राबर्ट ओवेन: आधुनिक सहकारिता आंदोलन का जन्मदाता

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[राबर्ट ओवेन की ख्याति एक समाजवादी विचारक, उदार उद्यमी और समर्पित लोक-कार्यकर्ता की है. भीषण गरीबी में बचपन बिताने वाले राबर्ट ओवेन ने मात्र दस वर्ष की वयस् में प्रशिक्षु दर्जी से जीवन-संघर्ष की शुरुआत की. अपनी प्रतिभा, लगन और उद्यमशीलता के दम पर वह आगे चलकर ब्रिटेन का जाना-माना उद्योगपति बना. मनुष्यता के इतिहास में उसे दो प्रमुख आंदोलनों का जन्मदाता और उन्नायक होने का श्रेय प्राप्त है. अपने कारखानों में ओवेन ने सबसे पहले शिशु शिक्षा की शुरुआत की तथा काम के साथ-साथ शिक्षा की अवधारणा का जन्मदाता बना. वह श्रम-अधिकारों का समर्थक था. श्रमिकों को आर्थिक मोर्चे पर आत्मनिर्भर बनाने के लिए उसने सहकारी समितियां गठित कीं. मजदूरों की आवास-समस्याओं के निदान के लिए उसने सहजीवन पर आधारित बस्तियों की स्थापना की, जिससे सहकारिता का नया रूप दुनिया के सामने आया. कामगार बच्चों के लिए पाठशालाओं के अलावा खेल-सदन एवं गर्भवती स्त्रियों के लिए आराम के घंटों और उपयुक्त इलाज की व्यवस्था भी उसने अपने संसाधनों के बल पर की. इसमें कोई संदेह नहीं कि ओवेन द्वारा किए गए श्रम-सुधारों का उसको आर्थिक लाभ भी पहुंचा. एक समय में ओवेन के कारखाने ब्रिटेन के सर्वाधिक मुनाफा कमाने वाले कारखानों में से थे. मगर उसने श्रमिकों के जीवन में सुधार के प्रयास से कभी मुंह नहीं मोड़ा. हर महान व्यक्तित्व की भांति ओवेन को भी आलोचनाओं का सामना करना पड़ा. कुछ विद्वानों ने ओवेन के प्रयासों को उसकी सोची-समझी उद्योगनीति का हिस्सा माना है. मार्क्स और फ्रेड्रिक ऎंगल्स आदि साम्यवादियों ने ओवेन के विचारों की आलोचना की तो श्रमिकों के कल्याण के लिए उसके द्वारा उठाए गए कदमों की सराहना भी की. अपने कल्याणधर्मी प्रयासों में ओवेन को हालांकि अपेक्षित सफलता नहीं मिल पाई, किंतु उसकी सदाशयता और श्रम-कल्याण के प्रति समर्पण-भावना का अनुमान मात्र इससे लगाया जा सकता है कि उसने श्रम-पूर्वक कमाई गई अपनी समस्त पूंजी अपने प्रयोगों और योजनाओं पर खर्च कर दी. परिणामस्वरूप उसे अपने जीवन के आखिरी दिन भयानक आर्थिक संकट में बिताने पड़े. वह चाहता था कि बाकी उद्योगपति और सरकार भी श्रम-कल्याण के लिए आगे आएं. मगर सही मायनों में ऐसा हो न सका. ओवेन को अधिकांश उन्हीं लोगों का समर्थन मिला जो आर्थिक मोर्चे पर विपन्न थे. तो भी सहकारिता आंदोलन पुनर्जीवित करने तथा शिशु-शिक्षा की महत्ता को रेखांकित करते हुए उसके लिए व्यापक प्रयास करने का जो महान ऐतिहासिक योगदान ओवेन ने दिया, उसके कारण उसकी उपेक्षा कर पाना शताब्दियों तक असंभव ही रहेगा. राबर्ट ओवेन का जीवन न केवल आधुनिक अर्थव्यवस्था से आजिज आ चुके अर्थशास्त्रियों और विद्वानों के लिए प्रेरक है, बल्कि इससे वे धनकुबेर, विशेषकर भारतीय, भी प्रेरणा ले सकते हैं, जो अस्सी करोड़ भारतीयों की भूख, गरीबी और तंगहाली की कीमत पर रातों-रात और अमीर, और ज्यादा अमीर होते जा रहे हैं. —ओमप्रकाश कश्यप] सहकारिता के जनक राबर्ट ओवेन (मई 14, 1771 – नवंबर 17, 1858) के बारे में कुछ कहने से पूर्व हमें स्मरण करना होगा कि वह सहकारिता के सिद्धांत का मौलिक विचारक नहीं था. उससे पहले भी आर्थिक संसाधनों के विकेंद्रीकरण के पक्ष में अनेक अर्थशास्त्री अपना पक्ष रख चुके थे. यहां तक कि सहकारिता के पर्याय साहचर्य का शब्द का उदय भी हो चुका था. किंतु इससे राबर्ट ओवेन का योगदान कम नहीं हो जाता. उसकी महत्ता इस बात में है कि उसने सहकार को व्यावहारिकता के धरातल पर साकार करने की कोशिश अपनी पूरी ईमानदारी और सामर्थ्य के साथ की. अपने विचारों के लिए सदैव समर्पित भाव से काम करता रहा. हालांकि उसे अंततः असफलता ही हासिल हुई; मगर तब तक दुनिया सहकार के सामर्थ्य से पूरी तरह परिचित हो चुकी थी. अठारहवीं शताब्दी के अंतिम वर्षों में ही अर्थशास्त्री एवं विचारक यह मानने लगे थे कि समाज की आर्थिक समस्याओं का निदान छोटे-छोटे कार्यसमूह बनाकर किया जा सकता है. उस समय स्पष्ट है कि उनकी निगाह, समाज के उस वंचित, अशिक्षित, गरीब और संसाधनविहीन वर्ग पर थी, जो विभिन्न सामाजिक कारणों से विकास की दौड़ में पिछड़ा हुआ था. उसके पास विपुल श्रम-सामर्थ्य था, परंपरागत तकनिकी कौशल जो जगह-जगह बिखरा पड़ा था. संसाधनों का अभाव था. मगर उससे भी अधिक थे—आत्मविश्वास की कमी, दिशा एवं नेतृत्वकला का अभाव, संसाधनों की विरलता तथा सकारात्मक स्पर्धा में टिके रहकर कार्य करने का जुनून. नकारात्मक स्पर्धा का उपयोग पूंजीपतिवर्ग अर्से से करता आ रहा था. इसी कारण उस श्रमशक्ति का पूरा उपयोग नहीं हो पा रहा था. जबकि उससे कुछ ही दशक पहले दुनिया में पूंजीवाद का आगमन बड़े जोर-शोर के साथ हुआ था. औद्योगिकीकरण के प्रारंभ में पूंजीवाद ने बड़बोलापन दिखाते हुए दुनिया-भर के गरीब मजदूरों, सर्वहारा वर्ग के आंसू पोंछने का आश्वासन दिया था. प्रत्येक नागरिक को एक बेहतरीन दुनिया का सपना दिखाया गया था. मशीनें चूंकि कठिन श्रम से मुक्ति प्रदान करती थीं, अतएव शुरू-शुरू में मजदूरों एवं शिल्पकारों ने उनका स्वागत खुले मन के साथ किया था. हालांकि समाजवादियों के एक वर्ग के मन में उन्हें लेकर संदेह भी था, किंतु नई तकनीक के आगमन के समय के जोश ने उनकी सलाह को अनसुना करने को विवश कर दिया था. मगर उस आश्वासन का हश्र भी पूंजीपतियों की बाकी घोषणाओं की तरह ही हुआ. औद्योगिक विकास के चलते समाज में मध्यवर्ग का तेजी से विकास होने लगा. कालांतर में मध्यवर्ग खुद भी कई खानों में बंटता गया. एक वर्ग की आस्था परंपरागत समाज-व्यवस्था में थी. किसी भी परिवर्तन के विरोध में खड़ा होने वाला वह वर्ग पहले सामंतों-जमींदारों का समर्थन करता आया था और अब उनके स्थान पर पनपे नवउद्यमी वर्ग के समर्थन में खड़ा था. हमेशा की भांति मध्यवर्ग एक हिस्सा पूरी तरह निष्क्रय था तो उसका दूसरा हिस्सा ऐसा भी था जो स्वाभावतः विद्रोही था. वह देख रहा था कि सामंतवाद के पतन तथा औद्योगिक क्रांति का कोई लाभ समाज के बहुसंख्यक वर्ग को नहीं मिल पाया है. यही वर्ग स्थिति में आमूल परिवर्तन के लिए प्रयासरत था. जब इस वर्ग ने देखा कि औद्योगिकीकरण के अंधड़ में सामाजिक व्यवस्था छिन्न-भिन्न होती जा रही है और लोगों का भरोसा उनसे उठने लगा था; तो उसने संगठित जनशक्ति का उपयोग कर सहकार की नींव डाली. राबर्ट ओवेन और उसी के समान सोचवाले कुछ विचारकों का मानना था कि समाज की आर्थिक समस्याओं का हल विशेष उद्देश्य वाले कार्य-समूह बनाकर किया जा सकता है. यह एक युगानुकूल विचारधारा थी. इससे भी बड़ी बात यह रही कि उसको ऐसे समय में कार्यान्वित किया गया जिस समय समाज को उसकी सर्वाधिक आवश्यकता थी. जाहिर है इसके पीछे यूरोप-भर में सक्रिय बुद्धिजीवियों तथा उनके द्वारा प्रेरित जनतांत्रिक आंदोलनों का भी हाथ था. समाज का बहुत बड़ा वर्ग पूंजी-प्रधान अर्थव्यवस्था से उत्पन्न सामाजिक-आर्थिक असंतुलन से जूझ रहा था. लोगों के मन में गहन आक्रोश था. ऐसे लोगों की ओर से भी राबर्ट ओवेन को भरपूर समर्थन मिला. शास्त्रीय भाषा में इन विचारकों को साहचर्य समाजवादी (Associative Socialists) का नाम दिया गया है. सहकारिता का उद्भव औद्योगिकीकरण की तीव्र गति के बीच निरंतर कमजोर पड़ते जा रहे, समाजवाद को नई दिशा देने की कोशिशों का परिणाम था. यह एक तरह से समाजवाद की पूरक एवं सहयोगी विचारधारा थी, जिसमें नए जमाने की चुनौतियों से निपटने का क्षमता और उसके लिए जरूरी आत्मविश्वास था. इससे पहले के समाजवादियों का मानना था कि पूंजी एवं अन्य संसाधनों पर पूरे समाज का अधिकार होना चाहिए. जनतांत्रिक प्रक्रिया द्वारा चुनी गई उत्तरदायी सरकारें, उनका प्रयोग राष्ट्रहित में करें. अवसरों की समानता, संसाधनों का विकेंद्रीकरण उस व्यवस्था की प्रमुख विशेषताएं थीं. साहचर्य समाजवादी भी पूंजी सहित सभी संसाधनों पर समाज एवं समूह का सम्मिलित अधिकार मानने के पक्षधर थे, किंतु उनका विश्वास था कि सदस्यों की साझेदारी के अभाव विकास के ऐच्छिक लक्ष्यों की प्राप्ति असंभव है. संसाधनों के विकेंद्रीकरण के लिए वे चाहते थे कि छोटे-छोटे उत्पादक समूह संगठित होकर बड़े दायित्वों का निर्वाह करें. समूह अपने आप में आत्मनिर्भर होंगे, तभी वे समाज को आत्मनिर्भरता की ओर ले जा सकेंगे. तभी संसाधनों का वांछित दोहन तथा लाभ का न्यायिक वितरण संभव हो सकेगा. साहचर्य शब्द तो आधुनिक समाज की उपज है. राबर्ट ओवेन खुद को मात्र समाजवादी ही मानते थे. अपनी पत्रिका Co-operative Magzine में Socialist शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग भी राबर्ट ओवेन ने किया था. हालांकि इन दोनों ही शब्दों के पारंपरिक अर्थ इनके वर्तमान अर्थों के अपेक्षा तब थोड़े भिन्न थे. किंतु मूल भावनाएं तब भी लगभग वही थीं, जो कि आज हैं. प्रारंभिक जीवन ओवन का जन्म 14, मई 1771 को सेंट्रलवैल्स के एक साधारण-से कस्बे न्यूटाउन में हुआ था. सात भाई-बहनों में से एक ओवेन के पिता साधारण व्यापारी थे. लोहे के औजारों की बिक्री की दुकान थी उनकी. जबकि मां का संबंध एक संपन्न किसान परिवार से था. ओवेन का बचपन घने अभावों के बीच बीता. उसकी शिक्षा की शुरुआत तो ठीक-ठाक हुई मगर वह पूरी हो उससे पहले, मात्रा नौ वर्ष की अवस्था में ही उसे स्कूल छोड़कर नौकरी करनी पड़ी. काम की तलाश मंी वह अपने सबसे बड़े भाई विलियम के साथ लंदन चला गया. उसको पहली नौकरी लंकाशायर में दर्जी के रूप में मिली. कुछ वर्षों तक ओवेन वहां पर काम सीखता रहा. उससे आगे के नौ वर्ष ओवेन ने नौकरी करते हुए बिताए. धीरे-धीरे उसने कुछ रकम और कुछ सपने भी जमा किए. इस बीच महत्त्वाकांक्षाएं जो परिस्थितिवश कुछ समय के लिए दब गई थीं, वे फिर से सिर उठाने लगीं. भाप के इंजन का आविष्कार उससे कुछ ही वर्षों पहले हुआ था, भापशक्ति से चलने वाले करघों के कारण कपड़ा उद्योग में क्रांति आई हुई थी. इसी कारण मैनचेस्टर के कपड़ा उद्योग का उन दिनों बड़ा नाम था. 1790 के आखिरी महीनों में ओवेन ने अपने बड़े भाई विलियम से सौ पौंड की रकम उधार ली. अपनी महत्त्वाकांक्षाओं का खूबसूरत सपना मन में सजाए एक दिन वह मैनचेस्टर पहुंच गया. अपनी मामूली-सी पूंजी से उसने जोन के साथ मिलकर एक धागे की जूतियां बुनने के छोटे-से कारखाने की शुरुआत की. जोन उससे पहले मैकेनिक का काम करता था. काम को देखते हुए सौ पौंड की पूंजी बहुत कम थी. बड़ी कंपनियों के साथ कठिन स्पर्धा में ओवेन की मिल टिक नहीं पाई. इस बीच जोन के साथ साझेदारी निभाने में भी समस्याएं आने लगी थीं. इसलिए मात्रा तीन महीने के अंतराल में जोन के साथ अपने साझेदारी तोड़कर ओवेन ने अपने अलग कारखाने की नींव रखी. ओवेन उसे चालू रखने के लिए संघर्ष कर ही रहा था कि मैनचेस्टर के एक बड़े कारखाने में प्रबंधक का पद रिक्त होने की सूचना उसे मिली. उसने अपनी मिल का लालच छोड़ दिया और उस नौकरी पर जा लगा. उस समय उसकी उम्र केवल इकीस वर्ष थी. वह एक प्रकार से सतत संघर्ष एवं सफलता की शुरुआत थी. मेहनती और लगनशील तो वह था ही. छह महीने के अल्प समय में ही वह मिल मालिक के दिलो-दिमाग पर अपनी कार्यशैली का सिक्का जमाने में सफल हो गया.

          उस कारखाने में उस समय पांच सौ मजदूर काम करते थे. ओवेन के लिए यह बड़ी उपलब्धि थी, किंतु उसकी सफलताओं का सही मायने में तो यह प्रारंभ ही था. रात-दिन के कठिन परिश्रम, प्रतिभा और लगन से ओवेन ने उस कारखाने को कुछ ही वर्षों में ब्रिटेन के सर्वश्रेष्ठ कारखानों में ला दिया. ओवेन उद्यमशीलता का अनुमान मात्रा एक उदाहरण से लगाया जा सकता है कि उसने अपने कारखाने के लिए अमेरिकी द्वीपों से रूई का आयात किया. वह दक्षिणी राज्यों से पहला रूई का पहला आयात था.

यही नहीं ओवेन ने रूई कताई के कार्य में भी उल्लेखनीय दक्षता प्राप्त की. निर्विवाद रूप से उसका कारखाना तत्कालीन ब्रिटेन के सर्वश्रेष्ठ कताई कारखानों में से एक था; जिसकी सफलता का श्रेय यदि किसी को दिया जा सकता है तो वह केवल ओवेन ही था. इकीस वर्ष का तरुण ओवेन 1795 में मेनचेस्टर के एक ओर बड़ी कपड़ा मिल काल्र्टन ट्विस्ट कंपनी का प्रबंधक और हिस्सेदार बन चुका था; जिससे उसका नाम वहां के सर्वाधिक सफल उद्यमियों में गिना जाने लगा. उन्हीं दिनों ओवेन को अपनी फैक्ट्री के कार्य से न्यू लेनार्क जाना पड़ा, जो अपनी भौगोलिक स्थिति के कारण वस्त्र उद्योग के लिए बहुत ही उपयुक्त स्थान था. तब तक वह एक सुदर्शन युवक बन चुका था. वस्तुतः ओवेन को खबर मिली थी कि न्यू लेनार्क के प्रसिद्ध कपड़ा व्यवसायी डेविड डेल अपनी कपड़ा मिलों का सौदा करना चाहते हैं. डेविड डेल की ख्याति दूरदर्शी एवं कामयाब उद्यमियों में होती थी. ओवेन की ख्याति उन तक पहुंच चुकी थी. उसकी बेजोड़ प्रतिभा और लगनशीलता से डेल चमत्कृत थे. न्यू लेनार्क पहुंचते ही ओवेन के जीवन में एक और सुखद मोड़ आया. डेविड डेल की एक बेटी थी—का॓रोलिना डेल. युवा ओवेन उसके प्यार में पड़ गया. का॓रोलिना भी उसके आकर्षण से बच न सकी. डेविड डेल ने ओवेन के हाथों न केवल कपड़ा मिलों के एक हिस्से का सौदा किया, बल्कि अपनी कन्या का विवाह भी उसके साथ कर दिया. यह सितंबर, 1799 की घटना थी, जिसने ओवेन को एक साथ कई उपलब्धियों से लाद दिया. विवाह के पश्चात ओवेन वहीं अपना घर बनाकर रहने लगा. एक दूरदृष्टा उद्यमी न्यू लेनार्क की वह फैक्ट्री डेल और रिचर्ड आर्कराइड ने 1784 में प्रारंभ की थी. फैक्ट्री उस समय न्यू लेनार्क की सबसे बड़ी कपड़ा मिलों में से एक थी; जिसे चलाने के लिए जल-शक्ति का उपयोग किया जाता था. दो हजार से अधिक कर्मचारी उसमें कार्य करते थे; जिनमें से लगभग पांच सौ गरीब परिवारों के बच्चे थे. बच्चों में भी अधिकांश की आयु पांच से छह वर्ष के बीच थी. यही स्थिति उन दिनों अधिकांश कपड़ा मिलों में थी. डेविड डेल यद्यपि बालश्रमिकों का पूरा ध्यान रखते थे, लेकिन कोई कारगर व्यवस्था न होने के कारण मजदूरों, विशेषकर बालश्रमिकों की दशा शोचनीय बनी हुई थी. अधिकांश कामगार बेहद गरीब, अशिक्षित परिवारों से संबद्ध थे. अशिक्षा, कुंठा और हताशा के कारण चोरी, जुआ, शराब और नशाखोरी जैसी अनेक कुरीतियां उनके जीवन में प्रवेश कर चुकी थीं. घर के नाम पर उन सभी के पास एक-एक कमरा होता था, छोटा-सा और गंदा भी, जिसमें स्वच्छ हवा का प्रवेश भी असंभव था. बच्चों की पढ़ाई की व्यवस्था तो दूर बीमारों के इलाज के लिए भी कोई इंतजाम नहीं था. उस समय तक ओवेन खूब संपन्नता एवं समृद्धि बटोर चुका था. विवाह के पश्चात उसके आत्मविश्वास में वृद्धि भी खूब हुई. परंतु ओवेन की महत्त्वाकांक्षाओं का अंत अभी दूर था. उसके भविष्य की रूपरेखा इसी आत्मविश्वास के आधार पर तय होनी थी, क्योंकि यह उसका आत्मविश्वास ही था जिसने उसे कठोर फैसले लेने की प्रेरणा दी, जिससे वह आजीवन अपने विचारों एवं उद्देश्यों के लिए संघर्षरत रह सका. अपने क्रांतिकारी फैसलों के लिए ओवेन ने अपने सरकार और उद्योगपतियों की आलोचनाएं सहीं. उसके हिस्सेदार उसे छोड़कर चले गए. करोड़ो रुपये की संपत्ति जो उसने कठिन परिश्रम से अर्जित की थी, धीरे-धीरे उसकी कल्याणकारी योजनाओं की भंेट चढ़ गई. लेकिन इतिहास में अलग चलने, नया कार्य करने, आने वाली पीढ़ियों के लिए नए प्रतिमान गढ़ने वाले महापुरुषों के लिए यह कोई नया नहीं है. इतिहास का दरबार ऐसी ही चुनौतियों को पार करने वाले महापुरुषों को सहेजने में गर्वानुभूति करता है. ओवेन कोरा व्यवसायी नहीं था. उसके पास खूबसूरत और संवेदनशील मानस भी था, जो दूसरों को कष्ट में देखते ही विचलित हो उठता था. वह स्वयं गरीब परिवार से आया था. इस कारण गरीबी की विवशताओं और कष्टों से वह भली-भांति परिचित था. उन दिनों न्यू लेना॓र्क में जहां बड़े-बड़े कारखानों की भरमार थी, वहीं उसके आसपास गरीब मजदूरों की छोटी-छोटी अनेक बस्तियां भी बसी हुई थीं. वहां का जीवन नारकीय था. ओवेन को लग रहा था कि उत्पादकता में अपेक्षित वृद्धि कारीगरों और मजदूरों के रहन-सहन तथा उनकी परिस्थितियों में सुधार किए बिना संभव नहीं है. इसलिए उसने अपने जीवन के अगले दस वर्ष मजदूरों की हालत सुधारने के नाम कर दिए. उसने मजदूरों की आवास-बस्तियों का उद्धार किया. उन बस्तियों में स्वयं जा-जाकर मजदूरों की गंदी आदतों को छुड़ाने का प्रयास किया. बालश्रमिकों के कार्य-घंटे कम कर, उनकी शिक्षा एवं मनोरंजन का प्रबंध किया. महिला मजदूरों के लिए अलग विश्रामघर और प्रसूति-केंद्रों की व्यवस्था की. इन प्रयासों से एक ओर तो मजदूरों के जीवन में सुधार आया, अभी तक जो मजदूर औद्योगिकीकरण को संदेह की दृष्टि से देखते थे, उनके विचारों में परिवर्तन भी हुआ. नई व्यवस्था के प्रति उनका आक्रोश कम होने लगा. परिणामतः उत्पादन बढ़ा, उसका लाभ भी ओवेन को मिला. ध्यातव्य है कि ओवेन द्वारा अपने कर्मचारियों के कल्याण के लिए जितने भी कदम उठाए गए उनके पीछे उसकी विशुद्ध व्यावसायिक दृष्टि थी. एक दक्ष उद्यमी की भांति वह स्थितियों का अपने पक्ष में मोड़ लेने में पारंगत था. कार्ल मार्क्स के सहयोगी और मार्क्सवादी विचारक फ्रैड्रिक ऐंग्लस ने अपने चर्चित लेख—Socialism: Utopian and Scientific में स्पष्ट रूप से उल्लेख किया है कि— ‘विकास एवं श्रमिक-कल्याण के नाम पर ओवेन द्वारा अभी तक जितने भी कदम उठाए गए थे, वे सभी मानवीय गरिमा से परे, केवल दिखावटी थे. ‘लोग मेरी दया पर निर्भर, मेरे दास के समान हैं.’— ओवेन का यही सोचना था. तुलनात्मक रूप में उसने अपने कर्मचारियों को बेहतर वातावरण उपलब्ध कराने के प्रयास तो किए, मगर वे उनके व्यक्तित्व एवं बुद्धि के चहुमुंखी विकास से काफी दूर थे. उन्हें अपने विवेक का इस्तेमाल करने की छूट बहुत कम, विशिष्ट संदर्भों तक सीमित थी. ओवेन पर सुधारवादियों का प्रभाव पड़ा था. वह मेनचेस्टर की Literary and Philosophical Society का सम्मानित सदस्य था. स्काटिश नवजागरण आंदोलन से प्रभावित ओवेन का मानना था कि मनुष्य का व्यक्तित्व उसके वातावरण से प्रभावित एवं विनिर्मित होता है. इसलिए वातावरण में सुधार द्वारा व्यक्तित्व का परिष्कार किया जा सकता है. ‘शिक्षा नैतिक जगत से संपर्क कराने वाला इंजन है.’ शिक्षा के महत्त्व को रेखांकित करती किसी इतिहासकार की इस उक्ति का वह समर्थक था. व्यक्तित्व निर्माण के लिए शिक्षा की अनिवार्यता दर्शाते हुए उसने कहा था कि— ‘मनुष्य का व्यक्तित्व उसके वातावरण से प्रभावित होता है. अतः विवेकवान एवं मानवीय भावनाओं से ओतप्रोत व्यक्तित्व के निर्माण के लिए शिक्षा का योगदान सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है. इसलिए शिक्षक का पहला कर्तव्य है कि बालक के मानसिक एवं शारीरिक विकास के लिए पूर्णतः अनुकूल वातावरण की सरंचना करे.’ उन दिनों अधिकांश कारखाना मालिकों द्वारा अपने मजदूरों को नकद मजदूरी देने के बजाए वस्तुविनिमय प्रणाली के आधार पर भुगतान किया जाता था. तदनुसार मजदूरों को टोकन दे दिए जाते थे; जिनकी कारखाना मालिकों के समूह से बाहर कोई कीमत न थी. उन टोकन के बदले मजदूर तयशुदा दुकानों से आवश्यक वस्तुएं खरीद सकते थे. मजदूरों की विवशता का लाभ उठाने के लिए उन दुकानों पर भी उनका खुला शोषण होता था. वहां मिलने वाला सामान घटिया और बाजार की अपेक्षा महंगा होता था. उस कुरीति के विरुद्ध आवाज उठने लगी तो, ब्रिटिश संसद ने गैरकानूनी करार देते हुए उसपर रोक लगा दी थी.

