखापेक्षी समाज अपने लोगों को भूलकर गौरवान्वित महसूस करता है। उसकी सारी बौद्धिक जुगाली पश्चिम के जूठन पर ही निर्भर है। उसी में वह अपनी बौद्धिक ऊँचाइयों को मापता है, अपने को तौलता है। लेकिन गाँव-जवार की चिंता उसे नहीं रहती। यह बौद्धिक काहिली है या कृतघ्नता, कौन जाने। कहना न होगा कि अपने गुट और विचारधारा की खोल में सिमटे ऐसे लेखक-आलोचक हिंदी का भला नहीं करते, अपना भला वह जितना कर लें। यही कारण है हिंदी साहित्य जगत में इन दिनों जो बहसें चल रही हैं, अपवादों को छोड़ दें तो वह किसी प्रवृत्ति, विधा या परंपरा को लेकर नहीं, व्यक्तिगत राग-द्वेष और निजी लाभ तक सिमट गई है। यही हिंदी का समाज है। इस समाज से कैसे उम्मीद की जा सकती है कि वह राधाकृष्ण को याद करेगा? उस राधाकृष्ण को, जिसे प्रेमचंद अपने पुत्र की तरह मानते थे, उनका खर्च चलाते थे और जब प्रेमचंद का निधन हो गया तो राधाकृष्ण 'हंस' को संभालने रांची से बनारस चले गए। यह राधाकृष्ण ही थे, जिनकी कथा-प्रतिभा को देखकर कथा सम्राट प्रेमचंद ने कहा था, यदि हिंदी के उत्कृष्ट कथा-शिल्पियों की संख्या काट-छाँटकर पाँच भी कर दी जाए, तो उनमें एक नाम राधाकृष्ण का होगा। इस राधाकृष्ण को हम भूल गए जिसने अपने समय में अपनी मंजिल खुद तय की। अपनी कहानियों का शिल्प खुद गढ़ा। वह किसी लीक पर नहीं चला। कोई उन पर दोषारोपण नहीं कर सकता कि उनकी कहानियों पर अमुक का प्रभाव है।

राधाकृष्ण केवल कथाकार ही नहीं थे। हालांकि उन्होंने लेखन की शुरुआत कहानी से की, लेकिन आगे चलकर उपन्यास भी लिखे, संस्मरण भी लिखा, हास्य-व्यंग्य, नाटक, एकांकी पर भी अपनी कलम चलाई और बच्चों के लिए भी खूब मन से लिखा। यानी साहित्य की ऐसी कोई विधा नहीं, जिसमें राधाकृष्ण की कलम न चली हो। राधाकृष्ण की कहानियों की विशेषता की चर्चा तो आगे की जाएगी, थोड़ा ठहरकर इस रचनाकार का हाल-मुकाम और पेशा तो पता कर लिया जाए।

