राधाकृष्ण की "मूल्य" / संजय कृष्ण
कहानी वैसे तो आदिवासियों में प्रचलित एक परंपरा को केंद्र रखकर लिखी गई है, लेकिन लेखक का आशय सिर्फ उसकी परंपरा से हिंदी जगत को अवगत कराने तक सीमित नहीं है। वस्तुत: देखा जाए तो यह कहानी परंपरा से आगे बढ़ती हुई हमें उस आदिवासी समाज के सामाजिक, आर्थिक, सांस्कतिक पक्षों के उद्घाटन के साथ अपनी माटी और अपने जमीन से जुड़े रहने की उत्कट अभिलाषा को भी व्यंजित करती है।
हिंदी में ऐसी कहानी कतई नहीं है। जहां परंपरा के प्रति एक अनुराग भी हो और प्रेम का उदात्त स्वरूप भी।
आदिवासी समाज में एक परंपरा है मूल्य देकर विवाह करने की। वर पक्ष वाले कन्या पक्ष को मूल्य देकर विवाह करते हैं। परंपरा के तहत विवाह का प्रस्ताव लड़का पक्ष वाला ही लड़की पक्ष वाले के सामने रखता है। यदि दोनों पक्ष राजी हो गए तो वर पक्ष कन्या पक्ष को मूल्य देकर बाकी की रस्म पूरी करता है। यदि वर पक्ष मूल्य देने में असमर्थ है तो लड़का भावी ससुर के घर रहकर एक अवधि तक अपनी सेवा देता है और इसके बदले में अपनी लड़की का विवाह लड़के से कर देता है। इसे सेवा विवाह कहते हैं।
आदिवासी समाज की इस परंपरा को केंद्र में रखकर ही यह कहानी रची गई है। कहानी में कुल चार पात्र हैं। एक और पात्र है, जिसकी सिर्फ चर्चा है। वह है दूलो का भाई जगराय, जो गाय-बकरियां चराने में कुशल है।
जो चार पात्र हैं। वे हैं, दुलो, दुलो का पिता भत्तू, उसकी मां दुर्गी और उसका प्रेमी जबरा। कहानी इन्हीं चारों के इर्द-गिर्द घुमती हुई घर की चौहद्दी को तोड़ते हुए गांव, जंगल की यात्रा करते कुछ-कुछ बीते समय की ओर भी चली जाती है।
प्रेमचंद की तरह ही कहानीकार एक दृश्यविधान रचता है। कहता है, उरांव लोगों की उस बस्ती में दूलो बड़ी प्यारी और अभिमानिनी लड़की थी। यह कहना कठिन है कि उसमें रूप ज्यादा था या अभिमान अधिक था। शौकीन भी कम नहीं थी। कान में कांच जड़ा तरपत, वक्षस्थल पर मूंगे की माला। उसके दोनों पैरों की तर्जनियों में दो-दो ढीली अंगूठियां थीं और जब वह चलती थी तो पैरों की अंगूठियां चाटुंग-चाटुंग बजने लगती थीं। उसकी सुरीली बोली गीत की तरह लहरा जाती थी और उसकी कजरारी आंखों में अनुराग भरा भोलापन लिए हुए अभिमान की छाया थी। केश उसके घुंघराले थे, जिसका उसे गर्व था।
बावजूद इसके खटकने वाली बात यह थी कि वह 16 की हो गई थी। उसका विवाह नहीं हो पा रहा था-जबकि वह परिश्रमी थी। घर और बाहर का काम करती।...जब रात होती तो वह किसी टहनी की तरह झूमती हुई भृंगी की भांति गुनगुनाती हुई अखरा पहुंच जाती। वहां जाकर वह नृत्य और गीत में इस तरह खो जाती कि अपनी तन की सुध भी नहीं रहती।