मजदूरों की समस्या को देखते हुए ओवेन ने एक उपभोक्ता केंद्र की शुरुआत की जहां अच्छी गुणवत्ता का सामान लागत-मूल्य से कुछ ही ऊपर का भुगतान करने पर प्राप्त हो सकता था. उसने मजदूरों के चारित्रिक विकास के लिए भी आवश्यक कदम उठाए. यह जानते हुए कि मजदूर अपनी कमाई का बड़ा हिस्सा शराब तथा नशे की अन्य वस्तुओं पर लुटा देते हैं, ओवेन ने उनकी बिक्री को कड़े नियंत्रण में रख दिया. यही नहीं ओवेन ने अपने कामगारों को उपभोक्ता भंडारों से थोक खरीद के लिए भी प्रोत्साहित किया; जिससे वे अधिक बचत कर सकें. बचत पर जोर देते हुए उसने मजदूरों को कठिन समय के लिए अपनी आय का एक हिस्सा अनिवार्य रूप से बचाने के लिए कहा. बालश्रमिकों के लिए उसने बेहतर परिस्थितियों का सृजन किया. उनके कार्यघंटे सुनिश्चित किए तथा अनिवार्य शिक्षा के लिए पाठशालाएं खुलवाईं. ओवेन के उपभोक्ता भंडार को पर्याप्त सफलता मिली. उसी ने आगे चलकर सहकारी क्षेत्र के उपभोक्ता आंदोलन को प्रेरित किया. हालांकि सहकारिता पर आधारित उपभोक्ता केंद्रों की सफल शुरुआत उसके लगभग चार दशक पश्चात हो सकी, जब रोशडेल पायनियर्स ने लंदन के टोडलेन इलाके में पहला उपभोक्ता केंद्र स्थापित किया. उन दिनों मिल मजदूरों को प्रतिदिन कम से कम ग्यारह घंटे लगातार कार्य करना पड़ता था. ओवेन ने उसमें एक घंटा प्रतिदिन की कटौती कर दी. तत्कालीन परिस्थितियों में यह कदम साहसपूर्ण होने के साथ-साथ चामत्कारिक भी था. उसके इस कदम का दूसरे उद्योगपतियों ने जमकर विरोध किया. पूंजीपतियों द्वारा पोषित समाचारपत्र-पत्रिकाओं में ओवेन के इस कदम की आलोचना करने वाले लेख छापे गए. इससे घबराए बिना ओवेन ने दस वर्ष से छोटे बच्चों के अपनी मिल में काम करने पर पाबंदी लगा दी. मिल-मजदूरों के लिए कल्याण सुविधाओं का विस्तार करते हुए उसने उन्हें कारखाने में ही आवास सुविधाएं प्रदान कीं. साथ ही अस्पताल, विश्रामालय और मनोरंजनगृहों की स्थापना की. उन दिनों काम के दौरान हुई गलतियों का खामियाजा मजदूरों को ही भुगतना पड़ता था, जिससे उनके वेतन का बड़ा हिस्सा नुकसान की भरपाई में ही निकल जाता था. ओवेन ने ऐसे जुर्माने की परंपरा को समाप्त कर दिया, जिसका दूसरे उद्योगपतियों ने काफी विरोध किया. मगर ओवेन अपने निर्णय पर अटल रहा. ओवेन का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण योगदान बच्चों की शिक्षा का प्रबंध करना था. उसने शिशु पाठशालाओं की स्थापना की और सहकार का जन्मदाता होने के साथ-साथ वह शिशु शिक्षा कार्यक्रम का प्रवर्त्तक बना. पांच साल के बच्चों के लिए शिक्षा अनिवार्य करते हुए उसने एक क्रांति का शुभारंभ किया. यह सब ओवेन ने केवल अपनी आंतरिक प्रेरणा के आधार पर शुरू किया था; जिसका मजदूरवर्ग की ओर जोरदार स्वागत किया गया. ध्यान देने की बात है कि मजदूरों के लिए आवास-बस्तियों के निर्माण, अस्पताल, विश्रामालय, मनोरंजनगृहों तथा शिशु पाठशालाओं के निर्माण पर ओवेन का बहुत-सा धन खर्च हो रहा था. मजदूर कल्याण कार्यक्रमों पर उससे पहले इतना बड़ा निवेश किसी ने नहीं किया था. इसलिए प्रारंभ में लोगों को ओवेन का व्यवहार पागलपन जैसा लगा. विरोधी ओवेन का मजाक उड़ाते, अपने पूर्वाग्रह से भरे मस्तिष्क में उसके एक दिन दिवालिया होने के मंसूबे सजाते. किंतु समय के साथ-साथ लोगों को सब समझ में आने लगा. मजदूर कल्याण कार्यक्रमों में लाखों पाउंड खर्च कर देने के बावजूद ओवेन की फैक्ट्रियां लगातार मुनाफा उगल रही थीं, बल्कि उसके लाभ में निरंतर वृद्धि हो रही थी. साथ ही उसकी लोकप्रियता और प्रसिद्धि में भी निरंतर इजाफा हो रहा था. ओवेन की कुछ योजनाएं बेहद खर्चीली सिद्ध हुईं थीं. जिससे उसके हिस्सेदारों ने विरोध करना प्रारंभ कर दिया. साझीदार कारखाने को सामान्य तरीके से चलाना चाहते थे. उनसे तंग आकर ओवेन ने एक नई कंपनी की शुरुआत की, जिसमें उसने व्यवस्था की थी कि मुनाफे का बीसवां हिस्सा तयशुदा लोकहितैषी कार्यक्रमों पर खर्च किया जाएगा. जेरेमी बैंथम, विलियम एलेन नई कंपनी में ओवेन के साझेदार बने. ऐसे विचारकों के साथ मिल जाने से ओवेन के जनहितैषी कार्यक्रमों को व्यापक लोकप्रतिष्ठा मिलनी निश्चित ही थी. इस बीच में ओवेन वैचारिक रूप में भी परिपक्व हुआ था. बैंथम के विचारों से वह पहले ही प्रभावित था. अपने विचारों को अभिव्यक्ति देते हुए उसने एक लंबा लेख New View of Society, Or, Essays on the Principle of the Formation of the Human Character, and the Application of the Principle to Practice (1813-16) लिखा. कई किश्तों में लिखी गई उस लेखमाला में ओवेन के समाजवादी विचारों की झलक एकदम साफ थी. समाजवाद के प्रति ओवेन की आस्था आगे भी बढ़ती ही गई. बैंथम मुक्त बाजार-व्यवस्था का समर्थक था. उसका मानना था कि मजदूरों को यह अधिकार हो कि वे अपने लिए अपने पसंदीदा व्यापारी या उत्पादक को चुन सकें. उसपर किसी प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष दबाव नहीं होना चाहिए. तब तक ओवेन की ख्याति बहुत बढ़ चुकी थी. साथ में स्थानीय प्रशासन पर उसका प्रभाव भी. सुधार कार्यक्रमों का उद्योगपतियों की ओर से निरंतर होते विरोध से भी वह विचलित नहीं हुआ. उलटे उसने श्रमिक-अधिकारों के संरक्षण के लिए वैधानिक व्यवस्थाएं करने के अपने प्रयास तेज कर दिए. बालश्रमिकों के कार्य-घंटों को घटाने के लिए भी ओवेन ने भरपूर प्रयास किए. परंतु इस काम में केवल नाकामयाबी ही उसके हाथ लगी; क्योंकि तब तक यथास्थिति बनाए रखने के पक्षधर उद्योगपति और उनके समर्थक अधिकारीगण ओवेन के प्रखर विरोधी बन चुके थे. तब तक ओवेन की ख्याति ब्रिटेन की सीमाओं को लांघकर बाहर जा चुकी थी. श्रमिक कल्याण की वांछा रखने वाले देश, ओवेन के लोकहितैषी कार्यक्रमों का क्रियान्वयन अपने यहां करना चाहते थे. रूस, हालेंड, प्रशा के तत्कालीन शासकों ने ओवेन के परामर्श के अनुसार मजदूर सुधार-कार्यक्रम शुरू कर दिए थे. ओवेन के सुधार-कार्यक्रमों को मजदूर वर्ग की ओर से भरपूर समर्थन मिला था. उसके कारखानों का मुनाफा आश्चर्यजनक रूप से बढ़ा था. दूसरे उद्योगपति जो ओवेन के सुधार कार्यक्रमों को उसका आत्मघाती कदम बता रहे थे, ओवेन ने एक ही साल में साठ हजार पौंड कमाकर उनकी बोलती बंद कर दी. उसने दिखा दिया कि धनार्जन के लिए शोषण, बेईमानी अथवा गलाकाट प्रतियोगिता ही आवश्यक नहीं है. यदि दूरंदेशी से कार्य किया जाए तो सहयोग और पारस्परिक सहानुभूति से भी प्रगति के लक्ष्य की प्राप्ति संभव है. ओवेन धर्म के नाम पर थोपी जा रही जड़ मान्यताओं से भी क्षुब्ध था. उसका यह मानना था कि जीवन में धर्म का अतिरेक पूर्ण हस्तक्षेप मनुष्य को तार्किक निर्णय लेने से रोकता है. कि मजदूर वर्ग की दयनीय स्थिति का कारण वे रूढ़ियां भी हैं, जिन्हें वह धर्म के नाम पर पाले हुए है. इसलिए अपने लेखों में उसने धार्मिक मान्यताओं की जमकर आलोचना की थी. परिणाम यह हुआ कि पादरी और धर्मसत्ता पर असीन दूसरे प्रभावशाली लोग उसके विरुद्ध लामबंध होने लगे. अपने कल्याण कार्यक्रमों के कारण वह पूंजीपति वर्ग को पहले ही नाराज कर चुका था. इसलिए स्वार्थी उद्यमियों तथा धर्म के ठेकेदारों ने ओवेन के विरुद्ध अभियान की शुरुआत कर दी. प्रकारांतर में इससे ओवेन की प्रतिष्ठा को धक्का लगा. ओवन सही मायने में एक महान स्वप्नदृष्टा था. एक बेहतर दुनिया का सपना उसकी आंखों में सदैव झिलमिलाता रहता था. जीवन के प्रारंभिक वर्षों में ही धर्म के उसकी आस्था समाप्त हो चुकी थी. उसका मानना था कि स्वर्ग जैसी स्थितियां धरती से परे संभव ही नहीं है. बड़े लोग यदि थोड़े से त्याग और दूरदर्शिता से काम लें तो इस धरती को ही स्वर्ग समान बनाया जा सकता है. उसके सोच का आधार यह था कि मनुष्य अपना व्यक्तित्व स्वयं नहीं, अपितु स्वयं के लिए बनाता है यानी उसकी उपलब्धियों एवं व्यक्तित्व के निर्माण में किसी न किसी प्रकार दूसरों का भी योगदान होता है. अतः यह मनुष्य का कर्तव्य है कि बाकी लोगों के साथ पूरा-पूरा सहयोग करे ताकि अधिकतम लोगों का भला हो सके. स्वप्नदृष्टा होने के साथ वह संकल्पवान भी था. उसने अपनी आलोचना की परवाह किए बिना अपनी योजनाओं पर काम किया. मजदूर कल्याण के कार्यक्रमों के अतिरिक्त उसने बच्चों के लिए शिक्षा को अनिवार्य घोषित कर बाल शिक्षा संस्थानों का आदि प्रवत्र्तक होने का श्रेय लिया. समाज की बेहतरी के लिए उसने और भी अनेक प्रयोग किए; जिनमें पूंजी के साथ-साथ बहुमूल्य समय भी लगा. हालांकि विरोधियों के कारण ओवेन को यद्यपि अपेक्षित सफलता नहीं मिल सकी, मगर असफल रहकर भी उसने उन रास्तों का अन्वेषण किया जिस पर भविष्य की अनेक विकासगाथाएं लिखी जानी थी—और आगे जिनका अनुसरण पूरी दुनिया को करना था. सन् अठारह सौ पंद्रह में आर्थिक मंदी का दौर चला. ओवेन के लिए सुधार कार्यक्रमों को आगे चलाना कठिन हो गया. इसलिए उसको अपने कार्यक्रम कुछ दिनों के लिए स्थगित करने पड़े. तब तक ओवेन के व्यवस्था की खामियों से परिचित हो चुका था. उसे लग रहा था कि पूंजीवादी व्यवस्था और शोषण एक ही सिक्के के दो पहलू हैं. पूंजीवादी व्यवस्था के परवान चढ़ने के लिए जरूरी है कि समाज में असंतोष और दिशाहीनता हो. भूख, बेकारी, गरीबी और निरक्षरता जो आम आदमी को बेबस बनाते हों, एक कामयाब उद्योगपति के लिए मुनाफे का महल खड़ा करने में सहायक होते हैं. जनता की अज्ञानता और दिगभ्रमता पूंजीवाद के विस्तार के लिए उत्प्रेरक बन जाती हैं. उसको अपने समय की सामाजिक-आर्थिक विषमता देखकर उसके लिए जिम्मेदार व्यवस्था से ऊब और निराशा होने लगी थीं. उसे विश्वास हो चला था कि बेहतर कल के लिए व्यवस्था में आमूल परिवर्तन अत्यावश्यक है. इसलिए कि वर्तमान व्यवस्था पूंजी के केंद्रीयकरण और तज्जनित शोषण को बढ़ावा देने वाली है. ओवन की मनःस्थिति उसी के इन शब्दों से सहज उजागर हो जाती है— ‘मैं अपने लंबे जीवन में व्यापार, उत्पादन और वाणिज्य के विभिन्न वस्तुओं का अनुभव प्राप्त कर चुका हूं. मूझे पूरा विश्वास है कि इस स्वार्थपूर्ण व्यवस्था से किसी श्रेष्ठ चरित्र का निर्माण संभव नहीं है.’ यह उस संघर्षशील, स्वप्नदृष्टा, कर्मठ और दूरदृष्टा उद्यमी के विचार थे जो अपनी उद्यमशीलता का लोहा देश-विदेश में मनवा चुका था. वह भी अपने अद्वितीय सुधार-कार्यक्रमों के चलते, जिसमें उसने अपने धन और संसाधनों का व्यय किया था. जाहिर है कि पूंजीवादी व्यवस्था की समस्त खामियां ओवेन के सामने आ चुकी थीं. उसको विश्वास हो चला था कि जिस प्रगतिगामी समाज का बिंब उसकी आंखों में है, वह पूंजीवादी व्यवस्था के द्वारा अथवा उसके समर्थन से संभव ही नहीं है. जो व्यवस्था स्वयं शोषण एवं असामानता के ऊपर टिकी हो, वह शोषण-मुक्त और समानता पर आधारित सामाजिकता की वाहक नहीं हो सकती. उसका विश्वास था कि मनुष्य अपने पर्यावरण से प्रभावित होता है, अतः पर्यावरण के बदलाव के साथ उसके व्यक्तित्व में बदलाव भी संभव है. हालांकि उसके विचारों में कहीं-कहीं अंतर्विरोध भी देखने को मिलते हैं. पूंजी-पे्ररित वर्चस्ववाद की आलोचना करते हुए फ्रांसिसी विद्वान फ्यूरियर ने कहा था कि— ‘निर्धनता, सभ्यता के क्रम में मनुष्य की अंतहीन लालसाओं का दुष्परिणाम है.’ व्यापारिक मंदी के दौर से गुजरते हुए ओवेन द्वारा 1816 में की गई टिप्पणी उसकी पूंजीवादी मनोवृत्ति का प्रतीक है. उसने कहा था कि— ‘हमारा सर्वोत्तम ग्राहक युद्ध, अब समाप्त हो चुका है.’ ओवेन को तत्कालीन फैक्ट्री सिस्टम से घृणा थी. उसका मानना था कि इस उत्पादन व्यवस्था ने सामाजिक गैरजिम्मेदारी, विध्वंसक स्पर्धा एवं हृदयविहीन व्यक्तिवाद को जन्म दिया है. उसका विचार था कि सामाजिक तनाव का एक कारण मानवीय श्रम और मशीनों की अवांछित, अनियंत्रित स्पर्धा भी है. इसका हल यही है कि मनुष्य संगठित होकर मशीनों का सहयोग लेते हुए उत्पादन कार्य करे. इसलिए उसने अपने श्रमिकों जीवन-स्तर में सुधार लाने के लिए कई कदम उठाए. यही नहीं उच्च गुणवत्ता के महत्त्व को स्वीकारते हुए उसने उन कर्मचारियों को विशेष लाभ एवं प्रोत्साहन देने का काम प्रारंभ किया जो बेहतर गुणवत्ता का माल बनाने में निपुण थे. उसके कारखाने में प्रत्येक मशीन के बराबर में विभिन्न रंगों के घनाकार टुकड़े रख दिए जाते थे. घन के रंग से बन रहे माल की गुणवत्ता की कोटि निर्धारित की जाती थी. इससे कारीगर को अपने काम के स्तर का पता होता था. उसी के आधार पर प्रोत्साहन राशि का भुगतान किया जाता था. स्पष्ट है कि उस समय ओवेन के कारखानों में कार्य का स्तर और उसकी परिस्थितियां दूसरे कारखानों के अपेक्षा बेहतर, लगभग आदर्श अवस्था में थीं. पूंजीवादी व्यवस्था से मोहभंग के पश्चात ओवेन ने वर्गहीन और समानता पर आधारित समाज की स्थापना के लिए कुछ नए और तत्कालीन परिवेश में अनोखे कदम उठाए. ऐसे कदम जिनसे समाज के सपंन्न तथा समृद्धिशाली वर्ग की जिम्मेदारी सुनिश्चित होती हो. इस संबंध में ओवेन की विचारधारा बिल्कुल साफ एवं सरल थी. अपनी पहले निबंध—New View of Society, जो आगे चलकर पुस्तकाकार भी प्रकाशित हुआ, में अपनी योजना की ओर संकेत करते हुए लिखा था— ‘एक सरल, साधारण और पूर्णतः व्यावहारिक योजना, जिससे किसी व्यक्ति या समाज के किसी हिस्से को जरा भी नुकसान ना हो.’ ओवेन का विचार था कि लगभग बारह सौ व्यक्तियों की सामूहिक बस्तियां बसाई जानी चाहिए. हरेक बस्ती के पास चार से छह वर्ग किलोमीटर का परिक्षेत्र हो, जिसमें सामूहिक रसोई, भोजनालय एवं स्नानग्रह आदि की व्यवस्था हो. उनमें से प्रत्येक परिवार के पास आवास के लिए स्वतंत्र रूप से एक कमरा हो. तीन साल तक के बच्चे अपने माता-पिता के साथ रह सकते हैं. उससे बड़े बच्चों को समुदाय का सदस्य माना जाए. लेकिन परिपक्व होने तक माता-पिता उन्हें भोजन-वस्त्र आदि की देखभाल की जिम्मेदारी का निर्वाह कर सकते हैं. मगर उसका खर्च समुदाय द्वारा वहन किया जाए. इस तरह की बस्तियां व्यक्तिगत अथवा सामूहिक प्रयास से बसाई जा सकती हैं. जिम्मेदार पूंजीपति तथा राज्य सरकारें भी इस काम को कर सकते हैं. ओवेन ने इन बस्तियों को ‘सहकार के गांव’ की संज्ञा’ दी थी. इन गांवों में किसान बस्तियां भी शामिल थीं. कोई भी बेरोजगार व्यक्ति इन बस्तियों में जाकर अपनी योग्यतानुसार किसी भी उत्पादक कार्य से जुड़ सकता था. उसका विश्वास था कि भविष्य में ऐसी बस्तियों का तीव्रता से विकास होगा तथा कुछ ही वर्षो में ये पूरे ब्रिटेन में फैल जाएंगी. क्योंकि एक तो ये परस्पर संगठित श्रम (Cooperative Labor) पर आधारित हैं. दूसरे इनकी उत्पादकता पूंजीवादी फैक्ट्रियों की अपेक्षा अधिक है. इस योजना से ओवेन की निष्ठा झलकती थी. किंतु कालांतर में ओवेन का यह आकलन गलत सिद्ध हुआ. क्योंकि ‘सहकार ग्रामों’ की स्थापना के लिए जितने धन की आवश्यकता थी, वह न तो सरकार की ओर से प्राप्त हो सका था, न ही कोई उद्यमी संस्थान इस कार्य को विस्तार देने के लिए आगे आया. विडंबना यह रही कि श्रमिक नेता जो अपने वर्गीय हितों की देखभाल का दम भरते थे, उसके लिए आंदोलन और संघर्ष करने तक का जिनका दावा था, उन्होंने भी श्रमिक कल्याण की ओवेन की इस योजना को अधिक महत्ता नहीं दी. वे ओवेन के प्रयासों को संदेह की दृष्टि से ही देखते रहे. क्योंकि उनकी निगाह में ओवेन भी एक पूंजीपति ही था.