मैं अभावों में पला हूँ वेदना संसार मेरा

साहित्य की दुनिया में पाँच दशकों तक लगातार सक्रिय रहने वाले राधाकृष्ण का जीवन संघर्ष में ही व्यतीत हुआ। अभाव और वेदना के बीच। बचपन से लेकर बुढ़ापे तक का उनका सफर किसी ट्रेजडी से कम नहीं है। फिर भी राधाकृष्ण जी जिए अपनी शर्तों पर ही। राधाकृष्ण की जन्मतिथि को लेकर भ्रम की स्थिति रही। लेकिन भ्रमों का निवारण करते हुए लेखक श्रवणकुमार गोस्वामी ने तमाम खोजबीन करने के बाद माना कि उनका जन्म राँची के अपर बाजार में 18 सितंबर 1910 को हुआ था। इस दिन अनंत चतुर्दशी थी। वह खुद भी अपना जन्म दिन इसी दिन मनाते थे। गोस्वामी जी ताकीद करते हैं कि हमें भी उनका जन्मदिन अनंत चतुर्दशी को ही मनाना चाहिए। राधाकृष्ण के पिता मुंशी रामजतन कचहरी में मुंशी का काम करते थे। इनकी छह पुत्रियाँ थीं। उनके बाद राधाकृष्ण पैदा हुए। नियति का विधान कि जब चार साल के थे, पिता का निधन हो गया। इसके बाद तो गरीबी ने आ घेरा। पिता का साया उठ जाने के बाद आय का स्रोत भी बंद हो गया। घर में माँ और बच गए राधाकृष्ण। अपने अभाव और गुरबत की जिंदगी के बारे में उन्होंने खुद लिखा है, 'उस समय हम लोग गरीबी के बीच से गुजर रहे थे। पिता जी मर चुके थे। घर में कर्ज और गरीबी छोड़ कुछ भी नहीं बचा था। न पहनने को कपड़ा और न खाने का अन्न। किसी प्रकार कुटौना-पिसौना करके माँ गरीब गुजारा चला लेती थी। पास-पड़ोस के लोग हम लोगों को तुच्छ समझते थे। अकसर हम लोगों की उपेक्षा-अवहेलना करके हमारा मजाक उड़ाना ही उन लोगों को पसंद था। खेलते समय हमजोली लड़के भी मुझसे घृणा करते थे। वे घृणा और उपेक्षा को ही अपना महत्व समझते। पर मेरे सामने ऐसे लड़के भी आए जो पढने-लिखने में तो नहीं, पर प्रेम का जवाब प्रेम से दे सकते थे। वैसे मित्रों के साथ मटरगश्ती करना मुझे अच्छा लगता था। उन्हीं मित्रों के साथ रहकर मैंने बीड़ी पीना और पान के साथ जर्दा खाना सीख लिया था।'

इस तरह उनका बचपन बीता। चाह कर भी स्कूली शिक्षा नहीं मिल पाई। किसी तरह एक पुस्तकालय से पढ़ने-लिखने का क्रम बना। कुछ दिन मुहर्रिरी सीखी। इसी दौरान लिखने का क्रम बना। वहाँ मन नहीं लगा तो एक बस में कंडक्टर हो गए। यह बस प्रतिदिन शाम को राँची से लोहरदगा जाती। बाद में 1937 में यह नौकरी भी छोड़ दी। लेकिन इस बीच लोहरदगा में बस रुकती तो जो समय बचता, उसमें वह कहानी लेखन का काम करते। सबसे पहले उनकी कहानी छपी 'गल्प माला' में। यह 1929 का साल था। इस पत्रिका को जयशंकर 'प्रसाद' के मामा अंबिका प्रसाद गुप्त निकालते थे। कहानी का शीर्षक था- सिन्हा साहब। इसके बाद तो इस लेखक पर दूसरे लोगों का भी ध्यान गया। माया, भविष्य, त्यागभूमि आदि पत्र-पत्रिकाओं में लगातार लिखते रहे। प्रेमचंद राधाकृष्ण की प्रतिभा देख पहले ही कायल हो चुके थे। इसलिए 'हंस' में भी राधाकृष्ण छपने लगे थे। आगे चलकर तो राधाकृष्ण उनके परिवार का हिस्सा ही बन गए।

जब प्रेमचंद का निधन हुआ तो शिवरानी देवी ने 'हंस' का काम देखने के लिए राँची से बुला लिया। यहीं रहकर श्रीपत राय के साथ मिलकर 'कहानी' पत्रिका निकाली। पत्रिका चल निकली, लेकिन वे ज्यादा दिनों तक बनारस में नहीं रह सके। इसके बाद वे मुंबई गए और वहाँ कथा और संवाद लिखने का काम करने लगे। पर मुंबई ने इनके स्वास्थ्य पर प्रतिकूल असर डाला और वे बीमार होकर राँची चले आए। फिर कभी उधर नहीं देखा। इसके बाद कोलकाता में इन्होंने नौकरी की। 1941 में खिदिरपुर में जापानियों के आक्रमण से कोलकाता में भगदड़ मच गई। राधाकृष्ण पुनः कोलकाता को अलविदा कह राँची आ गए। इस बीच माँ की मृत्यु ने इन्हें तोड़ दिया। वे नितांत अकेले हो गए। पिता का साया तो बचपन में ही उठ गया था। माँ ही एक संबल थी, जिसने कथा कहने के गुर सिखाए थे। वह भी चल बसीं। जीवन के इस सूनेपन को शब्दों में व्यक्त करना नामुमकिन है।