कथाकार दूलो के रूप, गुण और उसके भोलेपन की चर्चा कर पाठकों के भीतर एक सहानुभूति पैदा करता है। एक संवेदना जगाता है। इस सौंदर्य चर्चा के साथ की वह आदिवासी संस्कृति की विशेषता को भी बता जाता है। उनकी संगीतप्रियता, नृत्य के प्रति अनुराग और उन्मुक्त संस्कृति। दूलो 16 की है। शादी को तैयार है। वह रात में अखरा जाती है। कहीं कोई रोक-टोक नहीं है। अखरा वह स्थान है, जहां आदिवासी मांदर, ढोल, नगाड़े की थाप पर नाचते-गाते दिनभर की थकान मिटाते हैं। स्त्री हो या पुरुष, युवक हों या युवतियां...सभी एक साथ सामूहिक रूप से वृत्त या अर्धवृत्त का घेरा बनाकर नृत्य करते हैं। कथाकार अखरा का जिक्र इसीलिए करता है हम उनकी संस्कृति को समझ सकें। ये कुछ ऐसी विशेषता है जो आदिवासी और गैरआदिवासी के अंतर को भी सामने रखती है।
लेखक दो सीमांत धु्रवों की भी रचना करता है। एक है दूलो का पिता भत्तू, जो घर में निर्विकार भाव से चुप रहने वाला प्राणी है। दूसरा, उसकी मां दुर्गी, जो हमेशा हाथ चमका-चमका कर झल्लाती रहती है। भत्तू अपनी पत्नी के बातों का बुरा नहीं मानता। और, दुगी ऐसी थी कि उसके पास न जाने कितनी बातें थीं जो खत्म ही नहीं होती। खेती की बातें, जमीन की बातें, महंगी और अनैतिकता की बातें, सांप और शेरों की बातें, भूत और पिशाचों की बातें...। बातों का अंतहीन सिलसिला...। भत्तो परम संतोषी। दुलो की शादी करनी है फिर भी चेहरे पर चिंता की लकीरें नहीं। बैल मर गए हैं, खेती कैसे होगी, इसकी भी चिंता नहीं। एक दिन दूगी आकर भत्तो से कहती है, ए जी, हम लोगों का बैल तो पिछले महीने ही मर गया। अब क्या होगा?
इस प्रश्न से भत्तो चौंकता तो है, लेकिन तुरत ही आश्वस्त भी हो जाता है। जैसे इस समस्या का समाधान उसके पास पहले से मौजूद है। भत्तो कहता है, हां, बैल तो मर गया, क्यों करें, जो बोंगा करते हैं, वही होता है।
इस जवाब से यह भ्रम नहीं होना चाहिए कि भत्तो कर्मशील प्राणी नहीं है। सब कुछ भगवान भरोसे। पर ऐसा भी नहीं है। भत्तू कहता है, गरीब की मदद कोई नहीं करता। अब तो हल भी नहीं चला सकूंगा। बैल फूट गया है जो।
दूगो जोड़ती है, बैल के बिना किसान का घर सूना है। बैल तो तुम्हें खरीदना ही होगा।
बैल दालान की शोभा होते हैं। कहानी यह भी बताती है आदिवासी किसान की दशा दूसरे किसानों से भिन्न नहीं है। कहानी आदिवासी और गैरआदिवासी के विभाजन को इस बिंदु पर स्वीकार नहीं करती है। बैल ही किसान की पंूजी है। मैदानी इलाकों से बैल गायब हो गए। बैलों की जगह ट्रैक्टर ने ले लिया। पूंजीवाद के प्रवेश से छोटे जोतदार मजदूर बन गए। अब वहां बड़े-बड़े किसान हैं। पर पहाड़ी इलाकों में खेती के यही सबसे सशक्त माध्यम हैं। भत्तो बैल खरीदे भी कैसे? पूंजी है नहीं?
