रानी आदित्य चोपड़ा की फिल्म 'हिचकी' / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :21 फरवरी 2018
वर्षों पूर्व की घटना है कि शाहरुख खान यशराज चोपड़ा से 'डर' फिल्म की पटकथा सुनकर लौटे तो इस बात से बड़े प्रभावित थे कि पटकथा में नायक हकलाता है इसलिए यशराज चोपड़ा ने भी हकलाते हुए दृश्यों का वर्णन किया। विषय के प्रति इस समर्पण से शाहरुख खान अत्यंत प्रभावित हुए। बाद में उन्हें ज्ञात हुआ कि यथार्थ जीवन में भी यशराज चोपड़ा थोड़ा सा हकलाते थे। रानी मुखर्जी भी बचपन में थोड़ा सा हकलाती थी। कालचक्र घूम चुका है और अब रानी मुखर्जी अभिनीत 'हिचकी' का प्रदर्शन होने जा रहा है जिसका केन्द्र हकलाना ही है। दरअसल बचपन में माता-पिता के डर के कारण कुछ बच्चे हकलाने लगते हैं। माता-पिता होना भी एक शास्त्र है और इसकी कोई विधिवत शिक्षा नहीं दी जाती। अपने रुझान, विचार और इच्छाओं को बच्चों पर लादने के प्रयास को बचपना ही कहा जा सकता है क्योंकि हर व्यक्ति का अपना स्वतंत्र अस्तित्व होता है। वह स्वयं में संपूर्ण ब्रह्मांड होता है।
कभी-कभी ऐसा भी होता है कि मस्तिष्क में अनेक विचार आने लगते हैं और विचारों की इस भीड़ को अभिव्यक्त करने में हड़बड़ाहट के कारण मनुष्य हकलाने लगता है। तमाशबीन समाज द्वारा कमतरी का मखौल उड़ाना भी समस्या को गहरा कर देता है। मणिरत्नम की फिल्म 'अंजली' में असहिष्णु व्यक्तियों को ही कमतर मानव कहा है।
यशराज चोपड़ा की 'डर' की प्रेरणा उन्हें जे.ली. थॉमस की 'कैम्प फीयर' नामक फिल्म से मिली थी और इसी को दूसरी बार मार्टिन स्कॉरसिस ने 1991 में बनाया था। यशराज के बड़े भाई बलदेवराज चोपड़ा भी विदेशी फिल्मों से प्रेरणा लेते थे और उन्होंने फिल्म के नाम रखने तक में कोई कल्पनाशीलता नहीं दिखाई। मसलन 'ब्लाॅसम इन द डस्ट' को भी 'धूल का फूल' नाम से बनाया था। भारतीय फिल्मकार तो यह मानता है कि जब अन्य देशों में मौलिक फिल्में बनाई जा रही हैं तब हमें सोचने की जहमत उठाने की क्या आवश्यकता है। 'ज़ीरो' का आविष्कार करने वाला देश अब मौलिकता के मामले में स्वयं ज़ीरो अर्थात शून्य होता जा रहा है। आजकल फिल्मकार हॉलीवुड ही नहीं वरन् कोरिया से भी 'प्रेरणा' ले लेते हैं।
लगभग चार वर्ष पूर्व आई रानी मुखर्जी की फिल्म का नाम 'मर्दानी' था। फिल्म के प्रारंभ में एक डेज़र्ट फॉक्स के पानी पीने का शॉट था और अंतिम शॉट में अन्याय के विरुद्ध युद्ध करने वाली नायिका भी एक सार्वजनिक नल से जल पीते दिखाई गई है। प्यास और पानी हमेशा प्रतीक रहे हैं। गुरुदत्त ने तो सांस्कृतिक मूल्यों के पतन को प्रस्तुत करने वाली फिल्म का नाम ही 'प्यासा' रखा था जबकि इसके आकल्पन के समय इस कथा का नाम 'कशमकश' था। राजकपूर की 'जागते रहो' में रोजगार की तलाश में महानगर में आए व्यक्ति को प्यास लगती है और वह एक बहुमंजिला के अहाते में पानी पीने के लिए जाता है परन्तु उसे चोर समझकर उसका पीछा किया जाता है। घटनाक्रम के अंत में उसे पानी पीने को मिलता है। पार्श्व गीत है 'किरण परी गगरी छलकाए, ज्योत का प्यासा प्यास बुझाए, मत रहना अंखियों के सहारे, जागो मोहन प्यारे'। आजकल छोटे परदे पर 'शिरडी के सांईबाबा' नामक कार्यक्रम दिखाया जा रहा है। सांई बाबा को भी प्यास लगी है, सभी लोग अपने घर से जल लाए हैं परन्तु सांई की प्यास सांस्कृतिक जागरण के लिए जागी प्यास है।
पृथ्वी पर जल है और इसीलिए जीवन है। धूल धूसरित चांद पर जीवन संभव नहीं है क्योंकि वहां जल नहीं है। पहले सौ दो सौ फीट बोरिंग करने पर जल मिल जाता था परन्तु अब चार या पांच सौ फीट बोरिंग करने पर जल मिलता है। स्पष्ट है कि धरती के भीतर जल विरल होता जा रहा है और इसकी अंतिम सतह पर भीषण अग्नि है। हम सब एक महाविनाश की ओर बढ़ रहे हैं। सभी पौराणिक महाकाव्यों में जल प्लावन द्वारा विनाश की बात लिखी है परन्तु विकास के इस लोकप्रिय आकल्पन से संकेत मिलता है कि जल के अभाव से जीवन नष्ट होगा। धरती पर वृक्ष लगाना और उनके संरक्षण से ही धरती के भीतर जलस्तर बड़ सकता है। 'टाइटैनिक' के लिए जगत प्रसिद्ध कैमरॉन जेम्स की फिल्म में वैज्ञानिकों का एक दल अन्य ग्रह पर पहुंचा है और वहां के वृक्ष काटे जा रहे हैं ताकि भवन बनाए जा सकें। दल की एक सदस्य कहती है कि यहां काटे जाने वाले वृक्ष की पीड़ा धरती पर उगे वृक्षों को भी होती होगी क्योंकि सृष्टि के सारे वृक्ष एक-दूसरे की वेदना महसूस कर सकते हैं। करुणा का यह धागा मनुष्यों को भी बांधता था परन्तु हमने वह तोड़ दिया है।
एक भारतीय अन्वेषक ने कहा था कि मनुष्य चलता-फिरता वृक्ष है और वृक्ष स्थिर मनुष्य हैं। विकास के लिबास में विनाश फैलाया जा रहा है।