अमृत राय ने लिखा है, 'मेरी पहली भेंट राधाकृष्ण सेद 1937 के किसी महीने में हुई। वो हमारे घर आए। हम लोग उन दिनों राम कटोरा बाग में रहते थे। हम दोनों ही उस समय बड़े दुखियारे थे। इधर मेरे पिता का देहांत अक्तूबर 1936 में हुआ था और उधर लाल बाबू --राधाकृष्ण को लोग इसी नाम से पुकारते थे -- की मां का देहांत उसी के दो-चार महीने आगे-पीछे हुआ था। एक अर्थ में लाल बाबू का दुख मेरे दुख से बढ़कर था, क्योंकि उनके पिता तो बरसों पहले उनके बचपन में ही उठ गए थे और फिर अपनी नितांत सगी एक माँ बची थी, जिसके न रहने पर लाल बाबू अब बिल्कुल ही अकेले हो गए थे।'

इस अकेलेपन को झेलते हुए राधाकृष्ण अपना लेखन जारी रखे हुए थे। इसी बीच 1942 में उनकी शादी हो गई। विवाह के बाद उन्होंने राँची रहने का निश्चय किया और अंत तक राँची ही रहे। इसका उन्हें खमियाजा भी भुगतना पड़ा, क्योंकि वे जितने बड़े लेखक थे, उतनी चर्चा हिंदी साहित्य में नहीं हुई।

राधाकृष्ण 1947 में बिहार सरकार की पत्रिका 'आदिवासी' के संपादक बनाए गए और अवकाश प्राप्ति तक वे इसी पद पर बने रहे। इसका प्रकाशन केंद्र राँची ही था। पहले यह नागपुरी में निकली, लेकिन जल्द ही इसकी भाषा हिंदी हो गई। इस पत्रिका से राधाकृष्ण की एक अलग पहचान बनी। आदिवासियों को स्वर मिला। यहाX के रचनाकारों को भी एक मंच मिला, जिस पर खड़े होकर अपना दुखम-सुखम कह सकते थे। अपने अनुभव साझा कर सकते थे।

इसी बीच राधाकृष्ण जी पटना आकाशवाणी में ड्रामा प्रोड्यूसर बनाए गए। उन्हें यहाँ स्थापित करने का श्रेय जगदीशचंद्र माथुर को है। वे आकाशवाणी के महानिदेशक थे। वे आकाशवाणी में साहित्यकारों को पदस्थापित कर रहे थे, ताकि उसका स्तर ऊँचा उठ सके और गुणवत्ता में सुधार हो सके। इसी क्रम में इनकी नियुक्ति वहाँ हुई थी। बाद में जब राँची में आकाशवाणी केंद्र की स्थापना 27 जुलाई 1957 को हुई तो यहीं आ गए।

बचपन में अभावों ने जो साथ पकड़ा, वह अंत तक रहा। पाँच पुत्रों एवं एक पुत्री के पिता राधाकृष्ण भी 3 फरवरी 1979 को दुनिया छोड़ गए। भरे-पूरे परिवार और पत्नी को पीछे छोड़ गए। 1996 में पत्नी का भी देहांत हो गया। इस तरह इस कथाकार का अंत हुआ। बस कंडक्टरी से आकाशवाणी तक के सफर में गरीबी और अभावों ने कभी साथ नहीं छोड़ा। लेकिन उन्होंने कभी हार नहीं मानी। लेखनी लगातार सक्रिय रही। उपन्यास, कहानी, नाटक, संस्मरण आदि का क्रम चलता रहा। यह अलग बात है कि उनके निधन पर साहित्य जगत में कोई विशेष हलचल नहीं हुई। जानने वालों ने जरूर अखबारों के माध्यम से कुछ श्रद्धांजलि अर्पित की। पर दरहकीकत यही है कि उनके जाने पर जैसे पेड़ का एक पत्ता टूट कर जमीन में कहीं खो गया।