निदान भत्तो के पास है। कहता है, क्या करेंगे, दूलो को बेच देंगे।
इस जवाब से दूगी की दोनों हथेलियां चमकने लगीं। वह चंचल होकर बोली...तुम तो कब से कहते हो कि दूलो को बेचेंगे। जब छप्पर टूट गया था तब तुमने कहा था दूलो को बेच देंगे। फिर मालगुजारी के लिए नालिश हुई तब भी तुमने कहा कि दूलो को बेच देंगे। उसके बाद जब कुआं खोदने का सवाल आया था तब तुमने कहा था कि दूलो को बेच देंगे। मगर तुम्हारी दूलो बिकती कहां है? वह तो शाल के पेड़ की तरह दिन दिन बढ़कर छतनार हुई जा रही है।
समस्या का समाधान यह नहीं है कि दूलो बिक जाए? दूलो बिक भी गई तो जो मूल्य मिलेंगे क्या उससे बैल खरीदे जा सकेंगे? दूगी कहती है-कहीं बैल के जितना भी बेटी का दाम मिलता है? आदमी के दाम से बैल का दाम हमेशा ज्यादा रहता है।
यह साठ का जमाना है। आजादी मिले चौदह साल तो हो ही गए थे। इस आजादी में आदमी सस्ता हो गया था और जानवर महंगे। राधाकृष्ण एक जगह लिखते हैं, यह चावल भी एक मुसीबत है। इन दिनों चावल का दाम बढ़ता ही जा रहा है....बाजार के इस भाव को जैसे पंख लग गए हैं। वह ऊंचे-से-ऊंचे उड़ता जा रहा है। गिद्ध की तरह बाजार भाव आसमान की ऊंचाई को नाप रहा है। जनता है, वह दिन-दिन पाताल की ओर गहराई को नापती जा चली जा रही है।
तब और आज का समय। क्या महंगाई कम हुई। दिनों दिनों बढ़ती जा रही है। आदमी की कीमत जानवर से भी कम...। भत्तू अपने दिनों को याद करता है। ...कहता है जब मैंने तुमसे विवाह किया था तो दो बैल दिए थे और काठ धान दिया था। तब जाकर कहीं तुमसे मेरा ब्याह हुआ। अपनी बात को याद करती नहीं, इधर-उधर की बात ले बैठती हो।
दूगी प्रतिवाद करती है। कहती है, उस समय चीजें सस्ती थीं। यानी 1920 के आस-पास की बात कर रही है। तब चीजें सस्ती थीं। अंगरेजों का जमाना था। अब अपना जमाना था, जहां आदमी सस्ता हो गया था।
पर, इनकी बातों से बेफिक्र दूलो अपनी दुनिया में मस्त थी। एक दिन जब दूलो अखरा से नाचकर लौट रही थी तो एकांत पाकर उसका प्रेमी जबरा ने उसे छेड़ा। बोला-अरी दूलो, तुम्हारे जूड़े में जो यह सिरगुजिया का पीला फूल है, वह किसके लिए है?
वह कहती है, तुम्हारे लिए है?
...और तुम्हारे कानों मे जो लाल तरपत है...
तुम्हारे ही लिए है बंधु?
...और तुम्हारी चंचल चितवन, नदी की तरह उमड़ती हुई जवानी, तन और मन का प्यार-वह किसके लिए है?
दूलो सकुचाती हुई जवाब देती है अगर तुम चाहो तो वह भी तुम्हारे लिए है।
जवरा कहता है, मगर मैं तुम्हें महंगे दाम में खरीद नहीं सकता। जानती ही हो कि आज कल आदमी से ज्यादा बैल के दाम हैं?
दूलो कुछ सोचकर बोली-तो जाने दो, तुम्हें मेरा मूल्य चुकाना नहीं पड़ेगा। मैं तुम्हारे यहां ढूकू चली जाऊंगी।
जवरा ने कहा, यह तो और भी नहीं हो सकता। तुम्हारी मां मेरी मां से लड़-लड़कर उसे परीशान कर देगी।
जवरा एक सलाह देता है। चलो भूटान भाग जाएं। पर दूलो दृढ़ स्वर में कहती है मगर मैं न अपने मां-बाप को छोड़ सकती हूं न इस पहाड़ी को। लेकिन वह जवरा को भी नहीं छोड़ती। कहती है, मैं भूटान भी नहीं जाऊंगी और तुम्हें भी नहीं छोड़ूगी?