तो भी यह ओवेन की सफलता ही मानी जाएगी कि उसके द्वारा बसाई गई बस्तियां सहजीवन के आदर्श पर बसी थीं. जहां समस्त फैसलों तथा उत्पादन के साधनों पर सामूहिक अधिकार था. यह कम प्रशंसनीय नहीं है कि सहजीवन के आधार पर ओवेन द्वारा बसाई गई बस्तियों की संख्या 2500 तक जा पहुंची थी, जिनमें पुलिस, न्यायालय, कानूनी विवाद, जुआ तथा अन्य कुरीतियों के लिए कोई स्थान नहीं था. शिशुओं के लिए नियमित पाठशालाएं थीं, जहां उनकी शिक्षा की निःशुल्क व्यवस्था थी. मुफ्त औषधालय, विश्रामकेंद्र आदि बनाए गए थे. हीगेल के द्वंद्ववाद के सिद्धांत के आधार पर समाज की समस्याओं का हल ढूंढने वाले कार्ल मार्क्स आदि समाजवादियों ने हालांकि ओवेन की योजनाओं से असहमत थे. उन्होंने उसकी आलोचना की थी, किंतु उन्हीं के सहयोगी फ्रैडरिक ऐंग्लस ने अपने एक लेख में ओवेन के प्रयासों के क्रांतिकारी परिणाम की सराहना करते हुए लिखा है, कि— ‘ओवेन के प्रतिस्पर्धी कारखानों के कामगार को दिन-भर में जहां तेरह से चैदह घंटे काम करना पड़ता था, वहीं न्यू लैनार्क में ओवेन के कारखाने के मजदूर आधे घंटे के भोजनावकाश सहित मात्र साढे़ दस घंटे काम करते थे. यहां तक कि जब कपास की अनुपलब्ध्ता के कारण जब कारखाने को चार महीनों तक बंद रखना पड़ा, तब भी ओवेन ने अपने मजदूरों को उस अवधि के वेतन का भुगतान किया था.’ यह घटना 1806 की है, अपने इस कदम के कारण ओवेन को लगभग सात हजार पाउंड बिना किसी उत्पादन के खर्च करने पड़े थे. सहजीवन पर आधारित आदर्श बस्तियों की स्थापना के कारण न्यू लेनार्क की ख्याति पूरी दुनिया में फैल चुकी थी. उस समय ओवेन अपने समय के सर्वाधिक चर्चित व्यक्तियों में से था. पूरी दुनिया में उसके प्रयोगों की चर्चा हो रही थी. उसकी ख्याति का अनुमान मात्र इस उदाहरण से लगाया जा सकता है कि सन 1805 से लेकर 1815 तक मात्र एक दशक में न्यू लेनार्क में, वहां की स्थिति और सामाजिक-आर्थिक बदलावों का अध्ययन करने के लिए, लगभग पंद्रह हजार सैलानी, पर्यवेक्षक पहुंचे थे. समाचारपत्र पत्रिकाओं में वहां के विशिष्ट अध्ययन पर लेख छापे गए थे, जिनमें ओवेन के प्रयासों की मुक्तकंठ से सराहना की गई थी. बावजूद इसके ओवेन को अंततः निराशा ही हाथ लगी. इसमें हालांकि कुछ भौगोलिक परिस्थितियां भी सम्मिलित थीं. इसका पहला कारण तो यह कि न्यू लेनार्क में भाप ऊर्जा के स्थान पर जलऊर्जा का उपयोग किया जाता था, जो कतिपय पुरानी तकनीक थी. जिसमें मजदूरों को अधिक परिश्रम करना पड़ता था. हालांकि रोजी-रोटी की तलाश में बाहर से आए कारीगर इतनी जल्दी हताश होने वाले नहीं थे, फिर भी उनमें से कुछ को आधुनिक तकनीक ललचाने लगी थी. जिससे वे भाप ऊर्जा से चलने वाली मशीनों पर कार्य करने को वरीयता देने लगे थे. संक्षेप में हम कह सकते हैं कि न्यू लेनाॅर्क जैसे किसी समय में कपड़ा उद्योग में दुनिया-भर में नाम कमा चुके स्थान पर तकनीक के पिछड़ेपन ने भी लोगों को उस ओर से उदासीन बनाया था— इन सब खूबियों-कमजोरियों के कारण न्यू लेनार्क समाजवादी व्यवस्था का आदर्श मा॓डल नहीं बन पाया. इसलिए कि मामूली लोकतांत्रिक छोंक के साथ उसपर ओवेन तथा उसके अन्य साझेदारों का सम्मिलित स्वामित्व था. यद्यपि ओवेन ने कुछ मानवीय कदम उठाए थे, बावजूद इसके एक आम उद्यमी की भांति उसके मन में भी लाभ की कामना थी. साथ ही उद्योगों पर व्यक्तिगत स्वामित्व बना हुआ था. इसलिए न्यू लेनार्क की असफलता को समाजवादी मा॓डल की असफलता नहीं माना जा सकता. दरअसल इसका कारण ओवेन का पित्रसत्तावादी मानवबोध था. एक ओर तो वह बदलाव चाहता था और दूसरी और लाभ की वांछा भी रखता था और उद्योगों पर अपना अधिकार बनाए रखना चाहता था, जो समाजवादी आदर्श के विपरीत थी. एक और कारण यह भी रहा कि न्यू लेनार्क में कार्य करने वाले मजदूर भिन्न-भिन्न पृष्ठभूमियों से आए थे. उनकी संस्कृति और विचारधारा अलग-अलग थीं, मजदूरों का एक वर्ग स्का॓टिश मूल के केल्विनवादियों का था, जिसका झुकाव अनुशासन, निर्दोष श्रम तथा आत्मपरिष्कार की ओर था. न्यू लेनार्क में ओवेन को अंततः असफलता का सामना करना पड़ा. लेकिन यह अकेले ओवेन की या उसके विचारों की असफलता नहीं थी. बल्कि यह ओवेन के उस विश्वास की हार थी, जिसके आधार पर वह यह सोच बैठा था कि उसकी तरह ही बाकी उद्यमी भी आवश्यकता पड़ने पर आगे आएंगे. उसके बाद सहजीवन पर आधारित बस्तियों बसाने की गति तीव्र होने और समय नहीं लगेगा.

अमेरिका में सहकार बस्तियों की स्थापना न्यू लेनार्क पर ओवेन का प्रभाव घटता जा रहा था. उसके हिस्सेदार भी छोड़कर जा चुके थे. किंतु नैतिकता और सहजीवन के प्रति ओवेन का विश्वास कम नहीं हुआ था. उसकी निगाह अब यूरोप से बाहर के देशों पर लगी थी. इसी बीच ओवेन की ख्याति अमेरिका पहुंची और वहां न्यू हा॓रमनी जाने के लिए ओवेन को अमेरिका का निमंत्रण प्राप्त हुआ. ओवेन ने न्यू लेनार्क छोड़ने का फैसला कर लिया. इस फैसले के पीछे इंग्लैंडवासियों की नए प्रयोगों के प्रति उदासीनता भी थी. यूं तो सहजीवन पर आधारित बस्तियां बसाने के लिए स्का॓टलैंड, आयरलैंड आदि प्रांतों से भी प्रस्ताव आए थे, मगर ओवेन को वहां की परिस्थितियों में कोई अंतर नजर नहीं आया. 1824 में ओवेन अटलांटिक महासागर पार करके हारमनी(Harmony) पहुंचा. वहां उसका जोरदार स्वागत किया गया. 1825 में न्यू लेनार्क के प्रयोगों को आगे बढ़ाने के लिए उसने तीस हजार पाउंड में न्यू हारमानी, इंडियाना नामक स्थान पर कई एकड़ जमीन खरीदी. जहां उसने न्यू लेना॓र्क के प्रयोगों को आगे बढ़ाने के ध्येय से एक नई बस्ती की स्थापना की. कुछ ही महीनों में न्यू हा॓रमनी की ख्याति दुनिया-भर में फैल गई. वहां मिली सफलता से उत्साहित होकर ओवेन ने ओरिबिस्टन(Oribiston) नामक स्थान पर वैसी ही एक और बस्ती की आधारशिला रखी. प्रारंभिक सफलताओं से उत्साहित होकर ओवेन ने कुछ अन्य स्थानों पर भी बस्तियां बसाईं. उनके नाम हैं क्वीन वुड(Queen Wood) रैलटाइन (Ralatine) आदि. वे सभी बस्तियां सहजीवन के सिद्धांत के आधार पर बसाई गई थीं. पहले की भांति इन बस्तियों के माध्यम से भी, ओवेन का सपना शोषण एवं वर्ग-मुक्त समाज की स्थापना करना था. वह ऐसे समाज की कल्पना करता था जहां सभी पारस्परिकता पर आधारित जीवन-यापन करें. एक बस्ती में 300 से 2000 तक सदस्य हों, जिनके पास एक हजार एकड़ से लेकर 1500 एकड़ तक कृषि-योग्य जमीन हो. बस्ती के सदस्यों के आवास को छोड़कर रसोईघर, भोजनालय, सभा भवन, स्कूल, पुस्तकालय, आटा चक्की, कारखाने आदि सामूहिक हों और इनके लिए एक समचतुर्भुज के आकार की विशाल इमारत हो. ओवेन का सोचना था कि इस प्रकार की व्यवस्था से जीवन में धन की महत्ता घटेगी—जो मनुष्य में संग्रह की आदत के पनपने का प्रमुख कारण है. सन 1825 से 1829 तक ओवेन के सिद्धांत के आधार पर बसाई गई कुल सोलह बस्तियों में न्यू हा॓रमनी सबसे पहली और प्रसिद्ध थी. लेकिन क्षेत्रीय परिस्थितियों के कारण बस्तियों को चलाने में समस्याएं आने लगीं. दरअसल न्यू हारॅमनी जैसे छोटे से प्रांत में एक साथ अनेक वर्गों के लोग रहते थे. उन सबकी अलग समस्याएं थीं. इसलिए न्यू हारमनी का प्रयोग अधिक लंबा न खिंच सका. अमेरिका में ओवेन के प्रयोगों को पहली ठेस उस समय मिली जब उसका एक अमेरिकी साझेदार अपनी पूंजी सहित ओवेन से अलग हो गया. उल्लेखनीय है कि इन सभी कार्यों में ओवेन की ढेर सारी पूंजी लगी थी; जिससे उसका व्यवसाय बुरी तरह प्रभावित हुआ था. उसकी कुल पूंजी का तीन-चौथाई हिस्सा न्यू हा॓रमनी नामक बस्ती की बसाने में पहले ही खर्च हो चुका था. ओवेन का मानना था कि सहजीवन पर आधारित व्यवस्था की सफलता उसके प्रयासों की व्यापकता में ही संभव है. अकेले व्यक्ति की सीमाएं होती हैं. अतः ऐसे प्रयासों की सफलता के लिए समाज के दूसरे लोगों को भी आगे आना होगा. सरकार भी तो सबसे अधिक जिम्मेदारी है ही. यही सोचते हुए उसने सरकार से भी मदद मांगी थी. मामला संसद-पटल पर भी रखा गया. मगर अव्यावहारिक मानते हुए उस प्रस्ताव को अस्वीकृत कर दिया गया. ओवेन द्वारा बसाई गई बस्तियों की खासियत थी कि वहां का जीवन सामूहिक एवं सहयोग पर आधारित था. पूरी बस्ती एक बृहद परिवार के समान थी; जिसके सदस्यों के सुख और दुख साझे थे. महत्त्वाकांक्षाओं में बराबरी थी. यहां तक कि उनके सपनों और संकल्पों पर भी सामूहिकता का प्रभाव था. ओवेन की स्पष्ट धारणा थी कि आदर्शोंन्मुखी समाज में सामाजिक संबंधों का आधार लाभ के स्थान पर सेवा होना चाहिए. वहां के कार्य व्यापार में पारदर्शिता एवं समसहभागिता हो, तभी शोषण से मुक्ति संभव है. ओवेन उन बस्तियों को सहजीवन के आदर्श के रूप में स्थापित करना चाहता था. ओवेन समर्थक समाजवादियों के समूह गान में सहजीवन के आदर्शों की झलक सहज ही देखी जा सकती है. यह गीत ओवेन द्वारा स्थापित बस्तियों में बड़े ही मनोयोग से गाया जाता था— ‘भाइयो उठो! अतुलनीय प्रेम से सराबोर और परमसत्य से आभासित दिन के दर्शन करो. उठकर देखो, मनुष्यता प्रतिस्पर्धा के स्थान पर सामुदायिक जीवन का आनंद और आशीर्वाद लेने के लिए उत्सुक है. अब न्याय की जीत होगी. ताकतवर के दमन का अंत होगा, सार्वत्रिक आनंद ही आनंद होगा.’ बीस वर्ष तक लगातार वह सामूहिक जीवन की सफलता के लिए काम करता रहा. मगर धीरे-धीरे असफलता साफ नजर आने लगी, कारण कि इन बस्तियों में बसने पहुंचे लोगों में अधिकांश लोग ऐसे थे जिन्हें ओवेन के सिद्धांतों में कोई दिलचस्पी नहीं थी. उनसे बहुत तो अपराधी मनोवृत्ति के थे और सुरक्षित ठिकाने की खोज उन्हें उन बस्तियों तक ले गई थी. नाकारा और कामचोर किस्म के लोगों को सिर छिपाने के लिए ओवेन द्वारा बसाई गई बस्तियां बहुत अनुकूल थीं. दूसरी समस्या वहां पर समर्पित कार्यकर्ताओं की थी. उन बस्तियों के कुशल संचालन के लिए जिस प्रकार के स्वयं सेवकों की आवश्यकता थी, उनका वहां सरासर अभाव थे. हालांकि बस्तियों में आने वाले कुछ लोग सचमुच ही ओवेन के विचारों को समर्पित होकर वहां पहुंचे थे. मगर अधिकांश केवल शौकिया, वक्त बिताने के लिए वहां चले आते थे. न्यू हारमनी के कुछ सदस्य लोकतांत्रिक परंपरा से निकलकर आए थे, और व्यवस्था में खुलापन लाना चाहते थे. उन्हें ओवेन का एकाधिकार स्वीकार नहीं था. ध्यातव्य है कि उन बस्तियों में ओवेन की स्थिति परिवार के उस वुजुर्ग के समान थी, जिसे परिवार के बाकी सदस्य उपेक्षित करने लगते हैं. परिणाम यह हुआ कि ओवेन द्वारा बसाई गई बस्तियों में समस्याएं आने लगीं. जा॓न कर्ल के शब्दों में— ‘बस्ती (न्यू हा॓रमनी) का गठन उसके सदस्यों के उतावलेपन के साथ हुआ था. इसके कारण एक तरह से वे अपने पतन की घोषणा कर ही चुके थे. शायद उनका आपस में मिलना ही दुर्भाग्यपूर्ण था. वास्तव में सहकारिता के आधर पर गठित वह समूह उसकी भावना से कोसों दूर था. नौ सौ से अधिक लोगों के उस समूह का सबसे बड़ा दुर्भाग्य तो यही था कि सहजीवन की शुरुआत करने से वे एक-दूसरे को जानते तक नहीं थे. उनमें जगह-जगह से, विभिन्न पेशों, परिवेश से आए तरह-तरह के लोग सम्मिलित थे, जिनमें कामकाजी परिवार, मध्यवर्गी बुद्धिजीवी तथा स्वयं को प्रगतिशील कहने वाले घुम्मकड़ किस्म के बुद्धिजीवी आदि सम्मिलित थे. सामूहिक बस्तियों का गठन भारी अनुभवहीनता का शिकार था. जिसका परिणाम उनमें लड़ाई-झगड़े और कलहबाजी के रूप में देखने को मिला. विभिन्न पृष्ठभूमियों, जातियों से संबद्ध लोगों ने आपस में लड़-झगड़कर अपने लिए दूसरों के मन में वैमनस्य की भावना भर दी थी, जिसका निदान असंभव था. उनके आपसी मनमुटाव इतने बढ़ चुके थे कि अंत में जब सामूहिक बस्तियों का प्रयोग असफल होने की घोषणा हुई और लोग वापस लौटने लगे, तो भी उनके पारस्परिक झगड़े लंबे समय तक चलते रहे. अंततः जमीन का बंटवारा कर, न्यू हा॓रमनी के निवासी अनेक सहकार बस्तियों, परिवारों में बंट गए.’ न्यू हा॓रमनी का प्रयोग असफल होने के पश्चात ओवेन ने मैक्सिको में नए सिरे से फिर कोशिश की. वहां गरीबी अनुपात अधिक होने के कारण उसको सफलता की आस अधिक थी. लेकिन आशा के विपरीत मैक्सिको में उसका सामना परंपरावादी चर्च से हुआ, जिसका वहां की गरीब जनता पर अत्यधिक प्रभाव था. परिणाम यह हुआ कि ओवेन अमेरिका से ऊबने लगा. सन 1828 में वह वापस इंग्लैंड के लिए रवाना हो गया. लेकिन तब तक इंग्लैंड की परिस्थितियां भी बदल चुकी थीं. समाजवादी विचारधारा तेजी से अपनी पकड़ बना रही थी. विलियम थामसन जैसे बुद्धिजीवी लोकतांत्रिक समाजवाद की नई व्याख्याएं गढ़ रहे थे. सहकारिता पर नए प्रयोगों का सिलसिला प्रारंभ हो चुका था. मजदूरों के संगठन बनने लगे थे. समाजवादी विचाधारा को आधार मानकर नए-नए उभरे चार्टिस्ट आंदोलनकारी संघर्ष के रास्ते सत्ता की सीढ़ियां चढ़ने का मन बना चुके थे. उन्होंने एक के बाद एक तीन बड़ी हड़तालें करके सरकार के सामने मुश्किलें खड़ी कर दी थीं. जिससे उन्हें लग रहा था कि वे शीघ्र ही सत्ता पर सवार होकर बहुत आसानी से बदलाव के लक्ष्य को प्राप्त कर सकेंगे. ओवेन द्वारा बसाई गई बस्तियों का लगातार अवसान हो रहा था. ध्यातव्य है कि ओवेन द्वारा आदर्शोन्मुखी समाज की यह संकल्पना नई या अनोखी नहीं थी. ना ही वैसा सपना देखने वाला वह अकेला बुद्धिजीवी-विचारक था. बल्कि इस तरह की आदर्शोन्मुखी समाज की संकल्पना उससे करीब साढ़े बाइस सौ वर्ष पहले प्लेटो भी कर चुका था. जा॓न का॓ल्विन, था॓मस मूर, रूसो आदि ने भी आदर्श समाज को लेकर कुछ इसी प्रकार की साधु-संकल्पनाएं की थीं. ओवेन यदि अपने पूर्ववर्ती विचारकों से हटकर और बढ़कर था तो इस कारण कि वह कोरा सिद्धांतकार नहीं था, बल्कि विचारों को मूर्त रूप देने वाला सच्चा एवं संकल्पधर्मी इंसान था. इस तरह कुछ मामलों में वह मौलिक भी था. उसने न केवल वर्गहीन और समानता पर आधारित समाज का सपना देखा, साथ ही अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए उसने अनेक सफल प्रयोग भी किए थे. यह बात अलग है कि सुधार कार्यक्रमों में उसे जो कामयाबी प्रारंभ में मिली, वह बाद में लगातार घटती चली गई. क्योंकि जिस समाज का सपना ओवेन की आंखों में बस्ता था, तत्कालीन परिस्थितियां उसके विपरीत थीं. बावजूद इसके ओवेन की सफलताओं को नजरंदाज कर पाना मुश्किल है. ओवेन पूंजीवादी अर्थव्यवस्था का विरोधी था. ओवेन के प्रयोग की खिल्ली उड़ाई गई. उसे अर्धविक्षिप्त और सनकी कहकर उपहास का पात्र बनाया गया. ओवेन को हालांकि समाजवाद का समर्थक माना जाता है. यह भी माना जाता है कि समाजवादी(Socialist) शब्द का पहला प्रयोग उसी ने किया था. वह कुशल लेखक था, अपने विचारों को जनमानस तक पहुंचाने के लिए उसने Cooperative Magazine शीर्षक से एक पत्रिका भी निकाली. लेकिन मार्क्सवादी विचारक ओवेन के सारे अभियान को संदेह की दृष्टि से देखते हैं. स्वयं फ्रैड्रिक ऐंग्लस ने ओवेन की नीयत पर संदेह करते हुए उसे एक तरह से छद्म समाजवादी स्वीकार किया है. ऐंग्लस के अनुसार— ‘मजदूरों के प्रति ओवेन का प्यार ऊपरी यानी केवल दिखावा था, जो मानवीय संवेदनाओं से कोसों दूर था. प्रमाण के लिए ऎंग्लस ने एक ओवेन की एक उक्ति का उल्लेख अपने लेख में किया है, जिससे ओवेन का दंभ झलकता है. ‘लोग मेरी दया पर जीनेवाले, मेरे दास हैं.’ ओवेन ने बड़ी बुद्धिमत्तापूर्वक, कहा जाए कि व्यावसायिक कुशलता का परिचय देते हुए मजदूरों को कुछ सुविधाएं दी थीं. उसे बदले में जो प्राप्ति हुई, वह किए गए खर्च से कई गुना थी. इस बात को ओवेन के साहित्य से ही उदाहरण लेकर फैड्रिक ऐंग्लस समझाते हैं कि— ‘ओवेन की फैक्ट्रियों में काम करनेवाले मात्र ढाई हजार मजदूर इतना मुनाफा कमाकर दे रहे थे कि जिसे कमाने के लिए आधी शताब्दी से भी कम समय पहले, लगभग छह लाख मजदूरों-दक्ष कामगारों की आवश्यकता पड़ती थी. पूंजी के इस ठहराव पर मैंने एक दिन स्वयं से ही प्रश्न कि, विकास की विडंबना देखिए कि जो धन पहले छह लाख लोगों में बंटता था, वह अब केवल केवल ढाई हजार में बांटना पड़ता है.’ इससे यह भी लगता है कि ओवेन सबसे पहले एक उद्यमी था, कूटनीतिक उद्यमी, जो येन-केन-प्रकारेण अपना ही हित देखता है. उसने जो व्यवस्था न्यू लैनार्क तथा आगे चलकर न्यू हारमनी जैसी बस्तियों के रूप में की उसका अंतिम उद्देश्य मालिकों को लाभ पहुंचाना था. फ्रैड्रिक ऐंग्लस इसे व्यावहारिक साम्यवाद की संज्ञा देता है. यही कारण था जिससे ओवेन अपने साझीदारों पर साथ में बने रहने के लिए कोई नैतिक दबाव नहीं डाल सका. न्यू हा॓रमनी की असफलता का प्रमुख कारण व्यक्तिगत अस्मिताबोध तथा निजी संपत्ति का अभाव था. जोसीह वारेन (Josiah Warren), जो न्यू हा॓रमनी में एक सदस्य के रूप में रह चुका था, उसके असफल होने पर लिखता है किः ‘वहां एक छोटे-से स्थान पर पूरी दुनिया बसी थी….मगर ऐसा लगता है कि प्रकृति का भी अपना एक कानून है जो हमें एक दूसरे से भिन्न बने रहने को उकसाती है, उसी ने हम पर जीत हासिल कर ली थी. हमारे हमारे संगठित हित, सदस्यों के अलग-अलग व्यक्तित्व, परिस्थितियों एवं सदस्यों की निजी अस्मिताबोध कायम रखने की स्वाभाविक इच्छा के सीधे निशाने पर थे.’ न्यू हारमनी से इंग्लेंड लौटने के बाद ओवेन नए सिरे से अपनी योजनाओं को साकार करने में जुट गया. सामाजिक, आर्थिक परिवर्तन की चाह में वह नए-नए प्रयास करता रहा. न्यू हाॅरमनी में मिली अप्रत्याशित नाकामी ने ओवेन को अपनी विचारधारा और अब तक के कार्यकलापों पर पुनर्विचार करने के लिए बाध्य भी किया था. अब वह सच्चे मायनों में समाजवाद के सिद्धांत को जीवन और समाज में स्थापित करना चाहता था. इसी दिशा में अपने प्रयासों को आगे बढ़ाते हुए ओवेन ने 1832 में श्रम सुधार के कार्यक्रमों को आगे बढ़ाते हुए राष्ट्रीय साम्यिक श्रम विनियम(National Equilable Labour Exchange) की स्थापना की थी. इसके मूल में ओवेन की मान्यता थी कि वस्तुओं के विनिमय की दर उनके निर्माण में लगे श्रम के अनुपात में होनी चाहिए. लाभ को वह चोरी के समान मानता था, उसका मानना था कि मुद्रा-विनिमय के माध्यम से लाभ की इच्छा पर अंकुश लगा पाना संभव नहीं है. नई व्यवस्था में वस्तुओं का विनिमय, उनके निर्माण में लगे श्रम के आधार पर करने का सुझाव दिया गया था. उस व्यवस्था का उद्देश्य उत्पादक और उपभोक्ता के बीच से बिचैलियों की संभावना को कम करना था. राष्ट्रीय साम्यिक श्रम विनियम की शुरुआत लंदन में हुई थी. इसके प्रारंभ में ही 840 सदस्य थे. प्रारंभिक दौर में ओवेन को उत्साहजनक सफलता मिली; जिससे उसकी शाखाएं जगह-जगह खुलने लगी. इसके सदस्य स्वनिर्मित वस्तुओं को लाते थे. उनके निर्माण में लगे श्रम के अनुसार उन्हें लिखित श्रम मुद्रा(Labour note) प्राप्त होती थी. इस मुद्रा के आधार पर वे उन वस्तुओं को खरीद सकते थे, जिनके निर्माण में उन श्रम मुद्राओं के बराबर मूल्य का श्रम लगा हो. सहकारिता के क्षेत्र में यह पहला महान प्रयोग था. यह बात अलग है कि कुछेक कमियों के ओवेन का यह प्रयोग भी बहुत सफल न हो सका. इसका एक कारण सदस्यों में सहकार-भावना का अभाव भी था. दूसरे लाभार्जन से अधिक लाभार्जन की मनोवृत्ति हानिकारक सिद्ध हुई. ओवेन ने अपनी संस्था में लाभार्जन पर अंकुश लगाने का प्रयास तो किया था; किंतु लाभ कमाने की मनोवृत्ति को बदलने में वह नाकामयाब ही रहा था. संभवतः वह लोगों की चारित्रिक दुर्बलताओं से पूरी तरह परिचित नहीं था और शेष दुनिया को अपनी ही तरह भला और दयावान समझता था. यह भी देखा गया था कि लाभ कमाने के लालच में सदस्यगण फालतू सामान उठा लाते; उसमें लगे श्रम को बढ़ा-चढ़ाकर बताते थे. साथ ही कुछ ऐसी भी चीजें बिकने को आ जाती थीं, जिनका कोई खरीदार ही होता था. दूसरी ओर महत्त्वपूर्ण और उपयोगी वस्तुओं पर बाहरी व्यापारियों की नजर लगी रहती थी. दरअसल व्यापारीवर्ग प्रारंभ से ही ओवेन का दुश्मन बना था. वह चाहता ही नहीं था कि ओवेन के बहाने से सहकारिता के प्रयोगों को कामयाबी मिले. इसलिए व्यापारी संस्था के सदस्यों के माध्यम से उपयोगी वस्तुओं को ऊंची बोली पर खरीद लेते थे. परिणामतः संस्था के भंडारों में अनावश्यक चीजों की भरमार होने लगी. काम की वस्तुएं उपलब्ध न होने के कारण जरूरतमंद लोगों के भीतर आक्रोश उमड़ना स्वाभाविक ही था; अतः धीरे-धीरे असंतोष पनपने लगा. यहां तक कि विनिमय केंद्रों पर तोड़-फोड़ एवं लूटमार की घटनाएं भी हुईं; जिससे उस संस्था को अंततः समाप्त कर देना पड़ा. ओवेन को विश्वास था कि पूंजीवाद का मुकाबला संगठित मजदूर आंदोलनों के माध्यम से किया जा सकता है. इसलिए वह शुरू से ही श्रमिकों के कल्याण के प्रति समर्पित रहा था. मजदूर आंदोलन को गतिशीलता प्रदान करने के लिए ओवेन ने ‘राष्ट्रीय समेकित मजदूर महासभा’ (The Grand National Consolidated Trade Union) का गठन किया. बाकी प्रयासों के समान ओवेन को उसमें भी प्रारंभिक सफलता तो मिली. मगर तब तक वह अपने अनेक आलोचक एवं विरोधी पैदा कर चुका था. वे सभी उसको असफल देखना चाहते थे. अपने इस संगठन को चलाने के लिए ओवेन ने सरकारी मदद भी मांगी; किंतु पूंजीपतियों के दबाव के कारण सरकार चुप्पी साधे रही. ओवेन को लग रहा था कि लोगों में सहजीवन के प्रति चेतना का अभाव भी उसके प्रयोगों की असफलता का कारण है. इसलिए 1840 में उसके मन में अपने सहजीवन को लेकर अपनी मान्यताओं को शिक्षा के माध्यम से प्रचारित करने का निर्णय लिया. उस समय वह हैंपशायर की यात्रा पर था. अपने प्रयोगों को मूर्त रूप देने के लिए उसके पास पर्याप्त पूंजी का अभाव था. अतः उसने अपने पूंजीपति मित्रों से पूंजी का प्रबंध करके सहकार बस्ती की स्थापना की. उस प्रयास में भी ओवेन को पर्याप्त सफलता नहीं मिल पाई. लगभग पांच सौ सदस्यों की क्षमता वाली बस्ती के सदस्यों की संख्या कभी भी सौ का आंकड़ा पार नहीं कर सकी. 1841 में सामुदायिक जीवन के बारे में लोगों को जागरूक करने के लिए उसने ‘नार्मल स्कूल’ की स्थापना की, जिसमें सहजीवन के बारे में विशेष अध्ययन की व्यवस्था की गई थी. इन प्रयासों के दौरान उसका बहुत-सा धन खर्च हो चुका था. ओवेन को सरकार और मित्रों से सहयोग की आस थी. किंतु इस बार कोई मदद के लिए आगे नहीं आया. तब तक ओवेन की आयु भी काफी हो चुकी थी और वह बहुत अधिक श्रम करने की स्थिति में भी नहीं था. ओवेन के अन्य प्रयासों की भांति अंततः ‘राष्ट्रीय समेकित मजदूर महासभा’ भी बिखराव का शिकार होकर रह गई. अपने प्रयोगों के अंतिम चरण के रूप में ओवेन ने स्वयं भी एक समिति का गठन किया था. डेविड रिकार्डों, जो अपने समय का प्रसिद्ध अर्थशास्त्री था, वह भी ओवेन द्वारा गठित की गई समिति का सदस्य था. समिति के माध्यम से वह कल्याणकारी कार्यक्रमों को आगे बढ़ाना चाहता था, परंतु तब तक शायद बहुत देर हो चुकी थी. ओवेन द्वारा बनाई गई समिति बहुत कारगर तो नहीं हो सकी, परंतु उसने उसको सहकारिता के जनक के रूप में स्थापित अवश्य कर दिया. ओवेन के प्रयासों को असफलता के लिए उसे दोष देने से पहले हमें याद रखना चाहिए कि ओवेन ने सारे कदम अंतःप्रेरणा के आधार पर उठाए थे और द्धवह उन विचारों को आंदोलन का रूप देना चाह रहा था; जो उससे पहले केवल पुस्तकों तक सीमित थे. उसकी असफलताएं अनुभव के दौर में जन्मीं, और वे कदाचित परिस्थितिजन्य भी थीं. एक तो यह कि उस समय तक लोगों में सामूहिक जीवन के प्रति चेतना का अभाव था. दूसरे ओवेन के विरोधी उसकी योजनाओं को असफल बनाने के लिए लगातार प्रयत्नरत थे. तीसरी और सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण बात यह भी है कि सामाजिक परिवर्तनों की गति उतनी तीव्र नहीं होती. आज से डेढ़ सौ वर्ष पहले कम से कम उतनी तीव्र तो बिलकुल नहीं थी; जितनी कि ओवेन चाहता था अथवा जैसी कोशिशें वह कर रहा था. इसके बावजूद ओवेन के विचारों को कामयाबी मिली थी. वैसे भी किसी भी परिवर्तन को परंपराओं से संघर्ष करते हुए समय की सुदीर्घ कसौटी पर अपनी प्रासंगिकता दर्शानी पड़ती है. कुछ ही समयांतराल के पश्चात ओवेन के विचारों की सार्थकता सामने आने लगी थी. इजरायल के किबुट्स(Kibutze) नामक स्थान पर ओवेन का सपना खूब फलीभूत हुआ. रूस में टा॓लसटाय, भारत में महात्मा गांधी और विनोबा भावे ने भी सामूहिक जीवन को सामाजिक परिवर्तन के एक अनिवार्य उपक्रम की तरह इस्तेमाल किया. गांधी तो भारत के अलावा दक्षिण में भी अपने प्रयोगों को कामयाबी के साथ आजमा चुके थे. ओवेन को अपेक्षित कामयाबी अपने प्रयासों में नहीं मिली थी. इसके बावजूद उसकी ख्याति दुनिया-भर में फैली थी. उदारचेता और परिवर्तन के पक्षधर लोग अपनी-अपनी तरह से ओवेन के विचारों को आगे ले जाने में लगे थे. एक उद्यमी होने के बावजूद उसकी पहचान एक विचारक और दूरदृष्टा समाजकर्मी के रूप में बन चुकी थी. एक अच्छा पत्राकार होने के साथ-साथ वह बेहतर लेखक भी था. ओवेन की प्रेरणा से ही वार्षिक सहकारी अधिवेशन की शुरुआत हुई; जो 1831 से 1835 तक हर वर्ष होता रहा. उसके कारण सहकारिता के विचार को व्यापक प्रसिद्धि मिली. आने वाले वर्षों में पूरी दुनिया पर छा जाने वाले शब्द Socialism का सर्वप्रथम प्रयोग भी ओवेन द्वारा Association of all Classes of all Nations की बैठक के दौरान किया गया. ओवेन की प्रेरणा से ही सहकारिता के क्षेत्र में सबसे ठोस काम सन 1930 में हुआ, जब विलियम कूपर और उसके सहयोगियों द्वारा पहली सहकारी समिति रोशडेल फ्रैंडली को-आ॓परेटिव सोसाइटी (Rochdale Friendly Co-operative Society) का गठन किया गया. इस समिति को उपभोक्ता भंडारों की शुरुआत करने का श्रेय भी जाता है. समिति के अधिकांश सदस्य श्रमिक थे. रोशडेल फ्रैंडली का॓आपरेटिव सोसायटी के आधार सिद्धांत, यद्यपि ओवेन के विचारों तथा उसके द्वारा गठित की गई समितियों के सिद्धांतों से भिन्न थे और वे सांगठनिकता को स्थायित्व देने के लिए अपनाए गए थे. परंतु उनसे सहकार को विश्वव्यापी ख्याति मिली. ओवेन आजीवन नास्तिक रहा. परंतु जीवन के अंतिम वर्षों में किसी अज्ञात प्रेरणा से उसका झुकाव अध्यात्म के प्रति हो गया था. आजीवन कर्मशील रहे ओवेन ने 87 वर्ष का सार्थक और संघर्षमय जीवन जिया. प्रथम भारतीय स्वाधीनता संग्राम की शुरुआत के अगले ही वर्ष अर्थात 17 नवंबर 1858 को, उसी कस्बे में जहां उसका जन्म हुआ था, इस उदार हृदय, ईमानदार, सज्जन कर्मयोगी, महामना, दूरदृष्टा और कामयाब उद्यमी ने अततः मौत का वरण किया. ओवेन को अपने समाज के उपेक्षितों, पीड़ितों के कल्याण की चिंता सदैव सताती रही. एक गरीब परिवार से होने के बावजूद वह कामयाब उद्यमी बना और अंत तक अपने समाज के उत्थान के लिए प्रयास करता रहा. यहां तक कि लंबे, कठिन परिश्रम से कमाई गई पूंजी भी जनकल्याण के हित में बलिदान कर दी. ओवेन की दृढ़ मान्यता थी कि समाज में आमूल परिवर्तन के लिए स्थितियों में बदलाव अत्यावश्यक है. उसी से माध्यम से मनुष्य के स्वभाव में अपेक्षित परिवर्तन किया जा सकता है. जीड तथा रिस्ट ने ओवेन का उल्लेख करते हुए लिखा है— ‘उनका यह सिद्धांत कि सामाजिक व्यवस्था को बदलकर, व्यक्ति को बदला जा सकता है, अर्थशास्त्र में वही महत्त्व रखता है जो लेमार्क का सिद्धांत जीवविज्ञान के क्षेत्र में रखता है.’ एक कर्मठ व्यक्ति की भांति ओवेन अपनी आंतरिक प्रेरणा के आधार पर सतत प्रयास करता रहा. उसे प्रशंसा और सराहना दोनों ही मिली, लेकिन पूरी जिंदगी वह अपनी असफलताओं से जूझता रहा. ओवेन के योगदान की चर्चा इसलिए भी आवश्यक है कि उसने अकेले दम पर सामाजिक परिवर्तन के लिए लगातार प्रयोग किए और उनके लिए अपने समस्त संसाधनों को दाव पर लगा दिया. अपने मौलिक प्रयोगों के बावजूद, ओवेन की कई मोर्चों पर लगातार पराजय यह भी दर्शाती है कि अपने कर्म एवं सोच के आधार पर अपने समय से कई दशक आगे था. वैचारिकी किसी भी व्यक्ति की पहचान उसके कार्यों से होती है. फिर ओवेन जैसे उद्यमी और मानवतावादी इंसान की परख करने के लिए उसके कार्यों से अधिक प्रामाणिक और भला हो भी क्या सकता है! उसका पूरा जीवन एक कर्मयोगी के जीवन का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है. वह औद्योगिक क्रांति का दौर था, जब ओवेन का जन्म हुआ. उसके जन्म से कुछ दशक पहले ही जेम्स वाट ने भाप की शक्ति को पहचानकर भाप के इंजन का आविष्कार किया था. उधर जल-ऊर्जा को उद्यमशीलता से जोड़ते हुए रिचर्ड आर्कराइट(Richard Arkwright) के जलीय संयंत्र ने उत्पादन जगत में क्रांति का सूत्रपात किया था. रिचर्ड आर्कराइट उस समय के प्रतिष्ठित उद्यमी थे. न्यू लेनार्क की स्थापना करने वालों में उनका नाम सर्वोपरि था. जलऊर्जा के उपयोग के कारण उनका कारखाना न्यू लेना॓र्क के चार सबसे बड़े कारखानों में गिना जाता था. तेज गति से चलने वाली मशीनों ने कपड़ा उद्योग को घरों से छीनकर फैक्ट्रियों के हवाले कर दिया था, जिससे नदी किनारे बसे कस्बे जहां पानी की बहुतायत थी, कपड़ा उद्योग के बड़े केंद्रों में बदलते जा रहे थे. दूसरी ओर गांवों में उद्योग घटने से बेरोजगारी अनुपात बढ़ा था. इसीलिए मेहनत करके अपने हुनर की कमाई खानेवाले ग्रामीण कामगार, बेमिसाल कारीगर कारखानों में मजदूरी करने को विवश हो गए थे. जनसंख्या का शहरी क्षेत्रों की ओर तेजी से पलायन हुआ था. खासकर ऐसे स्थानों पर जहां कपड़ा उद्योग तेजी से पनपा था. इस तथ्य को केवल एक उदाहरण के माध्यम से बहुत आसानी से समझा जा सकता है— ‘मेनचेस्टर में जिसकी जनसंख्या ओवेन के जन्म के समय केवल पचीस हजार थी, वह अगले पचास वर्षों में एक हजार प्रतिशत की वृद्धि के साथ लगभग ढाई लाख हो चुकी थी. फैक्ट्रियों में मजदूरों की मांग एकसमान नहीं थी. उत्तरी इंग्लैंड का इलाका अपने विरल जनसंख्या अनुपात के कारण पर्याप्त श्रमिक उपलब्ध कराने में असमर्थ था. इसलिए इंग्लैंड के, विशेष रूप से दक्षिणी क्षेत्र प्रांतों और लंदन के ठेकेदार करों का दबाव घटाने के लिए बाल मजदूरों को फैक्ट्री ले आते थे. उन बच्चों को बहुत मामूली वेतन पर प्रशिक्षु के रूप में रखा जाता. केवल सात साल की उम्र से उन्हें काम पर झोंक दिया जाता. उन्हें फैक्ट्री के दरवाजे के बाहर उन्हीं के लिए विशेषरूप से बनाए गए कमरों(Prentice Houses) में रहना पड़ता था. यही नहीं आधे घंटे के विश्राम सहित उन्हें प्रातः पांच बजे से सायं आठ बजे तक, लगभग पंद्रह घंटों तक बना रुके काम करना पड़ता था.’ ऐसे ही वातावरण में ओवेन का जन्म और विकास हुआ. उसने गरीबी और लंबे संघर्ष का सामना किया था. युवावस्था में ओवेन को बैंथम और जा॓न स्टुअर्ट मिल (1806-1873) के उपयोगितावाद के सिद्धांत से भी प्रेरणा मिली थी. मनुष्य के जीवन के लक्ष्य की ओर इंगित करते हुए मिल ने स्पष्ट लिखा था कि मानव जीवन का व्यक्तिगत तथा सामाजिक लक्ष्य परमानंद की प्राप्ति है. इस लक्ष्य की पूर्ति हेतु वह जो भी कार्य करता है—वह पूर्णतः नैतिक है. सामाजिक स्तर पर जिस कार्य से अधिकतम व्यक्तियों को अधिकतम आनंद की प्राप्ति हो, वही आदर्श है. ध्यातव्य है कि मिल अपने पिता जेम्स मिल तथा बैंथम से प्रभावित अवश्य था, परंतु उसकी सुख की अवधारणा उन दोनों से भिन्न थी. मिल की सुख की संकल्पना में ऐंद्रिक सुख का स्थान गौण है. उसके अनुसार सुख एक मानसिक अवस्था है. यह इंद्रियजन्य सुख के बजाए शांति, संतोष एवं बौद्धिकता के तालमेल से युक्त ऐसी उन्नत अवस्था है, जो केवल स्वार्थ के त्याग और सेवा से ही प्राप्त हो सकती है. समाज में न्याय की स्थापना, शिक्षा, समानता एवं संस्कृति कुछ ऐसे कारक हैं जो मनुष्य को आनंद की ओर ले जाने में सक्षम होते हैं. मिल ने ईसाई धर्म की यह कहकर आलोचना की थी कि— ‘उसके आदर्श निषेधात्मक हैं, विधायक(Positive) नहीं है. यह हमें बुराई से बचने की शिक्षा तो देता है, अच्छाई प्राप्त करना नहीं सिखाता.’ ओवेन का जन्म हालांकि निर्धन परिवार में हुआ था, किंतु अपनी प्रतिभा एवं उद्यमशीलता के बल पर वह अपनी युवावस्था में ही उस अवस्था तक पहुंच चुका था, जहां तक पहुंचना किसी के लिए भी सपना होता है. उसके पास भौतिक सुख-सुविधाओं की कमी नहीं थी. उसकी मिलें मेनचेस्टर की सबसे बड़ी मिलों में से थी. ब्रिटेन के सर्वाधिक चर्चित व्यक्तियों में उसकी गिनती होती थी. तो भी वह आत्मिक सुख के लिए निरंतर प्रयास करता रहा. ईसाई धर्म में आस्था के बगैर, वह उसके सेवा और लगन के सिद्धांत को अपने जीवन का लक्ष्य माने रहा. इसके लिए उसने अपने संसाधनों को जनकल्याण के कार्य में झोंक दिया. इस कारण उसके साथी और साझीदार भी उससे छिटककर दूर होते रहे. कठिन मेहनत से कमाई गई उसकी पूंजी धीरे-धीरे चुकती चली गई. जीवन के अंतिम वर्षों में ओवेन के व्यवहार में यद्यपि आध्यात्मिकता अपना प्रभाव डाल चुकी थी. तथापि यह एक हताश-निराश व्यक्ति का विधाता के आगे समर्पण जैसा नहीं था, ना ही हारे हुए योद्धा का आत्मसमर्पण, बल्कि वर्षों लंबी संघर्षशील, त्यागमयी, सतत यात्रा के पश्चात एक श्रांत-क्लांत यायावर का नीड़ के नीचे आश्रय लेने जैसा था; जो चुनौती भरे अंदाज में कह सकता था कि अपने हाथों से उसने सिर्फ दिया है. समाज से जो लिया उससे कहीं अधिक उसको लौटाया भी है. लंबे संघर्ष और समर्पण के बावजूद ओवेन को स्थायी सफलता तो हासिल नहीं हुई, मगर इसमें ओवेन से ज्यादा दोष उस समय के सामंती संस्कारों से युक्त समाज को भी है; जिसका बहुत बड़ा हिस्सा अशिक्षा से प्रेरित था. तो भी साहचर्य के जिस विचार को मान्यता दिलाने के लिए राबर्ट ओवेन ने आजीवन समर्पण भाव से काम किया, सहकारिता की नींव रखी उसके लिए विचार जगत में उसका नाम चिरस्मरणीय बना रहेगा. ओवेन न केवल कुशल व्यावसायी, स्वप्नदृष्टा, विचारक और कर्मठ इंसान था, बल्कि सिद्धहस्त लेखक भी था. ‘सोसिलिस्ट’(Socialist) शब्द पहली बार ओवेन की पत्रिका ‘कोआ॓परेटिव मैगजीन’ में प्रकाशित हुआ, यद्यपि उन दिनों इसका अभिप्राय उन लोगों से था जो ओवेन की विचारधारा के समर्थक थे. लगातार लेखन करते हुए ओवेन ने कई महत्त्वपूर्ण ग्रंथों की रचना की थी; जिनमें से प्रमुख हैं— 1. ए न्यू व्यू आ॓न सोसाइटी: एस्से आन फा॓रमेशन आ॓फ ह्यूमेन करेक्टर-1813. 