अलबत्ता अमृत राय ने उनके निधन पर जो लिखा, वह हमारे आज का भी सच है। उन्होंने लिखा, 'कुछ ऐसी नियति रही उनकी कि जैसी गुमनामी में उनकी जिंदगी बीती, कुछ वैसी गुमनामी में वह इस दुनिया से चले भी गए। स्थानीय पत्रों में यह शोक समाचार निकला ही होगा। अनुमान करता हूँ कि बिहार के प्रादेशिक पत्रों में भी जरूर निकला होगा, पर अखिल भारतीय तो जाने दीजिए, अखिल हिंदी स्तर पर भी उपेक्षित ही रहा। आकाशवाणी से तो राधाकृष्ण का बरसों संबंध भी रहा, लेकिन आकाशवाणी को भारत भाग्य विधाता मंत्रियों और उपमंत्रियों के देशोद्धारक प्रवचनों और आपसी उठा-पटक के अनुदिन-अनुक्षण विवरणों से -- जिन्हें समाचार की एक निराली परिभाषा के अनुसार ही समाचार की संज्ञा दी जा सकती है! - अवकाश मिले तब तो साहित्यकार जैसे एक निरे कीट के जीने-मरने की खबर दे। बिहार के दो-एक मित्रों की चिट्ठियों से मालूम हुआ कि वहाँ के प्रादेशिक समाचार में एक पंक्ति, बस एक पंक्ति की यह सूचना दी गई थी। दिल्ली रेडियो से उतनी भी नहीं। जैसे अनपढ़ लोग वहाँ कुर्सियों पर बैठे हैं, उन्हें शायद पता भी न होगा कि यह राधाकृष्ण कमबख्त था कौन? जीवन भर एकांत साहित्य-साधना और वह भी कैसे दारुण अभावों के बीच -- उसका यही पुरस्कार है। लेकिन इन बेचारों को शायद मालूम नहीं कि समय देवता कुछ और ही ढंग से सबका मूल्यांकन करता है। ये गद्दीधारी कितने दिन के हैं - आज मरे कल दूसरा दिन, बल्कि आज हटे कल दूसरा दिन। जब इनका कोई नामलेवा भी न होगा, तब राधाकृष्ण जिंदा होगा। लोग उसे पढ़ रहे होंगे और बड़ी मुहब्बत से याद कर रहे होंगे।' अमृत राय की यह श्रद्धांजलि 'धर्मयुग' के 4 मार्च 1979 के अंक में छपी थी।

दरअसलए अमृत राय और राधाकृष्ण में खूब छनती थी। 1937 में दोनों के बीच से अपनापन पैदा हुआ, वह अंत-अंत तक बना रहा। अमृत राय राँची आते और महीनों-महीनों उनके झोपड़े में पड़े रहते। राँची के मौसम का आनंद उठाते।

कोयला खान का हीरा

प्रेमचंद ने उनकी कहानियों से गदगद होकर कहा था, 'मैंने छोटानागपुर के कोयला खान से एक हीरा ढूँढ़ निकाला है।' यह टिप्पणी अपने आप में बहुत कुछ कह जाती है। उनकी प्रतिभा, लेखनी, अनुभवों का व्यापक संसार, विभिन्न जातियों-संस्कृतियों के संपर्क-संसर्ग ने एक बड़े और ईमानदार लेखक के रूप में उन्हें स्थापित किया। इन अनुभवों-संसर्गों की झलक उनकी कहानियों के शब्द-शब्द में मिलती है। अभावों ने उन्हें बचपन में ही परिपक्व और समझदार बना दिया था। यह परिपक्वता उनकी आरंभिक कहानियों में भी देखी जा सकती है।