दूलो अपना दो टूक फैसला सुना देती है। जवरा भी कहता है-तो मैं भी तुम्हें नहीं छोड़ सकता। आओ चलें, कहां। दोनों घने जंगल में भाग जाते हैं।
कहानी यहीं समाप्त नहीं होती।
अगले दिन दुगी व भत्तो सर झुकाए बैठे हैं। दुगी की आंख भीगी हुई हैं।
इसी समय जवरा और दुलो दोनों आकर उनके सामने खड़े हो जाते हैं। भत्तू अपनी बेटी को देखकर शांत है। कहीं कोई उत्तेजना नहीं। वह बहुत ही शांत स्वर में कहता है, बेटा जवरा, अगर तुम्हें मेरी लड़की को ले जाना ही था तो मांगकर ले जाते।
जवरा भी उसी शांत भाव से जवाब देता है। उसे भी कोई ग्लानि नहीं। कहता है, बा, मांगने की मुझमें हिम्मत कहां थी। गरीबी सबकुछ कराती है। कहां हम दूलो का दाम चुका पाते और कहां से हम बारात लाते...। भत्तू कोई जवाब नहीं देता है। कुछ देर बाद लंबी सांस लेकर कहता है-हमने सोचा था कि जब दूलो को बेचेंगे तो एक बैल खरीदेंगे।
जवरा उत्साह से कहता है-बा, तुम बैल नहीं खरीद सके तो इससे क्या? मैं जो हूं। मैं किसी भी बैल से ज्यादा काम कर सकता हूं। मेरी सारी सेवाएं तुम्हारे लिए है। मैं तब तक तुम्हारी सेवा करूंगा जब तक दूलो का दाम न चुक जाएगा।
आदिवासी समाज में यह परंपरा है। पर, इस परंपरा पर ऐसी कहानी भी लिखी जा सकती है, इसपर किसी का ध्यान नहीं गया। महाश्वेता देवी ने भी आदिवासी जीवन पर कहानियां लिखीं है, पर वे सर्वेक्षणात्मक हैं। कहानी का कहन इससे बाधित होता है। योगेंद्र सिन्हा के उपन्यास भी इस समस्या से पीडि़त हैं। पर, राधाकृष्ण की कहानी इसका अपवाद है। ऐसा इसलिए कि वे आदिवासी समाज में पूरी तरह घुल-मिल गए थे।
वह समाज को बाहर से नहीं देख रहे थे। वे समाज को अपने भीतर महसूस कर रहे थे।
दूसरी बात यह कि राधाकृष्ण ने इस कहानी में आंचलिक शब्दों का प्रयोग नहीं किया है। इससे कहानी की प्रामाणिकता पर कोई फर्क नहीं पड़ता। संवाद में भी हिंदी ही है। पर, भाव और बोध में आदिवासीपन है। कहानी में मातृसत्तात्मक समाज का स्वरूप आया है। प्रेम का निष्कलुष रूप कहानी में मौजूद है। चंद्रधर शर्मा गुलेरी की कहानी उसने कहा था की याद आती है।
कहानी में आदिवासी समाज की और भी विशेषताएं हैं। जरा कल्पना कीजिए..गैर आदिवासी परिवार की लड़की यदि घर से भाग जाए तो उसका बाप क्या यूं ही शांत रहेगा? यह समाज का खुलापन है। यहां स्त्री परतंत्र नहीं है। इसलिए यहां नारीवादी नारे नहीं है। वह अपना निर्णय ले सकती है। दुखद यह है कि पिछले साठ-सत्तर सालों से आदिवासी साहित्य रचा जा रहा है। पर आज तक इस साहित्य को वह हैसियत नहीं मिल सका, जिसका वह हकदार है। अरुण प्रकाश एक बातचीत में कहते हैं, आदिवासी समाज के पास कोई प्रवक्ता नहीं है। शायद इस संगोष्ठी के बहाने आदिवासी समाज को कोई प्रवक्ता मिले और हिंदी के केंद्र में स्थापित हो। क्योंकि सवाल दस करोड़ आदिवासियों का है। उनके मूल्य का है।