2. आ॓बजरवेशन आन दि इफेक्ट आ॓फ दि मैन्यूफैक्चरिंग सिस्टम-1815. 3. रिपोर्ट टू दि काउंटी आ॓फ लेनार्क आफ ए प्लान फा॓र रिलीविंग पब्लिक डिस्ट्रेस-1821. 4. एन एड्रेस टू आ॓ल क्लासिस इन दि स्टेट-1832. 5. दि बुक आफ दि न्यू मा॓रेल वर्ल्ड-1848. 6. दि रिवोल्यूशन इन दि माइंड एंड प्रैक्टिश आ॓फ दि ह्यूमेन रेस-1849. ओवेन की मान्यता थी कि केवल स्पर्धा से वास्तविक विकास संभव नहीं है. क्योंकि स्पर्धा द्वारा मस्तिष्क में निषेधात्मक मूल्यों का संचार होता है, जो जीवन में अनावश्यक तनाव को जन्म देती है. तनाव प्रकारांतर में उत्पादकता को नकारात्मक रूप से प्रभावित करता है. इसलिए स्पर्धा के स्थान पर सहअस्तित्व और पारस्परिक सहयोग को महत्त्व दिया जाना जरूरी है. वह मानव-चरित्र की पवित्रता को बहुत महत्त्व देता था. पवित्रता न केवल विचारों की, बल्कि आचरण की भी. उसका पूरा जीवन इसी पवित्रता और समर्पण की मिसाल रहा. अपने लंबे उतार-चढ़ाव और संघर्षपूर्ण जीवन में ओवेन ने मान लिया था कि वर्तमान पूंजी-प्रधान व्यवस्था में मानव-कल्याण संभव ही नहीं है. मनुष्य अपने चरित्र-निर्माण के लिए अपने परिवेश पर निर्भर होता है और वहां से बहुत-सी बातें ग्रहण करता है. ऐसे में यदि परिवेश ही दूषित हो तो मानव-चरित्र में उसके दोषों का प्रवेश होना स्वाभाविक है. ओवेन की यह मान्यता प्रसिद्ध दार्शनिक जा॓न ला॓क के बहुत करीब थी; जो मानता था कि मनुष्य का मन कोरे स्लेट की तरह होता है. विकासक्रम में वह अपने परिवेश से ही प्रेरणा और आवश्यक सूचनाएं ग्रहण करता है, उन्हें अपने बौद्धिक सामार्थ्य द्वारा विश्लेषित-संश्लेषित कर आवश्यक निर्णय तक पहुंचता है. अतएव मानव चरित्र में बदलाव के लिए उसके चरित्र का गठन बहुत अहम भूमिका निभाता है, जिसके लिए व्यवस्था में अपेक्षित बदलाव जरूरी है. ओवेन ने अपने लेखों तथा पुस्तकों के माध्यम से लोगों तक अपने विचार पहुंचाने का प्रयास किया. मजबूर बस्तियों में स्वयं जा-जाकर वह उन्हें सहजीवन के लिए प्रेरित करता रहा. चूंकि समाजवाद के वृहद लक्ष्य को किसी एक व्यक्ति अथवा समूह द्वारा प्राप्त कर पाना संभव नहीं है, इसलिए उसने अपने साथी उद्यमियों का भी आवाह्न किया था कि वे जनकल्याण के लिए आगे आएं. व्यक्तिगत प्रयासों द्वारा भी उसने सरकार एवं प्रशासन के माध्यम से अपनी सहजीवन पर आधारित बस्तियों को बढ़ावा देने का प्रयास किया था. लेकिन पूंजीपतियों का दबाव झेल रही अपने समय की व्यवस्था के वह बुरी तरह आहत हो चुका था. वह जानता था कि व्यवस्था में वास्तविक बदलाव उसमें आमूल परिवर्तन द्वारा ही संभव है. समाजवादी चिंतन को आगे बढ़ाते हुए राबर्ट ओवेन ने कहा कि राज्य की संपत्ति पर व्यक्ति अथवा राज्य के बजाए समाज का अधिकार होना चाहिए. मगर इसके लिए जरूरी है कि व्यक्ति समिति अथवा संगठन के माध्यम से एकजुट हों; ताकि समाज की ऊर्जा एकजुट हो और उपलब्ध संसाधनों का समाज-हित में अधिकतम उपयोग किया जा सके. इस तरह राबर्ट ओवेन ने समाजवाद की एक अलग धारा का अन्वेषण किया, जिसे विद्वानों ने साहचर्य के विशेषण के साथ ‘साहचर्य समाजवाद’ की संज्ञा दी. साहचर्य समाजवाद की निम्नलिखित विशेषताएं हैं— 1. साहचर्य समाजवाद में सामाजिक कार्यव्यवहार पूर्णतः स्वायत्त संस्थाओं/ संघों के अधीन होता है. उन संस्थाओं के सभी फैसले लोकतांत्रिक आधार पर लिए जाते हैं. सहकारिता की भावना को समर्पित संघ पूर्णतः आत्मनिर्भर, अधिकार-संपन्न एवं चेतना प्रधान होते हैं. इनकी स्थापना तथा नियंत्रण में राज्य अथवा अन्य बाहरी शक्ति का कोई दबाव नहीं होता. 2. यह व्यक्तिगत स्वतंत्रता और साहस के नियम में आस्था रखता है. 3. साहचर्य समाजवादी, आदर्शवादी योजनाओं के अनुसार काम करते हुए समाज में नैतिकता की स्थापना और उसकी आर्थिक आत्मनिर्भरता के लिए काम करता है. 4. स्पर्धा को सभी मौजूदा बुराइयों का निमित्त मानते हुए, साहचर्य समाजवादी उसके उन्मूलन पर जोर देते हैं. स्पर्धा के स्थान पर वह सहयोग एवं तथा सहयोग के स्थान पर साहचर्य(Association) को महत्त्व देता है. कह सकते हैं कि साहचर्य समाजवाद की विचारधारा कदाचित व्यक्ति-स्वातंत्रय के उन घटकों का निषेध कर रही थी, जिनके समर्थन बैंथम, जेम्स मिल जैसे सुखवादी दार्शनिक और एडम स्मिथ जैसे ख्यातिनाम अर्थशास्त्री कर रहे थे. मेरी स्वतंत्रता सभी की स्वतंत्रता के साथ ही सुनिश्चित है और सबके स्वतंत्र रहने में ही मेरी स्वतंत्रता अर्थवान है—साहचर्य समाजवादी कुछ इसी प्रकार का व्यक्तिगत स्वतंत्रता-बोध चाहते थे. यह सामाजिक दृष्टि से गलत भी नहीं है. इसलिए कि समाज अपने भीतर अनेक इकाइयों को शामिल किए रहता है. उसके प्रत्येक सदस्य की अपनी विशिष्ट कार्यक्षमता एवं वैचारिक आग्रह होते हैं. अतः समाज में अकेले व्यक्ति की स्वतंत्रता किसी काम की नहीं होती, जब तक कि उसका पूरा परिवेश स्वतंत्रता की भावना से ओत-प्रोत न हो. स्वतंत्रता हो या संपन्नता वह परिवेश के साथ समरूपता में ही प्रशंसनीय होती है. ओवेन का अत्यंत महत्त्वपूर्ण विचार जो आगे चलकर सहकारिता आंदोलन का आधार-सिद्धांत बना, जिसके आधार पर सहकारिता की कामयाब इबारत लिखी जा सकी, लाभ का निषेध था. यद्यपि लाभ के निषेध का विचार ओवेन की मौलिक स्थापना नहीं थी. यह एकमात्र ऐसा सिद्धांत है जो प्रायः सभी धार्मिक-नैतिक व्यवस्थाओं समान रूप में मौजूद रहा है. आर्थिक लाभ के स्थान पर सामाजिक लाभ पर जोर देने का आग्रह प्रायः सभी समाजों में नैतिक रूप से मान्य रहा है. भारतीय परंपरा में तो चिरकाल से ही अपरिग्रह और अस्तेय की महिमा का बखान होता रहा है, जिनके अनुसार आवश्यकता से अधिक धन का संचय न करने और संकट के समय दूसरों की मदद करने का आदर्श समाहित है. ईसाई धर्म में जहां करुणा एवं मैत्री के प्रति विशेष आग्रह दर्शाते हुए, आर्थिक उपलब्धियों को उनकी अपेक्षा हेय माना गया है. लाभ की मौजूदगी व्यक्तिगत संपत्ति की लालसा को विस्तार देती है. अरस्तु तक का मानना था कि व्यक्तिगत स्वामित्व होते हुए भी संपत्ति का उपयोग सार्वजनिक कल्याण के लिए किया जाना चाहिए. महात्मा गांधी संपत्ति को ट्रस्टीशिप के अधीन रखना चाहते थे. जिससे लाभ पर समस्त समाज की आधिकारिता हो. संत एक्वीनास का मानना था कि लाभ की कामना निर्धन वर्ग के शोषण को जन्म देते है, अतएव उन्होंने लाभ के उन्मूलन पर बल दिया था. इस्लाम धर्म में ब्याजमुक्त ऋण देना, संकट के समय पड़ोसी की मदद को आगे आना, धार्मिक रूप से मान्य रहा है, जिसके उल्लंघन पर सामाजिक बहिष्कार और जैसे दंड की भी व्यवस्था रही है. ओवेन का लाभ के निषेध का सिद्धांत मात्र उसके निषेध तक ही सीमित नहीं था. इससे भी आगे बढ़कर वह लाभ के नाम पर अर्जित राशि का सार्वजनिक हित में पुनः निवेशन भी चाहता था, ताकि उसको उत्पादकता से जोड़ा जा सके. इसके लिए उसने प्रबुद्ध लोगों की समिति बनाने का सुझाव दिया था. ताकि लाभ को एकाधिकार की सीमा से बाहर लाया जा सकते. लाभ की भावना का निषेध करते हुए ओवेन ने लिखा है कि— ‘दुनिया में एक जरूरी बुराई, वास्तविक पाप लाभ की कामना है. वस्तुतः लाभ ही वह वर्जित फल था, जिसे खाकर आदम का स्वर्ग से पतन हुआ.’ ओवेन यद्यपि प्रकृति से धार्मिक नहीं था. धर्म को वह विकास के मार्ग में बाधक मानता था. किंतु ईसाई धर्म के कल्याण एवं सेवा के संदेश का उसपर गहरा प्रभाव पड़ा था. उसका प्रत्येक निर्णय इससे प्रभावित नजर आता है. समाजवादी विचारों का उसपर गहरा प्रभाव था. व्यक्तिगत संपत्ति की अवधारणा का वह विरोधी था तथा उसको बहुत ही घृणित तथा अनैतिक कर्म मानता था. उसका कहना था कि— ‘व्यक्तिगत संपत्ति बहुत ही घृणित एवं अनैतिक शक्ति है…यह असंख्य अन्यायों और अपराधों की जन्मदाता है. इससे चतुर्दिक बुराइयां फैलती है.’ ओवेन ने अपनी उद्यमशीलता का लोहा पूरे समाज से मनवाया था. न्यू लेनार्क के कपड़ा उद्योग में उसकी धाक थी. किंतु यह बात हैरान कर देने वाली है कि उसको तात्कालिक फैक्ट्री सिस्टम से घृणा थी. इसीलिए वह उसमें आमूल बदलाव चाहता था. उसका मानना था कि मौजूदा फैक्ट्री व्यवस्था सामाजिक गैरजिम्मेदारी की भावना, विध्वंसात्मक स्पर्धा एवं अमानीय किस्म के व्यक्तिवाद को बढ़ावा देनेवाली है. जबकि औद्योगिकीकरण के पहले का समाज नैतिकतावादी सोच और मानवीय संबंधों पर आधारित था. अपनी पुस्तक ‘दि न्यू व्यूज आफ सोसाइटी’ में ओवेन ने समाज को लेकर अपने विचारों का उल्लेख किया है. इसमें उसने समाज के रूप में एक ऐसी व्यवस्था की संकल्पना की थी, जो अपने प्रत्येक सदस्य के कल्याण की कामना करते हुए, उसके लिए सततरूप से प्रयत्नशील रहती है— ‘एक सरल, साधरण एवं व्यावहारिक व्यवस्था जिसमें किसी भी व्यक्ति या समाज के किसी वर्ग-विशेष को जरा भी नुकसान ना हो.’ समाज के रूप में वह ऐसी व्यवस्था की कामना करता था, जो गरीबों को सुखी, बंधनमुक्त एवं आत्मनिर्भर बनाती हो. उन्हें गर्व करने का अवसर प्रदान करती हो. ऐसी व्यवस्था के लिए उसने समाज की पुनर्रचना पर जोर दिया है. व्यक्तिगत संपत्ति का विरोध करने के बावजूद ओवेन इस बात का विरोधी था कि संपत्ति पर राज्य का स्वामित्व हो. उसे संशय था कि इससे राज्य को मानव जीवन पर अनुचित दबाव बनाने की शक्ति मिलने की संभावना बढ़ेगी. इस कारण वह संपत्ति पर समिति या समूहों को अधिकार का पक्षधर था. वह चाहता था कि समाज में ऐसे चैतन्य समूहों का विकास हो जो उत्पादकता को सामूहिक कल्याण से जोड़ने का कार्य कर सकें. संक्षेप में सहकारिता का भी आदर्श भी यही है. कदाचित इसी के कारण ओवेन को उसके आलोचकों ने आधुनिकता का विरोधी कहकर उसका मजाक उड़ाया था. और इसी के आधार पर तत्कालीन परंपरावादी विद्वानों द्वारा उसका समर्थन भी किया था. लेकिन जल्दी ही उनका यह भ्रम जाता रहा. ओवेन द्वारा किए गए कार्यों, सतत लेखन तथा समय-समय पर दिए गए वक्तव्यों ने सिद्ध कर दिया कि वह एक कर्मठ उद्यमी और दूरदर्शी विद्वान था, जिसकी विचारधारा उदारवादी समाजवाद की सहोदरा है. ओवेन ने जोर देकर कहा कि हम सभी अपने परिवेश की देन हैं. उसी से हमारा व्यक्तित्व एवं संस्कार बनते हैं. इसीलिए परिवेश को बदलकर मानव स्वभाव में भी अनुकूल परिवर्तन लाए जा सकते हैं. ओवेन का यही सूत्रवाक्य उनीसवीं शताब्दी के समस्त समाजवादी चिंतन एवं कार्यक्रमों के लिए मील का पत्थर सिद्ध हुआ. विलियम मौरिस तथा बलफर्ट बक्स ओवेन के योगदान की चर्चा करते हुए लिखते हैं कि— ‘ओवेन ने जनकल्याण के लिए उदारतापूर्वक प्रायः हर तरह के कार्यक्रम को अपनाया. उसके द्वारा सामूहिक कल्याण की भावना के साथ किए गए कार्य इस सिद्धांत की कसौटी हैं कि मनुष्य का अपना आचरण उसके वातावरण से संपूर्ण बनता और बनाता है. ओवेन के इन्हीं विचारों ने उसको महान समाजवादी और सहकारिता का आदि प्रवर्तक सिद्ध किया. यह अलग है कि ओवेन की सहकारिता-संबंधी अवधारणा वह नहीं थी, जो कि सहकारिता के वर्तमान समर्थक मानते हैं और जिसके आधार पर वैश्विक सहकारिता आंदोलन का वटवृक्ष आज चारों दिशाओं में अपना प्रभाव जमाए हुए है.’ समाज की पुनर्रचना का सपना देखते हुए ओवेन ने ऐसे समाज की परिकल्पना की थी, जहां स्वेच्छिक सहभागिता और पारस्परिकता सभी संबंधों का मुख्याधार हों. लाभ के बजाय लोग सेवा और त्याग को महत्त्व दें और इन्हें स्वेच्छापूर्वक अपने जीवन में अपनाएं. सभी नागरिक स्वयं को वृहद विश्व-परिवार का हिस्सा मानते हुए सौहार्दमय जीवनयापन करें. ओवेन का आदर्श ऐसी बस्तियां थीं, जिनके निवासियों की संख्या ज्यादा से ज्यादा 2000 हो. जहां के लोगों का जीवन सामूहिक हो. प्रत्येक बस्ती के पास एक हजार से डेढ़ हजार एकड़ तक कृषि-योग्य भूमि हो. लोगों के निवास स्थान को छोड़कर बाकी सब सुविधापूर्ण जैसे रसोईघर, स्कूल, पुस्तकालय, कारखाने, दुकानंे आदि सामूहिक उपयोग की हों. ओवेन को विश्वास था कि ऐसे समाज में न तो व्यक्तिगत संपत्ति की लालसा रहेगी, न ही लाभ कमाने की प्रवृत्ति का विकास होगा. वर्गीय शोषण एवं उत्पीड़न की संभावनाओं से परे वह एक आदर्श, आत्मनिर्भर और एकात्म समाज होगा. अपने कार्यक्रमों के कारण ओवेन ने दुनिया-भर में अपने प्रशंसक पैदा किए थे. जिससे सरकार के लिए उसके विचारों की एकाएक अवहेलना कर पाना संभव न था. व्यक्तिगत प्रभाव से अपनी सामाजिक पुनर्गठन की योजना को वह संसद तक ले जाने में कामयाब भी हुआ था. मगर संसद में उसके प्रस्तावों को अव्यावहारिक मानते हुए अस्वीकृत कर दिया गया. जाहिर है कि यह सब पूंजीपतियों के दबाव में लिया गया फैसला था, जिन्होंने उससे पहले भी ओवेन को बदनाम करने की भरपूर कोशिश की थी. ओवेन के आलोचक उसको अर्द्धविक्षिप्त कहकर उसका मजाक भी उड़ाते थे. जबकि ओवेन को अपने विचारों पर दृढ़ आस्था थी. वह अपने विरोधी विचारकों के साथ तर्क करने को सदैव तैयार रहता था. मगर विरोधियों को तर्क से ज्यादा आनंद छींटाकशी करने में आता था. भारत की शिक्षा-नीति में अपने उपनिवेशवादी परिवर्तनों के लिए कुख्यात मैकाले ओवेन को ‘दिमाग चाटने वाला बुड्ढा’ कहकर उसका उपहास करता था. वह ओवेन को देखते ही भाग छूटता था. ओवेन की वैचारिक मान्यताओं तथा उसके जीवन-दर्शन में हमें पवित्रता और नैतिकता के दर्शन होते हैं. उसके विचार केवल कागजों तक सिमटे हुए नहीं थे, बल्कि ऐसे समय में जबकि सभी यूरोपीय देशों में वैचारिक हलचल सर्वाधिक तेज थी, एक से बढ़कर एक विद्वान, बुद्धिजीवी नवीनतम विचारों के साथ विश्वमेधा को लगातार चमत्कृत किए जा रहे थे, महानतम विचारकों की उस भीड़ के बीच ओवेन लगभग अकेला था, जो अपनी मान्यताओं पर पूरी ईमानदारी और लगन के साथ, अपने संसाधनों को खपाकर, लगातार प्रयोग भी कर रहा था. बिना किसी बाहरी मदद के. ओवेन की महानता का कारण यह नहीं कि एक गरीब परिवार और संघर्ष के बीच से उठकर उसने अपने श्रम और कार्य-कुशलता के दमपर पश्चिमी जगत पर अपना प्रभाव स्थापित किया था. उसकी महानता इस तथ्य में निहित है कि उपलब्धियांे के चरम पर पहुंचकर भी वह समाज के मेहनतकश, विपन्न और अभावग्रस्त वर्ग के प्रति अपने कर्तव्य और संवेदनाओं को बनाए रख सका. इस तरह से देखें तो ओवेन के समकालीन विचारक उससे काफी नीचे नजर आते हैं. अपने विचारों में अटूट आस्था तथा उनके अनुरूप आचरण की ओवेन जैसी नैतिक जिद उसके बाद के यदि किसी महामानव में दिखाई पड़ती है तो वह केवल महात्मा गांधी ही हैं, जो विचारों को प्रयोगों की कसौटी पर निरंतर कसते रहे. हालांकि गांधीजी की भांति ओवेन का न तो जादुई व्यक्तित्व था, न ही उसमें आमजन को प्रभावित करने की वैसी क्षमता ही थी. इसीलिए भी उसको अपने लक्ष्य में वांछित सफलता प्राप्त न हो सकी. मगर इससे ओवेन तथा उसके विचारों की महत्ता कम नहीं हो जाती. ओवेन आजीवन समाजवादी रहा, किंतु सहकार बस्तियां बनाए जाने का उसका प्रस्ताव, मजदूरों के हित में समय-समय पर छेड़ा गया संघर्ष, व्यक्तिगत संपत्ति की अवधारणा का निषेध उसको साम्यवादी विचारधारा के करीब ले आता है. माक्र्स और ऐंग्लस जैसे साम्यवादियों ने ओवेन आदि साहचर्य समाजवादियों की ‘स्वप्नजीवी’ कहकर उसकी आलोचना की थी, लेकिन सहकार-बस्तियों की स्थापना के कार्य के लिए माक्र्स के सहयोगी फ्रैड्रिक ऐंग्लस ने ओवेन की बहुत सराहना की है. हालांकि इसके पीछे वह ओवेन पर साम्यवादी विचारधारा का ही प्रभाव मानता था. ओवेन तथा दूसरे साहचर्य समाजवादियों पर लिखे गए अपने एक लेख में ऐंग्लस ने लिखा है कि— ‘साम्यवाद के सामान्य अनुदेशों में ओवेन की रुचि ही उसके जीवन का निर्णायक मोड़ थी. जब तक वह केवल कल्याणवादी था, उसको केवल धन, तालियों की गड़गड़ाहट, मान-सम्मान तथा ख्याति के अतिरिक्त और कुछ हासिल न हो सका. अपने समय में वह यूरोप के सर्वाधिक चर्चित व्यक्तियों में से था. न केवल उद्योगपति जो उसके वर्ग से संबंधित थे, बल्कि राजनेता और शाही परिवार के सदस्य भी उसकी बातों को गंभीरता से लेते थे और उनपर विचार भी करते थे. साम्यवादी विचारधारा से उसका अंतरग परिचय, ही उसके कायाकल्प का प्रमुख साधन बना. गंभीर चिंतन के पश्चात वह इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि निजी संपत्ति की अवधारणा, विवाह की प्रचलित पद्धति, धर्म आदि मनुष्य के बहुआयामी विकास के प्रमुख अवरोधों में से हैं.’ व्यक्तिगत आचरण में मानवतावादी ओवेन निजी संपत्ति के साथ-साथ धर्म एवं वैवाहिक संस्था का भी बहिष्कार करने के पक्ष में था. वह इन तीनों को मानव जीवन की उन्नति की मुख्य बाधाएं मानता था. उसने लिखा भी हैं— ‘मानव जीवन की उन्नति में तीन मुख्य बाधाएं हैं – धर्म, व्यक्तिगत संपत्ति, एवं विवाह. आदर्श समाज में इन तीनों को समाप्त करना अत्यावश्यक है.’ ओवेन एक दूरदर्शी और प्रतिभासंपन्न उद्यमी था. उसके विचारों एवं कार्यक्रमों के साथ समस्या यह भी रही कि वे समय से पहले ही समाज में प्रस्तुत कर दिए गए. दूसरे शब्दों में हम यह भी कह सकते हैं कि उस समय का समाज, यहां तक कि परिवर्तन का सपना देख रहे बुद्धिजीवी, मानवकल्याण के प्रति आस्थावान उद्योगपति भी ओवेन के संकल्पों में उसका साथ देने में असमर्थ रहे थे. अपने सपने की सच में परिणति के लिए ओवेन अपने संसाधनों को झोंक रहा था. वैसी हिम्मत उसके साथियों में नहीं थी. इसलिए वे एक-एक कर ओवेन से अलग होते चले गए. दूसरे जिन दिनों ओवेन ने अपने प्रयोग आरंभ किए, वह तीव्र वैचारिक परिवर्तनों एवं नई स्थापनाओं का दौर था. एक ओर सामंतवादी और पूंजीवादी संस्कार जनमानस को जकड़े हुए थे, मशीनीकरण के कारण लोगों से रोजगार के अवसर छीनकर उन्हें बेरोजगार और परावलंबी बनाया जा रहा था. भीषण गरीबी तथा बेरोजगारी के कारण जनमानस का आत्मविश्वास खंडित था और लोग; जिनमें वे कारीगर भी शामिल थे, जो मशीनीकरण से पहले अपनी कला के बदले न केवल जीविका के मामले में आत्मनिर्भर थे, बल्कि उसके कारण समाज में उनका अच्छा-खासा सम्मान था, उन सभी को अब अठारह-बीस घंटे तक मशीनों से जूझना पड़ता था. रहने के लिए शहर की गंदी बस्तियां थीं जहां का जीवन अत्यंत शोचनीय था. मशीनों ने उनकी कला को हेय तथा उन्हें बेचारा बना दिया था. ऐसी परिस्थितियों में ओवेन पूंजीवाद के आचरण पर संदेह करके, न केवल उसकी खामियों की ओर संकेत कर रहा था, साथ ही वह आमूल परिवर्तनवादियों की तरह समाज में ऐसी व्यवस्था कायम करने के लिए प्रतिबद्ध भी था जो उसके अपने ही वर्ग, यानी पूंजीवादी शक्तियों के हितों के सर्वथा प्रतिकूल थी. ओवेन को समाजवाद का प्रथम आख्याकार भी माना जाता है. यह बात अलग है कि उससे अगली पीढ़ी के समाजवादियों, विशेषकर उन विद्वानों, जिन्हें विश्वास था कि आर्थिक समानता एवं समाजबाद बिना क्रांति के संभव ही नहीं है, ने ओवेन की निष्ठा पर ही सवाल खड़े किए हैं. माक्र्स के सहयोगी फ्रैडरिक ऐंग्लस का मानना था कि ओवेन की साम्यवादी विचारधारा विशुद्ध रूप से व्यापारिक लाभ के सिद्धांत एवं धंधे के जोड़-घटाव पर टिकी थी. चतुर व्यवसायी की भांति उसने ऐसे कार्यक्रमों में निवेश किया जहां से वह अधिकतम मुनाफा बटोर सके. इस कार्य के लिए गरीब कामगारों का भावनात्मक शोषण भी उसने किया. लेकिन उसकी दूरदर्शिता उसको अपने समकालीन उद्यमियों से महान और विशिष्ठ बनाती है. औद्योगिक क्रांति के दौर में जहां बाकी उद्यमी नई उदारवादी व्यवस्था को लेकर संशय और भ्रम के शिकार नजर आते हैं, वहीं ओवेन ने साहसपूर्वक सिद्धांत-आधारित व्यवस्था को अपने कारखानों में अपनाया था. फ्रैडरिक ऐंग्लस के अनुसार एक चतुर पूंजीपति की भांति ओवेन ने मजदूरों को अपने व्यवसाय के अनुकूल ढालने के लिए नए-नए कार्यक्रम बनाए. ऊपर से देखने पर वे सभी कल्याणकारी तथा अनूठे नजर आते थे, मगर उनके पीछे ओवेन के व्यावसायिक हित जुड़े थे. ओवेन की असली नजर अपने मुनाफे पर थी. मजदूर उसके लिए मुनाफा कमाने का माध्यम भर थे. ऐंग्लस के अनुसार— ‘‘समाज के विपन्न वर्ग के प्रति ओवेन की उदारता और दरियादिली मनुष्यता के तय मापदंडों से बहुत पीछे थी. उनके प्रति उसके सभी आग्रह केवल दिखावटी, अवास्तविक तथा मनुष्यता की पवित्र अवधारणा से बहुत परे थे— ‘लोग मेरी मेहरबानी पर पलने वाले मेरे दास थे.’ ओवेन के ये शब्द उसकी उदारता और दरियादली को कटघरे में खड़ा करने के लिए पर्याप्त हैं. ओवेन द्वारा कामगारों के लिए आनुपातिक रूप से उपलब्ध कराया गया बेहतर वातावरण, व्यक्तित्व के बहुआयामी विकास के लिए आवश्यक परिवेश से बहुत पीछे था.’’ अपने विचार को फ्रैडरिक ऐंग्लस ने उदाहरण देकर समझाने का प्रयास भी किया है. ‘दि रिवोल्युशन इन माइंड एंड पै्रक्टिश’ नामक ग्रंथ में ऐंग्लस का एक यादगार भाषण संकलित है. जिसमें वह ओवेन की फैक्ट्रियों की तात्कालिक स्थिति की आलोचना करते हुए उसके प्रयासों को संदेह के घेरे में ले आता है. ओवेन की व्यावसायिक कुशलता एवं मशीनीकरण के कारण उत्पादन व्यवस्था में आए बदलाव की ओर संकेत करते हुए वह लिखता है कि: ‘लगभग ढाई हजार की आबादी का प्रमुख कामगार वर्ग प्रतिदिन इतना विशुद्ध लाभ कमा रहा था जिसे कमाने के लिए करीब पचास वर्ष पहले पूरे साठ लाख मजदूरों और कामगारों की आवश्यकता पड़ती थी.’ ओवेन की उद्यमशीलता को देखकर ऐंग्लस भी चमत्कृत था. उसने आगे लिखा है कि—‘मैं स्वयं यह सोचकर हैरान हूं कि ढाई हजार कामगारों के ऊपर किए जाने तथा साठ लाख कामगारों के ऊपर किए जाने वाले खर्च का कितना अंतर होगा.’ पूंजी के कारण सामाजिक और राजनीतिक संबंधों में आए बदलाव को लेकर ऎंग्लस एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण स्थापना देता है कि— ‘यदि अत्याधुनिक तकनीक के आधार पर निर्मित मशीनों और नई औद्योगिक नीतियों के कारण, नई पूंजी का सृजन नहीं होता, जैसे कि वह हुआ, तो नेपोलियन के विरुद्ध यूरोप का संगठित युद्ध तथा समाज के संभ्रांत वर्ग के हितों की सुरक्षा असंभव थी. समाज में यह नई ताकत दरअसल औद्योगिकीकरण के कारण नौकरीपेशा लोगों की जमात के पैदा होने के कारण आई थी.’ स्पष्ट है कि उससे पहले तक समाज में सामंती मूल्यों का वर्चस्व था. राजनीति और धर्म के स्वार्थी गठजोड़ से सामाजिक मूल्य धराशायी हुए थे. व्यवस्था के नाम पर केवल अराजकता थी और संगठित चेतना का अभाव. हांलाकि प्रारंभ में कोई बाहरी दबाव न होने के कारण नए-नए जन्मे पूंजीपति वर्ग का सारा जोर अधिक से अधिक रुपया कमाने पर था. मगर उसके लिए लंबे समय तक समाज की उपेक्षा कर पाना संभव नहीं था. क्योंकि उत्पादन एवं उपभोग के स्तर पर पूंजीवादी व्यवस्था को जनसमर्थन की आवश्यकता पड़ती है. इसीलिए पूंजीवाद के बढ़ते प्रभाव के दौरान, उत्पादन व्यवस्था को अधिकाधिक कार्यक्षम बनाने के साथ-साथ उसको लोकोपकारी बनाने के प्रयास भी शुरू हो चुके थे. उधर समाज में तेजी से उभरते बुद्धिजीवी वर्ग से पूंजीपतियों की नीयत छिपी न थी. इसीलिए उसका एक वर्ग वैकल्पिक व्यवस्था के निर्माण में जुटा था, तो दूसरा वर्ग नागरिकों के सहयोग से पूंजीवाद को नख-दंत विहीन कर देने की कोशिशें कर रहा था. पहले वर्ग का प्रतिनिधित्व करने का श्रेय रोशडेल पायनियर्स जैसे सहकारी संगठन को जाता है तो दूसरे वर्ग के नेतृत्व की बागडोर राबर्ट ओवेन जैसे उद्यमी-विचारकों के हाथों में थी. ध्यातव्य है कि समाजवादियों का यह उदीयमान वर्ग सुविधाओं को समाज के निम्नतम वर्गों तक पहुंचाने के प्रति संकल्पबद्ध था. धर्म एवं संस्कृतिवादियों द्वारा समाज के निचले वर्ग पर त्याग एवं संयम के नाम पर थोपे गए परंपरागत बंधनों का यह वर्ग निषेध करता था. प्रसिद्ध समाजविज्ञानी जी. डी. एच. कोल इस समाजवादी अवधारणा को स्पष्ट करते हुए लिखा है— ‘किसी औचित्यपूर्ण सामाजिक संस्थान के गठन का आधार, मनुष्य की नैसर्गिक इच्छाओं का दमन न होकर, प्राणीमात्र की इस तरह से संतुष्टि होना चाहिए कि वह आपसी वैमनस्य के स्थान पर सामाजिक सद्भाव का जन्मदाता बन सके.’ यद्यपि ऐंग्लस के अनुसार ओवेन का साम्यवाद मात्रा एक व्यापारिक कर्मकांड था, जो धंधे के स्वाभाविक जोड़-घटाव और लाभ-हानि के सिद्धांत पर टिका था. कहा जा सकता है कि ओवेन ने अपने समय के समाजवादी चिंतकों से प्रेरणा तो ली, किंतु लाभ कमाने की सहज अभिलाषा से वह मुक्त न हो सका था. लाभार्जन किसी भी व्यापारी और उद्यमी की सहज और स्वाभाविक अभिलाषा है. अतः ओवेन के महत्ता मात्रा इस बात से कम नहीं हो जाती कि वह अपनी लाभार्जन की स्वाभाविक इच्छा का परित्याग कर पाने में असमर्थ रहा था. ओवेन की महत्ता इस बात में है कि उसने अपने मजदूरों और कामगारों की समस्याओं को पहचाना तथा उनको हल करने के लिए ठोस पहल भी की. इसका व्यावसायिक लाभ भी उसको मिला. मजदूरों ने ओवेन की भावनाओं का सम्मान करते हुए उसको अपना संपूर्ण सहयोग प्रदान किया था. ओवेन द्वारा बच्चों के पाठशालाओं की शुरुआत उस समय की एकदम नई पहल थी. इसलिए ओवेन को शिशु पाठशालाओं का जन्मदाता भी माना गया है. 1823 में ओवेन द्वारा आयरलैंड में मजदूरों के कल्याण के लिए बस्तियों की स्थापना, उस समय सहजीवन का एकदम नया प्रयोग था. उसने अपनी संपूर्ण ऊर्जा और संपत्ति उस कार्यक्रम की सफलता के लिए झोंक दी थी. अपनी उन क्रांतिकारी योजनाओं में यद्यपि ओवेन को असफलता ही हाथ लगी थी, मगर उसके पीछे तात्कालिक समाज और राजनीति पर सामंतवाद के अनुचित दबाव थे, जो उसके पश्चात लगभग आधी शताब्दी तक बने रहे. हीगेल, माक्र्स, जा॓न स्टुअर्ट मिल, सार्त्र आदि के प्रभाव से आगे चलकर समाज का जनतांत्रिकरण संभव हो सका. अतः प्रारंभिक असफलताओं को ओवेन की चारित्रिक कमी का पर्याय नहीं माना जा सकता. हां, उसकी सफलता को हम उसके मजदूरों की संवेदनशीलता का परिणाम अवश्य मान सकते है. यहां यह उल्लेख कर देना अप्रासंगिक नहीं होगा कि उनीसवीं शताब्दी के प्रारंभिक वर्षों में पश्चिमी समाज पर कल्पनाशीलता का प्रभाव था, जिसे जा॓न कीट्स ‘विचारों के स्थान पर जीवन में संवेदनशीलता की खातिर.’ के द्वारा आवाह्न कर कर रहे थे तो विलियम ब्लैक जैसे कवि-कथाकार ‘करो जीवन-जल में स्नान’ कहकर काव्यात्मकता और रहस्यात्मकता की ऊचाइयों तक ले जाने का प्रयास कर रहे थे. जबकि बैंथम, पूधों और जेम्स मिल जैसे विचारक, एडम स्मिथ और रिकार्डो जैसे विद्वान अर्थशास्त्री स्थितियों पर अधिक वस्तुनिष्ठ ढंग से विचार कर रहे थे. उन्होंने खोखली रूमानियत तथा धार्मिक मिथ्याचारों से समाज को बाहर लाकर उसे ठोस आधार देने का प्रयास किया तथा सुख को सबकी पहुंच में लाने वाली व्यवस्था का पक्ष लेते हुए उन कुंठाओं से समाज को मुक्त करने का प्रयास किया जिन्होंने समाज को शताब्दियों से जकड़ा हुआ था. ‘अधिकतम लोगों का अधिकतम सुख’ इस वर्ग के विचारकों का मूल मंत्र रहा. धर्म और धार्मिक संस्थाओं की अवहेलना के कारण उनको अनेक बार धर्म-सत्ता के उग्र विरोध का सामना भी करना पड़ा. कई बार धार्मिक पोंगापंथियों ने अपने कुतर्क के सहारे लोगों को फुसलाकर सामाजिक परिवर्तनवादियों को नुकसान पहुंचाने का प्रयास भी किया. इन लोगों की स्वार्थी दृष्टि में लाभ कमाने की प्रवृत्ति के स्थान पर सेवा-सहयोग-समर्पण एवं त्याग के माध्यम से सामाजिक विकास की रूपरेखा गढ़ना, कल्पना की उड़ान जैसा था. बावजूद इसके समाज में इन विचारकों का प्रभाव लगातार बढ़ता चला गया. विशेषकर तेजी से उभरते मध्यवर्ग में, जो एक और तो नई तकनीक में पारंगत होकर पूंजीवादी व्यवस्था को मजबूत करने पर तुला था, तो दूसरी ओर अपने विद्रोही स्वभाव की रक्षा करता हुआ, समाज में नई वैचारिक क्रांति का आवाह्न कर रहा था. चूंकि समाज के बौद्धिक नेतृत्व की सर्वाधिक जिम्मेदारी मध्यवर्ग की ही थी जिसका अधिकांश समाज के निम्न वर्ग से ऊपर उठकर अपनी पहचान बनाने में कामयाब रहा था, अतः इस वर्ग की स्वाभाविक आस्था परिवर्तनवादी दार्शनिकों एवं अर्थशास्त्रियों के प्रति थी. बहरहाल, परिवर्तनवादियों के प्रति निरंतर बढ़ते जनसमर्थन के आगे कालांतर में यथास्थितिवादियों को झुकना ही पड़ा. नवजागरण की लहर ने स्वार्थी धर्मसत्ता और भ्रष्ट राजनीतिज्ञों की एक न चलने दी. राबर्ट ओवेन को अपने जीवन में हालांकि असफलता का सामना करना पड़ा था. मगर अपने संसाधनों के आधार पर उसने जो आजीवन प्रयोग किए थे, कालांतर में उन्हीं के आधार पर सहकारिता जैसे कल्याणकारी विचार का जन्म हुआ और आने वाले वर्षों में सहकार की नींव रखी जा सकी. राबर्ट ओवेन: आधुनिक सहकारिता आंदोलन का जन्मदाता – तीन राबर्ट ओवन की कमजोरियां इस आलेख के पहले दो अंकों में हमने राबर्ट ओवेन के जीवन संघर्ष, उसके त्याग एवं उपलब्धियों बारे में जाना. उसके सपनों और महत्त्वाकांक्षाओं को समझने का प्रयास भी किया. ओवेन के लंबे जीवन की गहन पड़ताल से सिद्ध होता है कि वह एक महान स्वप्नदृष्टा, कामयाब उद्यमी एवं उदार इंसान था. धार्मिक प्रतीकों में कोई आस्था न होने के बावजूद, मानवीय करुणा एवं त्याग का परिचय देते हुए वह गरीब मजदूरों एवं कामगारों के उत्थान के लिए आजीवन कार्य करता रहा. मगर उसकी नाकामियों को देखकर लगता है कि अनुभवों से सबक लेने के गुण का उसमें संभवतः अभाव था. संभवत: अपनी अतिशय उदारता के कारण वह व्यक्तियों को पहचानने में अकसर भूल कर जाता था, इसीलिए अपने जीवन में वह एक ओर तो नई से नई उपलब्धि अर्जित करता रहा, वहीं दूसरी ओर उन्हें किसी न किसी रूप में गंवाता भी रहा. वह बेहद संवेदनशील और भला इंसान था, इसलिए अपने धन का बड़ा हिस्सा उसने दूसरों के कल्याण के लिए खर्च किया. उस समय तक खर्च करता रहा जब तक कि उसकी समस्त पूंजी समाप्त नहीं हो गई. इस बीच उसके साथी उसको छोड़कर जाते रहे. तब भी वह अपने संकल्प पर अडिग रहा. ओवेन को सहकारी आंदोलन का जनक होने का श्रेय प्राप्त है और यह अन्यथा भी नहीं है. उसके जीवन संघर्ष, वैचारिक दृढ़ता, नैतिकतावादी सोच, महान कार्यों, ईमानदारी, जनप्रतिबद्धता और सहजीवन पर आधारित कालोनियों के विस्तार के लिए किए गए कार्य को देखते हुए, उसको यह श्रेय मिलना स्वाभाविक ही है. ओवेन ने सहकारिता के आदर्श को समाज में स्थापित करने के लिए तमाम प्रयास किए. वह स्वयं एक गरीब परिवार से आया था. अपने परिश्रम के बल पर उसने मेनचेस्टर के कपड़ा उद्योग के क्षेत्र में अपनी उपस्थिति दर्ज की थी. जमीन से उठकर वह शिखर तक पहुंचा और अपनी प्रतिभा के आधार पर लंबे समय तक वहां टिका रहा. स्वयं को कामयाब उद्यमी सिद्ध करते हुए उसने तरक्की की कई सीढ़ियां पार कीं. आजीवन आलोचनाओं में घिरे रहने के बावजूद वह न तो घबराया न कभी अपने प्रयासों को मंद ही होने दिया. वह मानता था कि समाज में किसी अकेले व्यक्ति का विकास कोई मायने नहीं रखता, सिवाय मनुष्य के अपने अहं की संतुष्टि के. वह अपने समय के सुखवादी विचारकों से प्रभावित था और सभी के लिए सुख की सुलभता की कामना करता था. उसका मानना था कि— ‘मजदूर यदि कष्ट में हों तो मालिक का सुख उठाना पाप है. मालिक को समझना चाहिए कि रात-दिन कठिन परिश्रम करके फैक्ट्रियों को कमाऊ बनाने वाले मजदूरों का जीवन यदि कष्टकर है, तो उसे मुनाफे को बचाकर रखने का कोई नैतिक अधिकार नहीं है. अपने कर्मचारियों के लिए आवश्यक सुविधाओं का प्रबंध करना उसका नैतिक कर्तव्य है और उसके आगे उसकी बाकी उपलब्धियां अर्थहीन हो जाती हैं.’ ओवेन की यह मान्यता दिखावटी न थी. अवसर मिलते ही उसने अपने मजूदरों के जीवन-स्तर में सुधार के लिए कार्य करना शुरू कर दिया था. सबसे पहले उसने मजदूरों की समस्याओं की पहचान की, फिर उनके निदान के लिए मजदूरों के सहयोग से ही उपाय करने प्रारंभ किए. उसके सारे प्रयास स्वयंस्फूर्त थे. कल्याण कार्यक्रमों के संचालन में उसके अपने संसाधन लगे थे. इससे उसके उद्योगों पर अतिरिक्त व्यय बढ़ा था. लेकिन श्रमिक-कल्याण कार्यक्रमों पर होने वाले खर्च में लगातार वृद्धि के बावजूद, ओवेन की मिलों के कुल मुनाफे में निरंतर इजाफा हो रहा था. ओवेन को मिली कामयाबी ने यह भी दर्शा दिया था कि श्रमिकों के कल्याण के लिए खर्च किया जाने वाला धन गैरउत्पादक नहीं है, बल्कि उसकी वही उपयोगिता है, जो किसी कारखाने में नवीनतम प्रौद्योगिकी की होती है. अपने सिद्धांतों की व्यावहारिकता सिद्ध करने, उन्हें लोकप्रिय बनाने के लिए ओवेन ने अपनी जीवन-भर की पूंजी, दांव पर लगा दी थी. वह चाहता था कि इस कार्य के लिए अन्य उद्यमी भी आगे आएं, समाज के प्रति अपने कर्तव्य को समझें तथा उसके पुनर्निर्माण में भागीदारी करें. वह जानता था कि समाज में व्याप्त गरीबी और दिशाहीनता के लिए धार्मिक जड़ताएं भी जिम्मेदार हैं. वे मनुष्य को वास्तविक समस्याओं तथा उनके कारण के बारे में सोचने का अवसर ही नहीं देतीं. सदा भरमाए रखतीं हैं. इस कारण मनुष्य न तो अपनी प्राथमिकताएं तय कर पाता है, न ही उपलब्ध अवसरों का लाभ उठाने में कामयाब होता है. अज्ञानता का एक कारण अशिक्षा भी है. शिक्षा की उपयोगिता को समझते हुए उसने अपनी मिलों में कार्यरत बालश्रमिकों के अध्ययन की समुचित व्यवस्था भी की थी. ये सब प्रयास क्रांतिकारी प्रभाव के थे. जिससे यथास्थिति की समर्थक शक्तियों द्वारा उसकी आलोचना अवश्यंभावी थी. ओवेन ने समाज में धर्म के नाम पर तेजी से फैलते जा रहे यथास्थितिवाद का जमकर विरोध किया था. वह उनके विरोध का परिणाम भी भली-भांति जानता था. जानता था कि उस अवस्था में उसका धर्मिक बहिष्कार भी किया जा सकता है, उसकी सामाजिक प्रतिष्ठा भी धूमिल पड़ सकती है. इसके बावजूद वह अपने सिद्धांतों पर डटा रहा. धर्मिक जड़ताओं और सामाजिक अनाचार के लिए जिम्मेदार शक्तियों पर हमला करने से उसे कोई नहीं रोक सका. अंततः जैसा ओवेन ने सोचा था, वही हुआ भी. उसका सामाजिक बहिष्कार किया गया. सामाजिक अतिवादियों के इस कुकृत्य पर प्रेस चुप्पी साधे रहा. गोया वह भी षड्यंत्र में साझीदार हो. अमेरिका में अपने प्रयोग के विफल हो जाने के पश्चात, जिसमें ओवेन ने अपना सारा भविष्य दांव पर लगा दिया था, उसने स्वयं को श्रमिकों के सुपुर्द कर दिया. उसके आगे के तीन वर्ष उसने मजदूरों के बीच रहकर उनके लिए कार्य करते हुए बिताए. इंग्लैंड का प्रत्येक सामाजिक आंदोलन, श्रमिकों की मार्फत हुई कोई भी नई पहल, राबर्ट ओवेन के नाम से जुड़ी है. किसी अकेले व्यक्ति के लिए यह साधारण उपलब्धि नहीं है. ओवेन ने सदैव पूरे समूह को साथ लेकर चलने का प्रयास किया था, किंतु आवश्यकता पड़ने पर उसका साथ देने के लिए सिवाय इक्का-दुक्का बुद्धिजीवियों के कोई आगे नहीं बढ़ सका. उसके साझीदार ही कारखाने को घाटे में जाते देख अलग होने लगे थे. लेकिन यह न तो अफसोस की बात है, न ही इसके नेपथ्य में किसी विषादगीत जैसी ध्वनियां हैं. प्रकृति का यह शाश्वत-सा नियम है कि अपने अभियान के आरंभ में प्रत्येक महापुरुष निपट अकेला होता है. दुनिया उससे टकराती है, हतोत्साहित करने का प्रयास करती है. फिर धीरे-धीरे उसके महत्त्व को पहचानने लगती है, तत्पश्चात उसके अनुयायियों की उत्तरोत्तर बढ़ती संख्या आंदोलन का रूप लेती जाती है. ओवेन को अपने प्रयासों में असफलता मिली. इसे साहचर्यवादी अर्थशास्त्रियों की वैचारिक नाकामी भी कहा जा सकता है. चाहें तो इसे हम सहकारिता आंदोलन की शुरुआती असफलता भी मान सकते हैं. ठीक ऐसे ही जैसे कोई बालक चलना सीखने से पहले लड़ता-झगड़ता, गिरता और उठता है. देखा जाए तो यह आवश्यक भी है, क्योंकि केवल इसी से मनुष्य को नए अनुभवों की खेप प्राप्त होती है, जो उसके लिए नई संभावनाओं के द्वार खोलती है. ओवेन के सहकारी प्रयास की असफलता के पीछे भी निश्चित रूप से कुछ कारण थे, जिन्हें हम निम्नलिखित रूप में वगीकृत कर सकते हैं— 1. हालांकि भारत और पश्चिमी देशों में सहयोगाधारित आर्थिक संगठन उससे पहले भी कामयाबी दर्शा चुके थे. मगर शताब्दियों से विशेषकर सामंतवाद के उभार के दौर में ही वे लुप्तप्रायः थे. पूंजीवाद के दौर में जब अधिकांश विद्वान स्पर्धा को विकास के लिए अपरिहार्य मान रहे थे, साहचर्य पर आधारित संगठन बनाना कतिपय पुराना और अस्वीकृत मान लिया गया विचार था. ओवेन उसको दुबारा केंद्र में लाकर समीचीन बनाने का प्रयास क्रिया था. किंतु तत्कालीन समाज के लिए उस समय तक यह सिद्धांत चूंकि नया था, उसके लिए जिस प्रकार के ईमानदार प्रयास एवं लोकतांत्रिक परिवेश की आवश्यकता थी, उतनी जागरूकता ओवेन द्वारा बनाई गई समितियों के सदस्यों में नहीं थी. यहां तक कि ओवेन के साथी भी उस विचार को पूरी तरह आत्मसात नहीं कर पाए थे. 