राधाकृष्ण ने अपनी कहानियों की लीक खुद ही बनाई। उस दौर में, जब कहानी के कई स्कूल चल रहे थे, प्रसाद की भाव व आदर्श से युक्त, प्रेमचंद की यथार्थवाद से संपृक्त, जैनेंद्र तथा अज्ञेय की मनोवैज्ञानिक धारा के साथ मार्क्सवादी विचारों से प्रभावित कहानियों का चलन था। गांधी का प्रभाव भी कम नहीं था। बाद में नेहरू की आधुनिक भारत की संकल्पना भी रचनाकारों को प्रभावित करने के लिए काफी थी। नई-नई मिली आजादी का ताजा झोंका भी सभी महसूस कर रहे थे। पर राधाकृष्ण ने किसी भी बड़े नामधारी रचनाकार का अनुसरण नहीं किया। न उसकी प्रतिभा से कभी आक्रांत हुए। उन्हें अपने जिए शब्दों व अनुभवों पर दृढ़ विश्वास था। आँखन देखी ही वे कहानियाँ लिखा करते थे। पर कभी सुदूर देश की समस्या पर भी ऐसी कहानी लिख डालते थे जैसे वह आँखों देखी हो। उनकी अधिकांश कहानियों में आम आदमी की पीड़ा, उसके संघर्ष, त्रासदी, बेचैनी को देखा जा सकता है। बस कंडक्टरी करते समय उनके अनुभवों को गहराई मिली। आम आदमी की तकलीफों को बहुत ही नजदीक से देखा। आदिवासियों के जीवन और उनकी विडंबनाओं, सहजता और सरलता को भी अत्यंत निकट से जाना-समझा। यह भी देखा कि इनकी ईमानदारी का दिकू या बाहरी आदमी कैसे लाभ उठाते हैं, उन्हें कैसे ठगते हैं। इसके साथ ही यह भी देखा कि आदिवासी कैसे अपने ही बनाए टोटमों में बर्बाद हो रहे हैं। उनकी 'मूल्य' कहानी ऐसी ही एक प्रथा से जुड़ी है। यह आदिवासियों की उरांव जनजाति में प्रचलित ढुकू प्रथा को लेकर लिखी गई है। कहानी में इस प्रथा को मद्देनजर उनके जीवन के संघर्ष और बेबसी को भी दिखाने का प्रयास किया है।

इसी तरह उनकी कहानी 'कानूनी और गैरकानूनी' जमीन की समस्या से जुड़ी हुई है। झारखंड में जमीन को लेकर 1820 से ही संघर्ष चल रहे हैं। इसी के परिणामस्वरूप सीएनटी अस्तित्व में आया। पर यह कानून आदिवासियों की बहुत मदद नहीं कर पाया। इस कानून को बने सौ साल हो गए। आज आदिवासी इस कानून को बदलने की माँग कर रहे हैं। कानूनी दांवपेंच में उलझकर आदिवासी अपनी जमीन से बेदखल हो जाता है। यहाँ एक कहावत बहुत प्रचलित है कि कानून शासन करता है गरीब पर, अमीर शासन करता है कानून पर। ऐसे में कानून आदिवासियों की कोई मदद करेगा, इसकी कल्पना नहीं की जा सकती है। राधाकृष्ण ने यह कहानी 1954 में लिखी थी। पर आज भी आदिवासियों का उजड़ना जारी है। चार दशकों में 15 लाख लोग झारखंड छोड़ दूसरे प्रदेशों में रोटी के लिए संघर्ष कर रहे हैं। विकास के नाम पर इन्हीं का विस्थापन होता है। इस विकास की अवधारणा पर हमारे अर्थशास्त्री और योजनाकार चुप हैं। कंपनियाँ यहाँ उद्योग के नाम पर आदिवासियों को उजाड़ रही हैं। धनबाद के काठीकुंड में भूमि अधिग्रहण को ले कर गोली चली, जिसमें एक किसान की मौत हो गई। प्रभाष जोशी कहते हैं कि अगर जंगल और जमीन वे छोड़ना नहीं चाहते और जंगल में रहकर खेती करते रहना चाहते हैं तो उन्हें 'सभ्य' बनाने का दैविक अधिकार किसी को नहीं है। वह पूछते हैं, किसने कहा कि औद्योगिक शहरी सभ्यता और उससे निकली जीवन पद्धति ही सर्वश्रेष्ठ है? सौ के लगभग यहाँ एमओयू हुए हैं। यदि इसे धरातल पर उतारा जाता है तो न जाने कितने परिवार उजड़कर भटकने के लिए मजबूर हो जाएँगे? इसकी चिंता यहाँ के आदिवासी मुख्यमंत्रियों को भी नहीं है। राधाकृष्ण ने उसी समय इससे उपजे संकट को भाँप लिया था। लेकिन इस कहानी पर किसी का ध्यान नहीं गया। क्योंकि झारखंड केवल दोहन के लिए बना है। हिंदी आलोचकों ने भी नजरेइनायत नहीं की।