2. ओवेन का आंदोलन पूंजी अथवा उसके नाम पर किसी भी प्रकार के वर्चस्व के विरुद्ध था. वह पूंजी के संपूर्ण विकेंद्रीकरण का समर्थक था. चूंकि उन दिनों नई तकनीक का आगमन शुरू ही हुआ था, अतः उद्योगपति चाहते थे कि जितनी जल्दी हो सके, उच्च निवेश द्वारा खरीदी गई तकनीक से अधिकतम लाभ कमा लिया जाए. अतएव ओवेन का सर्वकल्याण के लिए देखा गया सपना और उसके लिए तात्कालिक रूप से किए गए प्रयास, पूंजीपतियों को अपने हितों के विरुद्ध जान पड़े. उस समय भी सरकारीतंत्र पर पूंजीवादियों का प्रभाव था. आवश्यकता पड़ने पर ओवेन ने अपने अभियान में जब सरकारी मदद की कोशिशें कीं, तो अपने प्रभाव का इस्तेमाल करते हुए पूंजीपतियों ने सरकार को विवश कर दिया कि वह ओवेन के प्रयासों को किसी भी प्रकार की सहायता या समर्थन आदि न दे. प्रशासन और सरकार पर अपनी पकड़ होने के बावजूद अपनी योजनाओं के समर्थन के लिए ओवेन सरकार और पूंजीपतियों पर किसी भी प्रकार का दबाव बनाने में असफल रहा. 3. ओवेन में संगठन क्षमता का अभाव था. तत्कालीन पूंजीपतियों ने ओवेन द्वारा बनाई गई समितियों से अच्छे और अधिक खपत वाले माल की थोक खरीद करने का भी षड्यंत्र किया, ताकि समिति के भंडारों पर उनकी कमी हो तथा लोगों का उनसे विश्वास कम हो. चूंकि उनके पास पर्याप्त पूंजी थी, तथा दीर्घकालिक लाभों के लिए वे तात्कालिक घाटा उठाने का सामर्थ्य भी रखते थे, अतः उन्हें अपने मकसद में सफलता भी मिली. परिणामत समिति के भंडारग्रहों, विक्रय केंद्रों पर आवश्यक वस्तुओं की कमी पड़ने लगी, जिससे उपभोक्ता बाजार की ओर मुड़ने लगे. ओवेन मजदूरों को पूंजीवादी शक्तियों के इस षड्यंत्र के विरुद्ध संगठित करने में नाकाम रहा. 4. हीगेल से प्रेरित कार्ल मार्क्स. एंजिल्स आदि विद्वानों के विचार अपेक्षाकृत उग्र थे. वे श्रमिकों को यह समझाने में सक्षम रहे थे कि उनकी समस्याओं का निदान केवल वर्ग-संघर्ष में निहित है. उन्होंने राबर्ट ओवेन, विलियम किंग आदि की ‘कल्पनाशील’ व्यक्ति कहकर खिल्ली उड़ाई थी, जिससे मजदूरों का बड़ा वर्ग कार्ल मार्क्स के विचारों की ओर झुकता चला गया. प्रूधों जैसे विद्वानों ने यद्यपि व्यक्तिगत संपत्ति को हेय बताते हुए उसकी निंदा की थी. उसके बरक्स पूंजीपति अपने उत्पादों को सामाजिक प्रतिष्ठा का प्रतीक बताने लगे थे. उनके प्रलोभनों के आगे जनसाधारण का बहकते जाना स्वाभाविक-सी बात थी. 6. ओवेन के प्रयासों की असफलता के पीछे एक कारण यह भी था कि वर्षों के शोषण एवं हताशा भरे जीवन ने मजदूरों-गरीबों को अकर्मण्य एवं भाग्यवादी बना दिया था. वे प्रायः अशिक्षित अथवा अल्पशिक्षित थे. उनमें पर्याप्त अधिकार चेतना एवं जागरूकता का अभाव था, जिसकी किसी भी आंदोलन की सफलता के लिए आवश्यकता थी. 7. सहकारी प्रयासों के प्रति सरकार की उदासीनता के चलते उसके लिए बाहरी पूंजी की आमद या अन्य स्रोतों से कर्ज मिलने की संभावना कम से कम थी. गरीब मजदूर इस स्थिति में नहीं थे कि वे अपने ओर से सुरक्षित निवेश के लिए आवश्यक धन का प्रबंध कर सकें. जैसा कि हमने रोशडेल पायनियर्स के प्रकरण में भी देखा कि अपना उद्यम प्रारंभ करने के लिए भी सदस्यों का जिस न्यूनतम निवेश की आवश्यकता थी, उतना प्रबंध करने की हैसियत भी मजदूरों की नहीं थी. ओवेन ने पूंजीपतियों से कल्याण कार्यक्रमों में धन लगाने के लिए अनुरोध किया था, जिसका बहुत कम प्रभाव पड़ा. पूंजी की कमी के कारण भी शुरू किए गए सहकारी प्रयास अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में असमर्थ रहे थे. हालांकि आगे चलकर, धीरे-धीरे ही सही, लोगों को सहकारिता की महत्ता समझ में आने लगी थी. यह भी सत्य है कि आपने प्रारंभिक वर्षों में सहकार एक प्रतिक्रियात्मक गतिविधि थी, जिसकी व्युत्पत्ति असमान विकास के कारण हुई थी; और उसको आगे बढ़ाने वाला वह वर्ग था, जिसके हितों को तीव्र मशीनीकरण ने आघात पहुंचाया था. औद्योगिक क्रांति ने नागरीकरण की गति को बढ़ावा तो दिया था, मगर उसका लाभ आमजन को नहीं मिल पा रहा था. इसके एक ओर तो सरकारी उपेक्षा, उदासीनता और उसकी अदूरदर्शी नीतियां थीं, दूसरी ओर मिल-मालिकों की न्यूनतम निवेश से अधिकतम लाभ कमाने की प्रवृत्ति और श्रमिक-कल्याण के प्रति उपेक्षा का भाव. इन सब कारणों से नगरों में आर्थिक विसंगतियां बहुत तेजी से बढ़ी थीं. एक तरफ गरीब बस्तियां…छोटे-छोटे घर, गंदगी-भरा माहौल और भुखमरी जैसी स्थितियां थीं, दूसरी ओर चिकनी सड़कें, गगनचुंबी अट्टालिकाएं तथा विलासिता के दूसरे साजोसामान थे. पूरा समाज जैसे दो वर्गों में बंट चुका था. एक तरफ धनाढ्य लोगों की बड़ी-बड़ी आलीशान कोठियां, भव्य प्रासाद आदि शोभायमान थे, तो दूसरी ओर कुकरमुत्तों की तरह उग आईं, गंदी स्लम बस्तियां, जिनमें सामान्य जनसुविधाओं का अभाव था. औद्योगिक क्रांति से शिल्पकारों से काम छिना था, मशीनीकरण से पहले जो शिल्पकार सम्मान का जीवन जी रहे थे, जिनका संगठित व्यापार देश-विदेश के बीच फैला हुआ था, उन्हें विवश होकर नौकरी से गुजारा करना पड़ रहा था. इससे मजदूर वर्ग की संख्या में तेजी से वृद्धि हुई थी, परिणामतः स्लम बस्तियों की संख्या में उत्तरोतर वृद्धि होती जा रही थी. उसी अनुपात में उनकी समस्याएं भी बढ़ती जा रही थीं. इसलिए लोगों का संगठित होना स्वाभाविक ही था. कोई भी नया आंदोलन जनमत के सहयोग के बिना नहीं चल पाता. ओवेन अच्छा पूंजीपति तो था, किंतु लोगों को प्रभावित करने की कला का उसमें अभाव था. इस कारण वह मजदूरों के मन में अपने कार्यक्रमों के प्रति विश्वास जगाने में नाकाम रहा था. कहीं न कहीं मजदूरों के मन मंे उसको लेकर संदेह बना हुआ था, दूसरी ओर पूंजीपति वर्ग भी उसको अपने हितों का विरोधी मान चुका था. ध्यातव्य है कि उन दिनों साम्यवाद का जोर था. हीगेल के दर्शन का राजनीतिक उपयोग करते हुए मार्क्स ने मजदूरों के कल्याण के लिए श्रमिकों तथा स्वामियों के संघर्ष को अनिवार्य बताया था, जिसे मजदूर वर्ग का पूरा समर्थन प्राप्त था. पूरी दुनिया में परिवर्तनकारी राजनीति का दौर चल रहा था. मार्क्स की प्रेरणा पर असंतुष्ट वर्ग लगातार संगठित होता जा रहा था. ओवेन ने मजदूरों की स्थिति के प्रति दयालुता का प्रदर्शन करते हुए उनकी स्थिति में सुधार के लिए अनेक कदम उठाए, किंतु अपनी कतिपय कमजोरियों के कारण वह श्रमशक्ति को आमूल परिवर्तन के लिए प्रेरित-संगठित कर पाने में असमर्थ रहा. अपनी असफलताओं एवं कतिपय कमजोरियों के बावजूद ओवेन ने जो किया, वह परिवर्तनकारी राजनीति के इतिहास में अनुपम है. उसने लंबा और कर्मयोगी जीवन जिया. समाज से जितना लिया, उससे अधिक लौटाने के लिए वह सदैव कृतसंकल्प बना रहा. मनुष्यता के भले के लिए कम से कम दो क्षेत्रों में उसका योगदान मौलिक अविस्मरणीय बना रहेगा. पहला शिक्षा के क्षेत्र में, उसने अपनी मिलों में काम करने वाले बालश्रमिकों की पढ़ाई की नियमित व्यवस्था की. उनके लिए पाठशालाएं खुलवाईं. और दूसरा सहकारिता के प्रचार-प्रसार में. उसने न केवल सहकारी समिति की स्थापना की, बल्कि मजूदरों के कल्याण के लिए National Equilable Labour Exchange की स्थापना भी की, जिसमें वस्तुओं का आदान-प्रदान उसमें लगी श्रमशक्ति के आधार पर किया जाता था. यह वस्तु विनिमय की तार्किक व्यवस्था थी, जिसमें किसी वस्तु के मूल्य का आकलन उसमें लगे श्रम-घंटों के अनुसार किया जाता था. ओवेन की ही प्रेरणा पर आगे चलकर रोशडेल पायनियर्स ने एक कामयाब सहकारी संगठन की नींव रखी, जो आगे चलकर सहकारिता आंदोलन के विकास में एक क्रांतिकारी प्रयास सिद्ध हुआ. राबर्ट ओवेन का प्रभाव राबर्ट ओवेन का पूरा जीवन संघर्षमय रहा. अपने विचारों को व्यावहारिक रूप से कामयाब बनाने के लिए वह आजीवन प्रयास करता रहा. ध्यातव्य है कि ओवेन का उद्देश्य मात्रा आर्थिक-सामाजिक विषमताओं का निर्मूलीकरण नहीं था, बल्कि समाज के चरित्र में परिवर्तन के माध्यम से मनुष्य की सहयोगकारी प्रवृत्ति को सभी कर्तव्यों के लिए नियामक बनाना था. वह एक गरीब परिवार से आया था. उसका बचपन अभावों में व्यतीत हुआ था. बावजूद इसके उसने अपने सपनों को कभी मरने नहीं दिया. अल्प आयु में ही वह नौकरी करने के लिए मजबूर हो गया. धार्मिक कर्मकांड में उसकी कोई आस्था नहीं थी, किंतु ईसाई धर्म के सेवा और कल्याण के सिद्धांत में वह विश्वास करता था और आजीवन उसी के लिए कार्य करता रहा. अपनी प्रतिभा, दूरदर्शिता तथा उद्यमशीलता के दम पर उसने खूब धनार्जन किया. मगर धन उसकी मनोवृत्ति को बदल पाने में असफल रहा. इसलिए कि उसके लिए धन साध्य न होकर साधन-मात्र था; जिसके द्वारा जीवन के उच्चतर उद्देश्यों की पूर्ति की जा सके, जिसके लिए वह आजीवन प्रयोग करता रहा. यह बात अलग है कि उनमें से एक में भी उसे स्थायी सफलता प्राप्त न हो सकी. इसके बावजूद उसके प्रयासों को निष्फल मान लेना उचित न होगा. अप्रत्यक्ष रूप से ही सही, ओवेन ने अपने समकालीन विचारकों को गहराई से प्रभावित किया था. उसने अपने बहुत से अनुयायी भी बनाए. उसने लोगों को प्रेरित किया कि वे ‘अधिकतम लोगों के अधिकतम सुख’ के लिए विकास की वैकल्पिक पद्धति को अपनाएं, जिसमें संसाधनों के विकेंद्रकरण पर जोर दिया जाता है. यहां यह स्वीकार करने में भी कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि एक विचारक के रूप में ओवेन में मौलिकता का अभाव था. उसने केवल प्रचलित विचारों के कार्यान्वन पर काम किया. इस मामले में वह अपने पूर्ववर्ती और समकालीन विचारकों से अलग और काफी आगे था. जिस रास्ते को दूसरे विचारक कोरा आदर्शवादी दृष्टिकोण, अव्यावहारिक और कल्पना की उड़ान कहकर टाल दिया करते थे, ओवेन उसी पर आजीवन निष्ठापूर्वक चलता रहा और ईमानदारी से नए-नए प्रयोग भी करता रहा. उसकी महानता इसमें है कि उसने मानव-कल्याण के जुड़े प्रत्येक पक्ष पर विचार करने के साथ-साथ, उसके के लिए कारगर योजनाएं भी बनाईं. जिनकी प्रेरणा से दुनिया-भर में एक नए आंदोलन का जन्म हो सका. ओवेन को एक ओर जहां सहकारिता आंदोलन का पितामह होने का गौरव प्राप्त है, वहीं शिशु पाठशालाओं को आरंभ करने का श्रेय भी उसी को जाता है. शिशु पाठशालाओं की स्थापना जैसे कल्याणकारी कदम उठाने के पीछे ओवेन की कोई व्यावसायिक महत्त्वाकांक्षा नहीं थी. इसके पीछे उसका लक्ष्य गरीब मजदूरों के बच्चों को शिक्षा से जोड़कर उन्हें बेहतर नागरिक बनाना था. यद्यपि ओवेन द्वारा प्रारंभिक वर्षों में श्रमिक कल्याण के नाम पर किए गए कार्यों के पीछे, कहीं न कहीं उसके व्यावसायिक हित छिपे थे. किंतु बाद में, विशेषकर सहकार बस्तियों की स्थापना के बाद मिली असफलता के पश्चात, वह पूरी तरह मानवतावादी हो गया था. अपने समस्त धन, कार्यक्षमता एवं ऊर्जा के साथ उसने समाज-कल्याण के कार्यों में हिस्सेदारी शुरू कर दी थी. अपने प्रयासों में उसे स्थायी सफलता भले ही न मिल पाई हो, मगर सहकार की ओर लोगों का ध्यान आकर्षित करने और उसके लिए अनुकूल वातावरण तैयार करने में वह अपेक्षित रूप से सफल रहा था. ओवेन के विचारों से प्रेरणा लेकर कालांतर में डा॓. विलियम किंग, फ्यूरियर, जोसेफ ब्लैंक, आदि ने सहकारिता के प्रयासों को आगे बढ़ाया. फ्यूरियर ने फ्रांस में सहकारिता आंदोलन को आगे बढ़ाने के लिए वही कार्य किया, जो इंग्लैंड में ओवेन द्वारा किया गया. दोनों में राबर्ट अधिक प्रयोगशील था, जबकि फ्यूरियर ने की पैठ सैद्धांतिक मामलों में अधिक थी. सहकारिता के सिद्धांत पक्ष को मजबूत करने के लिए उसने काफी कार्य किया था. डा॓. विलियम किंग ने सहकारिता के प्रचार के लिए ‘दि को-आपरेटर’ नामक समाचारपत्र निकाला और उसके माध्यम से सहकारिता और समाजवादी विचारधारा को जन-जन तक पहुंचाने का कार्य किया. लगभग उसी दौर में चार्ल्स हावर्थ, विलियम हूपर, आदि लंदन के अठाइस बुनकरों ने संगठित होकर रोशडेल पायनियर्स के नाम से एक बड़ी सहकारी संस्था की स्थापना की गई. हालांकि चार्ल्स हावर्थ उससे पहले भी एक और सहकारी समिति का गठन कर चुका था. लेकिन उसका पहला प्रयोग बुरी तरह असफल रहा था. उसके कारण हावर्थ को आर्थिक नुकसान भी उठाना पड़ा था. बाद में अपनी ही गलतियों से सबक लेते हुए हावर्थ ने अपने अठाइस मजदूर साथियों के साथ एक ओर समिति की स्थापना की. जिसकी कामयाबी ने सहकारी आंदोलन की ताकत से सारे विश्व को चौंका दिया. ओवेन ने सहकारी आंदोलन का सूत्रपात किया, किंतु आजीवन कोशिश तथा तमाम संसाधनों को झोंक देने के बाद भी उसे अपेक्षित सफलता नहीं मिल पाई थी. कारण संभवतः यह रहा कि समाज के बाकी लोगों का विश्वास जिनसे वह सहकार की अपेक्षा रखता था, जिनके माध्यम से आंदोलन को आगे बढ़ाना चाहता था और कदाचित जिन्हें उसकी सर्वाधिक आवश्यकता भी थी, उनका विश्वास जीत पाने में वह असमर्थ रहा था. उसकी मिल में काम करने वाले मजदूरों तथा सामान्यजन के मन में भी उसको लेकर किंचित संदेह की स्थिति बनी रही. दूसरी ओर मार्क्सवादी विद्वानों ने ओवेन, ब्लैंक, विलियम किंग आदि साहचर्य समाजवदियों की आलोचना करते हुए आरोप लगाया था कि उनके द्वारा दिखाया गया समाजवाद का सपना सिर्फ एक कल्पनालोक था. एक और बात जो ओवेन की सफलता के आड़े आई वह यह थी कि वह स्वयं एक उद्योगपति पहले था. अपने कारखानों में कार्यरत मजदूरों की स्थिति में सुधार के लिए उसने जितने भी कदम उठाए, उनसे उसके मुनाफे में कल्पनातीत वृद्धि हुई थी. इससे यह संकेत भी गया कि उसके द्वारा चलाया जाने सुधारवादी आंदोलन महज उसकी उत्पादन नीति का हिस्सा था. यह बात इससे भी सिद्ध होती थी कि ओवेन के कारखानों में अपेक्षाकृत पुरानी तकनीक पर आधारित मशीनें लगी थीं. उन्हें चलाने के लिए अधिक श्रम की आवश्यकता पड़ती थी. इसके बावजूद वही कारखाने मुनाफा उगल रहे थे. अतएव ओवेन के आलोचकों को यह कहने का अवसर भी मिल गया कि ओवेन द्वारा मजदूर-कल्याण के नाम पर उठाए जा रहे सभी कदम, पुरानी तकनीक से ध्यान हटाने की कोशिश हैं. इसके साथ कहीं न कहीं यह विचार भी हवा में था कि सहकारिता आंदोलन को मुख्यतः बड़ी सहकार बस्तियों, जिन्हें फ्लेंथ्रापी कहा जाता था, के माध्यम से ही आगे बढ़ाया जा सकता है अर्थात कहीं न कहीं उस आंदोलन को समाज के संपन्न वर्ग और उसकी दयालुता के साथ जोड़ा गया था. जनसामान्य के मन में आत्मविश्वास पैदा कर उसे स्वयं अपनी स्थिति के प्रति जागरूक बनाने तथा समस्याओं के निस्तारण के लिए बिना किसी की सहायता से आगे बढ़ने का विचार उस समय तक आम नहीं हो पाया था. इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि अठारहवीं शताब्दी तक दुनिया के सभी देशों में सामंतवाद का बोलबाला था. राजसत्ता और राजनीति समेत अनेक स्तरों पर हुआ. सामाजिक स्तर पर वर्ग और जाति बनाकर, धर्मसत्ता निहित स्वार्थों के लिए आमजन के शोषण में लिप्त थे. ऐसे परिवेश में सहकार को लोक-प्रचलन में लाने, केंद्रीय व्यवस्था बनाने के लिए उसपर व्यावहारिक और सैद्धांतिक दोनों स्तर पर काम करने की आवश्यकता थी. इसी आवश्यकता की पूर्ति के लिए संत साइमन, फूरियर, विलियम किंग, लुइस ब्लैंक, प्रूधों आदि विद्वानों ने सहकारिता आंदोलन को स्थापित करने के लिए भिन्न-भिन्न स्तर पर कार्य किया. उसे एक ओर जहां पुष्ट वैचारिक आधार देने का काम इन विचारको ने किया, वहीं व्यावहारिक रूप से सहकारी समितियों का गठन करके आंदोलन को आगे ले जाने की योजनाओं को भी बाखूबी अंजाम दिया गया. प्रारंभिक दौर में हालांकि सफलताएं हल्की-फुल्की रहीं, किंतु उन्हें आधार मानकर जो भूमिका गढ़ी गई, आगे चलकर उसी के आधार पर नए समाज का जन्म संभव हो सका. इन विचारकों की महत्ता इस अर्थ में है कि उन्होंने सहकारिता का सैद्धांतिक स्वरूप स्पष्ट करने में अपनी प्रतिभा से योगदान दिया, जिससे सहकारिता को शास्त्रीय मान्यता मिलने लगी. परिणामतः उसके आलोचकों को जवाब देना आसान हुआ, साथ ही वैकल्पिक अर्थदर्शन को मजबूत आधार मिला. यद्यपि मैकाले जैसे साम्राज्यवाद के समर्थक लोग, काल्पनिक समाजवादी कहकर उनका मजाक भी उड़ाते रहे, शायद इसलिए कि विकास के प्रति साहचर्य समाजवादियों का दृष्टिकोण बहुत कुछ आदर्शवादिता का शिकार था. या इसलिए कि वह अनोखा और अधुनातन था. क्योंकि उससे पहले तक सभ्यता के आरंभ, यानी जहां तक भी उनकी निगाह जाती थी, उन्होंने शिखर पर कुछ ही लोगों को विराजमान देखा था. दुनिया-भर का इतिहास किसी न किसी महानायक की या तो प्रणयगाथा है, उसका विजय अभियान या फिर पराभव की दारुण कथा. उसी को पढ़कर उनका मानस विकसित हुआ था. विकास के लिए जरूरी संसाधन आज भी उन्हीं लोगों के पास थे, इसलिए उनके लिए उनके लिए यह संभव भी न था कि एकएक अपने संस्कारों के दबाव से हटकर सोच सकें. संभव है कि त्वरित परिवर्तनों के कारण स्थिति में बदलाव का डर भी उन्हें प्रतिकूल विचारों से दूर रखने का एक कारण रहा हो. ऐसे लोगों के लिए यह कल्पना करना बहुत ही कठिन था कि जनसाधारण जो अभी तक दूसरों की दया-दृष्टि पर निर्भर रहा है, वह न केवल अपना बल्कि पूरे राष्ट्र का भाग्यविधाता भी बन सकता है. राजनीतिक दृष्टि से देखें तो यह राज्य के राष्ट्र में परिवर्तित होते जाने की घटना थी, जिसने आम आदमी को केंद्र में लाकर महत्त्वपूर्ण बनाने का कार्य किया था. जो हो, उस समय परिवर्तन की डोर ऐसे समाजवादी चिंतकों के हाथ में थी, जिनकी प्रतिबद्धता किसी एक सत्ता-प्रतिष्ठान या व्यक्ति विशेष के प्रति न होकर पूरे समाज के प्रति थी. व्यक्तिवादी विचारों के प्रति समाज की आग्रहशीलता ने भी इन बदलावों को आगे ले जाने में मदद की थी. ध्यान रहे कि व्यक्तिवाद के समर्थन में सबसे पहले पूंजीपति ही आगे आए थे. कहा जा सकता है कि यह विचार उन्हीं के पोषित विद्वानों द्वारा समाज में आरोपित किया गया था. क्योंकि व्यक्तिवाद प्रकारांतर में उपभोक्तावाद का ही एक रूप था, जो कि मशीनों द्वारा सघन उत्पादन के सिद्धांत के आधार पर बनाए जा रहे उत्पादों की खपत के लिए अत्यावश्यक माना गया था. यह सोचकर कि अपने समूह या समाज की और झांकते रहने वाला व्यक्ति अच्छा उपभोक्ता नहीं बन सकता, पूंजीपतियों तथा उनके पिट्ठू विद्वानों व्यक्तिवाद का गुणगान किया जाने लगा था. किंतु शिक्षा के प्रचार-प्रसार के साथ, नई व्यक्तिवादी विचारचेतना ने पूंजीवाद के समक्ष ही चुनौतियां पेश कर दी थीं. अपनी विपुल नागरिक संख्या तथा उसकी संगठन क्षमता के चलते, अब वह अपनी राह अलग बनाना चाहता था. कहना न होगा कि मध्यवर्गी चेतना को ऐसा करने का अवसर भी पूंजीवाद और उसकी समर्थक शक्तियों ने ही दिया था. एक ओर शिखर पर छा जाने की की लालसा ने उद्योगपतियों को अधिक लालची और अमानवीय बनाया था, दूसरी ओर अंधाधुध मशीनीकरण ने बेरोजगारी को बढ़ावा देकर सामाजिक असंतोष में वृद्धि कर दी थी. स्थिति उस सपने से एकदम अलग थी, जो मशीनीकरण के आगमन के समय लोगों को दिखाया गया था. विकास के सभी दावे जो औद्योगिकीकरण के साथ सरकार और पूंजीपतियों द्वारा जनता से किए गए थे, वे सभी व्यर्थ सिद्ध हो चुके थे, जिससे समाज में खदबदाहट थी. इसी असंतोष और बढ़ती जनाकांक्षाओं को व्यक्तिस्वातंत्र्य के हिमायती विचारक सामाजिक परिवर्तन का औजार बनाने का प्रयास कर रहे थे. वे अधिकांशतः कविहृदय, भावुकता और संवेदनाओं से भरे थे और एक नए समरस सौहार्दपूर्ण समाज का सपना देखते थे. यह उम्मीद करते थे कि महज सामूहिक प्रयासों से, बगैर राजसत्ता और दूसरे शक्ति केंद्रों की मदद के, एक समानता-आधारित समाज के सपने को सच किया जा सकता है. जिन लोगों से वे यह उम्मीद बांधे हुए थे, वे सभी साधनविहीन विपन्न, इधर-उधर बिखरे कलाकार, असंगठित मजदूर, बेरोजगार शिल्पकार, गरीब कामगार आदि थे, जिनमें से अधिकांश अशिक्षित या अल्पशिक्षित थे. एक खामाख्याली भी उन लोगों को थी कि पूंजीपति और संपन्न लोग इनकी बातों में आकर अपनी समस्त संपत्ति इनके कहने पर न्योछावर कर देंगे. वे यह भी सोच बैठे थे कि अपने अतिसीमित संसाधनों, किंतु विपुल जनसंख्याबल के आधार पर बड़े पूंजीपतियों और उनके भारी-भरकम कारखानों को टक्कर दे सकते हैं. दूसरी ओर समाज के बड़े वर्ग का सोच तब भी पूरी तरह सामंतवादी और पुरातन था. औद्योगिक क्रांति एवं नए आविष्कारों का लाभ उठाकर सामंत और रजबाड़े अपनी पूंजी का निवेश नए-नए कारखानों को आगे बढ़ाने में कर रहे थे, उनके पास विपुल संसाधन थे और एकजुटता भी. समाज में लोकतंत्र की बयार से घबराए वे लोग उत्पादन के नए साधनों में निवेश बढ़ा रहे थे. बदलाव का जो सपना औद्योगिकीकरण के साथ देखा गया था, वह सिर्फ अपना चोला बदल रहा था. सामंतवादी नख-दंत कूटनीति के ला॓कर में छिपाए जा रहे थे. उनके स्थान पर यत्नपूर्वक डिजाइन की गई मा॓डली मुस्कान को होठों पर चस्पां किया जा रहा था. बावजूद इसके समाजवादी विचारकों का मानना था कि परिवर्तन संभव है, क्योंकि वास्तविक शक्ति जनता के हाथों में है. इस विचारधारा के पीछे मार्टिन लूथर किंग, रूसो, वाल्तेयर, आदि की प्रेरणा थी और बैंथम, जेम्स मिल, फ्यूरियर, प्रूधों आदि का योगदान, जिसने जनतांत्रिक विचारों को आगे बढ़ाने में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया था. प्रकारांतर में इन वैचारिक आंदोलनों का सहकारिता को भी भरपूर लाभ मिला. राबर्ट ओवेन ने सहकरिता के क्षेत्र में मौलिक प्रयोग किए. उसने अपनी मिलों में काम करने वाले कारीगरों को मानवीय वातावरण प्रदान करने की कोशिश की. मजदूर बच्चों को शिक्षा देने के लिए पाठशालाएं खुलवाईं, इसीलिए उसको सहकारिता के साथ-साथ शिशु शिक्षा केंद्रों का जनक भी माना जाता है. ओवेन के प्रयासों का मजदूरों की ओर से भी स्वागत किया गया, जिससे उसका उत्पादन स्तर लगातार बढ़ता चला गया. यहां तक कि इंग्लैंड में आई भयंकर मंदी के दौर में उसकी मिलें मुनाफा उगल रही थीं. ओवेन की सफलता ने उसके आलोचकों का मुंह बंद कर दिया था. उससे समाजवादी विचारकों को दोहरा लाभ मिला था. एक तो वे यह बात उदाहरण देकर समझा सकते थे कि मजदूरों को दी जाने वाली सुविधाएं अनुत्पादक नहीं हैं. वे भी एक प्रकार का निवेश हैं, जिनके आधार पर लाभानुपात को बढ़ाया जा सकता है. दूसरे सहकारी प्रयासों से, भले ही वे प्राथमिक स्तर पर किए गए थे और कालांतर में असफल भी सिद्ध हुए थे, श्रमिक वर्ग में एक नई चेतना का प्रादुर्भाव हुआ था. उन्होंने अपने श्रम के मूल्य को समझा, संगठन की शक्ति को पहचाना और पाया कि उन्हीं के श्रम पर भारी मुनाफा कमाने वाला पूंजीपति वर्ग, उसका वास्तविक मूल्य देने से कतराता है. उसका राजनीतिक निकष् साम्यवाद के रूप में तथा वाणिज्यिक परिणाम सहकारिता की स्थापना का कारण बना. इस तरह नए विचार की स्थापना के लिए जिस प्रकार के माहौल की आवश्यकता होती है, वह प्राथमिक स्तर पर ही सही, धीरे-धीरे बनने लगा था. या कहें कि अनुभवों के दौर से गुजर रहा था. यही कारण है कि ओवेन को मिली असफलता के बावजूद नई सहकारी समितियां बनने का सिलसिला बंद होने या हल्का पड़ने के बजाय उत्तरोत्तर बढ़ता ही जा रहा था. ओवेन के तुरंत बाद विलियम किंग ने दो सहकारी समितियों का गठन किया था. हालांकि उसका प्रयास भी असफल रहा था. लगभग उन्हीं दिनों इंग्लैंड में टोड लेन के बेरोजगार मजदूर बढ़ती महंगाई से त्रस्त होेकर कुछ नया करने को संकल्पबद्ध हो रहे थे. उनमें कुछ सहकारिता के लिए एकदम नए थे, तो कुछ अपने अपने अनुभव का लाभ उठाकर पिछली पराजय के दाग धो डालना चाहते थे. उनके प्रयासों की परिणति 1844 में एक कामयाब सहकारी संस्था के रूप में हुई. रोशडेल पायनियर्स को मिली सफलता से एक बात और भी साफ हो गई थी कि सहकार में सफलता तभी संभव है, जब उसकी शुरुआत वह स्वयंस्फूर्त भाव से की गई हो. ध्यान रहे कि इससे पहले के सभी प्रयास या तो ओवेन जैसे दयालु उद्यमियों की देन थे अथवा ब्लैंक, फ्यूरियर और विलियम किंग जैसे बुद्धिजीवियों-विचारकों के. रोशडेल पायनियर्स के रूप में पहली बार मजदूर-कारीगर स्वयं संगठित होकर आगे आए थे. चूंकि वे सभी औद्योगिक परिवेश से परिचित थे, इसीलिए समिति को उन्होंने एक नैतिक-व्यावसायिक आधार देने का प्रयास किया था. उनका प्रयास सफल रहा और वही भविष्य के सहकारिता आंदोलन के लिए दिशानिर्देशक बनकर आगे बढ़ चला. उनीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में सहकारिता आंदोलन को पूरे विश्व में प्राथमिकता मिलने के पीछे एक कारण सरकारों का यह डर भी था, कि बढ़ती लोकचेतना के दबाव के आगे आम नागरिकों की उपेक्षा लंबे समय तक कर पाना संभव न होगा. क्योंकि उन्हीं दिनों राजनीति पर अस्तित्ववादी एवं साम्यवादी विचारों की झलक साफ दिखने लगी थी. लेनिन, मार्क्स, फ्रैड्रिक ऐंग्लस, आल्वेयर कामू, नीत्शे, मिल आदि विद्वान एक ओर जहां व्यक्तिवादी चिंतन को विस्तार दे रहे थे, वहीं दूसरी ओर वे पूर्ण समाजवादी राज्य की स्थापना के लिए मजदूरों का आवाह्न भी कर रहे थे, जिसका असर तत्कालीन वैश्विक राजनीति पर साफ दिखने लगा था. इसलिए जनाक्रोश को रोके रखने के लिए साम्राज्यवादी, सामंतवादी और राजशाही समर्थकों का झुकाव भी सहकारिता आंदोलन की ओर दिखने लगा था. क्योंकि सहकारिता ही ऐसा आंदोलन था जो उफनते जनाक्रोश को सकारात्मक दिशा देने में सक्षम था. सहकारिता न केवल लोकसामथ्र्य का उपयोग उद्यमिता के विकास हेतु करने के लिए सहकारिता बेहतरीन विकल्प थी, अपितु बदलते आर्थिक परिवेश में वह राष्ट्र को विकास की पटरी पर बनाए रखकर उसे बाकी दुनिया के साथ-साथ आगे ले जाने में भी कामयाब हो सकती थी. यही कारण है कि सहकारिता को वैश्विक समर्थन मिलता चला गया. यह समाज की संगठित ऊर्जा को सकारात्मक दिशा देकर उसको उपयोगी कार्य में लगाने का उद्यम भी था. इस शृंखला में हमने अभी तक अपना अध्ययन केवल यूरोपीय विचारकों तक सीमित रखा है. ऐसा हरगिज नहीं है कि जिस उदारवादी सर्वतोन्मुखी कल्याणकारी विचारधारा का प्रतिनिधित्व पश्चिमी विचारक कर रहे थे, उसका भारत और एशियाई देशों में अभाव था. पश्चिमी देशों में फूट रही ज्ञान की उजली रोशनी के सापेक्ष हमारे यहां केवल अंधकार, वैचारिक जड़ता व्याप्त थी. यहां हमें ध्यान रखना होगा कि भारत समेत लगभग संपूर्ण दक्षिण एशिया उन दिनों ब्रिटिश उपनिवेश था और कमजोर, परंतत्र जातियां हताशा में अपने धर्म और संस्कृति की ओर झुक जाती हैं. राजनीतिक सम्मान गवां देने के बाद सांस्कृतिक मूल्यों को बचाने का संघर्ष प्रारंभ हो जाता है. सभी पुरातन समाजों में एक परजीवी-वर्ग भी रहा है, जिसका काम तो मनुष्य की आध्यात्मिक जिज्ञासाओं का समाधान करना होता है, लेकिन वह धीरे-धीरे कर्मकांड तथा दूसरे अनुष्ठानों के जरिए पूरी जीवनपद्धति पर कब्जा जमाए रहता है. धर्म और संस्कृति की रक्षा के नाम पर वह निहित स्वार्थों का ही पोषण करता है. परतंत्रता के दौर में निराशा में डूबा समाज इसी वर्ग के पास उम्मीद की आस लेकर आता है, किंतु भ्रमों का शिकार होता है. स्वार्थ में डूबा वह परजीवी वर्ग लोगों को अतीतोन्मुखी बनाए रखता है. इससे मौलिक चिंतन की संभावना क्षीण होती चली जाती है. फिर भारत जैसे विशाल भूभाग, विविध संस्कृतियों से युक्त देश ने तो शताब्दियों लंबी गुलामी देखी थी. इसलिए यहां मध्यकाल में मौलिक चिंतन का अभाव रहा है. इस बीच स्थानीय स्तर पर जो प्रयास हुए, ज्ञान की वर्तिकाएं जलीं, विपरीत वातावरण के कारण वह उन्हें भी दुनिया तक पहुंचाने में असफल रहा. समाज का जातीय स्तर पर विभाजन भी मौलिक ज्ञान की खोज में बाधक बना. लंबे समय तक धर्म-ग्रंथों को रट्टा मार कर पढ़ लेना ही यहां विद्वता का प्रतीक माना जाता रहा. उसी के दम पर समाज का एक वर्ग लंबे समय यहां के बौद्धिक और सांस्कृतिक नेतृत्व को संभाले रहा. उस अवस्था में मौलिकता की खोज तथा उसको सम्मान मिल पाना असंभव ही रहा. प्राचीन और मध्यकालीन भारत में स्थानीय स्तर पर व्यापारियों और उद्यमियों के बीच ऐसे संबंध खूब बने जो आधुनिक सहकारिता के सिद्धांत के अनुरूप भले ही न हों, मगर उसकी भावना के बहुत करीब थे. क्षेत्रीय स्तर पर विशेषकर ग्रामीण समाज में, सहकारिता पर आधारित आत्मनिर्भर समूहों की उपस्थिति प्रायः हरेक युग में बनी रही. ‘कामये दुःखताप्तनाम्, प्राणिनाम् आर्तिनाशनम्’ की कामना भारतीय जनसंस्कृति का प्रधान लक्षण रही है. भारतीय संस्कृति में धनार्जन को चार पुरुषार्थों में से एक तो जाना गया, परंतु भारतीय वांङ्मय में धन को वैसी महत्ता कभी नहीं मिल सकी, जो संतोष और अपरिग्रह को सहज ही उपलब्ध रही. आवश्यकता से अधिक संचय करने वाला यहां चोर माना गया है. श्रीमद्भागवत् में कहा गया है कि— ‘मनुष्य को केवल उतना प्राप्त करने का अधिकार है, जितने से उसका पेट भर सके, उससे अधिक संचय करने वाला व्यक्ति चोर है, दंडनीय है.’ ऐसा भी नहीं है कि सुखवादी परंपरा जिसका अनुसरण करते हुए मिल, बैंथम आदि विद्वानों ने पश्चिमी जगत में वैचारिक क्रांति को जन्म दिया, उसका भारत में कोई स्थान नहीं है या भारतीय विद्वान उससे अपरिचित थे. बल्कि बैंथम से हजारों साल पहले भारत में यह परंपरा चार्वाक या लोकायत दर्शन के नाम से प्रसिद्ध थी, और जनमानस में उसका पर्याप्त प्रचार-प्रसार था. किंतु यहां की परिस्थितियों में बहुत अधिक प्रचलित नहीं हो सकी. सत्ता तथा धर्म की स्वार्थी गठजोड़ ने ऐसे विचारों की हमेशा भर्त्सना की, यद्यपि आचरण में वे सभी लोकायती ही बने रहे. जो हो भौतिकवादी विचारधारा भारतीय संस्कृति का कभी सम्मानजनक हिस्सा नहीं बन सकी. चाहें तो हम यह भी कह सकते हैं कि वह कभी भी मुख्यधारा में नहीं आ सकी. इसका कारण यह है कि भारतीय परंपरा में धर्म और दर्शन के क्षेत्र में जितना विचार हुआ, उसका एक अंश भी आर्थिक विचारों के क्षेत्र में नहीं हो सका. एकमात्र कौटिल्य के अर्थशास्त्र के सहारे इस देश को अर्थविज्ञानी सिद्ध करने के प्रयास शताब्दियों होते रहे; और किसी न किसी बहाने आज भी जारी हैं. इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि आर्थिक मामलों को व्यवहार का हिस्सा मानते हुए उसको लिखकर सुरक्षित रखने से भी लोग बचते रहे हों. तो भी प्रोफेसर आर. सी. माजूमदार जैसे विद्वानों ने प्राचीन भारत में आर्थिक परिवेश का गंभीर और प्रामाणिक अध्ययन किया है. कौटिल्य के ‘अर्थशास्त्र’ में व्यापारिक श्रेणियों अथवा गिल्डों का उल्लेख किया गया है, जिनको आधुनिक सहकारी समितियों के प्रारंभिक रूप कहा जा सकता है. गुप्तकाल और बाद में मुगलकाल में भी स्थानीय स्तर पर अर्थव्यवस्था की स्थिति मजबूत रही है. डा॓. सत्यकेतु विद्यालंकार जैसे विद्वानों का तो मानना है कि सहयोगी संगठन बनाकर व्यावार की शुरुआत भारत में वैदिक युग में भी आरंभ हो चुकी थी. सहकारिता के प्राचीन भारतीय स्वरूप का उल्लेख करते हुए वे लिखते हैं— ‘उत्तर-वैदिक युग में ही विविध शिल्पों का अनुसरण करने वाले सर्वसाधरण जनता के व्यक्ति अपने संगठन बनाकर आर्थिक उत्पादन में तत्पर हो गए थे. यह स्वाभाविक था, क्योंकि शिल्पियों के लिए पूर्णतया स्वच्छंद रूप से कार्य कर सकना संभव भी नहीं था. संगठित होकर ही वे अपने कार्य को सुचारू रूप से संपादित कर सकते थे.’ ओवेन के द्वारा बसाई की बस्तियां, सहकारी उद्यम हालांकि बहुत लंबे समय तक कामयाब नहीं रह सके, बावजूद इसके सहजीवन के उसके विचार को विश्वव्यापी सराहना मिली. आगे चलकर दुनियाभर में विचारकों और सामाजिक आंदोलनकर्मियों ने सहजीवन को विस्तार देने के लिए ऐसी ही अनेक बस्तियों की स्थापना की. भारत में देवेंद्रनाथ ठाकुर, महात्मा गांधी, विनोबा भावे ने जगह-जगह पर सहजीवन को आगे बढ़ाने के लिए आश्रमों की स्थापना की.