राधाकृष्ण की कुछ कहानियाँ अपने समय के साथ संगत करते हुए भी उससे आगे की हैं। लेखक की जिंदगी, वसीयतनामा, परिवर्तित, रामलीला, अवलंब, एक लाख सत्तानवे हजार आठ सौ अठासी, कोयले की जिंदगी, गरीबी की दवा आदि निम्न मध्य वर्ग से सरोकार रखने वाली कहानियाँ हैं। इंसानियत के स्खलन, आदमी की बदनीयती, संवेदनाओं का घटते जाना आदि को बहुत वेधक ढंग से प्रस्तुत करती हैं ये कहानियाँ। चंद्रेश्वर कर्ण ने उनकी कहानियों के बरक्स लिखा है, 'राधाकृष्ण मूलतः निम्न-मध्य वर्ग के कथाकार हैं। उनकी अधिकांश कहानियों में इस वर्ग की समस्याओं, इनकी त्रासदी, बेचौनी, असहायता को अभिव्यक्ति मिली है। यह कहानीकार का अपना वर्ग था, जिसमें वह जी रहा था। यही कारण है कि इस पेटे की कहानियाँ अधिक प्रामाणिक हैं। इन कहानियों में जीवन-संघर्ष के मार्मिक अनुभव हैं। कहानीकार ने जीवन को दूर से नहीं, बल्कि उसमें रहकर जूझते हुए देखा, भोगा और समझा था। अपने निष्कर्ष निकाले थे। जीवन संघर्ष के बीच लिखी होने के कारण ही उनकी कहानियों में इतनी शक्ति और प्रभाव है।' विश्वनाथ मुखर्जी की टिप्पणी भी देखने योग्य है। उन्होंने लिखा है, 'हिंदी में कुछ कहानियाँ आई हैं जिन्हें भुलाया नहीं जा सकता। गुलेरी जी की उसने कहा था, प्रेमचंदजी की मंत्र, कौशिक जी की ताई, रांगेय राघव की गदल आदि कहानियाँ भुलाई जाने वाली नहीं हैं। ठीक उसी प्रकार राधाकृष्ण की एक लाख चौरासी हजार सात सौ छियासी भी।' अमृत राय ने भी माना कि अवलंब और एक लाख चौरासी हजार सात सौ छियासी जैसी कहानियाँ हिंदी में बहुत नहीं हैं।

उनकी एक और कहानी, जिसकी ओर ध्यान लोगों का नहीं गया, है, इंसान का जन्म। श्रवणकुमार गोस्वामी ने भी राधाकृष्ण पर लिखे अपने निबंध में इस कहानी की चर्चा नहीं की है। यह कहानी राँची से निकलने वाली दृष्टिपात नामक पत्रिका में पढने को मिली। पत्रिका ने इस कहानी को पुनर्प्रकाशित किया था। संभवतः पटना से निकलने वाली किसी पत्रिका में 1975 के आस-पास निकली थी। बाँग्लादेश पर पाकिस्तानी फौजों के अत्याचार और बाद में भारतीय फौजों के आगे उनके सपर्मण को केंद्र में रखकर बुनी गई है यह कहानी। प्रवाह, शब्द, शिल्प और कथा के मामले में यह कहानी खुद अपना प्रतिमान स्थापित करती है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि हजारों मील दूर घटी घटनाओं को जिस प्रामाणिकता के साथ लिखा गया है, वह चकित करता है। जैसे लेखक वहाँ की हर गली व सड़क से परिचित हो। वहाँ की भाषा और मानसिकता से दो-चार हो। लेखक जो सवाल उठाता है, वह सवाल आज भी मुँह बाए खड़ा है। धर्म की आड़ में हिंसा कोई नई बात नहीं है। इस कहानी में एक ही धर्म के लोग आपस में लड़ते हैं। पाकिस्तान की सेना बाँग्लादेशियों पर जो कहर बरपाती है, उससे इंसानियत शर्मसार हो उठती है। एक ही परिवार के लोगों को पाक सेना जिस निर्ममता से हत्या करती है, आदमी की रूह काँप उठती है। उस घर की एक मात्र बची लड़की को पाक की सेना पहले नंगा करती है और फिर उसे उसी अवस्था में सड़कों से गुजरते हुए साथ अपने बैरक ले आती है। इसके बाद एक-एक कर आधा दर्जन फौजी उसके साथ महीनों बलात्कार करते हैं। जब भारतीय सेना उनको समर्पण करने के लिए मजबूर करती है, तब जाकर वह मुक्त होती है। भारतीय सेना का स्वागत बाँग्लादेशी स्वर्ग से आए फरिश्तों की तरह करते हैं। आखिर यह उनकी मुक्ति का पर्व जो था। कहानी यह सवाल भी उठाती है कि एक ही धर्म के लोग भी आपस में किस कदर हिंसक हो उठते हैं। पाक-बाँग्लादेश का धर्म एक था, पर भाषा अलग थी। नब्बे के बाद जिस ढंग से भारतीय उपमहाद्वीप में कट्टरपंथ ने अपना विस्तार किया है, वह इंसानियत के हक में कतई नहीं है। कहानी में इंसानियत तार-तार होती है, लेकिन एक संभावना वहाँ मौजूद है। पीड़िता को गर्भ ठहर जाता है। वह हमल को गिराने को सोचती है। वह पाप को अपनी कोख में क्या पाले? इसी उधेड़बुन में वह पड़ी रहती है कि एक विचार कौंधता है। सोचती है, पापी तो वे थे, इस अजन्मे बच्चे का क्या कसूर है? फिर इसे सजा क्यों दी जाए? वह बच्चे को जनने का संकल्प लेती है और कहती है कि इस बच्चे को धर्म और जाति के बंधनों से ऊपर इंसान बनाऊँगी। कहानी का यही संदेश है। छोटी-सी कहानी को पढ़ते हुए महुआ माजी के भारी-भरकम उपन्यास मैं बोरिशाइल्ला की याद आती है। यह विचार भी आता है कि उस उपन्यास की तुलना में यह कहानी कहीं ज्यादा प्रभावोत्पादक है।

यह कहानी उनके किसी संग्रह में शामिल नहीं है। रामलीला, सजला (दो खंड) तथा गेंद और गोल संग्रहों में कुल मिलाकर 56 कहानियाँ हैं। इसके अलावा फुटपाथ, रूपांतर, सनसनाते सपने, सपने बिकाऊ हैं आदि उनके प्रकाशित उपन्यास हैं। नाटक, एकांकी, बाल साहित्य भी अकूत है। उनकी ढेर सारी रचनाएँ अप्रकाशित भी हैं। अपने समय की प्रसिद्ध पत्र-पत्रिकाओं में वे प्रकाशित होते रहे, जिनमें साप्ताहिक हिंदुस्तान, आजकल, कादंबिनी, नई कहानियाँ, विश्वमित्र, विशाल भारत, सन्मार्ग, प्राची, ज्ञानोदय, चाँद, औघड़, धर्मयुग, सारिका, नवनीत, बोरीबंदर, माया, माध्यम, संगम, परिकथा, क ख ग, माधुरी, गंगा, त्रिपथगा, प्रताप, वर्तमान आदि प्रमुख हैं।

राधाकृष्ण घोष-बोस-बनर्जी-चटर्जी नाम से व्यंग्य भी लिखते थे। इनके लिखे व्यंग्य पर आचार्य नलिन विलोचन शर्मा ने लिखा है, 'घोष-बोस-बनर्जी-चटर्जी के उपनाम से कहानियाँ लिखकर हास्य और व्यंग्य के क्षेत्र में युगांतर लाने वाले व्यक्ति आप ही हैं। आयासहीन ढंग से लिखा गया ऐसा व्यंग्य हिंदी साहित्य में विरल है।'

ऐसा विरल साहित्यकार हिंदी जगत में उपेक्षित रह गया। आखिर जिस कथाकार ने अपने समय में जयशंकर प्रसाद, प्रेमंचद, डॉ. राजेंद्र प्रसाद, भगवतीचरण वर्मा, मन्मथनाथ गुप्त, आचार्य नंददुलारे वाजपेयी, अमृत राय, विष्णु प्रभाकर, फादर कामिल बुल्के को अपना प्रशंसक बना लिया था, उसे हमारे आलोचकों ने क्यों उपेक्षित छोड़ दिया?

श्रवणकुमार गोस्वामी लिखते हैं, 'इस प्रश्न पर जब मैं विचार करता हूँ तो मुझे इसके कई बड़े साफ कारण नजर आते हैं। एक कारण पर तो स्वयं राधाकृष्ण ने ही प्रकाश डाला है। अपने कहानी संग्रह 'गेंद और गोल' की भूमिका 'इतना ही कहना है' में लिखा है- "उन दिनों बाँग्ला के सुप्रसिद्ध साहित्यकार सैयद मुज्तबा अली पटना आकाशवाणी में स्टेशन डायरेक्टर थे। बड़े स्पष्ट ढंग से दो टूक बातें करते थे। भिन्न-भिन्न भाषाओं और साहित्य का ऐसा विद्वान अब तक मेरी नजर में दूसरा नहीं गुजरा है। साहित्य के प्रचार-प्रसार के संबंध में भी उनकी कुछ मान्यताएँ थीं। वे कहा करते थे कि किसी भी भाषा के साहित्य के विकास के लिए महानगर का होना बहुत जरूरी है। वे बाँग्ला का उदाहरण देते थे। कहते थे कि अगर बाँग्ला को कलकत्ता के समान महानगर नहीं मिला होता तो बाँग्ला साहित्य इस प्रकार आगे बढ़ता हुआ नहीं दिखाई देता। कहते थे कि मराठी के लिए बंबई और पूना है, गुजराती साहित्य के लिए अहमदाबाद और सूरत जैसे नगर हैं, मगर हिंदी साहित्य के विकास के लिए कोई बहुत बड़ा नगर नहीं मिल पाया। अब हिंदी दिल्ली पहुँच गई है। अब देखो हिंदी साहित्य का विकास कितनी तेजी से होता है। स्वर्गीय मुज्तबा अली की बात साहित्य के विकास और प्रसार के लिए ठीक हो या न हो, लेखक के लिए कोई ऐसा नगर होना बहुत जरूरी है, जहाँ उसका विकास हो सके। मैं तमाम जिंदगी राँची में रह गया। फल यह हुआ कि मुझे जिस रूप में प्रकाशित होना चाहिए था, वैसा नहीं हो पाया।"'